रामायण
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पुस्तक परिचय
नेपाशी”' ( मूलपाठ सहित हिन्दी अनुवाद )च् खिनोढ चन्द्र दाण्डे 1511ः परै उत्तराधिकयरी सै नेपाली कवी गाएरयथ कममसप्ुकिदमी जमा. ।रथ । गरु हवन भेट प्राप्त छन्द फु अनुवादकश्री नन्दकुमार आमात्यसुश्री तपेश्वरी आमात्य प्रकाशक मुवन वाणी ट्रस्ट वर्तमान पताः-- मौसम बाग्र (सीतापुर रोड), लखनङ-२२६०२० "1117जँढ “09, 2२ गर हो07005006. ।10.न्ट्रु कि चहल [जि02 हे2) केन्या कि71 । प्रत्येक क्षेत्र, प्रत्येक संत की वानी ।सम्पूर्ण विश्व मैं घर-घर है पढुचानी ॥ " प्रथम संस्करण--- १९७६ $ई०पृष्ठसंख्या-- १५१९२२-२-पच्२ ४४मूल्य-- ३०:०० रुपया मुद्रक वाणी प्रष्त अभाकर तिलयम्', ४०५|१२५, चौपटियाँ रोड) लखनठ--२२६००३
ग्रन्थ- विमौचेच
1 कर्नाटक प्रदेश के महामहिम राज्ययाल . हिश्री पं० उमाशंकर दीक्षित के 00कर-कमलों ढ्वारा॥ चयन पाण्डे खा सैक्की स्मृति भे उत्तराधिकार/ बारती अकाटमी जसपुर र । यु मुनरव को ५
विषय-सूचौं
विषय . पृष्ठ-संख्याग्रन्थ-विमोचन--महामहिम राज्यपाल श्री उमाशंकर दीक्षित ३विषयसूची ४माल्यापँण डाँ० राजेनद्रकुमारी बाजपेयी ष्समपेण ६भारत-नेपाल सैत्ली युग-युग सम्म अमर रहोस् ७उपहार परप्रकाशकीय ९-१६आमुख--अनुवाद १७ग्रन्थारम्भ एवं ' श्रीरामपञ्चायतन " का चिल्न १५बालकाण्ड १९अयोध्याकाण्ड ५४अरण्यकाण्ड पाकिष्किन्धाकाण्ड ११२सुन्दरकाण्ड , - १४७युद्धकाण्ड ॥ - १०५ उत्तरकाण्ड 1000 २०१
परमविदुषी डाँ० राजेन्द्रकुमारी वाजपेयी
भै“ केस अन सं कककललकलक छठ छलप्ठठरीहै कद छुँ पक नेपाली काव्य क; ईन माननीया स्वायत्तशासन संत्ली, उत्तरप्रदेश, परमविदुषी डौं० राजेन्द्रकुमारीवाजपेयी को भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनक की ओर से, अपने अद्वितीय- भाषाई-सेतुबन्ध मै नवीन शिलापंण स्वखूप “नेपाली का यहअनुपम ग्रन्थ “भानुभक्त रामायण" सादर माल्यापित । २९ जून, १९७६ 0 ३००९रथयात्वा दिवस ति ७10 प्रतिष्ठाता--भुवन वाणी ट्रस्ट, लखवञ--२
समर्पण
श्री भानुभक्त ! संस्कृत भापा म ही परिसीमित पुप्कल रामचरित्को, विभिन्न भापाई अञ्चलो के अन्य रामायण-रचयिताओंकी भाँति, आफ्ने भी जतभापा मैं प्रस्तुत करके, सामान्यजनता के प्रति अनन्य उपकार किया हे । हे नेपाल के तुलसी ! आपके अनुपम काव्प का मूल नेपाली पाठ सहितयह् हिन्दी अनुवाद “भानुभक्त रामायण" आपही कोसादर समपित है । नन्दकुमार अवस्थीमुव्यन्यासी सभापतिभुवन वाणी ट्रस्ट, लबनअ-२३ . भारतनेपाल मैतीयुग-मुग सम्म भमर रहोस् श्री ९ महाराजाधिराज वीरेन्द्र विक्रमशाहृदेव, नेपाल को भारत कीओर से सस्नेह् उपहार ।
प्रस्तावना
वाणी, भाषा और लिपि, मन के भावों और उद्गारों को मुख से प्रकट करना, यही वाणीहै। पशु, पक्षी अथवा मन्नुष्यो मै जब कोई वग, एक प्रकार की वाणीबोलता है, उस बोली से परस्पर भावों को कहता, सुनता और समझताहै, तब वाणी के उस 'प्रकार' को उस विशिष्ट-वगै की भाषाकी संज्चादीजाती है। और उसी भाषाको जब चिल्लों-आक्नतियों मैं लिखकर प्रकटकिया जाता है, तब उन्ही चिल्लो और आक्नतियों को उस भाषा-विशेष कीलिपि कहा जाता है। २ कुछ विद्वानौं के मत से धरातल पर पृथक्-पृथक् भुखण्डों मै विभिन्नसमयों पर मातवों की सृष्टि औरविकास होता रहाहै। वेसब एकही स्थान पर एक ही मानव से सप्पन्न॥ नही हैँ। फलतः उन सब की४ - भाषाएँ भी एक दूसरे से बिलकुलपृथक् और स्वतंत्र हैँ। इन पृथक्कुलौं को ये विद्वान् आयं, मंगोल,सैमेटिक, हेमेटिक, द्रविड आदि कीसंज्ञा देते हैँ। ,किन्तु भारतीय मत की घोषणाइसके विपरीत है, और इस्लामी तथास्प्रीष्ट मान्यता भी उसका अनुमोदनकरती है। इस मत के अनुसार- सारी मानव जाति एक ही मूल पुरुषमनु अथवा आदम की सन्तान होकर मानव अथवा आदमी कहलायी ।कालान्तर मैं विभिन्न भुखण्डो मै फेलने, एक दसरे .से अलग-थलग होने,और वहाँ की विशिष्ट जलवायु और संस्कारौं से प्रभावित होनि के फल-स्वरूप वह मानव जाति अनेक रूप, रंग, आकार और बोलियों मै विभक्तहोती गयी। यह परिवतेन लोखों वर्षो से चलते आ रहे है और इसलिएउन मानव-समूहो के रूप, रंग, आकार और बोलियो के अन्तर भी इतनेजटिल हो गये हैं कि ज्ञान की उपेक्षा करनेवाले और केवल तक,
[१०] अनुमान) प्रयोग, अनुसंधान आदि भौतिक साधनों को ही ज्ञान मानकर्उन पर निर्भर रहनेवाले पाश्चात्य विद्वानौं तथा उनके अनुवेर्ती भारतीयोंका च्रमित हो जाना स्वाभाविक होहै। यह बात इनसे ओझल होजाती है कि कितना भी बडा वैषम्य इन जातियों के लक्षणों मै दिखाईदेता हो, उनकी आक्नतियों और भाषाओं मैँ कुछ ऐसे तथ्य लाखौं वर्षबाद भी झलकते है जो सारी मानव जाति को किसी पुरातन काल मेंएक मूल मानव का पितृत्व प्रदान करते हँ। भारतीय वाङमय के सृष्टिक्रम-सम्बन्धी विशाल.ज्ञानकोश को विस्तार-भय से किनारे भी रखदै, तो भी जन-साधारण की समझ मैं आनेवालीकुछ बाते तो हमारे मत की पुष्टि करती ही हैँ। उदाहरण के लिए--(१) द्रविडकुल की भाषाएँ आयंकुल की भापाऔँ से पाश्चात्य मत मेंमूलतः पृथक् मानी गयी हैँ। किन्तु संस्कृत की वर्णाक्षरी, उनका वर्गीकरणतथा लिपिका बायें से दाहिने लिखा जाना दोनों कुलो मै समान ही हैँ।इसके विपरीत, आयंकुल की फारसी जैसी अनेक भाषाओं का खरोष्टी लिपिमैं (दाये से बाये) लिखा जाना और वर्णो की संख्या, क्रम, वर्गीकरण आदिमैं बडा अन्तर है। (२) अरबी और संस्क्कत की शब्दावली और लिपि मैंनाममात्न को भी मेल नहीं है, किन्तु उनकी व्याकरण में वड्डी समानता है,जबकि संस्कृत का अपने आर्यकुल ही की अन्य भाषाओं के व्याकरण सेसाम्य नगण्य साहै। (३) उत्तर-पर्शिचम मैं सुदूरस्थ ईरान की अबेस्ताऔर गाथाओं की भापा मैं असुरका अहुर उच्चारणहै। वीचके पूरेआर्यावत्तै मै इसका अभाव होने के बाद उत्तर-पूर्व मै असम प्रदेश मैं फिरदस को दह् और गोसाईइँ को गोहाईँ बोलते हैँ। (४) नेपाल के आदिमनिवासी तथाकथित आर्यकुल के रूप, आक्रति से सर्वथा भिन्न हैँ। किन्तु वहाँकुछ ही समय से आवाद आयंकुल के राज-परिवार तथा राना-परिवार कीआक्कतियों पर नेपाली प्रभाव प्रत्यक्ष है; आदि, आदि । भारतीय भाषाएँ हि अस्तु, जब मानव मात्न एक मनु (आदम) की सन्तान है और आजपृथ्वी पर उपलव्ध विविध भाषा और बोलियों का आदि-स्रोत एक डै,तब भारत के निवासियों और भारतीय भाषाओं को मूलतः पृथक् मानना,उनका बुनियादी वर्गीकरण करना कहाँ तक समुचित है? जहाँ तकहिन्दी, गुरमुखी, सिन्धी, राजस्थानी, ओड्या, बंगला, असमिया, गुजराती,मराठी, कश्मीरी, मैथिली, नेपाली, सिंहली आदि भाषाओं, लिपियींअथवा बोलियो का सम्बन्ध है इन सब की वरणमाला, शब्दावली, व्याकरण' आदि मैं इतना अधिक साम्य है कि उनको एक परिवार से बाह्र समझने [११] २ की रत्ती भर गुजाइश नहीँ। ये सभी प्राचीन संस्कृत की पौती औरभारतीय जनपदो में शौरसेनी, मागधी, महाराष्ट्री आदि प्राक्गत अथवा उनकेअपश्रंशों की पुव्रियाँ हँ। उर्दू को तो हिन्दी से पृथक् मानना ही भुल है। उसका तो हिन्दीसे वही सम्ब्रन्ध है जो एक रूह का दो क्रालिब से--एक प्राण का दो शरीरसे। अरबी लिपि मैँ लिखी जाने अथवा अरबी-फारसी भाषाओं के शब्दोंके अधिक समाविष्ट हो जाने से उसे गैर भाषा समझना भूलहै।कदाचित् लोगों को कम पताहै कि नगरौं मैं नही, ग्रामों तक में त्ित्यबोली जानेवाली और हिन्दी कही जानेवाली भाषा मैं एक तिह्ाईसेअधिक एब्द म्षरबी, फारसी, तुर्की आदिके बार-बार बोले जाते हैँ।उनमेँ ऐसे भी अरबी शब्दों की भरमार है जिनको लोग ठेठहिन्दीकी"सम्पत्ति समझने लगे हुँ, उनके अ्रबी-फ्रारसी होने की कल्पना भी नहींकरते । जैसे हलुआ, साइत (मुहत्ते), मेहरिया, हमेल, तरह, अन्दर' अगर, अचार, अजगर, अतलस, अबीर, अमीर, गरीब, अरक, मेवा, मल्लाह,मसखरा, मक्कर, लाला, लहास, स्याही,'संदुक, रुमाल आदि । अलबत्ता भारत की दक्षिणी भाषाओं--मलयाल्म, तलुगु, कन्नड और तमिढ--का शेष भारतीय भाषा और लिपियो से भेद अधिक दूर “काहै। किन्तु उनके अक्षरो का वर्गीकरण देवनागरी वणेमाला के समान है। इसके अलावा संस्क्कत के शब्द तत्सम ओर तद्धव रूप में इतने अधिक दक्षिणी भाषाओं मैं घुलमिल गये हैँ क्रि उनका अव्य भारतीयभाषाओ से तादात्म्य प्रत्यक्ष है, भले ही कलेवर पृथक् दिखाई दे। उद्देश्यउपर्युक्त भाषाई पहलुओ के अलावा, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिकऔर धामिक दृष्टिसे भी सारा देश परस्पर “ऐसा गुथ गया है कि उसमेँ“ एकात्म-भावके सर्वत्व दशैन होते हैँ। उसके प्रभावकी छाप सभी भाषाओंके साहित्य पर मौजूद है। इसलिए अपने-अपते क्षेत्र मै विभिन्न लिपियों_ के फलते-फूलते रहने के बावजूद, यह जङरी है कि राष्ट्र मै सबसे अधिकसुपरिचित और व्याप्त देवनागरी लिपि के माध्यम से प्रत्येक क्षेत्रीय भाषाऔर साहित्य को भारत के ,कोनेन्कोने तक पहुँचाया जाय । भारत भ्रूमिके हर कोने मैं प्रस्फुटित वाङ्मय को हर भारतवासी तक पहुँचाया जाय ।' लिप्रि और भाषा के सेतुकरण द्वारा सारे राष्ट्र का एकीकरण--यहीभुवन वाणी ट्रस्ट को उद्देश्य है । [१२३उद्देश्य-पूति का माध्यम देवनागरी लिपि आसेतु हिमालय, सारे देश के साहित्य, संस्कृति, आचार-विचार औरसन्तों को वाणी को, किसी एक क्षेत्र अथवा समुदाय तक सीमित न रहने,देकर, सारे भारतीयों की सामूहिक सम्पत्ति बनाता ही राष्ट्रीय एकीकरणकी उपलव्धि है। नरसी मेहता के भजन, टैगोर की गीताञ्जलि, तिरुवल्लुवरका तिसक्कुरठ और सन्त नानक की अमर वाणी क्रमशः गुजरात, बंगाल,तमिक्वाड् और पञ्जाब को ही नहीं, अपितु सारे देशको प्राण प्रदान करे,यह उनके अनुवाद मात्न के द्वारा संभव नहीं । जिस भाषारूपी सुधाभाण्डसे यह अमृत प्रवाहित हुए हँ उस भाषा के बोध के विना वह प्राण सुलभनहीं । किन्तु यह भी सत्य है कि एक व्यक्ति के लिए इतनी लिपियो कोसीखकर उन भाषाओऔं पर अधिकार प्राप्त करना संभव नहीं । प्रत्यक्ष-प्रणाली (डाइरेक्ट मेथड) अस्तु एक ही माग है। देवनागरी लिपि, जो सारै देश मैं अपेक्षाक्कतसर्वाधिक व्याप्त है, भारतीय प्राचीन वाङ्मय की भापा--देवभाषा संस्कृतकी अपनी लिपि है, उसके माध्यम से हुम आरंभिक ज्ञान प्राप्त करेँ।देवनागरी लिपि में क्षेत्रीय भाषाओ की वणंमाला, उनके विश्ेष अक्षर,उच्चारण, मात्वाएँ, सामान्य व्याकरण, वाक्यरचना, देशज शब्द एवं संस्कृतसे प्राप्त तत्सम और तद्भव शब्दौं के उदाहरण आदि का कामचलाउ ज्ञानप्राप्त करने के उपरांत सम्बन्धित क्षेत्वीय भाषा के किसी माव्य लोकप्रियग्रे को चुनकर उसके अध्ययन द्वारा अपने अजित उपर्युक्त ज्ञानकाअभ्यास किया जाय । घीरे-धीरे, अभ्यास के द्वारा उस भाषा मेंअभीष्ट ज्ञान सुलभ होगा। ग्रन्थ के चयन में यह ध्यान रखना जरूरीहैकि उसका कथानक देश के दुसरे क्षेत्ो मै पूर्वेपरिचित हो । रामायण,महाभारत, इस्लामी हदीस, पारसी गाथा, सिख गुरुओ की वाणी आदि ऐसेविषय हैं जिनमैँ र्वाणत कथानक और उपदेश सारे देश की जनता को भली-भाँति मालूम हैँ। अक्षर-बोध) सामान्य शब्द-परिचय और व्याकरण-बोधके साथ-साथ, कथा का विषय जाना-समझा होने पर शिक्षार्थी को--लिपि,भाषा और साहित्य के माध्यस से अपने को-- सारे राष्ट्र का व्यावहारिकदृष्टि से सच्चा नागरिक वनने के अभिलाषी को-- उस भाषा अथवा ग्रन्थ कोसमझने मैं सरलता होगी । इस माग से एक क्षेत्त का निवासी, सव अथवाअधिक से अधिक क्षेत्लों की भाषा और वहाँ के लोक-साहित्य कोआत्मसातू कर सकता है। अलबत्ता यदि किसी भाषा-विशेष मै अधिक पारंगत होने की अभिलाषा है, तो उस भाषा के विशेष अध्ययन का मागअपनाना जरूरी होगा । “ - | 1 [1१३] " न्यह तो हुई भावात्मक एकता. की बात । देवनागरी लिपि के:माध्यम से अन्य भारतीय भाषाओऔं के पढ्ने-समझने की एक और जरूरत भीपैदा हो गयी है। बहुत बडी संख्या मैं एक क्षेत्त या राज्य के निवासीढूसरे क्षेत्र अथवा राज्य मैं स्थायी तौर पर बस गये और बसते जा रहेहँ।बह् अपने परिवार और सक्षेत्तीयौं के साथ परस्पर तमिछ, बंगला, सिन्धीआदि अपनी मातृभाषाएँ वोलते हैँ, और परम्परा के अभ्यास से सदैव बोलतेभी रहँगे, किन्तु उस क्षेत्र-विशेष मैं शिक्षा-दीक्षा पाने के कारण बच्चे अपीलिपि के ज्ञान से अपरिचित रह जाते हैँं। फलतः नित्य की बोलचाल कोछोड्कर अपनी मातृभाषा के सम्पन्च और बहुमूल्य वाङ्मय से वे अपरिचित“होते जा रहे हँ, और इस प्रकार अपनी क्षेत्रीय संस्कृति से दिन-प्रतिदिन दुरहोते जायेगे । अन्य क्षेत्लों मै आवासित उन परिवारों, जिनकी संख्या.आज के आजाद भारत मैं भपरिमित है, के लिए तो अनिवायँतः“आवश्यक है कि देवनागरी लिपि मैं अपनी मातृभाषा के अमूल्य साहित्यको पढ्कर अपनी क्षेत्तीय साहित्यिक निधि को अपर्ने बीच संजीये रखे । उपर्युक्त प्रयास से यह किसी प्रकार अभीष्ट नहीं कि भारत मैं प्रयुक्तअन्य लिपियों के शिक्षण अथवा प्रचार मेजरा भीकमीहो। वह वेसेही, वरन् अधिक फलती-फूलती रहुँ। किन्तुयह भी न भुलना चाहिएकि अन्य भाषाओ और लिपियों से सम्बन्धित जन, अथवा आपकी लिपिऔर भाषा के ही लोग जो परिस्थिति-वश दूसरे क्षेत्रो मै स्थायी तौर परबस गये हँ, उवको आफके प्रचुर साहित्य से वञ्चित होने की परिस्थिति पैदान होनै पाये। द्रो हजार वर्ष पुवे तमिलचाड् के अभर सन्त तिर्वल्लुवरका पञ्चम वेद' समझा जानेवाला नीति-पग्रन्थ 'तिरुक्कुरछु' अपनी लिपिके साथ-साथ, देवनागरी लिपि के कलेवर मैं राष्ट्र के कोने-कोने मैंलोकप्रिय होने के स्थिति मैं आ जाय, यह संकल्प भी कम पुनीत नहां । नेपाली लिपि लौर भाषा ॥ हिमाञ्चल-मैं सरोवर-स्वछूप नेपाल का भव्य राष्ट्र शोभायमान है ।भगवान् पशुपतिनाथ और माता गुह्येश्वरी का पावन धाम है । उसपुनीत क्षेत् मैं एक बार मुझे जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआहै। वहाँकीआदिम लिपि और भाषा नेवारी है। किन्तु धामिक और साँस्कृतिकप्रभावों के फलस्वरूप संस्कृत भाषा और नागरी लिपि का बोलबाला हुआ;और कोने-अँतरे के अञ्चलों मैं “ेवारी' के वतैंमान रहने के बावज्द,नागरी लिपि और संस्कृत भाषा से उद्भ्ूत नेपाली भाषा का ही प्राचुयं ह। ज्ञातव्य है कि नागरी लिपि को नेपाली लिपिकी संञ्चा वहाँदीजाती है। एक अति मनोरञ्जक प्रसङ्ग है । विगत फरवरी १९७४ ई० [1 १४,] भै पवनार आश्वम (वर्धा) मैं होनेवाले 'नागरी लिपि' समारोह मैं भारत मैंनेपाली दूतावास के सांस्कृतिक सहचारी प्रो श्री मानन्धर घूस्वाँ सायमि नेभाग लिया था। उन्होने भपने भापण मैं चा की कि प्रथम बार दिल्लीआने पर, उनकी धर्मपत्ती ने हिन्दी साइनबोरडो पर दुप्टि डालकर बढेकुतृहल से कहा, “अरे ! यहाँ तो ये सारे बोडे नेपाली" म लिखे हुए हँ! " ।सारांश यह कि नेपाल की सम्प्रति लिपि नेपाली है, उसका खुपवहीहैजोनागरी लिपिका। - ०
भाचुअक्त रासायण जन साधारण की यह घारणा है कि नेपाल मै शिव और शक्तिकीउपासना काही प्राधान्यप है। भगवान् रामको चर्चा, यदिहैभी तोनगण्यसी । संयोग से उत्तरप्रदेश ग्रन्थ अकादमी के तत्कालीन: अध्यक्षप्रख्यात विद्वान् डाँ० रामकुमार वर्मा जी से एक बार भेट हुई । मेरै औरभुवन वाणी ट्रस्ट के भापाईं सेतुवन्ध के विपुल कार्य को देखकर वे अतिमुग्ध हुए । उन भापाई कार्यो में, देश के समस्त भापाई रामायण-साहित्यको चागरी लिपि के माध्यम से, एक मञ्च पर आते देखकर, उन्होने“भानुभक्त रामायण की मुझसे चर्चा की । उनके सुझाव पर ही नेपालीका यह ग्रन्थरत्न “भानुभक्त रामायण', आज पाठको के सम्मुख प्रस्तुत है। नेपाल मैँ भगवान् शिव के अतिरिक्त राम की भी इतनी विशद चर्चाऔर भक्ति है, इसकी पुष्टि इसी वर्षके आरभ मैं ढिल्ली मैँ पुनः हुई।नेपाली दुतावास के साँस्कृतिक सहचारी प्रो० धृस्वाँं सायमि ने चर्चाकी किन केत्रल नेपाली मैं भानुभक्त रामायण, वरन् ,नेवारी भाषा मेँभी एकरामायण लिखी गयी है, और उसकी प्रति काठमाण्डू जाने पर भेजनेकाउन्होने आश्वासन भी दिया है। भक्तशिरोमणि भानुभक्त _ नेपाल राज्य के एक्र छोटे से पर्वतीय प्रदेश के पश्चिम मै सप्तगण्डङ्गीसलिला द्वारा सिञ्चित 'तनहँ' उपत्यका के “रम्घा' नामक ग्राम मैं विक्रमसंवत १०७१ आपाढ २९ गते के पुण्यदिवस पर 'भानु' का उदय हुआ ।परमविद्वान् ब्राह्मण-कुल के प्रख्यात आचायं श्रीक्कष्ण के छः पु्ों मै ज्येष्ठघनञ्जय जीके एकमात्न पुत्न श्रीभानुभक्त जी हुए। इनका अधिकाँशसमय पितामह के साथ व्यतीत होने के फलस्वरूप वे संस्क्रत के प्रकाण्डपण्डित हुए । किशोरावस्था के आरंभ होते-होते व्याकरण, ज्योतिष एवंपुराणादि पर अधिक्कार प्राप्त कर लियाथा । रकिवदन्ती है कि २२ वर्षकी आयु में, एक दिन एक वृक्ष की छाया में [११] उनका एक श्रमिक घसियारे से साक्षात् हुआ । वह अपनी दीन-हीनअवस्था मैं भी अपने ग्राम मैं सार्वजनिक उपयोग के लिए एक कुऔँ बनवानेहेतु, कठिन कमाई मैं से धन सञ्चित कर रहाथा। इसते भानुभक्त केमन मेँ सावँजनिक सेवा की प्रवृत्ति को जन्म दिया । उस समय वालमीकि,अध्यात्म आदि संस्क्रत रामायणोंका ही सवल आदर था । क्षेत्तीयभाषाओं मैं धामिक चरित्लों का गान पवित्न नहीँ समझा जाता था।यह बात कुछ नेपाल मे नई नहीँथी। हिन्दी मैं तुलसी, बंगला “मेंक्कत्तिवास, तेलुगु मैं कुम्हारिच मोल्ल आदि सभी के सामने संस्कृताभिमानीपण्डितों की ओर से यह् अवरोध उपस्थित हुआ । किन्तु इन्हीं सब के अनुसार, श्री भानुभक्त ने भी जनभाषा मेंरामायण की रचना करके समाज-कल्याण का व्रत लिया। इस सद्भावनाका स्रोत वही श्रमिक घसियारा था । अस्तु, भानुभक्त-रामायण की रचना-हुई । लिपि नागरी, भानुभक्त रामायण की भाषा नेपाली, किन्तु छन्द-रचना मैं संस्कृत छन्दौं का अनुकरण है। शिखरिणी, शार्दूलविक्रोडित,वसन्ततिलका आदि संस्कृत छन्दौं की शैली परही काव्यकी रचनाहै।पाठको को पढ्तै समय ध्यान रखना चाहिए कि हलन्त और सस्वरकोलेखानुसार पाठ करेँ। “राम' और “राम् का भेद ध्यान मैं रखनाआवश्यक है। हिन्दी के अनुसार “राम' लिखकर “"राम्' जैसा उच्चारणकरने पर छन्दोभङ्ग हो जायगा। भानुभक्त रामायण' का आधारअध्यात्म रामायण है । हु " नेपाल के तुलसी, भानुभक्त महाराज की पुण्यलीला वि० सं० १९२५आश्विन शुक्ल पञ्चमी के दिन १४ वर्षकी अवस्था मैं समाप्त हुई ।प्रति वर्ष १३ जुलाई को उनकी जयन्ती मनाई जाती है। काशी मैं कुछ नेपाली प्रकाशको ने भी भानुभक्त रामायण केसंस्करण प्रकाशित किये हैँ। किन्तु उनमेँ उन्होने व्यवसायिक लक्ष्य सेजनरुचि को अधिक' आर्काधषत करने के लिए अनेक अन्त्कथाएँ प्रक्षिप्त करदी हुँ; अपनी ओर से भानुभक्त की शैली पर रच कर जोइदीहैँ। दूसरेउनमें हिन्दी भनुवाद का अभाव होने से वे नेपाली पाठक के ही प्रयोजन कीरह जाती हैँ। अस्तु, प्रस्तुत ग्रन्थ 'सानुवाद भानुभक्त रामायण' को पाकरहिन्दी-जगत् धन्य: है। भुवन वाणी ट्रस्ट के भाषाई सेतुबन्धन मै एकऔर शिललाररोपण हुआ । _ अनुवाद नेपाली रामायण के अनुवादक को सुलभ करने मै कुछ कठिनाईहुईँ। हम श्री चन्दकुमार आमात्य और उनकी धमंपत्नी सुश्री तपेषवरी [१६] आमात्य के अनुग्रहीत हँ कि उन्होनि इस कार्यभार को सुचारढंग सेसम्हाला। पह हिन्दी भनुवाद उन्हीं की देन है। विमोचन श्री उमाशंकर जी दीक्षित, महामहिम राज्यपाल, कर्नाटक प्रदेश की,इन पंक्तियों के लेखक पर एक बडे समगसै क्र्पा रहीहै। ट्रस्ट कैकार्यक्रम को भी उनसे सराहना प्राप्त है। एक साथ हमारे तीनप्रकाणनो-- १. (मराठी) श्रीराम-विजय, २. (तमिछ) तिस्वल्लुवर क्ततिर्क्कुर् और ३. (नेपाली) थरीभानुभक्त रामायण-- का विमोचनअपने पुष्कल कर-कमलों से उन्होने स्वीकृत किया। वे हमारे अनन्यसहायक हैँ, अनन्य अनुग्रहकर्ता हँ । आमभार-प्रदर्शन ट्रस्ट को, कई उदार सदाणयो, विद्वानो, एवं उत्तरप्रदेश शासन सेन्राप्त सहायता से बडा सहारा मिलता रहाहैँ। अच्व ग्रन्थों करे साथ,नेपाली 'भानुभक्त रामायण भी अपनी सहज गति से प्रकाशित हो रहा था।सौभाग्य से केन्द्रीय उपशिक्षामंती माननीय् थ्री डी» पी० यादव, भारतसरकार के राष्ट्रभाषा सलाहकार वहुभाषाममंज् श्री रमाप्रसञ्च नायक भौरशिक्षा एवं समाजकल्याण मंत्वालय के शिक्षानिदेशक एवं उपसचिवश्री सनत्कुमार चतुर्वदी जी की अतुकम्पा हुई। उसके परिणाम-स्वरूपग्रन्थ परिपू्णता को प्राप्त हुआ । हम उनके अतिशय अनुग्रहीत हैँ। हमविशबास के साथ निवेदन करते हँ कि -धुवन वाणी ट्रस्ट की भाषाईसेतुकरण की विशाल और अद्वितीय योजना उत्तरोत्तर फलवती होकरशासन और जनता को संतुष्ट करती रहेंगी । _ श्री रघुमल ट्रस्ट, कलकत्ता के भी हम अत्यन्त आभारी हैँ। उन्होनेपाँच हजार रुपये की राशि से ट्रस्ट की सहायता की । उसका उपयोग इस ग्रत्य मै किया गया । प्रशंसित ट्रस्ट एवं न्यासीगण के प्रति हमअतिशय क्षृतज्ञ हैँ। मुख्यन्यासी सभापति,भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनञ-३
भानुभक्त-रामायण
(नेपाली काव्य) »[अनुवादक--नन्दकुमार आमात्य] आमग्ुरव संतकवि भानुभक्त का जन्म विक्रम संवत १5७१ आषाढ २९ गते क्रृष्णाष्टमीतदनुसार १३ जुलाई १५१४ को पश्चिम नेपाल के तनहुँ उपत्यका के रम्घा नामकग्राम मैं हुआाथा। उनके पिता का नाम धनञ्जय आचाय था। उनके :पितामहश्रीक्कष्ण आचार्य संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे, फलस्वरूप भानुभक्त को प्रारस्भिकशिक्षा संस्कृत मैं उन्ही से प्राप्त हुई । उस समय अधिकांश कवि अपनी रचनादि संस्कृत मै ही करते थे और पर्वतीयअथवा क्षेत्रीय भाषा मैं रचना करनेवाले कवियों का मान नहीं था । परन्तु भानुभक्त कोइसकी परवाह नहीँ थी। मन मै दृढ संकल्प था। इसलिए उन्होनि जनसाधारण केसमझ मैं आनेवाली भाषा में शार्दुलविक्रीडित और वसन्ततिलका जैसे संस्क्कैत छन्दोंके ढंग पर सुन्दर और सुमधुर ग्रामीण शैली मैं, अध्यात्म रामायण के सातो काण्ड काअनुवाद कर नेपाली जगत् के हृदय को जीता । स्व० मोतीराम भट्ट ने अथक परिश्रम से इस सम्बन्ध मैँ खोज की है।' उन्होनेकवि की जीवन-कथा मैं लिखा है कि भानुभक्त को कविता रचने की प्रेरणा एक गरीवघसियारा से“मिली थी । इस प्रसंग पर विद्वानौं के अलग-अलग मत है। भानुभक्त नेलगभग २०-२२ वर्ष के अकृ॒थ परिश्वम से अन्य रचनाओं के साथ रामायण के सातोकाण्डों का; मञ्जुल काव्य पुर्ण किया। सरल भाषा और सरल शैली मैं भानुभक्त-क्कत रामायण् की उपलब्धि से नेपाली जगत् कूतार्थ हुआ है। सवत १९२५ आश्विनशुक्लपक्ष पंचमी के दिन ५४ वर्ष की अवस्था मै अमर कवि भानुभक्त का देहावसानहुआ । प्रतिवर्ष, १२ जुलाई उततका जयन्ती-दिवस है । सौभाग्य से भुवनवाणी ट्रष्ट, लखनङ के प्रतिष्ठाता श्रीनन्दकुमार अवस्थी सेभेंट होने पर “वाणी सरोवर' त्वैमासिक के माध्यम से राष्ट्र की समस्त भापांओं केसद्ग्रन्थों और विशेष कर रामायणों के हिन्दी अनुवाद सहित देवनागरी लिप्यन्तरणके उनके मह्मन् आयोजन को देखा) नेपाली की भानुभक्त-रामायण को भी नेपालीक्षेत्र से वढाकिर समग्न देश के सम्मुख प्रस्तुत कर देने का पुनीत संकल्प और प्रस्तावउन्होने मेरे सामने रखा। सुतरां भगवान् का ध्यान कर उनके प्रस्ताव को स्वीकारकर, नेपाली रामायण का मुल-प्हित हिन्दी-अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हुँ । “७; आशा है पाठकवृन्द मेरी कमियों की ओर ध्यान न देकर पावन ग्रेंथ का“प्रसादग्रहण करेगे। जहाँ- तक नेपाली लिपि और भाषा'की बात है, वह हिन्दी-भाषी केलिए अपने ही परिवार जैसी है। उच्चारण के सम्बन्ध मैं एक वात उल्लेखनीय है किकिसी शब्द के अन्तिम अक्षर मैं हलन्त-चिल्ख न लगा होने पर उसे सस्वर ही पढेँ ।हिन्दी के समान हलन्त न पढुँ। “राम' लिखा' होने पर “राम्' नही, चरन् रा.-म(8:9109) उच्चारण करेँ । न्यन्दकुमार आमात्य अक्दकरटक6232236216512:5965125253222516236292 पसपि, 1) नञ्चायतमकति0 000100711210027115:11 श्रीराम-प ७010 क्र र झज£27£5725ई 0000 2010 0000 मई
भानजत्तन्राजवयण
चारकाणड ,, नब्रह्या-सारद-सँवादे पय र नि एक् दिन् नारद सत्यलोक् पुगिगया : लोक्को गर्छ हिंत् भी ।ब्रह्मा ताहि थिया पच्या चरणमा खुशी गराया पनि ॥क्या'सोध्छौ तिमि सोध भन्छु म भनी मर्जी भयेथ्यो-, गजंसै 1? ब्रह्माको करुणा बुझेर क्रषिलेहेत्रह्मा !..जति हुन् गुभाशुभ सबै बाँकी' “छैन .तथापि.. सुन अहिले.' आञला . जब यो कली बखतमा गर्न्यीठन् सब पाप् अनेक् तरहका -गरेन ,,कोहि अरुक.. साँचो:-बातअर्काको. धन खानलाइ : अभिलाष् कोही जन् तं परस्तिमा रत हुनन् -देहैलाइ'त आत्म ..जानि ' रहर्नन्' न्झ्च्छा म य्रो«प्राणीनीचका सतीमा गई ॥॥२।॥गर्नन्, ति तिन्दा प्नि । बिन्ती गप्या यो तसै शा सूनी -रह्याँछ् : ,कछु।गदेछुयादुराचार् भई । गनेन्. असल् हो भनीकोही त हिसामहाँ॥ - _नास्तिकृपछू झैं तहाँ ॥३।॥' छि ; ब्ह्या-वारद-संवाद 002 एक्क दिन नारदजी लोकहित के, लिए'स्वगैलोक पहुँचे ।. ब्रह्याजी वहाँ विराजमान थे, तत्काल उनके चरणीं मैँ ज्ञककर नारद ने उन्हे 'प्रसच्चकिया । : ब्रह्माजी द्वारा जैसे ही 'आज्ञा,हुई, तुँम क्या पूछ्ना 'चाहते हो;पूछो, तैसे ही ब्रह्माजी की. अनुकम्पा समझकर चद्रषि ने, इस.प्रकार 'विनतीकी) १ हेब्रृह्मा! [संसार मैँ|जो कुछ भी शुभाशुभ हो रहाहै वह मैं सुन.रहाहुँ।'मुझे सुन्ने कोकुछ भी बाकी नहीँहै। फिर भी मैं इस सम्बन्ध मैजानने का इच्छुक छुँ कि जव कलियुग का संमय आयेगोा तो'प्राणी ढुराचारी और बुद्धिभ्रष्ट होकर अनेकः 'प्रकार के. पाप करेंगे। २ सच्ची, बातोका कुछ भी पालन नहीं करेँगे वरन् 'औरों की चिन्दा कसेगे ।. दूसरों: केःधन,को हड्पना ही ठीक 'समझकर उसकी कामना, करेँगे, । -“कुछ लोग तो परस्क्ली पर आकषित . होंगें ।' नास्तिक लोग:पंशु के समान, शरीर को ही:आत्मा समझते रहँगे। ३ भोग-विलास के सेवक ' बनकेरः स्त्री को देवता २० भागुभक्त-रामायण कामूका चाकर झैं भयेर रहनन्मान्नन् पितृ र मातृलाइ बुझि खुप्ब्राह्वाण् भैकन वेद बेचि रहनन्धन् ठूलो छ पती भन्या सहज धन्जाती धर्म रहैन क्षबिहरुमाशुद्वादी त तपस्वि होइ रहनन्स्की धेर् भ्रष्ट हुनन् पतीर ससुरा-युंस्ता नष्ट कसोरि मुक्त त हुनन्यो चिन्ता मनमा भयो र अहिलेआयाको छु दयातिधात ! कसरीयस्तालाइ उपाय तने सजिलोमेरो' “ चित्त बुझाइवक्सनुहवस्नारदूले दुनियाँउपर् गरि दयाब्रंहाजी पनि खुप् प्रसञ्च हुनुभैहँ नारदू! सब पाप हरनकन ताआर्को, मुख्य उपाय छैन सबको स्लीलाइ यौता सरी।शत्र सरीको गरी॥कोही पढुन् तापनि ।आ्जन् गरौंला भनी ।॥॥४॥ जो छ्न् इ नीचाहरू।ब्राह्माण् सरीका बरु ॥को द्रोह ठूलो गरी।;संसार सागर् तरी ॥५॥सोधेँ उपायै भती।तनेन सहज ई पनि॥कुन् हो उ आज्ञा गरी ।:क्याले इ जान्छन् तरी ।॥६॥।बिन्ती गच्या यो जसै।मर्जी भयो यो तसे॥रामायणौीले सरी॥हित् यै छ अमूत् सरी ॥७॥। के;समान् मानेंगे । माता-पिता की उपेक्षा कर उन्हेँ शल्नु के समान मातेंगे, ।ब्राह्मण: होकर भी वेदों को बेचकर [अर्थात् लोभवश वेदो के अर्थकाअनर्थ कर ] धनोपाजँन को ही सब कुछ समझँगे । ४ क्षत्लियों मै व्याप्तजाति-धमे भी नहीं रहेगा वरन् गुद्र लोग व्राह्याणों की तरह तपस्वी बनेगें ।पति,और ससुर से द्रोह कर अनेक स्तियाँ भ्रष्ट होगी । इस प्रकार नष्टहुएँ, लोग; 'किस तरह संसार-सागर को पार करके मुक्त हो सकंगे ? ५.यही च्रिन्ता मेरे मन मैं उत्पन्न हुई है, अत: मै आपसे इसका. उपाय पुछ्ने'आया हूँ। हे दयानिधान ! ये प्राणी सहज ही कैसे पार होंगे ? ऐसोँंःके लिए वह्.कौन सा उपाय है, आज्ञा करके मेरे चित्त को समझाइए किये/कैसे पार होंगे। ६ नारद ने जैसे ही संसार की इन समस्याओं केव्रिषय में. बिनती की, -ब्रह्माजी ने अत्यन्त प्रसच्च होकर इस.प्रकार आज्ञादी।:. हे नारद ! सब,के पाप्रोंको 'मिटाने ,के लिए रामायण के सिवाऔर,कोई मुख्य उपाय नही है । अमृत के समान सवके हित 'इसी मैं निहितहै। ७,'महादेक्जी से [उपर्युक्त] इन सवतत्व की बातीं को सुन कर पार्वतीजी राम-नाम की. अपार महिमा जानकर गान करती है और आनन्दित ' नैपाली-हिन्दी 0071 शम्भू देखि सुनेर तत्त्व, सब योरामको: 'नाम, अपार जानि बहुतैजस्ले गानुकन: गदेछ्न् त ति सहज्कालैको पनि ताप् - हुँदैन 'भयः सब्यो सब्'शास्तविषे बड्रो छ रघुनाथ्-जो छ्न सँब इ पुराण् हरू इ सबमागर्छन् कीतन _सुन्दछन् पनि भन्यातिन्को पुण्य बखान" गने त सबैसून्याथ्याँ शिव देखि यस्कि महिमाभक्तीले यदि यो पढ्यो पनि भन्याजो एक् चित्त गरेर पाठ खुशि “भैजीवन्मुक्त तिनै त हुन् नर भईपुजा पुस्तकको गच्या पनि त फल्पाउँछन् सुनि यो कही “पनि भन्याजो ती पुस्तकका नजीक् गइ नमस्-तेस्ता जन् सब देवता पुजि हुन्याचारै वेद पढेर शास्तहरुको गानू' पार्वती गर्दैछिन् ।- आनन्दमा पेदैछिन्संसार पार्: तदेछ्न्।?" तिन्का सहज् टदेछ्न् ॥५॥-'को रूपू जनाईदिन्या ।यै मुख्य जानीलिन्या ॥यो पाउँछन् 'फत् भनी। सक्तीनँ . मैले, पनि/॥९॥।_एक्- श्लोक् पढ्न तापनि.पापू छुट्तछ्न् सब् भनी ॥गर्छन् सदा मै भन्या।”“ ईश्वर् सरीका बस्या ॥ १०।।,“एक् अश्वमेधुका “सरी ।;पापू छुट्तछ्न् तेस् घरी ॥,कारै फगत् गर्दैछन् ।-फल् भोगमा प्देछ्नूँ ॥ १ १॥।,व्याख्यान गर्दा पनि | - पाईदैन उ फल् त पाउँछ सहज् पुस्तक् . दिनाले -., पनि, होती है। जो उनका गुण-गान ध्यान से करता है वह सहज ही संसार- सागर से पार उतर जाताहै दै उसे कालका भी. भय नहीं होता ८'रघुनाथ का परिचय कराने वाले ये सब शास्त्वादि ' महान् हैँ। पुराण मैजो भी है उसी को मुख्य मानकर जो कीतेन करते है और सुनते हँ याजानते हैँ कि उन्हँ अवश्य फल प्राप्त होगा, उनके पुण्यों का पुरा वर्णनकरले मैं मैं समर्थ नहीँहँ। ९ इसक्री महिमा मैँने शिवजी से सुनी थी जो कि प्रसन्नतापूर्वेक सदैव एकाग्न मन से (रामचरित का) पाठ करते है। भक्ति भाव से [रामचरित का] एक ही श्लोक पढ्ने पर, संब पापोंसे छुटकारा मिलता है और जीवन से मुक्त होकर पुरुष ईश्वर के समानहो जाता है १० (रासचेरित की) पुस्तक-पुजा से भी एक अइवमेधयज्ञ के समाच'फल मिलता'है,, उसी क्षण पाप मिट जाता है। जो उसपुस्तक के निकट जाँ कर केवल नमस्कार ही करते है वेजन 'भी सबदेवताओं के पूजन से सिलने वाले फल को- भोग केरते हैँ। ११ चारौं २९ भानुभक्त-रामायण भक्तीले कहि, -भक्तका घर: गईचौबीस् पल्ट पुरश्चरण् गरि -हुन्या जसूले -रामूतवमी उपासि खुणिल्ने .यो रामायण पाठ-गरोस् कि त सुनोस्: . उस्ले तीर्थपिछे तुलापुरु्ष दान्यस्मा संशय छैन जान्नु सवलेरामायण् कन गाउन्या पुरुषकोमान्छन् श्रीरघुनाथका प्रिय इ हुन्रोज्-रोज् यस् कन पाठ् गरेर. जनलेकोटीगुण् फल बढ्ति मिल्छ सवकोयस्मा राम् हृदयै छ पाप् हरि लिन्याशुद्धात्मा बनिजान्छ तीन् दिन पढ्यारोज्,रोज् तीन पटक् अगाडि हनुमान्जस्तो भोगूकन गर्ने खोज्दछ उ: भोगजो यो पांठ् तुलसी पिपल् वरिपरीतिन्का पापू सव जन्मका जति त छन् एकादशीमा क्ह्या । - गायब्िका फल् भया ।|१२॥।- जाग्रन् समेतै ,गरी।: "तन्, मन् .यसैमा. धरी ॥ सुय्यं-ग्रहणमा _ गप्यो।..आनन्दमा त्यो पच्यो॥ १३।।आज्ञा त इन्द्रै पनि।-मान्नया इनै हुन् भनी ॥सत् कर्म गछँन् जति ।घट्तैन तिन्का रति ।॥ १४।।.क्वै ब्वह्वाधाती पनि ।.. , गर्छन् कृपा राम् धनी ॥, राखेर पाठ् गर्छे जो।सम्पूणे 'पाअँंछ सो।१५॥। _गछैन् प्रदक्षिण् गरी ।. छुट्छ्न् ति तेसै घरि ॥: वेदो को पढ्कर व्याख्या करने पर भी वह फल प्राप्त नहीं होता जो केवलपुस्तक का दान करने से प्राप्त होता है। एकादशी मैं भक्तोके घरजाकर भक्तिपूवेक ' (कथा) कहने से तथा चौवीस वार गायत्ली कापुरश्चरण जाप करने से प्राप्त होने वाले फल के समान पुण्य प्राप्तहोगा। , १२ .- रामनवमी मैं, उपवास करके तथा प्रसन्नतापूर्वंकजागरण करके जो व्यक्ति इस रामायण का पाठ करे अथवा ध्यान देकर-ड्से सुने, उसको (सूयंग्रहण,मे)' तीर्थ के, पश्चात् तुलादान करने के तुल्य-पुण्य तथा परम् आनन्द प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं । १३रामायण गाने वाले पुरुष को श्रीरघुनाथ का प्रिय जानकर इन्द्र भीउसकी आज्ञा का पालन करतेहै। मनुष्य प्रतिदिन इसका पाठ कर,जितने भी सत्करमे करतै है उन सबके फर्ल की करोडौं गुणा वृद्धि को प्राप्तहोते हुँ, उसमें: किङ्चित् माल भी कमी, नहीं, होती । १४ इसमे व्रह्वाघातक केपा्पों को भी.. नष्ट करने, -वाला , राम्रहृदय ,है। . राम की क्र्पा से तीन्दिन पाठ करने पर आत्म-गुद्धि होती है । प्रतिदिन हनुमान का आवाहनकर्के जो पाठ करते है. ने जिस प्रकार के. भोगो को प्राप्त करना चाहते हैंवेसभी भोग उन्हैँ पूर्णतया प्राप्त होते हँ। १५ जो तुलसी तथा पीपल नेपाली-हिन्दी' २३ तेस्मा रामगिता छ झन् अति ठुलो जस्को , महात्स्यै पनिः।सब जान्नयी शिवमाब्न छ्न् अरत को जाग्नया छ यस्तो भनी।१६॥। आधा पार्वति जान्दछिन् मत सबै चौथाइ पो जान्दछु।गीता पाठ गरेर नाश नहुन्या पापू छैन यो मान्दछु॥रामले वेद मथन् : गरीकन झिक्या गीता र. अमग्रृत् सरी।लंक्ष्मण् लाइ दिया यही पढिलिया जाइन्छ संसार् तरी ॥१७॥ मार्छ निश्चय कातेवीय - भनि खुपू ठूलो इरादा गरीं।पढ्थ्या श्रीशिवध्यै गयी परशुराम् दिन्-दिन् चरण् मा परी ॥पढ्थिन्, पार्वति रामूगिता तहि सुनी पाठ गने लागी गया ।7रामगीता तहि देखि पाठ गरि लियां वारायणै ती भयाः॥१०।' सैह्वा दिन् यहि रामूगिता: पढिलिया संबू. 'ब्रह्माहत्याहरू । छुट्छन् निश्चय छुटतछन् सकल पापू भंच्या बखान् क्या गछ ।॥!शालिग्राम् तुलसी पिपल् कि त बडा' संन्यासिथ्यै जो, गई।”रामूगीताकन पाठ गस्यो पनि भन्या: ठलो महात्मा भई॥ १९।[? के चारो ओर घुमकर् इसका पाठ करते है उनके सब जन्मो के किये हुए,पाप उसी क्षण नष्ट हो जाति हँ। इसमें अत्यन्त महान् और माहात्म्यपूर्ण --रामगीता है। [ब्रह्वा ने कहा] इसको पूर्णरूप से जानने वाले केव्रल शिव हीहुँ। १६ [इसकी महिमा का ]अर्ड्वाश पार्वती जानती हुँ, सै तो केवले चौथाईही जानता छँ। मैँयह् मानता हूँ कि संसार मैं कोई ऐसा पाप नहीं जोरामगीताका पाठ करनेसेनष्टन हो। राम ने वेदों का.मंथन करगीता और अग्ृत को निकाला और लक्ष्मण को 'दियां, इसे पढ्ने से सभी[णी संसार सागर से तर जायेंगे। १७ काततेवीयं' (तथा उसके वीरौँ)को मारने का निश्चय कर वहुत बडी 'इच्छा ले करके परशुराम प्रतिदिनश्रीशिव के चरणों की वन्दना करने गये ।' वहीं पार्वती रामगीता पढ्तीथी, इसी को सुनकर वे भी रामगीता का पोठ:करने लगे और [फलतः]नारायण-छूप हो गये। १५ जब एक : महीना यह राम गीता पढ्ने'सेब्रह्वाहत्यादि सभी पाप समाप्त हो जाते है तो और सभी पापो के मिटनेकेबारे मै क्या वर्णन कर्डैँ। शालग्राम,' तुलसी, पीपल 'या महान्संच्यासियों के पास जाकर रामगीता का पाठ करने से भी बहुत से लोगमहात्मा वन गये हैँ। १९ जिस फल के बारे मै मुँह से वर्णन नहीं कियाजा सकता हैउसी फल का वह [रामगीता को पढ्ने वाला] भोग करता २४ भानुभक्त-रामायण जुन् फल् छन मुखले भनी न सकिन्याकोही श्राद्धविषे पढ्न् त तिनकापैल्हे खुब नियम् गरी दशमिमाआसन् बाँधि अगस्ति-वृक्ष-मुनि पाठ्राम्गीता उपवास् गरीकन बहुत्तेसूलाई त नभन्नु मानिस भनीदान् ध्यान् तीर्थ कदापि केहि नगरी बस्छन्'जो ति अनन्तका पदविमा ' धेरै बात गरेर हुन्छ अब क्यापाप् हर्नाकन छैन केहि बुझियोजो छन् तन्त्र पुराण् श्रुति स्मृतिइ तापुग्दैनन् 'त वखान् कहाँतक गर्छे सो फलु ति भोग् गर्दछन् ।पित सबै तर्दछन् ॥एकादशीमा पनि ।गर्छु म गीता भनी ॥२०॥। आदर् गरी पढ्छ जो।रामै सरीको छ त्यो॥यो रामगीता पढी।पुग्छन् सहज् पार् तरी॥२ १॥ रामायगै हो जवर्।येसै सरीको अवर् ॥सोह्कै कलामा पनि।यो फेरि ठूलो भनी ग२२। जो रामायणको महात्म्य विधिलेजुन् सूनीकन चित्तले बुझिलिदा :पाठ् गर्छन् कित सुन्दछन् यदि भन्या यो येति सुन्दा पर्नि।जान्छन् सब् उहि विष्णुका पुरिमहाँ खुपू पूज्य सव्का वनी॥२३॥। हैँ।' कोई श्राद्धके बारे मैं भी पढे तो उसके सब पितर तर जाते हैँ।प्रथम नियमों का पालन करके दशमी या एक्रादणी मैं आसन वाँध्चकरअगस्ति वृक्ष के नीचे बैठकर मैँ रामगीता का पाठ करता हुँ।२० जोउंपवास करके रामगीता को वहुत आदर के साथ पढ्ता है- उसे मनुष्य नहीं,कंह्ना चाहिए बह् तो राम के समान है । दान, ध्यान, तीर्थ आदि कुछ:भी.न कर केवल इसी रामगीता को पढ्कर जो रहता है वह अनन्त-पदोको.सहज ही. पार करके तर, जाता है। २१ अधिक बात क्या करना,जब यृह जान लिया कि रामायण ही बलिष्ठ (सवंश्ेष्ठ) है और इसकेसमान पाप को हरण करने वाला (द्वुसरा) कुछ नहीं, जोभी तन्त्र, वेद,-पुराण और धर्मेशास्तादि हैँ वे इसकी सोलहवीं कला के भी समान नही,तो फिर इसकी महत्ता का कहाँ तक वर्णन कसँ ? २२ ' विधिवत् कहेगये रामायण के इस माह्वात्म्य को चित्त से समझकर नारद अप्यन्त प्रसन्नहुए और इतना कहा कि जो भी इसका पाठ कंरते अथवा सुनते हैँ वे सबकैअत्यन्त पूज्य बनकर विष्णुलोक में जाते हैँ। २३ भगवान् सदाशिवकैलाश मै, बैठे हुए, बायीं ओर अपृनी , गोद मैं अति प्रिय तथा हितैषिणी नारद्जिलाई कह्या।:नारद् पती खुश् भया॥ . ज्ैपाली-हिन्दी कैलास्मा.भगर्वात् सदाशिव थियाबायाँ काखमहाँ पियारि हितकीएक्, दिन् पार्वतिले तहीँ' शिवजिथ्येंआफू ता. सब :जान्दथिन् तर दया हे नाथ् ! बिन्ति म गर्दैछू हजुरमारास्देखी अरु, कोहि छैन जनक्राजसूमा अक्ति गण्यो भन्या अति गँभीर् ,नौका झैं तरिजान्छ झट्पट गरी.यस्ती रामू्कर्न, लोकमा: जनहरू:कोहि तत्त्व नपाइ मुखेहरु ताक्या भन्छन् तिःकि राम ईश्वर भयासीता: रावणले ,जसै हरिदियो'ईश्वरलाइ त शोक हुँदैन र भनूँइन्मा यो, सब देखियो त कसरीलोक् यस्तो पनि भन्छ कोहि भगवान् संसार. ।_ तेस् नर्को देहै तहाँ ॥२५।॥। ५ रेश “ ध्यान्मा बहुत् मन् दिई । श्री पार्वेतीजी लिई ॥सोधिन् : चरणूमाँ परी ।"सम्पुणं लोक्मा गरी ॥२'। रामू हुन् जगत्का पति ।संसार _ तर्न्या . गति ॥सागर्महाँ ।: एक् '. ईशरै - मान्दछन् ।'मानिस् सरी जान्दछन् ॥शोक् क्यान तिनूले गन्य्रा ।ठूलै विपत्मा पण्या ॥२६।। हँदैन अज्चान् पनि। “जाच्च् इ ईश्वर भनी ॥ यस्मा विचार् खुप् गरी जस्तो हो 'सब यो : 'बताउनुहवसूँ सन्देह मेरो हरी रापार्वती जी को बैठाये अत्यन्त ध्यानमग्न थे । “एक दिन पार्वतीजी.नेचरणों मैं झुर्ककर, स्वयं सब जानते हुये भी, सम्पुणं, लोक के.,.प्रति दयालुहोकर.कहा--। २४, हेनाथ . मै विनती ,केरती हँ कि राम जगत्पतिहँ, . राम केः सिवा :'[भक्त-] जनों को संसार से तारने वाला और कोईनहीं है." उनकी भक्ति रूपी नौका के सहारे मनुष्य : अत्यन्त गंभीरसंसारे-सागर से: तुरन्त 'पौर हो जाता है । २५ , ऐसे राम'को जगत् में-(बुद्धिमान् ) मनुष्य केवल ईश्वर ही: मानते,है ।, ,पर' मूर्ख लोग तो कोई तत्वत पाकर [उनको ]मनुंष्य की तरह ही जानते हैं । उनका कहना है क्रि यदिराम ईश्वर,हँ तो रावण के.सीताहरण करने पर उन्होने शोक क्यों कियाऔर इतनी- विपत्ति मैं क्यों पड्ग गये ! २६ ईश्वर को शोक नहीं होताऔर अज्ञान भी नहीं होता । राम में .शोक, अज्ञान-दोनों ही, देखा गया,फिर इन्हेँ ईश्वर कैसे मार्ने-कोई मनुष्य ऐसा भी कहते, हैँ। ' भगवन् !ड्स पर विचार करके,.,जैसे भी हो, मेरे मन के सदेह को दूर करने केलिए'यह सब बताने की क्व्पा कर । २७ पार्वतीर्जी के: ऐसे प्रश्नोकको सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए॥ राम ऐसे, ही प्रभु हँ, यह कहते २६ यस्ता प्रश्न सुन्या, र पार्वतिजिकोराम् यस्ता 'प्रभु हुन् भनेर शिवलेसून्यो:पार्वति ! राम् अनादि परमे-सब् ढाकीकन बस्तछन् अधिविराट्जस्तै चुम्बकका नजीक् परिगया तेस्तै जस्कन पाइ नाच्तछ जगत्यस्तो तत्व नजाचि मानिस सरी संसारक्रा इ अनन्त तापूहरु , तिनै-" बादलूले.अरु ढाक्छ ढाक्छ अरु क्याल्लोक् ता भन्छ उठ्यो र बादल ठुलोत्यस्तै तत्व न जानि बोल्छ जन जो ग्रोगी ज्ञानि त चिन्दछन् इ रघुनाथ, जस्लाई रिङटा छ भन्छ उ फगत्घुम्दैनन् इ त घुम्छ तेहि रिङ्टा अञ्चान् रूपू रिङटा हुन्या जनहरू : राम् ता हुन् परमेश्वर सकल . यस् भानुभक्ते-रामायण णम्भू खुशी खुप्..भया ।सब् तत्त्व ताहीं कद्या॥शर् हुन् ति आकाग् सरी ।सम्पूणे सृष्टी गरी ॥॥२०॥“वाँच्छन्- इ लोहा, पनि ।नाना प्रकार् को वनी॥रामूलाइ -जो गर्दैछन् ।लाई सदा प्देछन् ॥२९॥।श्रीसूग्येलाई पति।सब् सूय्यँ ढाक्यो भनी“सो भन्छ मातिस् पनि ।तैलोक्यका नाथ् भनी॥३०।घुम्छ्न् उ पवेत् भनी ।जान्दैत, कोहि : पनि॥ भन्छन् ति मानिस् पनि ।.-चौधै भुवन्का धनी ॥३१॥। हुए शिवजी ते सब तत्व कह सुनाया । सुनो पार्वती, राम आकाश कीभाँति अति महान् हैँ,और सम्पुर्ण सृष्टि को उत्पञ्च करके सवक्रो आच्छादितकर रहने वाले अनादि परमेश्वर हैँ। २० जैसे चुम्वक के निकट जानेपर लोहा नाचने लगता है, वैसे ही जिसके आधार पर जगत् अनेक प्रकारके रूपों मै होकर नाच' रहा है, ऐसे ,तत्व को न जानकर, जो लोग रामको मनुष्य, की भाँति ' समझते हैं उन्हीं को संसार की ये अनन्त, पीडाएँसदा -दुखी करती रहती हँ।,२९ वादल सबको तो ढक ही लेता'है॥यहाँ तंक कि सूयं को ,भी ढक लेता है। जग तो कहता है कि.घनाबादल उठा है,और उसने पुरे.सूयं को ढक लिया है। जो जन तत्व,'कोनही जानते वेही ऐसा कहतै हँ । योगी ज्ञानी तो: इन रघुनाथ, को लिलोकक्केः नाथ कहकर ही" पहचानते' हैँ। ३० जिसको चर्ककर आताःहैवहीकहता है कि पर्वत: घूमता, है, परन्तु वह घूमता नहीं । कोई नहीं जान पाती'कि“वही स्वयं चक्कर मैं. घूमता ,है। ' . अजानङुपी चक्ष्कर से.. युक्तमनुष्य ही राम को "मनुष्य कहते है । : राम. तो इन चौदह भुवनों के स्वामीचाक्षात् परमेश्वर. ही है। ३१ सूर्य मैँ'भी कही अंँधेरा हँ, क्या“ ऐसा,ही ज्ैपाली-हिन्दी २७ सूर्ग्यैमा पनि अन्धकार छ कहि क्या: तस्तै, .छ रास्मा पति“:शोक् अज्ञौन् रति छैत जान्नु सबले आत्मा इनै हुन् भनी ॥आर्को गोप्य रहस्य भन्छु सुन -यो ससम्वाद् सितारामको-।भूभार् हर्नु थियो हप्या जब सबै छिनूछान् भयो कामको॥३२॥। भूमीको सब भार् हरेर रघुनाथ्ू राज् गगन लाग्या जसै।देख्या श्रीहनुमानलाइ र् दया आयो प्रभूको. तसै॥सीतालाइ टुक्म् तहाँ दितुभ्यो सीते:! हनूसान् बडा ।हाम्रा भक्त भया इ तत्त्व लिनका :खातिर् यहाँ छन् खडा॥३३॥ईनूलाई तिमि तत्व देउ भन्ति यो हृकृम् भयेथ्यो जसै।सीताले ' हुनुमाचलाइ दिनुभो जुन् तत्त्व हो सो तसै॥आर्को: तत्र त् केहि छैन हनुमान् कुन् “आज, आर्को कङ्र॥ -रासू हुन्. ब्रह्वा इनैक्रि शक्ति बलियो' माया भन्याकी महर ३४।॥।राम्को सञ्चिधि पाइ "गर्छु सबको सृष्टी रु पालनू' पनति॥आरोपूँ "रामविषे गरिन्छ सब -यो गर्न्या इनै हुन् भनीन। राम के संबंध मैं भी नहीं है ? शोक, अज्ञान आदि दोों का उनमे लेशमात्न भीतहीं । सञ्ची यह जान ले कि वही सबकी आत्मा हैँ । दुसरा गोपनीय रहस्यक्रहताःहँ, यह् सीताराम का सम्बाद सुनो । - पृथ्वी के भार को हरण, करने ,चाला कौन था। जब उन्होने ही प्रृथ्वी,को भार से रहित किया -तभ्री सबकार्य पूण हुए। ३२ .[असुरों को मार कर् |पृथ्वी के भार को हुरण करके जबशीरघुताथ राज्य-सिंहासन पर बैठे तो उन्होने श्रीहनुमान को देखा । उन्होनेकृपा ,करके उसी समय सीता को आज्ञा दी, हे सीते ! हमारै महान्भक्त हनुमान .तत्वज्ञान को प्राप्त करनेके लिए खडेहैँ। ३३ जैसे हीराम का यह आदेश हुआ कि न्हे तुम तत्वज्ञान, दो, .वैसे ,ही,.सीता "ने-जोभी तत्व था हनुमान को प्रदान,कियो। हे हनुमान !. -रास के अतिरिक्तसंसार मैं -और कोई दूसरा तत्व नहीं । हे हनुमान,! और क्या कह,राम ही साक्षात् परब्रह्वा है और मैं इन्ही .की शाक्ति-स्वरूप हँ। ३४राम का 'आश्रय प्राकर [प्रकृति-स्वरूपा ] 'धैं सब प्राणियों की सृष्टि करतीहुँ, सबका पालन करती ठूँ। वास्तव मैं सब कुछ करने व्राले राम ही हैँ--विद्वान् लोगो का ऐसा ही कथन है।: [किन्तु राम ब्रह्मास्वरूप हैँ। पृथ्वीपरजो कुछ उनकी लीलाएँ है, वेः तो. उनकी प्रक्कति-स्वरूपा मैं- कररही हुँ।|' अप्यन्त पबित्न रघुवंश मैं प्रभु. रामचछ्ने जी ने जम्म प्रभुजिले यसूनिर्मेल् रघुवंशमायज्ञहरुमा विश्वामित निमित्त जो पाप् गौतमपत्निका हरिदिया जो मैल्लाइ बिहा गच्या सब कुराजो ता गर्व हप्या तिवीर् परशुराम्-बाह्लै बर्ष बिहा गप्यापछि बसी जो जन्म याही लिया।राखी दया मन् दिया॥३ ५॥जो भाँचिदीया धनु,यस्ता कहाँ तक् भनूँ ॥का जो अयोध्या बंस्य्रा।जो ता वनैमा पस्या॥३६॥ यस्ता काम् जति काम् भया ति सब काम् गर्व्या म हूँ तापति। भन्छन् लोक त रामलाइ सबकाअन्तर्यामि अनादि साक्षि तिनिहुन्मेरा गुण लिदा त लोकहरुलेथेती ताहि सिताजिबाट उपदेशूआफैँ रास् प्रभुले पनी दिनुभयोयस्तो हुन्छ परात्म आत्म यहि होआत्मा और परात्मलाइ बुझदा आत्माको र परात्मको छ कति फेर् जुन् जड् चीज अनात्म हुन् उ त झुटा, कर्ता इने हुन् भनी॥कर्ता कहाँ ती थिया।कर्ता भती पो दिया ॥३७॥ पाई सक्याथ्या जसै।फेर् तत्वको ज्ञान् तसै ॥यो हो अनात्मा भनी।पाइन्छ मुक्ती पनि ॥३०॥ -त्यो एक जाततीलिन्ू । जानेर, छोडीदिनू ॥ लिया, जिन्होने विश्वमित्च द्वारा आयोजित यङ्ोँ मै दया कर मनको अरपित किया । ३५ जिन्होने गौतम-पत्नी (अहिल्या) के पापोंका निवारण किया, जिन्होने शिवधनुष तोडा और जिन्होने मुझेविवाहा-इस प्रकार की सब बातो को कहाँ तक कहठूँ। जिन्होने उनवीर परशुराम के दप॑ को शांत किया, जिन्होनि विवाह के पश्चात् हीबारह् वर्षे के लिए वन मैं प्रवेश किया। ३६ इस प्रकार के जितनेकाय हँ उन सबको वास्तव मैं मैँ ही करती हूँ । .'जग कहता है कि राम इनसभी कार्यो के कर्ता हैँ । वे तो अन्तर्यासी, अनादि, द्रष्टा [.मात् ] हँ, वह कर्ताकहाँ ? मेरेइन पप्रक्रति के] गुणों को जानकर ही संसार ने ब्रिष्टाराम को] कर्ता कह् दिया । ३७ जब हनुमान सीता से इतना ज्ञानोपदेशप्राप्त कर चुके तो स्वयं प्रभु ने भी उन्हेँ पुनः तत्व का ज्ञान दिया । आत्माही परमात्मा है। आत्मा और परमात्मा को समझने से ही मुक्ति प्राप्तहोती है। ३० आत्मा और परमात्मा में क्या भेद है इसे ज्ञात कर लेनाऔर जो जो वस्तुएँ जड और आत्मा से परे हँ उन्है मिथ्या जान कर छोडदेना [यही तव्वज्ञान है] । आत्मा और परमात्मा को विचार कर . नेपाली-हिन्दी रद आत्माको र परात्मको गरि विचार् एक् तत्त्व जान्यो, जसै।:अज्ञात 'सबूँ छुटिजान्छ ती पुरुषको मै तुल्य्र हुन्छन् तसै ॥३९॥।ग्रो मेरो हुंदयैत हो प्रिय छ यो खुप् गुप्त राख्नू पनि ।तत्त्वज्ञान् भनि यै कहिन्छ बुझिल्यौ सूच्यौ हनुमान् ! भनी ॥तस्वज्ञान् हनुमानलाइ रखघुनाथ्-. ले यै दिचूभो तहाँ।'सोही ज्ञान् तिमिथ्यै कहीकन संक्याँ सम्पूर्ण मैले यहाँ ॥४०।सुन्यौ पार्वति, ! रामको हृदय यो जो जो त पाठ् गर्दैछन् ।'जो छन् जन्म सहख्रका सकल पाप् तिनूका सबै ददेछन् ॥जाति भ्रष्ट अर्धम् हवस् तपनि लौ यस्लाइ खुप् पाठ गरी।“रामको ध्योन्'पन्ति गर्छ यो पनि: भन्या त्यो जान्छ संसार् तरी॥४१॥ सून्तिन् पार्वतिले अपार महिमा यो रामजीको जसै।फेर् विस्तार गरी सुन्नलाइ मन भो ती पार्वतीको तसै॥बिन्ती फेर् शिवथ्यैं गरिन् पनि तहाँ हे नाथ् ! सबै रामको ।“लीला चुन्न मलाइ सन् हुन गयो येही बुझ्याँ कामको ॥४२।॥। सूनोसु राम-लिला भनेर म उपर् माया बढूतै धरी।"सब् लीलाहरु फेर् बताउनु हवस् जो छन् ति विस्तार गरी ॥, [उनकेत] एक, तत्व होने का जैसे ही ज्ञान होता है वैसे ही उसपुरुष _की सारी अज्ञानता नष्ट हो जाती है और वह्' मेरे समान"हो जाता, 'है। ३९ यह जो तव्वज्ञान मैने दिया है यह मेरा हृदयहै, "यह मेरा प्रिय है; इसे अत्यन्त गुप्त रखना ।. यह समझ लो कितत्वज्ञान इसी को कहते हैँ। [शंकर ने कहा--] राम ने हनुमान को यहीतत्वज्ञान दिया था । हे पार्वती, वही मैने तुमसे कहा । ४० है पार्वती, सुनोजो लोग इस राम-हुदय को पाठकरते हुँ उनके सहस्र जन्मों मैं किये गये सम्पूणपाप नष्ट'हो जाते हैँ। जातिभ्रष्ट तथा अधर्मी होने पर भी इसका पाठकरके'जो“राम का ध्यान करता है वह संसार से तर जाता है। ४१ पार्वतीने जब श्रीरामजी की इस अपार महिमा को सुना तो पुनः विस्तारपुर्वेक सुननेका उनका मन हुआ । फिर उन्होने शिवजी से विनती की, हे नाथ ! मुझेराम की लीला को श्रवण करने की पुन: इच्छा हुई है; भै इसे ही कल्याणकारीसमझती हुँ । ४२ रामलीला की कथा सुना कर आपने मेरेनझपर महती कृपाकी है) फिर भी राम की यह लीला विस्तारपूर्वक सुचने की मुझे उत्कण्ठा है ।“पावेती जी का यह प्रेमाग्रह सुनकर शिवजी ने बङ्डे प्रेम. के साथ सम्पुर्ण ३० भानुभक्त-रामायण यो प्रेम् पार्वतिको सुन्या र शिवलेजो जो हुन् सब राम्-चरित्न शिक्लेई$ भूमिकन ,रावणादि विरलेभारी भै ति एँदै गद्न् उहिँ जहाँपापी धेर् भइ भार् भयो मकन ताआयाँ आज दयातिधानू चरणमा यस्तो बिन्ति सुनी दया पनि उठ्योदौडी क्षीर समुद्रका तिर गयाइ्न्द्रादीहरु साथमा लिइ स्तुतीसर्वात्मा भगवान् प्रसञ्च हुनु भैदेख्या सुन्दर खूपू जसै प्रभुजिकोभक्तीले स्तुति खुप् गरेर खुशि भैहे नाथ्, रावण दुष्ट भै सकल लोक्-झ्न्द्रादीहरुको त तेज् सहजमा यस्लाई अव मारिबक्क्सनु हवस्मानिसूदेखि मच्यास् भनेर वरदान् विष्णू खुपू प्रेम राखिन् भनी ।ताहाँ वताया पति ॥४३॥भारी बनाई दिया।ब्रह्मा वस्याका थिया॥यो भार छ्टोस् भनी ।यो विन्ति पारिन् पति॥४४।ती भूमिमाथी तहाँ।रहन्थ्या जहाँ ॥ताहाँ गग्याथ्या जसै।दर्शन् दिनूभो तसै ॥४५॥।ब्रह्मा चरणमा पच्या।हात् जोरि बिन्ती गच्या ॥लाई विपत्ती दियो।खेचेर तेस्ले लियो ॥४६॥। मातिस् सरीका वनी।दीई रह्याँछ पनि॥ राम-चरित् का वर्णन किया । ४३ इस धरती को रावण जैसे [दुरात्मा]वीरोंके पाप ने बोझिल बना दिया। [निदान्] जहाँ व्रह्याजी वैठ थे, पा्पौं के'बोझ से व्याकुल होकर धरती :रोती वहाँ गई । पापियों की वृद्धि होनेसे, मुझ पर भार अधिक. पड्ा है। इस भार से छुटकारा तो मिले, हे'दयानिधान! इसी आकांक्षा से आज मैं आयीहूँ। यह कहती हुईपुथ्वी ने [चतुरानन ब्रह्मा के] चरणों मै विनती की। ४४- इस प्रकार"विनती' युनकर व्रह्या को पृथ्वी पर दया उत्पन्न हुई और शीघत्रही बे पृथ्वी“को लिए हुए क्षीरसागर को ओर चले जहाँ विष्ण भगवान् निवास करतेथे। इन्द्रादि देवों को साथ लेकर जैसे ही स्तुति कौ, वेसे ही सर्वात्मा भगवान्ने दशंन दिया । ४५ प्रभुजी का भव्य रूप देखते ही व्रह्माजी उनके चरणोंमै गिर-पड । प्रसन्त-भाव से भक्तो ने स्तुति की और ब्रल्ला ने हाथजोड्कर विनय की। हे नाथ ! रावण दुष्ट आचरण से सारे संसारको विपत्ति मैं डाले हुए है। इद्धादि दैवताऔं के पराक्रम को तो उसने,'वडी : सरलता से खीँच लिया है अर्थात् उन्है पराजित कर दिया है । ४६[सो क्नपा करके] मानव रूप धारण कर अव उसका संहार, कीजिए । “ नेपाली-हिन्दी प् ब्रह्माको बिनती सुनेर, भगवानु- को यो हुकम् भो अनि।.रात्रणूलाइ» स. मासँला सहजमा मानिस् सरीको बनी॥४७॥।माया .मेरि 'सिताः भयेर रहनिन् छोरी जनकृकी भई।'छोरो भैकन: जन्मुँला ,स दशरथ् जीका घरैमा गई'॥सीतालाइ : ' लियेर पूर्ण गरेँला,' ब्रिन्ती, म तिम्रो भनी ।'अन्तर्धान् ' भगवान् तहीं हुनुभयो, बैलोक्यका नाथ् अति ४०अन्तर्धान् : भगवाचू जसै हुनुभयो" इन्द्रादिलाई, । पनि।'ब्रह्माले .. खुशि भै अह्लाउनुभयो ,भूलोक, जा भनी ॥मानिस् भै भगवान् जती त रहनन्: तेस् पृथ्वितलुमा- " गई.]बानर् भैकन सब् तिसि“बसिरह्मा . साह्वाय जस्ता .. भई ॥४९।।ब्रह्वाजी पनि ' सत्यलोक् गइगया :येती ....!- अह्वाखरी;।:इ्न्द्रादी पनि वानरै भइ रह्या ,'सब् पृथ्विलोक्मा,'झरी ॥यै बीच्मा /दशरथ् बडा विर थिया.' राजा अयोध्यामहाँ ।'तिन्को बृद्ध उमेर् भयो र पनि एक् . छोरा भयेनन् तहाँ ॥५०।।ताप्ले पुर्ण भई. गुरुसित -गया 'सीध्या “ उपाय," पनि)हे सवैज्ञ मुने ! कसो. .गरि हुनन् छोराँ .सलाई .भनी ॥मनुष्य के हाथों मरेगा' ऐसा वरदान भी मैं उसको दे चुका' हँ। : ब्रह्माकी इतनी विनती सुनकर भगवान् की यह अरमुग्रहवाणी हुई, मै मानवन्ख्पधारण कर सहज, ही रावण का विनाश कर दूँगा । ४७ ' मेरी शक्ति,:सीतान्ञाम से जनक की पुल्ली होगी; - मैं.दशरथ, के घर में ,उनके पुर्द् ।केरूप मैँ जन्म लूँगा । सीता को लेकर मैं तुम्हारी आकांक्षा पुरी कङँगा!।इतना' कह् 'कर लिलोकीनाथ, भगवान् विष्णु बहीं' अन्तर्द्ीन हो गये,। ४८जैसे ही भगवान् अन्तर्द्धीन, हुए, “प्रसन्त होकर ब्रह्मा जी, ने इख कों-भीमातवलोक में जाने, का आदेश दिया । -जव तक : भगवान्, मानवलोकपुथ्वी मैं मनुष्य होकर रहुँ तब तक तुम बन्दर , होकर उनके 'सहायंक कीतरह रहो ।४९ इतना कहकर ब्रह्मा .जी भी स्वगंलोकः को, चले गये .।इन्द्रादि [देवता | भी पृथ्वी मै उतर कर'वानर बनकर ' रहनेलगे। इन्डीदितो अयोध्या मैं महान्. वीर राजा दशरथ [राज्य कर रहे] थे। , उनकी' वृद्धावस्था आजाने- तक' भी कोई पुत्न नहीं हुआ । ५०. -चिन्ताग्रस्तहोकर राजा दशरथ'ने गुरु (वसिष्ठ), के पास जाक्रर अपनी चिन्ता ,केनिवारण का उपाय पूुछा। हँ मुनिवर,! मुझे किस.- प्रकार पुत्नन्प्राप्ति ३२ भानुभक्त-रामायण यस्काम्ले 'फल.मिल्छ यो भनि सबैयस्तो, बिन्ति सुनी वशिष्ठ गुरुलेहुन्छन् पुत्र' अवश्य जल्दि महाराज्शान्ताका पति क्रष्य श्रुंग क्रषि छन्ती हामी बसि यञ्च एक् हजुरकोचार् छोरा अति वीर् हुनन् हजुरका यस्तो अति वशिष्ठ को जब सुन्याशान्ताका पतिलाइ डाकीकन खुप्त्रष्ष्यैश्वंग , वशिष्ठ दूइ क्राषिलेपायस्क्रो थलिया लिईकन . तहाँयस् पायस्कन आज लेउ महराज् !राजालाइ दिया र पायस तहाँराजा खूशि भईदूवै ति क्रद्ृषिकाकौशल्य्रा र ति केकयोकन दिया खानै बाँकि थियो तसै बखतमाकौशल्या र ति कैकयीसित भनिन्, जान्त्या बंशिष्ठै थिया ।'युक्ती बताई,द्या ॥५१॥एक् यज्ञ ऐले .गच्या।ती डाक्न ऐले ,पच्यो ॥खातिर् ,गरौंला जसेँ।सब् ताप छुट्नन् तसैँ। ५२॥ राजा बहुत् .खुश_ भया ।.यागू गर्ने ' लागीगया ॥होम् गर्ने लाग्या जसै।आया ति अग्नी,तसै ॥५३॥।छोरा हुन्याछन् भनी।'लूक्या ति अग्नी पैनि॥क्रोमगल् चरण््मा परी।पायस् दुवै भाग् गरी।[५ ४ आइन् सुमित्ला, पनि। 'ख्वै भाग. मेरो . भनी ॥ होगी । , इस कम से यह फल प्राप्त होगा--यह जाननेवाले गुरु वसिष्ठ हीथे । [राजा की]ऐसी विनती सुनकर गुरु वसिष्ठ ने उपाय बता दिया । ५१महाराज ! एक [पुत्नेष्ठि] यज्ञ करने'से शीथ्र ही पुत की निश्चय प्राप्तिहोगी। शान्ता के पति त्रट्ष्यश्वुङ्ख एक त्रष्षि हैँ, उन्है अभी बुलाना चाहिएऔर उनके साथ, बैठकर हम लोग आपके, लिए वैसा ही एक यज्ञ करेँगे ।बूउसके फलस्वरूप] आपैके चार . अत्यन्त वीर पुत्र होंगे और आप. सबतापो से मुक्त होंगे । गुरु वसिष्ठ का यह परामशै सुनकर : राजा अत्यन्तप्रसन्न हुए । शान्ता के पति त्रष्ष्यम्ध्मुंग को बुलाकर [उनके आदेशानुसार]सेविधि यज्ञ का आरम्भ किया ।' जैसे ही,त्रष्ष्यश्ुञ्ग और, वसिष्ठ, दोनोंचद्षि ,हवन करने लगे, वैसे ही अग्निदेव खीर की एक थाली “हाथ मेंलिए वहाँ प्रगट हुए । ५३ ,प्रस्तुत इस खीर को ग्रहण करे, स्वयं भगवान्पुत्र छूप मै आपके यहाँ जन्म लेगे । यह कहते हुए राजा को खीर देकर'उसी, समय अग्नि-द्रेव अन्तर्द्धीन हो गये। :राजा ने प्रसन्न, होकर , दोनोंतह्रषियों के क्रीमल चरणों मैं साष्टांग प्रणाम कियाँ।: खीर,के.दो भागक्ररके) कौशल्या और कैकेयी को [एक-एक भाग] दिया गया । ५४ वेपाली-हिन्दी दूवैलै, दुइ भागदेखि झिर्कि भाग्तीन् रानी मिलि तेहि पायस तहाँतीनै - रानि ति गभिणी पनि भयादेखी यो सब रानिका सकल लोक्कौशल्या जननी गराइ भगवान्देखिन्, श्रीप्रभुको- चतुर्भुज स्वरूप्हात् जोरी बहुतै स्तुती पत्ति गरिन्जान्याँ नाथ ! -हजूरलाइ सवकायो ब्रह्माण्ड पनी सहज् उद्दरमामेरा. आज उदर्विषे बसि यहाँदेख्याँयै मूर्ती प्रभुको सदा मनमहाँयस्तो दिव्य शरीर् लुकाइकन बेस्दुशेन् देउ मलाइ हेर्छु भगवान् !तेही बालक, मूतिलाइ- म यहाँसब् पापू -नष्ट गराउँला र कर्णा (खीर) खानेही वालीथीं “(खीरो खानेही वालीर्थी कि सुमित्ला भक्त-उपर् दया हजुरको, ३२बद वतितको पुन्याई दिया।संपुर्ण खाई लिया ॥५५॥तेज् देवताको सरी ।खूशी भया तेस् घरी ॥श्रीराम पैदा भया।(सब् माइका तापू गया॥५६।।ईश्वर इनै हुन् भनी।आत्मा स्वरूपी भनी ॥लिन्या त आफै थियौ।यो जन्म ऐले लियौ।।५७॥।हे नाथ् ! शरणमा पच्याँ ।झल्कोस् पुकारा गण्याँ ॥बालक् स्वरूपूका बनी ।,फेर् बाललीला पनि॥५%॥।आलिङ्गनादी गरी ।होला र जाँला तरी ॥ भी उसी समय वहाँ आ पहुँची और कहा कि मेरा भाग कहाँ है-। दोनों ने अपने-अपने हिस्से मै से निकालकर उसके लिए भाग-पुरा-किया । तीनों रानियों ने मिलकर सव खीरखाई । १५ तीनों राचियाँ ग्भेवती भी हो गई। उनके मुखमण्डलदिव्य तेज से पूर्ण, थे। ऐसा देखकर सारा त्रह्याण्ड हर्षोल्लास से भरगया। कौशल्या ने भगवान् श्रीराम को जन्म दिया। भगवान्का चतुर्भुज स्वरूप देखकर माता का ताप समाप्त हो गया। ७६राम ईश्वर हुँ, ऐसा.समझकर हाथ जोइकर [कौशल्या ने] उनकी स्तुतिभी की--नाथ मैं आपको पह्चान गई आप सबके आत्मास्वरूप हैँ।इस ब्रह्माण्ड को भी सहज ही पेट मैं धारण करने वाले आप हीथे। आजमेरे गर्भे मै स्थित होकर यहाँ जन्म लियाहै। ५७१ हे नाथ] आपकीऐसी महान् क्कपा देखकर-आपके चरणों मैं पड्ती हँ। मेरे हृदय कीयहीपुकार है/कि आपकी यह मूति सदैव मेरे हृदय-पटल पर विराजमान रहै ।इस दिव्य छूप को अदृश्य कर सुन्दर वाल-स्वरूप मैं .मुझे दशंंन दीजिए।तब सैं बाल-लीला देखकर आनन्द प्राप्त करूंगी। ५५ . आपके उसी वाल-रूप की मूति,को मैं आलिगन् करके सव पापों से मोक्ष पाउँगी। यही ३४ यो बिन्ती महतारिको सुनि हुकूम्मातर् ! जुन् छ हजूरको हित कुरोदूबै स्की पुरुपै भई अघि ठुलोतीमीलाइ म पुत्न पाउँ भनि खुपूहुँला पुच भनेर वर् पनि दियाँतिम्रो पुच भयेर जन्मन गयाँकौशल्यासित बात् पनी यति गरीचेष्टा वालककै लिया प्रभुजिलेथाहा भो दशरथूजिलाइ र गयादेख्दैमा परिपूर्ण मन् हुन गयो तत्क्षणूमा तहि जातकर्म पत्ति भो कैकेयीतिर ता भरत् हुन गयाजम्ल्याहा दुइ पुन्न पाउँदि भइन्जेठा लक्ष्मण ता भया ति दुइमातीन् रानीतिर चार पुत्र सुकुमार्भूमि रत्न सुवर्ण वस्त्हरुका आपकी मेरै अपर महान् क्रपा होगी । भानुभक्त-रामायण यो भो प्रभूको तहाँ।होओस् सबै थोक् यहाँ।॥५९।॥। मेरो तपस्या गण्यौ।झ्च्छठा यसैमा धघप्यौ॥सोही कुराले यहाँ। व्यर्थ म गर्थ्या कहाँ ॥६०।।बालक् सरीका बनी।खुप् रून लाग्या पनि॥दशैन् गप्याथ्या जसै।आतन्द पाया तसै ॥६१।।सब् काम् गुरूले गन्या ।आनन्दमा सब् पच्या॥ताहाँ सुसिब्बा पनि।शबनुध्न कान्छा वती॥॥६२॥।जन्मी सक्याथ्या जसै ।भारी भया दानू तसै॥ माता की यह विनंती सुन कर वरदान-स्वरूप भगवान् ने कहा, हे माता ! आपके हितार्थ सभी कुछआपकी इच्छानुसार हो जाये । ५९ किसी समय आप दोनों स्ती-पुरुष नेइस आकांक्षा से महान् तप किया था कि मुझे आप पुत्र-रूप में प्राप्त करो।उस समय मैँने आपको वरदान देकर आपका पुत्र होना स्वीकार भी कियाथा। इसीलिए मै आपका पुत्न बनकर आया हुँ। व्यर्थ ही मैंऐसाकहाँ करता ! ६० माता कौँशल्या से इतनी बात करके प्रभु ने वाल-खूपधारण किया और वालक की भाँति रोने लगे। और बालनक्रीड्डाओ 'सेमाता को प्रमुदित करने लगे । राजा दशरथ को मालूस होते ही वेदशैवों के लिए आये। देखते ही उनका हृदय आनन्द से विभोर होगया । उन्है एक तृप्ति की अनुभ्रूति हुई । ६१ गुरु ने उसी समय जाति-कर्म आदि सब सम्पन्न करवाये । [राजा-प्रजा| सभी आनन्दित हुए ।कैकेयी से भी भरत तथा सुमित्वा से जुड्वे पुत्न ज्येष्ठ लक्ष्मण और कनिष्ठशलुध्न ने जन्म लिया। ६२ जैसे ही तीनो रानियों के चार सुकुमार पुत्नउ्पन्न हुए वैसे ही [महाराज दशरथ की ओर से] भूमि; , रत्नादि, . स्वणतथा वस्तों का दान किया जाने लगा। गुरु वशिष्ठ ने कौशल्या सै नैपाली-हिन्दी ३५ कौशल्यासुतको वशिष्ठ गुरुले नाम् 'राम' भन्नू भनी।राख्या कैकयिपुत्को 'भरत' नाम् जमूल्याहकोनाम् पनि।॥६ ३॥।जेठाको शुभ नाम 'लक्ष्मण' गरी जुन् चाहि कान्छा थिया ।तिनूको नाम् पनि काम-माफिक असल् , 'शत्नुध्न', राखी दिया॥लक्ष्मण् राम्सित खेल्दछन् भरतथ्यै शबुध्न खेल्दा भया ।-पायसूकै अनुसारले हुन गयो प्रीती त वढ्दैगया ॥६४।। बालक् काल् बितिगैगयो प्रभुजिको सब् बाललीला गरी।चारैको व्रतबन्ध भो पढिसक्या सब् शास्त खुब् बोध् गरी ॥खेल्या क्यै दिनमा शिकार बनमा सच्चा शिकारी बनी।:राज्काजूगर्नुजती थियो सकल त्यो राज्काज् चलाया पनि॥६५।॥। राम् हुन् परात्मा ति कहाँ विकारी ।“ यस् लोकमा छन् नररूपधारी ॥काम् गर्ने लाग्या ति नरैसरीका ।लीला अपार् छन् भगवान् हरीका ॥ ६६ ॥ राम् नाराग्रण हुन् भनेर मनले जान्या र भेट्छू भनी ।विश्वासिब क्रषी बहुत् खुशि हुँदै आया अयोध्या पनि ॥देख्या श्री दशरथ्जिले र बहुतै आदर् क्रषीको गरी।सोध्या काम् किन आज आउनु भयो भन्दै बहुत् प्रेम् धरी।॥६७॥। उत्पन्न बालक का नाम राम और ,कैकेयी से उत्पन्न बालक का नाम भरतरक्खा । ६३ जुइवे बालकको में से ज्येष्ठ पुत्र का. नाम लक्ष्मणतथा कनिष्ठ का नाम उसके कार्यो के अनुसार शब्व्ध्न [अर्थात्शल्लुका नाश करने वाले] रक्खा गया। लक्ष्मण रामके साथतोशब्नृध्व भरत के साथ खेलते हैँ। यह सारा विधान खीरके अनुसारहीहुआ । ६४ प्रभु का वाल्यकाल वाल-लीलाओं मैं व्यतीत हुआ । चारोभाइयों का यञज्ञोपवीत संस्कार हुआ । उन्होंने सभी शास्तों का अध्ययनसमाप्त किया। एक कुशल आखेटक के रूप मै कितने ही दिन वन मेंशिक्कार खेलते फिरे। राजन्काज मैं भी प्रवीण हुए। ६५ रामपरमात्मा है। वे तो निरविकार' हँ, उनमेँ, विकार कहाँ ? इस संसार मेंउन्होते मानव-छूप धारण किया है। बे मनुष्यकी ही तरह कार्य करने:लगे । भगवान् हरि की लीला अपरम्पार है। ६६ क्रषि विश्वामित्नने. हृदय से यह अनुभव किया कि राम नारायण विष्ण् हुँ। बे बहुत हृपित ३६ आदर्पूर्वेकका सुन्या प्रिय वचनुआफ्नू ददैं जउन् थियो मनमहाँहे राजन् ! सब पर्व पवेहरुमागर्छु होमूहरु कर्म तेस् बखतमामारिच्ले र सुवाहुले वहुत दिक्दूवैलाइ मराउनाकन उठ्योसोही बिन्ति गर्छे भनेर अहिलेजेठा पुब्च मलाइ वक्सनु हवस्लक्ष्मण् साथ् गरि रामलाइ अधिराज्मारिच्लाइ सुबाहुनाइ सहजैयस्मा अति वशिष्ठको लिनुहवस्भन्छन् दीनु त बक्सनू पनि हवस्विश्वामित्जजी को सुन्या वचन योदिजँ कि नदिऔँ यही मनमहाँसोध्या ताहि वशिष्ठ्थ्यै पनि गुरोकल्याण् हुन्छ कसो गरेर अहिलेहुए और दशँनार्थ अयोध्या आये । भानुभक्त-रामायण यस्ता क्रषीले जसै।सोही वताया तसै॥ईश्वर्विषे मन् . धरी।आयेर होम् नाशू गरी।॥६०%।॥।गर्छन् र पापी भ॑नी।रिस् आज मेरो प्नि॥आयाँ , हजुर्मा यहाँ।लैजान्छु ऐले वहाँ॥६९।॥। ऐले इजुर्ले , दिया।मार्न्यी यिनले थिया॥!दीना नदीना महाँ।यै काम आयाँ यहाँ॥७०॥राजा सकस्मा पप्या।चिन्ता वहूतै गच्या॥ यस्तो पन्यो क्या गरेँ।अर्ती मिलोस् एक् बरु॥७ १॥ दशरथ जी ने क्रषि को देखकर उनका भव्य स्वागत किया और अत्यन्त प्रेम-पूर्वेक आने का कारण पूछा। ६७त्र्रषि ने दशरथ के प्रिय वचनों को सुनकर अपने मन की सारी व्यथा कह्सुनाई। हे राजन् । सभी पर्वो मे ईश्वर के प्रति मन लगाकर जबहवन कर्मो को करता ठ्घँ, तो राक्षसगण हवन-का्य मैं बाधा डालते-हैँ । ६०मारीच और सुबाहु अत्यधिक कष्ट दे रहे हँ । आज मेरे मन में भी इतनाक्रोध उठाहै किमै उन दोनोंको मरवा डालुँ।' अतः मैँ आपसे यहीबिनती करने आया हुँ कि इस कार्य के लिए मुझे अपना ज्येष्ठ पुत् देनेकी क्ृपा करे; मैं उन्है अभी वहाँ ले जाढँगा । ६९ महाराज! यदिआप नक्ष्मण सहित राम को देते तो मारीच तथा सुवाहु को सरलता प्रूवंकमार डालते । देने न देते के विपय मे आप गुरु वशिष्ठ से परामशँ करलेने की कृपा करेँ। इसी काम से मैं यहाँ आया हँ । ७० ' विश्वामित्नके वचन सुतकर महाराज संकट में पड्गये। देया नर्दे? 'यही चिन्ताउनके मन मै उठ्ने लगी। उन्होने वशिष्ठ से.पूछा, गुरुदेव ! ऐसीसमस्या आ पड्टी है, क्या क । किस प्रकार कल्याण होगा यही बतानेकी कृपा करेँ। ७१ एक तो यही कठिन है कि राम को देखे बिना मैं नेपाली-हिन्दी रामूलाई म नदेखि बाँच्छु कसरीइनूलाई नदिया सराप् पनि दिनन् यस्मा श्रेय यसो छ'यो गर भनी: सोही काम म ग्देछ् हित हुन्यायो बिन्ती 'दशरथ्ूजिको जब सुन्यारास्को 'गुद्या कुरा सब भन्तिदिया हे राजन्। तिमि रामलाई अहिले' भन्छौ पुत्र ति हुन् तथापि इ त हुन्भूभार् हने निमित्त आज भगवान्कौैशल्यातिर जन्मनू पनि थियोकौशल्या दशरथ् दुबै तिमिहरूईश्वर्लाइ म पुग्न पाउँ भनि तपूखूशी भै वरदान् दिया: प्रभुजिंलेसोही सत्य गराउनाकन यहाँशेष्हुन् 'लक्ष्मण' शङ्घहुन् भरतजी'हुन् को जान्दछ तत्व यो बुझ तिमी चीचा भखुको कन 0041 को जान्दछ तत्त्व यो बुझ तिमी क्रिस प्रकार जीवित रह सकुँगा। यदिमैं है कि कहीं विश्वामित् श्राप न देदे। त्र ३७ एक् यै केठिन्- भो अनि ।.की लाग्छः यस्को प्नि ॥पाउँछु ओज्ञा -जसो।'कुन् पाठ् छ गर्नू कसी॥।७२॥।'ताहीं गुरुले 'पनि।यस्ता' इ राम् हुन् 'भती ॥हुन् पुग्ने मेरा भनी।'चौधै भुवन्का धनी॥७३१।यस् पृथ्वितल्मा झन्यां ।'सो सत्य ऐले गच्या।॥कण्यपू अदीती: थियौ।.गर्दै समाधी लियौं।॥७४।॥।छोरो म हुँला भनी। जन्प्या परात्मा' पनि ॥“शब्नुध्न। चक्रावतार् । -लीला प्रभूको अपार॥७५।। झ्न्हरंच दूँ, तो ऐसा, लगता; मि इसरमे कौन काय कल्याणकारीहोगा, आप आज्ञा द; वही हितकर कार्य मैं करूँ । कौन सो आदेश किस ' प्रकार पूर्ण करना है मुझे आज्ञा दै । ७२ गुरु ने 'राजा दशरथ की' वि्नतीसुनकर उन्हैँ राम के समस्त गुर्णों से परिचत कराया । उन्होने कहा, हे राजन्। आप तो रामको अपना पुत्र कहते हैँ। सो तो है ही,'तथापि येवही: चौदह भुवन के मालिक हैँ। ७३ पृथ्वी के भार को हुरण करने आज भगवान् धरती पर पधारे है।लेना था सो भी अब सत्य हुआ । कौशल्या माता की गोद'मैँ जन्मकौशल्या और दशरथ आप दोनों पूर्व जन्म मै अदिति और कश्यप थे । तपस्या मैँ रत होकर भगवान् को अपने“पुत्न के रूप मैं पाने की कामना की थी। ७४ प्रभु ने तपस्या से 'मुग्ध :होकर आपका पुत्न होने का वरदान दिया। उसी को सप्य प्रमाणितकरने के लिए प्रभु ने यहाँ जन्म लिया । शेष का (शेषनाग) लक्ष्मण,शंख का भरत,' चक्र का शब्नुघ्न अवतार है। इन तत्वों को कौन जानताहै । अतः आप प्रभु की इस अपार लीला को समझेँ । ७५ 'स्वयंप्रभुकीमूल शक्ति, अनन्त गुणों से पूर्ण दिव्य मूर्ति वनकर जनक, जी की पुत्नी डद भनुभक्त-रामाँयण मुल् शक्ति - प्रभुको अनन्त गुणकीछोरी भै ति बस्याकि छ्न् जनककीसीता राम् दुइको विवाह विधिलेविश्वामिबजिको भयो र मनमादीन्यै योग्य म मान्दछू' भनि गुरुखूशीः -भै दशरथूजिले पनि दियाराम् लक्ष्मण्कन पाउँदा क्रषि पनीआशीर्वाद् दशरथ् जिलाइ दिइ राम्केही दूर् गइ रामलाइ क्राषिलेजुन् विद्या पढि भोक्थकाइ कहिल्यैगङ्गाका तिरमा बडो बन थियोविश्वामि्चजिले -कद्या . प्रभुजिथ्यैँत्यो हो राक्षसि कामरूपि छ बहुत्गर्छ यस्कन मारिवक्सनु हवस्विश्वामिबजिको वर्चनूकत सुनीटंकार् खुप् धनुको गच्या सुनि यहाँत्यो टंकार् सुनि ताडका पनि तहाँहान्यी बाण् प्रभुले गड्यो हृदयमा सो दिव्य मूर्ती बनी ।सीता छ नाउँ पनि॥'संयोग् गरा भती।:आई रह्या छन् पनि॥७६॥:ले आति दीया जसै।-लक्ष्मण् सहित् राम् तसै ॥अत्यन्त खुशी भया।:लक्ष्मण् लिई ती गया॥७७॥विद्या सिकाई दिया।.लागूदैन यस्ता थिया ॥.पुग्या जसै ती तहाँ।.राम्! ताइका छे यहाँ ॥७८॥लोक्लाइ बाधा पनि।यो पापिनी हो भनी,श्रीरामजीले पत्ति ।-त्योजलूदिआवस्शनी॥। ७९.दौडेर आई जसैँ।.त्यो वाण्, मरी त्यो तस ॥ होकर बैठी है और वाम भी सीता है। सीता और राम दोनों का विवाहका विधिवत संयोग उत्पन्न कराने की इच्छा विश्वामित्न जी के मन में:हुई-है, इसी लिए ये आए हुए हुँ। ७६ जैसे ही गुरु ने ऐसा परामशँ दियाकि देना ही उचित है, वैसे ही प्रसन्न होकर दशरथ जीने भीरामको'लक्ष्मण सहित दे दिया ।: -राम-लक्ष्मण को पाकर त्र्रषि भी अप्यन्त हषितःहुए और दशरथ जी को आगणीर्वाद देते हुए राम-लक्ष्मण को लेकर चले गए । ७७ कुछ दुर जाकर गुरु ने राम-लक्ष्मण को ऐसी मंत्न-विद्या कीशिक्षा दी जिसे. प्राप्तकर श्रु्धा तथा श्रम का अनुभव कभी नहीं होता। गंगा के किनारे एक वडा जंगल था। वेजैसे ही वहाँ पहुचे'विश्वामिल्न जी ने प्रभु राम से कहा कि ताइका राक्षसी यहीं रहती है । ७५८,यह राक्षसी मनमोहिनी है और बहुतों के जुभ कार्यो मैं विघ्तखाधा 'पहुँचाती है। यह पापिन है।. अतएव इसे मारने की क्रपा करेँ॥"विश्वामित के वचनो को सुनकर रामचन्द्र जी ने धनुष को जोर से टंकारा, जिसे सुनकर बह् शीप्न ही आ जाय । ७९ धनुषकी टंकार को सुनकर- नेपाली-हिन्दी यंक्षी थी अघिकी सरापू परि तहाँरामले मारिदिदा त श्रापू पनि टय्यो_ श्रीरासूचन्द्रजिका वरीपरि घुमी-स्वगैसा गइ रामका वचनले,विश्वामिल क्रषि बहुत् खुशि भया 'जो सब् शास्त-रहस्य हो सब दिया कामाश्रम् रमंणीय थल् तहि थियोफेर सिद्धाश्रममा गया रघुपतीतेस् सिंद्धाश्रममा अनेक् क्रषिथियामारिच् फेक्न सुबाहु मानेकन राम् विश्वामिबजिलाइ भन्नु पनि भोः;वस्छन् यज्ञ ठुलो गरी लिनुभयाभेटै आज भयेन मार्नु कस्री'विश्वामित्र .क्राषी अरू क्रषि लिई ३९तेस्ती ' भयाकी थिई ।फेर् यक्षिको छ्पलिई॥५०॥। प्रेमले नमस्कार गरीपबेस् एक् विमानूमा चढी ॥यो कार्य देख्या जसै। ती” रामलाई तसै॥८१।। एक्रात् तहाँ वास् गरी ।सबू्लाइ मङ्गल् गरी ॥पूजा _ सबैले गन्या।ताहाँ, अगाडी सच्या॥८२। मारिच् सुबाह कहाँ।ती आउँथ्या की यहाँ॥यो ' सजिः' सून्या जसै।होस् गर्ने लाग्या तसेँ॥5३॥। ताडका ज्योही वहाँ आयी, प्रभु ने वाण छोड्डा। वह, बाण जाकर उसकेहृदय मेंलगा। वह तत्काल सृत्यु को प्राप्त हुई। यह राक्षसी पूर्वजन्म मैं यक्षिणी थी।' शाप के कारण वह'इस दशा को प्राप्त हुईथी।राम के हा्थो मर्ने से उसे इस भयंकर शाप से भी मुक्ति मिल गई।॥ ८०अपने राक्षसी जीवन से मुक्त होकर ताइका ने 'प्रभु की परिक्रमा की औरप्रेमपुवेंक प्रणाम किया । प्रभुकी'आज्ञा से वहाँ एक उत्तम बिमानप्रस्तुत. हुआ, जिस पर चढ्कर वह स्वर्ग लोक को गई। इसकायँ.कोदेखकर विश्वामिल्न उनसे अत्यधिक प्रसन्न हुए और जो भी शास्तम्ज्ञानका रहस्य था उससे राम को परिचित कराया । ०१ इसके बाद उन्होनेकामाश्रम नामक एक रमणीक स्थान मै एक रात विश्राम किया ।तत्पश्चात् सवका कल्याण करके रघुनाथ जी सिद्धाश्रम को गए। उससिद्धाश्वम मैं अनेक त्र्षि थे, उन् सब लोगो ने राम की सत्कार किया।फिर मारीच और सुबाहु को मारने के लिए राम _ अग्रसर हुए । ५२विश्वामित्न से उन्होनि कहा कि मारीच और सुबाहु कहाँ रहते हैँ। उनसे' तो'भेंट ही वही हुई। उन्हैं मारा किस प्रकार जाए।. न्हे यहाँ तक- वेलाने के लिए एक यज्ञ करना चाहिए । रामचद्न की ऐसी बाते सुनकरविश्वामितल अन्य सभी' क्रषियों को साथ लेकर यज्ञ करने लगे । पाई ० भानुभक्त-रामायण दिन् मध्यान्ह भयो तसै बखतमा आया ति राधस् पनि।मार्न्याकालुकनचालुनपाइ , अघिझँ होम् नाशू गरौँला “भनी ॥काहीं हाइ खसाउँछन् कहि रगत् यस्तै प्रकारले गरी।आया ती जब यज्ञमा प्रभुजिले हान्यां अगाडी सरी॥%४॥। भारिच्लाइ त वाणले जलधिका तिर्मा पुग्याई दिया ।,अग्नीबाण धरी सुबाहुकन ता भस्मै गराई दिया॥तिनूका फौज् पनि ताहि लक्ष्मणजिले मारी सक्याधथ्या जसै।खुशी भैकन , पुष्पवृष्टि गरियो सब् देवताले तसै॥०५।। व्रिश्वामित्न ' बहुत् प्रसच्च हुनुभै रामूलाइ काखमा लिया ।आओजन् गर्न, निमित्त रामूकन तहाँ मीठा फलादी दिया॥तीच्दिन् ताहि मुकाम् गन्या प्रभुजिले वार्ता कथाको गरी।चौथादिन् क्रषिले गच्या विनति एक् रामूका अगाडी सरी॥॥८६॥। हेराम्! जाउँ जनक्जिका पुरमहाँ राजा जनक् छन् बडा ।ग्नेत् आदर भक्तिले हजुरका साम्ने हुन्याछन् खडा ॥ताहाँ एक् शिवको धनुष् पनि छ वेस् देखीयला त्यो पनि।यो बिन्ती क्रषिको सुनेर रघुनाथ् ' खूशी भया वेस् भनी।॥5७॥ मध्याल्व का समय हुआ, तत्काल राक्षसगण वहाँ आये। पड्यंत्च की चालको न् समझकर सदा की भाँति हृवनादिको नष्ट करने के लिए कहींअस्थियाँ कहीं रक्तादि गिराने लगे। जैसे ही वे यज्ञ मै आये और बिघ्न-कार्य आरम्भ किया वैसे ही प्रभुने आगे वढकर प्रहार किया । ५४,मारीच को तो वाण द्वारा समुद्र के किनारे पहुँचा दिया और सुबाहु कोअग्तिवाण से. भस्म कर दिया। उनकी समस्त सेना भी.लक्ष्मण द्वारामारी जा चुकी थी । तब हर्षोल्लास से पुलकित होकर - देवताओ ने पुष्प-वर्षा की। ०५ विश्वामित्न ने अत्यन्त हर्षित .होकर राम को गोद में,उठा लिया'और भोजन “हेतु उन्है फलादि दिये । कथा-वार्ता करते हुएप्रभु जी वहाँ तीन दिन रहे । चौथे दिन त्रषि ने राम-के सम्मुख आकरएक विनती की। ०६, हेराम ! आप जनकपुर चले, जहाँ एक -बङेप्रतापी राजा जनक जी हैँ। वह् आपको पाकर आपके -सम्मुख उपस्थितहोकर आपका बडा, ही आदर करेँगे और भक्ति-भावना से भर उठेगे ।वहाँ,' शिवजी काःएक उत्तम धनुष भी है, आप उसे भी देख लेगे।तरष््षि की यह् विनृती सुनर्कर रघुनाथ जी- बड्े ही प्रसञ्च हुए। ०७ नेपाली-हिन्दी विश्वामिब र भाइ लक्ष्मण लिईआश्रम् गौतमको पच्यो नजरमाआश्रमका नजिकै असल् फल सहित्जन्ठू नाम् त थियेन कोहि तपनी मालुम् राम्कन क्या कहीँ कमि थियो सोध्या तैपनि यो असलु छ किन होविश्वामित थिया सबै गुणनिपुण्गौतम्को अघि बस्ति हो अव भन्य्रा भार्यी गौतमकी संमान गुणकीब्रह्माकी ति त पुल्नि हुन् 'गुणि,हुँदा' प् श्रीराम् हिड्याथ्या जसै ।.गंगा-किनार्मा. तसै ॥फूलुको “ बघेंचा थियो ।संभार् बिना त्यो थियो।।5८॥जो ता जगत्का. धनी ।रित्तै , ब्षेँचा भनी ॥विस्तार् सुनाया "पनि ।'छैनन् यहाँ क्वै पनि॥०८९॥। भक्तै अहिल्या: थिइन् ।सब् खुश् गराई लिइन् ॥ गौतम् कार्ये-निमित्त दूर् जब गया रूप् गोतमैकी सरी । धारी गौतम-पत्निका नजिकमा: इन्द्र अगाडी सरी॥९०।॥।आई भोग- विलास् गरेर खुशि भै, फर्की गयाथ्या जसै।देख्ता गौतमलाइ गौतमजिले आश्चय॑ मान्या तसै ॥ आफ्नू . रूप दुरुस्त देखिकन खुपू -गौतम् रिसापा पनि ।सौध्या होस् तँ कउन्? बता नहि _सोध्या होस् तै कउन्। वता नहि भने हेर् भस्म गछ भनौ॥९१।। हेर् भस्म गर्छु भनी।।९ १।॥। हक त तितितितिविसितितितिति)विश्वामित् तथा भाई लक्ष्मण को साथ लिये श्रीराम जीजा रहे थे। उन्होनेगंगा नदी के किनारे स्थित गौतम त्रषि का आश्रम देखा।' आश्रम केनिकट एक सुन्दर फूलों से भरा उद्यान देखा; साँभर (हरिण) के अतिरिक्तअन्य कोई भी पशु वहाँ नथा। पक जगत्पति रामको क्या नहीं मालूमैथा। तिसपर,भी उन्होने इस सुनसान उद्यान,के विषय मैं पूछ लेना हीउत्तम समझा । - विश्वामित्न सर्वज्ञ थे, अतः उन्होने विस्तारपुर्वेक राम को;वताया कि वहाँ कोई भी नहीं है। ५९ गौतम के ही;:समान गुणवती एवंभक्त उनकी पत्नी भी थी ,जिसका नाम अहिल्याथा। वहतो ब्रह्याकीपुत्री थी जिसने 'अपने गु्णों से सवको प्रसन्न किया जव गौतम किसीकार्यवश कहीं दूर गए हुए थे उस समय इन्द्र गौतम का रूप धारण करकेगौतम पत्नी के पास आया । ९० भोग-बिलास के: पश्चात् जैसे ही वहप्रसन्न ,होकर लौट रहा था वैसे ही गौतमी (अहिल्या ) दूसरे गौतम को देखकरआश्चर्यचकित हो गई । अपने ही छूप को देखकर गौतम अत्यन्त क्रोधितहुए और इन्द्र से प्रश्न किया कि बताओ तुम कौन हो; अन्यथा अभौ तुम्हेँभस्म,कर दूँगा । ९१ तव भयभीत, होकर बह्:बोला कि हे ब्राह्मण! मैँ इन्द्र टर भानुभक्त-रामायण ब्राह्वाण् । इन्द्र म हुँ भनेर डरलेगौतमूले पत्ति रीसमा परि दियायोनीमा अति लुव्ध आज भइस्तेरा येहि शरीरमा अब हुनन् दीया येति सराप् र इन्द्र पति फेर्पत्नीलाइ सरापू दियेर क्रषिलेजन्तू कुछ् नहुनन् यहाँ अब उपर्जैले श्रीरधुनाथ् चरण् धरिदिनन्यस्तो सत्य सराप् पच्यो र पतिकोपृथ्वीमा गिरि गैगइन् अचल एक्पादस्पशं ति खोज्दछिन् हजुरकोतिनूलाई करुणा गरी इजुरलेयस्तो बिन्ति सुन्या जसै ति क्रषिकादेख्ता पत्थर एक् ठुलो प्रभुजिलेसुन्दर मूति भई खडा भइ्टगइन्श्रीरामूचन्द्रजिले प्रणाम् पति गच्यादेखिन् श्री रघुनाथलाइ र तहाँपूजा स्तुति गरेर रामूसित बिदा बिन्ती गग्याथ्या जसै ।यस्ती सरापू पो तसै॥यत्रो बडो भै पनि।हज्जार योनी भनी॥९२॥। आफ्ना स्थलैमा गया।पत्थर् बनाईदिया॥पत्थर् भई तै रह्यास् ।तैले तँ मुक्तै भयास्।॥९३॥ताहीँ अहिल्या पनि।पत्थर् स्वरूप्की वनी ॥पाप् मुक्त होला भनी।कुल्चीदिन्या हो पनी।।९४।।श्वीराम् तुरन्तै गया।कुल्चीदिँदा त्यो भया॥ताहाँ अहह्या पनि।ई ब्राह्मणी हुन् भनी॥॥९५॥।ख्शी अहिल्या भइन् ।मागी पति थ्यै गइन् ॥ हुँ। इसे सुनकर क्रोधित गौतम ने भी शाप देदिया कि जब इतने महान्होकर भी तुम यौवन के वशीभ्रूत हुए हो तो तुम्हारे इस शरीर मैं हजारोयोनि-चिल् उत्पन्न हो जायंगे। ९२ इस प्रकार का शाप पाकर इन्द्रपुचः अपने लोक को चले गए। पत्नी अहिल्या कोभी क्रपिने शापदेकर पत्थर वना दिया। उन्होँने कहा कि यहाँ अव कोई जीवजन्तुनहीं रहेगा; केवल तुम्हीँ यहाँ अकेली पत्थर वनकर रहोगी । जव रघुनाथअपने चरणों से तुम्है स्पशे करेगे तभी तुम इस णाप से मुक्त होगी । ९३पति के इस शाप से अहिल्या धरती पर गिर पडी और एक निश्चल पत्थरहो गई।, वह शाप से मुक्ति पाते के लिए आपके चरणो का स्पर्श चाहतीहै, क्पा करके उसे अपने चरणों से स्पणै करदे। ९४ क्रषिकी ऐसीविनती सुत्तकर श्रीराम तुरन्त वहाँ गये । रघुनाथ जी ने एक बडी शिलादेखी और उसे अपने पाँव से स्पशँ किया। अहिल्या तुरन्त ही एक सुन्दरस्ली वन कर खड्डी होगई। व्राह्वाणी जान कर श्रीराम ने उसै प्रणाम न्ेपाली-हिन्दी ताहाँ देखि चल्या र जल्दि रघुनाथ्तर्नाको प्रभुले जसै मन गप्याख्त्रोमित्! ई दुइ पाउको अति असल्पत्यर हो तपनी मनुष्य सरिकोतेस्तै पाठ यहाँ भयो पनि भन्याडुङ्गालि पनि रूपू धस्यो यदि भन्या तस्मात् पाउ पखालि वारि तिरमा येती बात गर्यौ भनेत तिमितायस्तो बिन्ति सुती तहाँ प्रभुजिलेमाझीले 'जलले पखालि उहि जल्यस्ता रित् सित नाउमा -चढि सहज्'श्याम्सुन्दर् रघुनाथ् बहुत् खुशि हुँदैविश्वामित्न क्रषी बहुत् खुशि हुँदै ३ गङ्गाजिका तीर् झप्या।माझी चरणमा पच्या॥९६॥। धूलो जसै ता पप्यो।सुन्दर् स्वरूपै धन्यो॥डुङ्गा स्वरूप् धर्दछन् ।हाम्राजहानूमदेछन् ।॥९७॥हाम्रा शिरोपर् धम्यौ ।गंगाजिका पार् तरचौ ॥पाक अगाड्डी दिया।'आफ्नाशिरोपर्लिया॥९८।॥।गंगाजिका पार् गया ।दाखिल् जनकृपुर् भया॥दुई कुमार् साथ्: गरी । आया यस् पुरिमा भनी जब सुन्या पुग्या प्रश्न गचन्या सबै कुशलको ।देख्या सुन्दर राजृकुमार् जनकले पुज्या ति ईश्वर् सरी ॥ “भी किया । ९५ श्रीरघुनाथ जी को देखकर अहिल्या प्रसन्न हुई और“पूजा-स्तुति के पश्चात् राम से आज्ञा प्राप्त करके पति के पास गई।वहाँ से चल क्र रघुनाथ जी शीघ्र ही गंगा जी के किनारे पर पहुँचे ।जैसे ही प्रभुने तैर कर पार होने के लिए सोचा वैसे ही मल्लाह उनकेचरणो मै आपडा । ९६ हे स्वामी | आपकी अति उत्तम चरण-रजलगते ही पत्थर भी मनुष्य-छूप धारण कर लेती है। उसी प्रकार यहाँ भीयदि मेरी नाव ने स्की का रूप धारण कर लिया तो हमारे समस्त परिवारनष्ट हो जागे । ९५ इसलिए हे प्रभु ! पहले मुझे अपने चरणों कोपखारने दै और वह पवित्न चरणामृत हमें माथे से लगाने दें। तभी हमआपको गंगा के पार उतरने दंगे। यह विनती सुनकर प्रभु ने अपनेपाँव आगे बढा दिये और मल्लाहों ने उतके चरण प॒खार कर जल को माथेमैं लगाया । ९५ इस प्रकार विधिपूर्वक नाव मैं चढकर श्रीराम सरलतासे गंगा जी के पार हो गये। श्याम-स्वकूप वाले रघुनाथ जी जनकपुरआये। बिश्वामित्न के दोनों राजकुमारों सहित जनकपुर की नगरीमैं आने का समाचार सुनकर राजा जनक तुरन्त ही प्रसन्त होकर दौइपड्डे। ९९ बहाँ पहुँच कर चरणों मैं झुक्कर कुशल-समाचार ज्ञात दौड्चाजनक् तेस् घरी॥९९।॥।पाञमहाँ शिर् धरी। प्ड्ट पक्का गर्ने, निमित्त फेर् जनकलेजान्याँ जान्न त चित्तले त भगव्रान्त्रह्वान् ! पुत्र इ हुन् कउन् पुरुषकाक्लेश्को लश नराखि यस् बखतमाविश्वामित्चजिले सुन्या विनति योयस्ता हुन् इ भनेर सब् ति क्रषिलेहे राजन् ! दशरथ्जिका इ सुत हुन्भन्छन् मानिसले गरी, नसकिन्यामारिच्लाइ ' सुवाहुलाइ अरु तारामूले मारिचलाइ फेकि सहजैपत्थर् भै कर्ति वर्षसम्म रहँदापाङले तह कुल्चेँदा उठि गइन्याहाँ एक् शिवको धनुष् छ भनि योदेख्नाको मतलब्ू छ आज त यहाँचाँडो आज नजर् गराउ भनियोमन्त्रीलाइ हुकूम् दिया जनकले क्या ।सद्ृश पूजाकी। भानुभक्त-रामार्यण सोध्या त्र्रषिथ्यै पनि ।विष्णृइ्नै हुन् भनी॥१००॥।विस्तार् हवस् वेस् गरी ।मेरो लग्या मन् हरी ॥राजा जनकको जसै।बिस्तार् बताया तसै॥ १० १॥नाम् राम लक्ष्मण् भत्ती।गछेन् पराक्रम्.. पनि ॥को जित्न सकूच्या थिया ।सूवाहु मारीदिया॥१०२॥।गौतम् कि नारी थिइन् ।जस्ता कि तस्ती भइन् ॥सूनेर आया यहाँ।राखी रह्याछौ कहाँ॥१०३॥विस्तार् गच्याथ्या जसै ।लौ ल्याउ भन्त्या तसै ॥ सुन्दर राजकुमारों को देखकर राजा जनक्र ने उनकी ईश्वरअपने मन मैँ निश्चय करने के लिए जनकजी ने त्ररूषि से पुछा कि क्या भगवान् विप्ण् यही हैँ। १०० क्रह्वन् !- थेकिन महापुरप के पुत्र हँ, विस्तारपूर्वक कहने की. क्रपा करें। इस समयमेरा मन क्लेश-रहित हरि के ध्यान मै लगा हुआ है। विश्वामित्न नेराजा जनक की यह विनती सुनते,ही श्रीराम के विषय में सविस्तारवर्णन किया । १०१ हे राजन् ! ये दशरथ जी के पुन्न राम तथालक्ष्मण है। लोग कहतेहै कि ये अभूतपूर्व पराक्रमी है, जो मनुष्य केलिए सम्भव नहीं । मारीच और सुबाहु को दूसरा कौन: पराजित करसकताथा। राम ने ही मारीच को पटक कर सुवाहु क्रा वध किया ।१०२इनके चरणो का ही प्रताप इतना है कि कितने ही वर्षो से शिला हुईगौतम की पत्नी को केवल इनका चरण-स्पशँ पाकर ही पुनः अपना पूर्वरूप प्राप्त “हो गया । यहाँ एक शिव-धनुष है, ऐसा सुनकर उसे देखनेकी आकांक्षा से यहाँ आये हुए हैं; सो क्कपया उसै दिखाने का कष्टकरेँ। १०३ ऐसा आग्रह सुनकर मंकी को धनुष. लाने की आज्ञा जनकने दी। इसी वीच जनक ने त्रद्रपि से कहा कि मैं अधिक क्या नेपाली-हिन्दौ छू यै बीचमा क्रषिथ्ये भन्या जनकले रामूले उचालून् धन् ।सीता छोरि म दिन्छु रामूकन गरुन् बीहा बंहुत् क्या भनूँ॥ १०४।। साँचा बाणि ,सुन्या र सोहि रितका बातृचित् गच्याथ्या जसै। 'पाँच् हज्जार् विरले उचालि बलले . ल्याया . घनूषै -- तसैप। ५. ताहाँ श्री रघुनाथ उठेर नजिकै, सोही घनूथ्यै गया। , वाम् हात्मा सहजै उचालि धनु त्यो राम् ले त बीँदाभया॥ १०,५॥ ताँदो जल्दि चढाइ खेँचनुभयो ताहाँ धनुष्कै जसै।दुई टक भई गिर्यो उ धनुता खूशी भया सब्, 'तसै।हर्षेहपे .भयो तसै बखतमा सारा जनकृपुर् “भरीआदर् खुप् प्रभुको गञ्या जनकले आलिगनादी गरी।॥१०६॥सीताजी पनि रामका, शिर-उपर् माला. कनक्को धरी।'छम्छम् पाउ गरी फिरिन् घरमहाँ मंगल् भयो . तेस् घरी. ॥मालिकूहुन् दशरथ् खबर् दिनुपच्यो, ती. छन् अयोध्यामहाँ।जाउनू प्र - लिएर मानिसहरू चाँडो तिआउन् यहाँ॥ १०७) यस्तो बिन्ति जनक्जिले पनि गन्या लेखेर विस्तार्, (दिया ।विस्तार् पत्न लियेर दुत्हर पनी, जल्दी अयोध्या गया ॥ निवेदन कर्खै । : राम शिवधनुष को उठा; लेंतो मै अपनी पुत्री सीताका विवाह राम से कर दूँ। १०४ ज्योही इन सत्य वचनों को सुना और -यह बातचीत हुई। जैसे ही पांच हजार वीरों ने बल लगा करे, धनुष-लाकर रक्खा । उसी समय श्रीरघुनाथ जी उठकर उस धनुष के पास आये। बायें हाथ से राम ने सहज ही धनुर्षको उठा लिया! १०५ बाण चढाकर जैसे ही धनुष को खीचा, वह दो टुकडे होकर रह् गया। यह देख “कर सभी अत्यन्त हृषित हुए । उस समय सम्पूणं जनकपुर में हर्षोल्लास छा गया । प्रभुको आलिगन मैं लेकर जनक जी ने उनका बडा हीआदर सत्कार किया । १०६ सीताजी ने भी राम के गले में स्वर्णमालापह्नाई और छमन-छम 'करती हुई लौट गई । दरार मैं उत्सव हुआ ।उनके स्वामी तो दशरथ' जी हैँ अतः उन्हेँ अयोध्या मै यह शुभ समाचारभेजना चाहिए । पत्न लेकर तुरन्त जाओ और यह गशुभसन्देश शीघ्रवहाँ पहुँचाओ, जिससे वह यहाँ णीघ्र आ जायें । १०७ इस प्रकार जनकजी ने यह विनती की और सबिस्तार पत्न लिखक्र दिया । ढूत लोग “भी पत्न लेकर तुरन्त अयोध्या चले गये। राजा दशरथ पल्न को सुनकर कद भानुभक्त-रायाँयण यो बिस्तार .सुन्या. जसै नृपतिले आनन्दमा ..ती : पप्या।सब्ले:, जानु पप्यो . जनकृपुरमहाँ भन्त्याहुकूम् योगञ्या। १०८ जम्मा लश्कर भै गयो क्षणसहाँ जल्दी जनकृपुर् पुग्यो?क्या वर्णनुभिडको गर्छे त्यस बखत् खाली अयोध्या भयो॥यस्ता रीत्सित सब् गया जतिथिया सेवा जनकृपुर् महीँ।दाखिल् भो दशरथ्जिको हुकुमले हर्ष बढ्यो खुप् तहाँ॥। १०९ताहाँ श्री दशरथ्जिको जनकले आदर् बहूतै गरचा।लक्ष्मण्ले सँग राम् पनी तहि पिता- जीका चरण्मा पन्या॥बस्वालाई हबेलि सुन्दर जनक्- जीले खटाया जहाँखूशी भै दशरथ् पनी गइ बस्या तेसै हबेली महाँ॥११०॥ सुस्देर् लग्न खटन् गच्या जनकले . मंगल् सहर्मा चल्या ।नाच् कीतेन् सितका प्रकाशकन हुन्या रात्मा चिराक् खुप् बल्यी ॥जो मण्डपू छ विवाहको तेस उपर् झुम्का हिराका झुल्या ।मूगा' मोति जुहार् जनकृपुरमहाँ घर्घर् सबैका झुल्या॥ १११॥।यस्तै रीत् गरि भो विवाह विधिले चारै जना भाइको।हर्षेले परिपूर्ण मन्, हुन, गयो सीतारजिकी साइको॥
- आनन्दमग्न हो गये और सबको जनकपुर चलने की आज्ञा, दी। १०८-दशरथ-जी की आज्ञा पाकर क्षण भर मेैंही सेनाकी सेना एकत्न होगई और जनकपुर चल पडी। भीडका वर्णन तो किस प्रकार कियापजोये! यही कहना पर्याप्त होगा कि पुरी अयोध्या ही खाली हो गईथी।इस् प्रकार अपने सब दल सहित दशरथ जी जनकपुर पहुँचे और दशरथ जीकी आजा से सभी लोग हषित,होकर अन्त:पुर मै जा कर विराजमान हुए ।१०९वहाँ जनक जी ने श्री दशरथ जी का भव्य स्वागत-सत्कार किया । लक्ष्मणके साथ राम ने भी पिता के चरणों मैं झुककर प्रणाम किया। श्रीदशरथ जी के ठह्रने के लिए जनक जी ने बहुत ही सुन्दर महलका,प्रबन्ध करवाया, जहाँ उन्होने प्रसन्नतापूवेक निवास किया । ११०जनक जी ने उत्तम मुहूत॑ निकलवाया। नगर मैं मंगलगान, उत्सव,कीत्तैन तथा नृत्य आदि का सुन्दर आयोजन हुआ। रात्रि मै दीपकजलाकर सजाया गया । विवाहनमण्डप मैं हीरे-मोती-मँगा तथा जवाहरौोंकी झालरेँ लटकाई गई । नगर के घरों-घरों को मालाओं से सजायागया । १११ इस प्रकार चारों भाइयों का विधिवत विवाह सम्पन्न
नेपाली-हिन्दी राम् ,लक्ष्मण् दुइलाइ ता जनकलेभाईका त भरत्जिलाइ रति वीर्सीता पत्ति भइन् रमापतिकि तापत्नी हुन् थरुतकीति ता भरतकीजस्तै आफु थिया अनन्त गुणकाअभ्यत्तर्. मनले विचार गरदाविश्वामित वशिष्ठ - दूइ तक्रषिथ्यैउत्पत्ती अघिको सबै जनकलेजान्थ्यौं भूमि पविब्न गने भनि एक्जोत्तामा त सिताजि तिस्किन गइन्:पाल्याँ छोरि भनेर नाम् पनि असल्'गथिन् बालकमा अनेक् तरहकाराम्, नासूले . दशरथूजिका सुत भईतिम्री . पुबचि सिता उनै प्रभुजिकी यो लीला छ बुझी सिताकन तिनैनारद्जी उठि गै गया, उहि 'सुनी ७ आफ्ना ति छोरी दिया।शबुध्नलाई दिया॥११२।।लक्ष्मणूजिकी उमिला। शब्नुघ्नकी:: माण्डवी ॥चौधे भुवनूका धनी।तस्तै ति पत्नी पनि॥ ११३।॥।यस्ती सिता हुन् भनी । विस्तार् बताया पनि॥ :क्वै यज्ञ गर्दामहाँ,।,आश्रचयमान्याँ तहाँ॥ १ १४।सीताजि : राखीदियाँ।लीला म खूशी थियाँ ॥'खेल्छन् अयोध्यामहाँ । माया ति आइन् यहाँ॥ ११५।।' रासू्लाइ दीया भनी। याद् भो मलाई पनि ॥ कर सीता जी की माता का मन हर्ष से भर गया। राम और लक्ष्मणको तो जनक ने अपनी ही पुत्रियां को विवाहा और अपनी भतीजियों कोवीर भरत तथा शब्नृध्न को समपित किया । ११२ 'सीता राम की, उमिलालक्ष्मण की, माण्डवी भरत की तथा श्रुतिकीति शत्नुघ्न की पत्नी हुईजैसेँ वे. स्वयं अनन्त गुणों से युक्त चौदह भुवन के स्वामी थे उसी प्रकारअन्तर मन से विचार “करने से पत्नियाँ भी बैसी हीथीं। ११३ क्रषिविश्वामित्च और, वंशिष्ठ दोनों को सीता जीकी उत्पति के विषय मेसविस्तार बताया गया। एक यञ्ञ हेतु, भूमि को पवित्न करने'के लिएँजोतते समय सीता जी प्रकट हुई, जिसे देख सभी आश्चयं-चकित “रहगये । ११४ पुत्री-रूप मैं ग्रहण करके इन्है पाला और नाम भी सीता रखदिया । बाल्यावस्था में ये अनेक प्रकार की लीलाएँ' करती थीं जिसेदेख कर मैं वडा प्रसन्न होता था। उधर. राम दशरथ-पुत्च बनकर्अयोध्या मै खेलते थे । आपकी पुत्रबधू सीता जो यहाँ आ गई 'यह उसीप्रभुको शक्ति है। ११५ सीता की इन सब लीलाओं को समझ कर ही रामसे उसका विवाह कर दिया । ऐसा [एक दिन] कह कर नारद जी उठकरचले गए। यही सुनकर मुझे भी स्मरण हुआ और सोचा कि किस 2107 कुन् , पाठ्ले अब रामलाइ म सिताथीयो यो शिवको घनुष् यहि यसै-ताँदो यस् धनुको चढाउन जउन्सीता छोरि दिच्याछु तेस्कन फिकाजानुन् सब् विरले भनीकन गण्याँयो. सुनीकन देशका विरहरूको सक्थ्यो धनु त्यो उठाउन बिनाहिक्मत् हारि सबै घरै फिरिगयारामूले . पूण गराइबक्सनुभयोयो चीन्ह्या पनि सब् क्कपा चरणलेविश्वामिबजिथ्यै पनी जनकलेसीतानाथ् रघुनाथको, स्तुति गच्यादाईजो सय कोटि दौलत सहित्घोडा ता सय लाख् दिया छसयतापैदल् लश्कर एक लाख् र सय तीन्पूजाँ फेरि वशिष्ठको पनि गरापूजा ताहि भरत्जिको पनि भयोइच्छा भो रघुनाथंको अव फिरौं भानुभक्त-रामायण पार्छ विचार् यो गर्याँ।मा यो प्रतिज्ञागरयाँ।॥:१ १६॥।वीर्ले त सक्ला यहाँ:होवैन यस् बातूमहाँ ॥.यस्तो प्रतिज्ञा . जसै ।आया तुरुन्तै तसै॥११७॥ :श्रीराम् अगाडी सरी।दशन् धनूको गरी: ॥,मेरो प्रतिज्ञा पनि ।.गर्दा भयाको भनी॥११०।॥।बिन्ती अगाडी गरी ।,आनन्दमा ती परी॥वेस् बेस् अयुत् रथ दिया । -खुप् मत्तहात्ती थिया १ १९॥।,कोटी दियाथ्या जसै ।:भारी डबल्ूले तसै॥लक्ष्मण्हचको पनि।. . जाउँ अयोध्या भनी॥१२०॥।विधि से अव मैं राम का सम्बन्ध सीता से कर्खै। इसी कारण णिवके इस: घनुष की ऐसी [कठिन ]प्रतिज्ञा रक्खी । ११६ जो-वीर इस धनुष की प्रत्यंचाचढ्वासकेगा उसी के साथ मैं अपनी पुल्ली सीताका विवाह कर दुँगा1-मेरे, इस वचन मैं किसी प्रकार का अन्तर नहीं आयेगा। जनक-की इसप्रतिज्ञा को 'सुनकर देश-विदेश के 'वीर वहाँ - आए । ११७ , श्रीराम के,अतिरिक्त. और कौन आगे बढ्कर उस धनुष को उठा सकता था।।सभी -वीर अपना साहस खोकर शिव्र धनुष का केवल दशंन करकेही अपने-अपने देश लौट गए। मेरी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने की क्रपाकेवल रामनेकी। यह भी जान लिया किः ये सब इन्ही चेरणों कीक्र्पासे हुआ है। ११५ जनक नेआगे बढ्कर. विश्वामित्न से विनतीकी, -आनन्दमग्न होकर सीतापति श्रीरघुनाथ- की स्तुति की, और दहेजमे एक पद्म धन सहित दस-हजार उत्तम रथ, एक करोड घोड्े औरछु: सौ मत्त हाथी दिए। ११९ एक लाख. पैदल सेना तथा तीन सौःसेविकाएँ देकर पुनः वशिष्ठ एवं भरत तथा “लक्ष्मण की-भी. भव्य पुजा की | नेपाली-हिन्दी "दुजानाको , मतलब् बुझी जनकजी राम्को चरण््मा पप्या ।खूशी मन् सबको गराइ बहुतै बीदा जनकले गन्या॥सीताजी महतारिका अगि गई अलिङ्गनादी गरी ।लागिन् ख्नर सोहि सुति सबका आँसू खसे बर्बरी॥ १२ १॥सीताजीकन अर्ति यो पनि दिया सासु ससुरा सरी। आर्को छैन बडो यही बुल्लि गच्यास्तीको धर्म पतिव्रता हुनु ठुलोअर्ती- येति दिया र तेस् बखतमा यै बीच्मा नगरा बज्या प्रभुजिकास्वर्गेमा पनि हषे भो प्रभु गयारामको लश्कर बाह्ल कोश् जनकपुर्-सब््का चित्तमहाँ वडो भय दिच्या यस् पृथ्वीतलका ति क्षब्रिहरुकोआया तेस् बिचमा तहाँ परशुराम्पृथ्वी, कम्प भइन् तसै बखतमाराजाका. सतमा विचार् यहि पन्यो तिव्को टहल् बेस् गरी ॥जानेर हूनू भनी।बीदा भया ती पनि॥ १२२॥ भेरी मृदङ्गा पनि।फेरी अयोध्या भनी॥देखी जसै ता गयो।उल्का बहृतै भयो।॥१२३॥ ठूलो विाशै गरी।उल्का भयो जुन् घरी ॥हाहा सबैमा परी ।छोरा बचुन् क्या गरी॥ १२४ अब श्रीरघुनाथ की इच्छा अयोध्या लौट्ने की हुई। १२० सबको“अत्यन्त प्रसन्न करके जनक ने विदाई दी। सीताजी की माताआगे बढ्कर पुत्ठी को आलिंगन मैं भर कर रोने लगी । यह देख सभीकी आँखो से अथू प्रवाहित होने लगे। १२१ सीता जी को यह् सीखभीदी कि सास-ससुर के समान महान् और कोई नहीं । अतः उनकी'सेवा-टहल भली प्रकार करना। पतित्रता स्ह्ी का मूल धमे तथाउसका पालन आदि उपदेश देने के पश्चात् उन्होने सीता को विदा,किया । १२२ इसी समय प्रभु [के कटक का] नगाड्ा बज उठा और यहजानकर कि प्रभु (राम) पुनः अयोध्या चले गए, स्वगे मैँ भी मृदंगादि बजउठे । जनकपुर से वारह कोस ही लम्बे राम का जलूस गया था कि सबके“मन मै एक भयानक विघ्न उत्पन्न होने की आशंका हुई। १२३ इसपृथ्वीत्तल पर तमाम क्षंत्चियो का विनाश करने वाले परशुराम काउसी समय आगमन हुआ। उस समय पृथ्वी काँप उठी और चहुँओर हाहाकार मच गया, सभी भयभीत हो गए। राजा दशरथ मन मैंसोचने लगे कि पुत्न की रक्षा किस प्रकार हो। १२४ इस प्रकार विचलित ५० यस्तो चश्चल चित्तले परशुराम्-मेरा पुत्र बचून् प्रभो परणुराम्!यस्तो विन्ति पती अनादर गरीरास्को गर्वे है भनी परशुराम्कस्को पुत्र तै होस् बता मकन लौभाँच्तैमा अति गवे भो तँकन, तायोता हो हरिको धन् विर भयाभन्दै खुपू रिसले रह्या परशुराम्ताँदो आज चढाउँछस् त यसमासक्तैनस् तब हेर् म राख्तिन सवै-यस्ता क्रूर वचन् गरी परगुराम्पृथ्वी कम्प गराइ लोकहरुको यस्तो क्रूर वचन् सुनेर रघुनाथूखोसी लीनुभयो धनुष परणुराम्-ताँदो जल्दि चढाइ बाण् पनि तहाँठूलो वल् रघुनाथको बुझि सबै भानुभक्त-रामायण का पाउमा झट् पन्या।भन्त्या इ बिन्ती गच्या ॥कालाग्ति जस्ता भया।- रामूकै अगाडी गया॥१२५।॥।जाबो पुरानू घन्।धेरै कुरा क्या भनूँ॥ताँदो यसैमा चढा।रास्कै अगाडी खडा॥१२६॥।संग्राम् तँथ्यै गढदेछु।को प्राण् सहज् हदँछु ॥कालागिन झैँ रूप् धच्या ।सम्पूणे सातो हच्या॥ १२७॥ क्रोध्ले अगाडी सरी ।को त्यो बलैले गरी॥लीनूभयेथ्यो जसै। खूशी भयो लोक् तसै॥ १२८) होकर दशरथ ने परशुराम के चरणों मैं पड कर विनती कीकि हे प्रभू परचुराम ! मेरे पुत्न बच जायें। ऐसी विनय को भी ठुकरा कर कालागिति की भाँति क्रोधित हो, रामके वलके गर्वे की परीक्षा लेने के लिए परशुराम उनके सम्मुख गए।मुझे वताओ ।गवे छा गया है; और ज्यादा क्या कठू। यदि वीर हो तो इसकी प्रत्यंचा चढाओ । क्रोधित होकर राम के ही सम्सुख आकर खडे हो गए। १२६ १२६ तुम किंसके पुत्न हो? एक साधारण पुराना धनुष तोड्ने से ही तुम पर अत्यन्त यह तो हरि का धनुष है;यह कहते हुए परशुराम अत्यन्तयदि आज तू इसमें प्रत्यंचा चढा देता है तो तुझसे मै युद्ध कखंगा और यदि चढानहीं सकेगा तो किसी को मैँ जीवित नहीँ छोडंगा। सहज ही सबकावध कर डालुँगा। ऐसे क्रूर वचनों का उच्चारण करके परशुराम नेकालाग्नि का रूप धारण किया । पृथ्वी को कम्पित कर सम्पुण मानवोंको भयभीत कर दिया । १२७ ऐसे क्र्र वचनों को सुनकर श्रीरघुनाथजी क्रोधित हो कर आगे वढे और परशुराम के धनुष को वलपू्वंक छीनलिया । जीव्नता से जैसे ही प्रत्यंचा चढाकर उन्होने वाण'भी ले लिए, वैसेही श्रीरघुनाथ जी की शक्ति को समझकर सब लोग अत्यन्त हृपित नेपाली-हिन्दी हृकुम् श्री रघुनाथको परणशुरास्-तारो आज बताउ हान्छु अहिलेचाँडो उत्तर देउ, यस् बखतमातारो क्यै नदिया त काट्छु अहिले हृकुम् येति गरेर तेज् परशुराम्-: चिन्द्या श्रीरघुनाथलाइ अघिकोबिन्ती येति, तहाँ गच्या पनि हरेजस्को अंश मिल्यो र केहि भगवान्पापी भो.अति कीतेवीयँ अबता'बालक् पो म थियाँ गग्याँ हजुरकोग्रस्तो, वर् खुशि भै मलाइ दिनुभो,इच्छा पूण हुन्याछ जाउ अबतापैल्हे मार. र कार्तेवीयेंकन फेर्एक्काईस वखत् ,गप्या प्रभुजिकोक्षत्ती शुन्य भयाकि पृथ्वि तिमिलेयती. .कमै गरी सकेर अघिको ५१ लाई, भयो यो तहाँ।ब्राह्वाण् म हानूँ कहाँ॥यस्लाइ लौ हान् भनी ।तिम्राइ गोडा पनि १२९।॥।को खेँचनूभो। जसै।वृत्तान्त सम्झ्या तसै॥चिन्ह्याँ 'जगच्चाथ् भनी ।यस्तो भयाँ मै पती।। १३०॥।यस्लाइ मार्छु भवी।ठ्लो तपस्या पनी ॥शक्ती, समेतै, गरी।क्यै शक्ति मेरो धरी॥ १३ १॥सब् क्षब्लिको ,नाश् पनी ।हृकुम् छ यस्तै भनी,॥कश्यपृजि लाई दिया।सेखी पुग्याई लिया॥ १३२।॥। हुए। १२० परणुराम को श्रीरधुनाथ की यह आज्ञा हुई कि हे ब्राह्वाण।इसी समय कोई, लक्ष्य बताओ जिस पर मैं प्रहार .कङैँ। शीघ्रतासे उत्तरदो किइस समय इस पर प्रहार करो, अन्यथा मैं तुम्हारे ये' पाँव काट डालुँगा । १२९ यह आज्ञा देकर जैसे ही परशुराम की शक्तिभगवान् ने खींच ली, वैसे ही उन्हँ(परशुराम को) प्रवंजन्म की बात स्मरण होआई और उन्होने श्रीरचुनाथ को पहिचान लिया। उसी समय इस प्रकार' विन्ती की- हे हरि! मैँने पहिचान लिया कि आप वही जगन्नाथ ' हैजिनका कुछ अंश पाकर मेरा भी अवतार हुआ है। १३० कात्तँवीयेअत्यन्त पापी हो गया है। अव मैं इसका वध कङँगा, यह निश्चय करके, मैने वालपन मै ही आपकी घोर तपस्या की। सससे प्रसन्न ' होकरआपने मुझे शक्ति सहित ऐसा वर दिया कि अब जाओ, मेरी कुछ शक्ति कोधारण करने से तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी । १३१ सवंप्रथम कार्तवीयंका वध करो, ततृपश्चात् सब क्षब्वियों का नाश करो। मेरी ऐसी आज्ञाहै । तुम क्षतियों पर इक्कीस बार (प्रहार) करोगे । क्षल्लियोंसे रिक्तहोते ही पृथ्वी को पुन: कश्यप जी को अपत कर दोगे। इतने कर्मोकोपूरा कर अपनी अभिलापाओं को पूर्ण करोगे। १३२ क्रेतायुग में भ्र्र भनुभक्त-रामायण त्रेतामा अवतार् लिन्याछु नरमाभेट् होला तिमिथ्यै उही वखतमाताहाँ देखि तपै गरेर रहनूयेती अर्ति मलाइ दिईकन गयामैले काम् पर्नि सो सबै गरिसक्याँमेरो शक्ति हजूरले हरि लिँदामेरो जन्म सफल् भयो सहजमाबुझ्याँ तत्त्व पनी सबै हजुरकोजो छन् भक्त हजूरका ति सँगकोयो भक्ति दृढ भै प्रभू ! हजुरकायेती बिन्ति तहाँ गरी सकल पाप्इच्छित् वर् प्रभुले दिदा परशुरामताहाँ श्रीरघुनाथका वरिपरीमर्जीले ति गया महेद्ध गिरिमादेख्या तेज् दशरथूजिले र सुतकोप्रमुका सागरमा तहाँ डुबिगयायेती काम् गरि राम् गया सहजमासीतालाइ लियेर राज्य सुख भोग् राम के नाम से सनुष्य होकर मैँ जन्म लूँगा । रामूनाम्, जगत्मा धरी।यो शक्ति ल्युँला हरी,॥ब्रह्माजिका दिन् भरी।बैकुण्ठ धाममा हरि॥ १३३१रामूलाइ भेट्याँ पनी ।चिन्ह्याँ प्रभू हुन् भनी ॥पायाँ परात्मा पनी।पाल्लै क्रपाको बनी॥ १३४सत्सङ्ग मेरो हवस् ।येही चरणमा . रहोस् ॥।पुण्यै समर्पण् गप्या।आनन्दमा ती पच्या॥ १३ ५।॥।घ्मी नमस्कार् गरी।सन् रामूचरण््मा धरी ॥हर्षाश्रुधारा धरी ।॥आलिङ्गनादी गरी॥ १३६॥।पुग्या अयोध्या महाँ।रामूले गच्या क्यै तहाँ॥ उसी समय तुमंसे भेट होगी । यह शक्ति पुनः हरण होने के पश्चात् दिन भर ब्रह्मा काध्यान करते रहना । मुझे इस प्रकार शिक्षा देकर भगवान् हरि बैकुण्ठलोक को चले गए । १३३ मैँने उन सव कार्यो को पूर्ण किया। रामसेभेटभी होगई। आपसे मेरी शक्ति हरण किंये जाने पर आपकोप्रभु जानकर पहिचाना । मेरा जन्म सफल हुआ । सहज ही परमात्माको भी पा लिया। आफका क्रपा-पात्व वन उस सभी तच्व-जान कोभीसमझ लिया । १३४ आपके जो भक्त जन है उनसे मेरी संगति रहे ।आपके इन्ही चरणों मैं यह भक्ति दृढ् रहे । इततची विनती करके पापएवं पुण्य वहीं समपित कर दिया, तथा प्रभु से वाँछित वर पाकर परशुरामजानन्दमग्न हो गये । १३५ श्रीरघुनाथ जी के चारों ओर परिक्रमाकर् परशुराम ने नमस्कार किया। रामके चरणों मैं अपने मनकोअर्पित कर वे प्रसन्तता-पूर्वेंक महेन्द्र पर्वत पर चलेगये। पुत्न राम कीदिव्य ज्योति को देखकर नेत्लों मै हर्पाश्च भरकर प्रेम-सागर भै मग्न दशरथ नेपाली-हिन्दी श््३ बमैदिन् भानिज हुन् भरत्ृकन यहीँ ल्याजँ घरैमा भनी।भान्तिजूलाइ लिना निमित्त खुशिले आया युधाजित्पनि॥ १३७।।बीदा श्रीदशरथ्जिले पनि दिया बीदा मिलेथ्यो जसै।एक् शब्नुष्त लिई भरत्जि त गया -मामा कहाँ पो तसै॥आया राम बिह्दा गरेर पुरिमा जस्सै उठेथ्यो खबर्।सारा रैयतको प्रसन्न मन भो हुन्थ्यो खुशी क्या अवर्।॥ १३०।।सीताराम् अघि तपू गरिन् र त यहाँ छोरा बुहारी भयाकौंशल्याकन ता मिल्यो अदितिको शोभा सबै तापू गया ॥सीताराम् पति लोकमा सकलको आचन्द मङ्गल् गरी ।चेष्टा मानिसको गरीकन रह्या बैलोक्यका नाथ् हरि॥ १३९॥ बालकाण्ड समाप्त ., १ ,,,०००००००००००००००००००००००१०००००ललणणणिलिणणिणिफणजिणजिणजिणििजििजी ने उन्है आलिगन मैं भर लिंया । १३६ इतना काय समाप्त करराम सहज ही अयोध्या पहुँच गये। “राम ने सीता को लेकर राजसीसुख भोग करने लगे । भरत जी के मामा के मन मैं भाञ्जे को अपने घरलेजाने की इच्छा हुई और वे उन्है लिवाने के लिए आये। १३७श्री दशरथ जी ने सहरषं विदा दी और भरत शब्नुघ्न को साथ लेकर मामा केयहाँ चले गये। राम के विवाह करके नगर मै आनेकी सूचना जैसेहीप्राप्त हुई सारी प्रजा आनन्द से विभोर हो उठी । १३० पूवंजन्म मेंकिये तप के प्रभाव से राम और सीता का पुत्र तथा वधू के रूप मेँ यहाँअवतार् हुआ । माता कौसल्या को सूयं के समान शोभा प्राप्त हुई और , सभी दुःख व चिताओं का नाश हुआ । सीता-राम ने. भी संसार को-आनन्द-मंगल प्रदान किया । ब्िलोकीनाथ मानव-रूप मैं मानवोचित कार्यो मेंरत रहे । १३९ । अयोप्याकाण्ड एकान्त स्थलमा . सितापति थिया सीता हइजुर्मा रही।हात्मा चामरं ली प्रभूकन तहाँ हाँक््थिन् समीपूमा गई ॥आकाश् मार्ग गरी बहुत् खुशि हुँदै नारदूजि ताही गया।नारद्जीकन दण्डवत् गरि तहाँ राम्जी वहुत् खुश् भया ॥१॥संसारी म थियाँ बडो हुन गयाँ दशन् मिलेश्यो जसैँ।यो भाग्योदय हो बुझ्याँ पति यहाँ दशंन् मिल्याको उसै ॥मैले गर्नु छ काम् कउन् हजुरको चांडो उ आज्ञा हवस् ।त्यो काम् सिद्ध गराउँला हजुरको आनन्द मनूमा रहोस्॥२॥'यस्ता बात् प्रभुका सुनीकन जवाफ् सोही वमोजिम् दिया।,वारद्ले बहुतै गच्या स्तुति तहाँ रामूलाइ मन्मा लिया॥बिन्ती, गर्नु कुरो थियो मनविषे बिन्ती गच्या त्यो पनि।ब्रह्माको बिनती लिई हजुरमा ' आई रह्याँठ् भनी ॥३॥“भूको भार म दुष्ट मारि हरँला जान्छु यअयोध्यामहाँ ।भन्न्या येति वचन् गरीकन हजुर् पाल्नू भयेथ्यो यहाँ॥ एकान्त स्थान मैं सीतापति श्रीराम बैठे थे। प्रभुके निकट जा करसीता जी भी हाथ में चेंँवर ले कर डुला रही थीं। आकाशन-मागें 'से'होते हुए नारद जी ने अत्यन्त हृषित होते हुए उन्है दण्डवत किया । १' मैंएक तुक्छ सांसारिक प्राणी छँ। आपफके दर्शनों से ही इतना महान् हुआहँ। मैं यह समझ गया हुँ कि आपके दशेनों से ही मुझे ऐसा भाग्योदयप्राप्त हुआहै। शीप्र आज्ञा करेँ। श्रीमन् काजो भी कार्य करनेको है, मै शीघ्रही उन सबको सिद्ध कङंगा; जिससे आपका मन प्रसन्नरहे।२ नारदजी नेभी राम की स्तुति मनमै हीकी और उनकीऐसी बातो को सुन कर [राम ने] उत्तर भी उसी प्रकार दिया । सर्वभाँतिमन ही मन वित्ती करते हुए प्रन्होनि कहा कि व्रह्मा जी की एक प्रार्थना कोलेकर आपके पास आया हूँ। ३ आप यह् कह कर पधारे थे कि अयोध्याजा कर ढुष्टों को मार कर पृथ्वी को भार से मुक्त कङँगा। परन्तुअब तो राजा दशरथ की इच्छा आपको राजगद्दी प्रदान करने की हुई
नेपाली हिन्दी यस्तो हो तर गादि दीन दशरथ्ख्वामित्ले अब राज्यमा भुलिदिया नारंद्का ई वचन् सुनी खुशि भईजल्दी बक्सनुभो म राज्य नगरीख्वामित्का इ वचन् सुनेर बहुतैतीन् फेरा प्रभुको प्रदक्षिण गरीसन्तोषले दशरथ्जिको मनविषषेराम्लाई अब राज्य यूँ भनि उसैयस्तो मन् हुनगो र डाकि गुस्थ्यैँ'भोली राज्य म दिन्छु पुत्रकन सब् मन्त्ी डाकि हुकम् भयो सँग रह्यासो सो चीज् झटपट् तयार् गर अवर्मन्त्रीले पनि यो हुकम् सुन्ति तहाँ- चाहिन्छन् जति चीज् ति खोज्न गुरुले भ्श् राजाजिको मन् भयो।भार् हर्नु कामूता रह्यो॥४। उत्तर् प्रभूले पनी।भोली म जान्छू भनी ॥नारदूजि 'ख्शी भया।आकाश् गतीले गया ॥५।।आनन्द मङ्गल् भयो।सन् यस् लहडमा गयो ॥यस्तो हुकम् भो पनी।सामग्रि ल्याक भनी ॥६॥।जो जो कहन्छन् गुरु।सब् काम छोड्नू बरु ॥साथै गुरूको रह्या।खोलेर सब् चीज् कह्या॥७॥ सन्तीलाइ अह्वाइ राघवजिका साथ्मा वशिष्ठै गया।पैले श्री रघुनाथले गुरु भनी सन्मान गर्दा भया॥ है। हेस्वामी! यदि आप राज्य-कार्य मै भूल गये तो पृथ्वी का भार-हरण, करने का काय तो ऐसे ही रह जायगा। ४ नारदके इन वचनोंको सुन कर प्रभु ने प्रसन्न हो कर उत्तर दिया । ' राज्य यदि इतनी शीघ्रतासे दिया गया तो विना राज्य किये ही चल दूँगा ।. स्वामी (राम) केइन वचनों को सुन कर नारद जी अप्यन्त प्रसन्न हुये। तीन बार प्रभुकी परिक्रमा कर बडी तीव्र गति से आकाशकी ओर चले गए। ५सन्तोष से राजा दशरथ का समन. परिपूणँ था। वे आनन्द-मंगल मैं मग्नथे। इसी बीचउन्हैँ राम को राजगट्टी देने की उत्कण्ठा हुई । अत:गुरु को बुलाकर कहा कि अब कल मैं अपनने पुल्ने (राम) को राज्य सौंपदूँगा, अत: सभी आवश्यक सामग्री का संग्रह कीजिए । ६. मंत्लीको बुलाकर आदेश. दिया कि सारे काय छोड् कर गुरु जी जो - सामग्री कहेँ वहशीश्नता से तैयार करो। मंत्ली भी इस आदेशानुसार गुरु, के साथ हीरहे । जिन सामग्रियों की आवश्यकता'थी, -गुरु ने स्पष्ट वर्णन किया। ७संल्ली को, इतना भार दे कर गुरु बशिष्ठ राधव जी.के संग गये। पहलेःश्रीरघुनाथ ने गुरु का सम्मान किया । वशिष्ठ वोले, हे ब्विलोकीपति! वैसे पर भानुभक्त-रामायण हे बैलोक्यपते ! गुरू हुन त ठ्ठँड्तूका हुन् इ गुरू भनेर इ सबै तिम्रो दशैन पाउँला भनी यहाँगुह्यौै खल्छ भनेर डर् हुन गयोखोलुन्या छैन म गुल्य चुप्न रहुँलाजानी जानि सम बिन्ति गर्ने अहिलेभोली हुन्छ तिलक् हजुर्कन यहाँपृथ्वीमा सुकला हवस् हजुरकोसब् इन्द्रीय जितेर आज उपवास्आज्ञा पाउँ म जान्छु काम् छ बहुतै यस्तो बिन्ति गरी बशिष्ठ गुरु फेर्रामूले लक्ष्मणथ्यै भन्या मतिमिलाइछैनन् भाइ भरत् पनी त तिनकाकौशल्या सुनि खुश् हुनिन् भनितजो राजाले त खतम् गच्या दिनु भनीयस्मा विघ्न कदापि पन्त नदिउन् तिम्रो म क्या हुँ गुरे।भन्छन् भनुन् लौ वरु॥०॥प्रोहित् भयाकै म हूँ।धेरै कुरा क्या कहू॥सब् जान्दछ् तापनि ।आयाँ हजुर्मा पनि ॥९॥सामग्रि जम्मा भयो।सब् शास्त्रले भन्छ यो ॥गर्नू सिताले सँगै।सब्काम् विचार्छ् म गै॥१०॥जस्सै गयाथ्या पनि। .कामू गर्ने दुँला भनी ॥ खातिर् छ मेरी दया।सम्चार् वताउँदै गया।[११॥।क्या गर्देछिन् कैकेयी ।लक्ष्मी र दुर्गा भई ॥ “तो, मैं.तुम्हारा गुरु हँ ही, पर मैं भला क्या गुरु हँ! हाँ, इनका गुरु अवश्यड्र जोये सब [मुझे गुरु] कहते हँ। ५ तुम्हारे दशव, पाने के लिए मैं यहाँपुरोहित हुआ हँ । कहीं रहस्योद्घाटन न हो जाये इसका भय हुआ है औरअधिक क्या बताउँ। मैं सव कुछ जानते हुए भी रहस्योट्घाटन नेहींकखँगा,। - चुप ही रँगा। सबकुछ जान कर भी मैँअभी आप्की,शरण मैं विनती, करने आया हुँ। ९ कल आपका तिलक होगा। सवसामग्री एकत्रित हो गईहै। भूमि पर ही सोने की क्कपा करेँ, जैसा-किसभी शास्ल्न कहते हँ। सव ईंद्रियों को जीत कर आज सीताजी, के-साथ ही उपवास करने की क्रपा करे।, आज्ञा दीजिए। अत्यधिक कार्य“है, जाकर कार्यो के विषय में विचार करता हुँ। १० ऐसी विनती करगुरु वशिष्ठ जैसे ही चले गये, राम ने लक्ष्मण से सलाह की और कार्यभारसौपा। भाई भरत भी जिनके प्रति मेरा अत्यधिक प्रेम है, यहाँ मौजूद नहींहैँ। कोशल्या मता भी सुनकर प्रसन्न होगी, और उन्है समाचार सुनाया । ११राजा नै तो समाचार समाप्त करते हुये कहा, कैकेयी क्या करतीदै।' लक्ष्मी और भगवती दुर्गा इसमे कदापि विघ्न न.हयोने दें। नेपाली-हिन्दी _ कौशल्या पतति-यो विचार् गरि तहाँ, भन्या, ठहरियो ख्नुपारिकत आउसेर तिमिले द्यौतीका: मनमा वाणी गै तिमीठ्ठी -स्ब्ीका' घटमा ,. द्ौताका इ .वर्चन्” सुनेर झटपट क्वकेपरीक्न खुप् भुलाउन - भनी वाणीका वशमा पप्याकि छँदि ती, १'त्य काम बित्ला भनि चट्पटाई तहिझट् नार्ना'छल् गरि ठिक्क 'पारिकन स्ब्', ढुईवरछ्न् तिमि मागिल्यौं शनि ठुली ' “वाणीले तिं .भुलाइयाकि- छँदि लौराम्लाई वनवासँ भरत्ृकन रजाइँ ढुई वर्ले जब -कार्म सिद्ध गरुँला,बीदा दी घेर - मन्धरांकन फिराइसुन्द्र वस्ल निकालि फालि कपडा. आभषंण् कन फ्याँ कि ख्प रिसले 9७ गथिन् - पुजा _ देविको ।काम् विघ्नेः गर्नुनिको।॥॥१२॥।ती मन्थरा . कँकेयी ।काम् सिद्ध लाङ गई ॥तेस् मन्थरीमा- पसिन् “फेर कैकेयीमा पसिन्।।१३॥। जाहाँ थिइन् कँकेयी ।सन्थरा गैगई.॥वत्तान्त , विस्तार भनी । “सूचन् गरी- यो पनि॥१४।। भन्दी भइनँ कैँकयी ।माग्छ म' चाँडो गई ॥! “ला सयै गाउँ भनिन् । रिस् गर्ने लाग्दी .भइन्।॥ १ ५।।मैला शरीर्मा धरिन् ।. खाली जमीन्मा परिन् ॥ कौशल्या भी यही विचार कर देवी की पूजा करती थीं। [किन्तु] देवताओंने मन मे क्रा्य मै 'विध्न उत्पृत्च करते का. ही निश्चय, किया । १२. वाणी(सरस्वती) को. आज्ञा हुई कि तुम जा कर मंथरा और कैकेयी दोनो स्तियोंके सन में. प्रवेश कर विध्न उत्पक्न करो भर. काय सिद्ध करके आओ-देवताओ के इस वचन को सुनकर वाणी तुरन्त मंथरा, में प्रवेश कर गई ।कैकेयी- को भी: भ्रमित करने के लिए (सरस्वती) पुनः कैकेयी मैं भी प्रवेशकर गई ।,१३_ इस प्रकार वाणी के वशीभूतं कैकेयी जहाँ थी, कहीं अवसरन निकल् जाये, ऐसा. सौच कर मंथरा तुरन्त वहाँ पहुँच गई ।. अनेकप्रकार के छल 'से.उसे :अपने.वश कंरके सब वृत्तान्त सविस्तार कहने लगी ।बोली कि दो वर है, जो तुम अभी मांग_लो, इसी मैं भलाई है । १४ “वाणीके वशीभ्रूत कँकेयी कहने लगी कि मैँ इन.दोनों वरों.को मांग लुँगी । एकसे राम को चौदह वप्रै का वनवास और दुसरे से भरत.को राज्य?दो वरों' से जब कार्य सिद्ध होगा तब मैं तुम्है सौ गाँव दूँगी। मंथराको विदा कर घर लौटी । कैँकेयी ; क्रोधित होने लगी।१५ उससुन्दर बस्ता को त्याग कर मैले वस्त शरीर में धारण कर लिये । आभूषर्णोको भी,उतार फंका और भूमि-पर लेट गई। संसार के सञज्जनों का कहना प्र भानुभक्त-रामायण सज्जन् बेस् सुमती पनी कुमतिकाभन्छन् जो दुनियाँ उ लक्षण यहाँकैकेयी सित बस्नलाइ खुशिलेदेख्यानन् र तहाँ कता गइ भनीक्रोधागार-विषे भयाकि त बुझ्याँबूझ्याको पति छैन गै हजुरलेकेटीका इ वचन् सुतीकन डराइकैकेयीकन क्यान यो रित ग्यौ.जो भन्छ्यौ म पुग्याउँला भनि शपथ्राजा वृक्ष सरी गिप्या पूृथिविमारास्लाई बनवास भरत्कन रजाइँदुई वर्ले यहि दौ दिदौन त भन्याभोली येति कुरा भयेन त भन्याभन्त्या येति कुरा सुनी फिरि गिच्यात्यो रात् वर्षे समान् व्यतित् हुनगयोसब् सामग्रि तयार् गरीकन बिहान् सँगूले त बिग्री गयो।ठीक् कैकेयीमा भयो।॥ १६।।राजा गयेथ्या जसैचाकर्नि सोध्या तसै॥कारण् छ कुन् कत्ति यो।बुझ्न् हवस् क्यान हो।। १७।।राजा नजीर्कूमा गया ।बात् खोल भन्दा भया ॥खाँदा जसै बात् गरिन् ।यस्मा बहुत् जिद् गरिन्॥॥ १८॥।देक भनी जिद् गरी।बाच्नू त मुर्दा सरी॥मर्न्याछु विष् खाइम ता ।राजा जमीनूमा यता॥ १९।॥। राजा ति मूर्छा भया । मन्त्री हजुर्मा गया ॥ है कि उत्तम् से उत्तम सुमति भी कुमति की संगति से विगड जातीहै।ठीक वही लक्षण कैकेयी मैं दृष्टिगोचर हुए । १६ राजा प्रसन्न हो कर जैसेही रानी कैकेयी के. पास पहुँचे वैसे ही. कैकेयी को न देख कर उनकीउपस्थिति के विषय में सेविकाओं से पृछा । सेविकाओं ने वित्ती कीकि वह कोपभवन में जाकर बैठी है। किन्तु कारण का कुछ ज्ञान नहींहै । आप स्वयं जाकर जानने की कृपा करे । १७ बालिका (सेविका)के इन वचनों को सुनकर राजा भयभीत होते हुए निकट गये । , उन्होनेकैकेयी से कहा कि यह सब क्र्या कर रही हो ? सब वात मुझे स्पष्ट करो ।विवश करने पर जव राजा ने शपथ लियाकि जो कुछ कहोंगी मैं पूर्णकङँगा, तव कैकेयी ने सव वात कहदी। उसे सुन कर राजावृक्ष कीभाँति पृथ्वी पर गिर पड्े । १५ मेरे दो वर है दीजिए। एकसे रामकोवनवास और दूसरे से,भरत को राजगही । और यदि नहीं देगे तो आपकाजीवित रहना मृत के'समान है। यदि कल तक वह नहीं .हुआ तो ,मैंविषपान कर प्राण त्याग दुँगी । _ऐसी बात सुनकर राजा. पुनः पृथ्वी परगिर पडे ।-१९ _ राजा मूछ्ति हो गये और वह राल्लि एक वर्षे के समानबीती । सब सामग्री तैयार कर प्रातः मंत्वी राजा के 'यहाँ गए। सब नेपाली हिन्दी ५३ देख्या चालु र बहाँ विचार् हुन गयो सोध्या पच्यो क्या भनी ।विस्तार् पाइ सुमन्त राम् लिन गया आया हहाँ राम् पनि॥२०।। राजालाइ.. त दुःख . सुक्ख हुनको कारण् तिमी छौ, भनी ।वनूमा' गै तिमि राज्य द्ौ भरतलाइ भन्दी, भइन् यो पनि ॥यस्ता बात् सुनि बात् गच्या प्रभुजिले . सुन्छ्यौ कि ए केकेयी ।राजा खूशि -रहुन् स जान्छु वनमा .के काम् छ घरमा -रही॥२१॥ गाह्लो कत्ति नमानि जान्छु वनमा ' राजा त बोलून्ू भनी ।बोल्याको प्रभुको . वचन् सुनि तहाँ . बोल्छन् ति राजा पनि ॥हे रामचन्द्र [ मलाइ आज् तिमीले बाँधेर, राज्यै'- गरी ।झूटादेखि बचाउ , पापू तिमिकनै लाग्दैन यस्तो गरी ॥२२॥। राजा येति भन्या र फेर पनि“ विलाप्ू खुपू गर्ने लाग्दा भया । राजाको बुझियो र आशय तहाँ रामूचेन्द्र माइथ्यं गया ॥ कौशल्या' पनि भकितिले हरिजिको ध्यानमा रहयाकी थिइन् । राम्जीलाइ नदेखि कत्ति नछुटाइ ताना प्रभूमा दिइन्।॥२३॥।सुमिल्लाले ' भन्दा ' पछि' पलक माइका खुलि गयो ।प्रभूलाई देख्ता अधिक मन ' सम्तोष् पनि भयो ॥खूशीले काखमा, लीकन जब “भनिन् खाउ कछु भनी । ०. सुनी राम्ज्यू भन्छन् अब त कति खाँला नि.म पनि ॥२४।। स्थिति को देख.कर बड्े ही असमंजस मैं पड कर उन्होने कारण पुछा । पुरीपरिस्थिति को भली प्रकार समझकर मंत्ली सुमंतर राम को लेने,गये। रामभी आ गए। २० कैकेयी ने कहा, राजा को तुम्हारे यहाँ रहने से दुख हुआ है,तुम भरत को राज्य सौंप- कर बन चले जाओ। इस प्रकारकी वातको सुनकर प्रभु ने कहा, माता सुनो ! राजा प्रसन्न रहेँ। घर मेंरह् कर करना .हीक्याहै। मैंवनको जाता हुँ। २१ बिर्ना संकोच मैंवन चला, जाउँगा, महाराज आदेश,दे तो ।. प्रभु के वचत को सुन कर राजाभी वोले, हे रामचन्द्र! मुझे आज बाँध कर [डाल दो और]राज्य करके इसअसत्य से बचाओ । ऐसा करने से तुम्हैं किसी प्रकार का पाप न होगा । २२राजा इतना कहकर फिर अप्यन्त विलाप करने लगे। राजाके इसआशय को समझ कर रामचन्द्र माता के पास गये । ' कौशल्या भी हरिजी के ध्यान मैं मग्न थीँ। रामको न देख कर प्रभु से अनुयोग भीकिया । २३ सुमिल्ला के बाद, माता (कौशल्या) के पलक खुलते ही प्रभु ६० भानुभक्त-रामायणँ गयो खान्या बेला मकन त मिल्यो राज्य वनको ।.भरत्ले राज् पाया यहि बसि गरुन् राज्य जनको ॥बिदा वक्स्याजावस् खुशिसित म जान्याछु: वनमा । -”स' चाँडै फिर्न्याछ् विरह नहृवस् कत्ति मतमा'॥२५।वचन् सुन्दा मूच्छा परिकन उठ्याकी छँदितहाँ।'भत्तिन् कौशल्याले अब म “तिमिलाइ छोड्दछु कहाँ ॥ 'भन्या राजाले ता तर म तिमिलाइ रोक्तछु यहाँ। ,कि साथै लैजाञ सकन तिमि जान्छौ अब जहाँ ॥२६॥। तिमीलाइ विदा दी म कसरि यहाँ दुःख सहुँला ।..बरू प्राणै त्यागी यमपुरिमहाँ जाइ रहुँला॥ .विलाप् कौशल्याको यति सुनि दयाले भरिगयो ।तहाँ लक्ष्मण्को मन् तब अरु, उपर् रिस् हुन गयो ।॥२७।॥नजर् दी रामूज्यूमा अरुसित उठ्याको रिस बढाइ ।-गच्या बिन्ती राम्थ्यै अब भरतथ्यैं गदेछु लडाइँ ॥..हजुर्का राज् हर्न्या जति जति त छन् मार्छु सबलाइ । पितै बाँध्छू पैले भनिकत भन्या क्या छ अरुलाई ॥२८॥। को देख कर मन को अत्यधिक सन्तोष हुआ । अति प्रसन्नता से गोदमैं लेकर जब कुछ खाने को कहातो राम बोलेकि अब मैं कितनाखाञँगा । २४ मेरा खाने का समय विकल गया । मुझे वन का -राज्यमिला है। भरत ने राज्य पाया है और वह यही रह कर राज्य करेँ।मुझे शीत्र विदा देने की क्रपा करेँ। मैंवन को जाता छूँ। मैँशीत्रही लौट्ँगा । मन में किचित माल्ल भी चिन्ता न करेँ। २५ ऐसा वचनसुनकर मूछ्ति हुई कौशल्या पुनः. सचेत हो बोली कि अव मैं तुम्हँ कैसेछोड 'सकती हूँ । राजा ने तो कह दिया परन्तु मैं अब तुम्हैँ रोकती हँ। तुमअव जहाँ जाओ मुझे भी अपने' साथ ले चलो । २६ तुम्हे'विदा कर मैंयहाँ किस प्रकार पीड्डा सहन कङँगी । मैं प्राण तज कर यमलोक मैंजा कर रहँगी । कौशल्या का यह विलाप सुनकर राम के हृदय. मै दयाउमडइ् आई और लक्ष्मण के मन मे अन्य लोगो पर क्रोध आया । २७श्रीराम की ओर एक नजर देख अन्य लोगो पर उत्पन्न क्रोधसे उग्न हो करराम-से लक्ष्मण ने विनती की कि अव मैं भरत के साथ युद्ध कङंगा औरश्रीमान् के राज्य को हरण करने वाले जो भी हँ सव का वध कङँगा । पिताको ही सवंप्रथम वध कङँगा। औरोंका तो कहना ही क्या। २० चाह्दै नैपाली-हिन्दी ब््पै » _ चढ्याजावस् गादी सकल रिपुको नाश् मं गरँला। ' '“ यसै कामूले माइका सकल मनको शोक हरुँला ॥ :सुन्या लक्ष्मणूजीका यि वचन जसै राम् खुशि भयाँ। बुझाया विस्तारले प्नि तह ठुलो लीक दया ॥२९॥। सुच्यौ भाइ ! संसारमा शरिर अति कच्चा छ जनको ।शरीर् कच्चा जानी नगर तिमि रिस् कत्ति मर्नको ॥- सबै भोग् चञ्चल् छन् बिजुलिसरि एक् छिन् नरहन्यो। ,“ _ विचार्. यस्तो राखी सहु तिमि 'बडौं हुन्छ, सहन्या ॥३०।॥। “भ्यागु तोखाँ भनि खोज्छ डाँस्मुखविषै : साँप्ले धम्याको पनि,।' तेस्तै भोग् : गरँला. “भनेर, मनले . भन्छन् _दुनीयाँ पत्ति ॥क्याको रस्- छ यहाँ ,विचार.:मनले - कालूसपंको मुख् परी।क्या, होला वन.. जाउँला इ सबलाइ आनन्द राख्नन् हरि॥३१॥ देश्देश्का बाटुलिन्छन् बुझ तिमि मनले बाटका पाटिमाहाँ ।बातृचित् गर्दे रहन्छन् खुशिसित मतले बन्धुझें राति ताहाँ॥प्रातःकाल्भो जसै ता उठिकन ति सबै दश्दिशा लागिजान्छन् ।बन्धूको संग यस्तो बुझिकन गुणिले ढु:खसुख् एक. मान्छन् ।॥३२।॥। गद्दी पर-बैठ भी- जायें, ,तो भी मैँ.समस्त शलुओं का नाश कङँगा। इनकार्यो से. माता-के मन"के - सम्पूर्ण शोक का हरण कङँगा । "लक्ष्मण केइन वचनौं को, .सुनकर-रामचन्द्र .जी प्रसंच्च हुए और महान् कृपा कर उन्हेअली प्रकार समझाया । २९. सुनो भाई ! संसार मैं मानव-शरीर अत्यन्तक्षणभंगुर,है। - शरीर को ऐसा समञ् कर तुम मन -मै किचित्मात्र, भी"क्रोध न.करो । सभी भोग्य वस्तुएँ क्षणभंगुर है। इन-वातो का विचारकर: तुम, कष्ट सहन करो । सहनशील. (व्यक्ति) ही महान् होता है । ३०मेढक सप के मुँह को विषपान करने हेतु खोजता है । उसी प्रकार संसारमै भी भोग करने;को मन कहता है। मन से यह विचार र्करो कि कालरूपी सर्प के मँह मे-किसि प्रकार का रसहै।- वन जानेसे हमारी क्याहानि हो जायेगी ।, भगवान् सब को आनन्द-मंगल -से' रक्खें । ३१तुम अपने मन से बिचार कर् देखो किं.लोग- देश-विदेश घूमते है। बहाँ माग मैं विश्वाम-गृह मैं मित्रों,की भाँति प्रसन्न हो कर परस्पर वार्तालापकृरते रहते हुँ और प्रात:- होते ही. सब अपनी-अपनी दिशाओ की ओरचले जाते हैँ। ३२ ऐसे मित्रों की संगति के गुणों को समझ कर गुणी ब्र छाया तुल्य छ लक्ष्मि, यौवन भन्याभन्छन् स्ब्वीसुखलाइ स्वप्न सरिकोयस्तै जानि पनी भनुष्यहरु सब्भुल्तैका वशले अनेक् फजितिलेजुन् यस् देह निमित्त यो रिस गच्यौहाड् मासू र रगत् नसा यति कुराबिष्ठा हुन्छ कि भस्म हुन्छ पछितक्यस्का खातिर घात गथ्यौ पनि भन्याक्रोधै हो यमराज सर्व जनकोतृष्णा हो भनि यो बुझेर तिमिलेसन्तोष्लाइ बुझि कामधेनु सरिकोरिस गर्नू बढिया' त छैन मनमायस्तै हो सुत कमका वश हुँदाकस्तै कोहि हवस् अवश्य करले:क्मेको फल भोग गर्छे दुनियाँ भानुभक्त-रामायण भेले सरीको -भनी।साँचो कुरा हो. भनी ॥'संसारमा भूल्दछन्।संसारि भैं डुल्दछन्।॥३३॥चिन्छौ कि कस्तो छ्यो।जम्मा भई बन्छ यो॥वाँच्तैन यो ता कसै।पाप् माब्र लाग्ला उसै॥३४॥ बैतनि भन्नू ' पनि।कैले नविर्स्या पनि॥.सन्तोष ' मन्ल्े रहू। जानू असल् हो सहू॥३५।॥वस्तैन एक् ठांम् रही।जावू छ -जाहाँ गई॥यै चित्तमा लेउ भाइ॥ आमैले आमैले यहि बात् बुझीकन बिदा दीनूहवस् हामिलाइ॥ ३६ बात् बुझीकन विदा दीनूहवस् हामिलाई॥३६।॥। जन दुख और सुख को एक समान ही मानते हँ। धन को छाया तुल्य,यौवन को धूलःके समान तथा स्ती-सुख को स्वप्न की भाँति मानते हैँ।और इस यथार्थता को मानते हुए, ऐसा जान बुझ कर भी, मनुष्य संसारमैं भुला रहता है और इसी कारण अनेक आपदाओं सहित संसार मेंभ्रमण करता रहताहै। ३३ जिस शरीर के लिए इतना क्रोध कियोउसे पह्चानते हो ?' हड्डी, रक्त, मास और नसेँ यही सब मिलकर यहशरीर बनता है जो एक दिन नष्ट हो कर भस्म हो जाता है।' अनन्तकाल तक यह किसी प्रकार जीवित नही रह सकता। ऐसे शरीर केलिए किचित् मात्न भी छल किया तो पाप के भागी होँगे । ३४ क्रोधसमस्त मानव-जाति के लिए यमराज सद्श है। तृष्णा वैतरणी है सेभी न भूलना, और सदा सन्तोषरूपी कामधेनु का सहारा लेकर' रहना ।क्रोध करना अच्छा नहीं, वरन् वन जाना ही उचित है; 'इसे सहनकरो । ३५ ऐसा ही है, सो सुनो ! कमंरत प्राणी को एक स्थान पररहने को नहीँ मिलता। किसी न किसी कार्यवश उसे एक स्थान सेद्सरे स्थान को जाना ही पड्ता है जहाँ जाकर वह अपने किये कार्योकेफल का भोग करता है। यही बात चित्त मै धारण करके हे भाई तथा नेपाली-हिन्दी यो बिन्ती गरि पाउमा जब पप्याआँसु थाम्न कठिन् भयो -र बहुतैआशीर्वाद वचन् समेत् मिलि गयोलक्ष्मण्ले पेति साथ जान्छु म भनीलक्ष्मणूलाइ हिंडलौ भन्या र रघुनाथ्सीतालाइ तिमि ता घरै बस भनीपङ्खा छ्न चमर् रहित् प्रभुकनैक्या कारण् हुनगौ भनीकन सिताशङ्चित् जानकिलाइ देखि प्रभुलेसासूको टहलै गरीकन रहपीताको वर्चतनै लिई शिर-उपर्चौधै वर्षे बिताइ जल्दि म यहाँयस्ता बात् प्रभुका सुनीकन तहाँपैले ज्योतिषिको कुरा सब कहीसीताको यति बात् सुन्या र खुशिभैब्राह्वाण् खूशि सदा रहून्' भनि तहाँ ६३ बीदा दिइन् मन् बुझाइ ।रोइन् शरीरै रुझाइ ॥ताहाँ बिदा, रामलाई ।बिन्ती गन्या जानलाई २७॥सीता भयाोमा गया।,पैले त॑ भन्दा भया॥देख्ता त शङ्ित् भइन् ।हात्जोरि साम्ने भइन्।। ३८तीमी घरमा यहाँ।वर्षे त चौधैमहाँ॥जान्छु म वनूमा प्रिये।फिर््याछु निश्चै शिये।।३९॥।सीताजि मूर्छा परिन् ।छोड्दीनँ सेवा भनिन् ॥ “साथै सिताजी लिया। दौलत् बहूतै दिया ॥४०॥। माता, _ आप्लोग मुझे बिदा देने की कृपा करेँ। ३६ ऐसी विनतीकरके जब राम चरण मैं झ्रुके तो उन्होने अपने मन को समझा कर बिदादीऔर रो-रोकर' अपने शरीर को ही भिगो लिया। राम को आशीर्वादके वचनों के साथ बिदा मिली और लक्ष्मण ने भी साथ जाने की विनतीकी । ३७: लक्ष्मण को चलने की अनुमति दे कर राम सीता के पासगये। पहुँचते ही सीता जी को घर मेरहने की आज्ञा दी। प्खा,छतरी 'तथा चँँवर आदि से सुसज्जित प्रभु को देखकर वे सशंकित हुई ।बे करवद्ध होर्कर, “उनकी इस वेशभूषा का कारण जानने के लिए सामनेआई.। ३० सशंकित जानकी को देखकर प्रभु ने कहा कि चौदह वर्ष तकतुम घर पर रह् कर अपनी सासों की सेवा टहल करती रहना। हेप्रिये! मैं पिता जी की आज्चा शिरोधाय करके, वन को जाता हुँ । “चौदहवर्षे व्यतीत कर मैं निश्चय ही शीघ्र लौट्गा । ३९ प्रभु की ये बातेँसुनकर सीता जी मूश्ति हो ग्यीं। पह्ले ज्योतिषी की सब वात कहीं,तत्पश्चात् विनती की कि आपकी सेवा नेहीँ छोडुँगी। सीताजीकीयह वात सुनकर राम ने प्रसन्न हो उन्है साथ ले लिया। फिर त्राह्मणोंको सदा खुशं रखने के लिए धन-सम्पत्ति का वितरण किया । ४०" माता ४ कौसल्याजि जहाँ थिइन् तहि, गईमाता, मेरि पिछा भइन् भनि तहाँ यती, कासू गरि ,रामका हुकुमले सीता लक्ष्मण -साथमा..लि रघुनाथ्बीदा त पिताजिथ्यैं -जब सिता यंस्तो देखि असह्य भो -र दुनियाँसीता राम्कन् दुःख यो हुन गयो .- सीता आज -कसोरि' दुःख. सहनिन् यो अन्याय भयो यहाँ ,त नबसौं, राम्लाइ छोडि यहाँ कसोगरि बसौंयस्ता बात् गरि. लोकले त बहुतै भानुभक्त-रामायण -लक्ष्मणजिले, बिन्तिलाइ ।- सुम्प्या सुमित्राजिलाइ ॥लक्ष्मण् तयारी “भया ।राजा भयामा गया ।४१॥लक्ष्मण् लि -राम्ज्यू गया ।सब शोक गर्दा भयाकैर्केयी -दुष्टै . .. भई.घोर्, जङ्गलमा गई ॥४२।। जाऔं प्रभूका सँगै। -नुझेन मनु -ता नगै॥शोक् -गर्ने लाग्या भनी-। सब् विस्तार् गरि- वामदेव, क्रषिले संबूलाड बुझाया फति॥४३।।हेलोक्हो ! अतिगर्दछौतिमितशोक् ;.यो शोक .,ता छाडिद्यौ।साक्षात् विष्णु इ हुन् भनेर मनले . श्रीरामलाई-: .' जाचिल्यौ.॥।पृथ्वीको सब -भार् हरेर रघुनाथू _ फिछेन् इ - जान्छन् कहाँ;साँचा, हुन् इ कुरा.अवश्य तिमिले खेद् कीन मान्यौ यहाँ॥ ४४ को पीछे लगते देख लक्ष्मण ने-कौशल्या के पास जाकर _विनती की और सुमित्ा माता को उन्हेँ सौप दिया ।, इतना.काये कर -राम-की अनुमतिपाकर लक्ष्मण तैयार हो गय्रे। सीता.और लध्व्मण को .साथ-लेकर रघुनाथ,पिता के पास गये । ४१ रामको .सीता और लक्ष्मण सहित विदा लेने -केलिए पिता के; पास जाते देख --असहाय हो समस्त प्रजा.- शोकाकुल - हुई,।दुष्ट कैकेयी के.कारण सीता तथा रामको कष्ट. सहन करना पडा.है।सीता आज -किस प्रकार घोर जंगल मैँ जाकर दुख सहन करँगी ।.४२यह . अन्याय: हुआ है। यहाँ न रहेँ, - प्रभु के. संग ही चलें,।. राम कोछोड कर यहाँ किस प्रकार रहंगे । विना गयै-मन नही मानता । ; ऐसीवार्ते क्रर प्रजाजन अत्यन्त शोक करने ,लगे। तब वामदेव त्रद्षि ने:सविस्तार, वर्णन -क्रर सबको - समझाया॥ :४३- - हे प्रजाजन ! -तुम लोगअपर्ने इस अत्युधिक शोक का त्याग , करो ।.- श्रीराम,कौ मन में साक्षात्विष्णु का अवतार सम्झो ।-. पृथ्वी के सङ्ग भारो,का निवारण करने के.बाद:रघुनाथ लौट आगेगे । . येः जायेंगे 'कहाँ ? -ये सब बातें: सत्य हैँ। व्यथं ही यहाँ पर क्यो. शोक : प्रकट - करते हो। ४४ -इन बातों -सेक्र्रषि ने सभी, जनों के :मन को - अत्यन्त . सन्तोष प्रदान किया.। त यंस्- बात्ले “क्रषिलि “मनुष्यहरुको पौँच्या! राम् पनि: कैकेयी' र दशरथ्' हे मांतर् ! वन जानलाइ अब“ताबीदी जान मिलोस्, मा. जान्छु वनमा आज्ञा जानमिलोस् पिताजिकि पती,दुख्पाउननूकिभनी पिताजिकन शोक् ' कैकेयी यति बात्, सुनी',खुंशि भई लायो श्री , रघुनाथले, ति कपडा:यस्ता वस्त'म,लाउँ आज कसरी लज्जाले)' रघुनाथका मुखविश्वीरामूले मुटुरा, गरी, ति कपडात्यो - देखीकनः : राजपत्तिहरु ,सब् दुष्टे[: आज सिताजिलाइ किन्यो यस् काम्ले जति छन् यहाँ इ सबकोकैकेयी सित बात् वशिष्ठ गुरुले बीदा “भै रघुनाथ् -चढ्या रथविषे .. ७ नेपाली हिन्दी' द्ष् '"खुप् । मन् बुझाई, दिया ।' जाहाँ बस्याका “थियो आयौं, जना तीन्'“चली ।रस् राग्रती भर नली॥४५॥।जान्छु सदा खुश् म छु।मन्ूमा नला : गोस्कछु,॥बस्तर, पुराना - दिइन्सीताजिले ता दिइन्॥४६॥।भन्त्या मनैमा “धरी ।हेरिन् कटाक्षै गरीयाहात्ृमा जसै ता लिया0
- रेया तहाँ जो थिया॥४७।।
बस्तर् '. पुराना ' दियौ ।प्राण! खचि ,ऐलै लियौ ॥येती .गच्याथ्या जसै।सम्पुण रोया, तसै ।॥ ४० राम भी, जहाँ कैकेयी और दशरथ थे वही पहुँच गये और बोले; ,हे माता ! वन जाने के लिए हम तीनों जने आगयेहै। लेशमात्न भी मन मैँ क्रोध, तथा द्वेष न॑ रखकर आप हमेँ वन जाने के लिए विदा देने की कृपा करे । ४५पिताजी भी क्कपया आज्ञा दं--जिससे मैँ वन_ चला जाउँ। मैँसदा हीप्रसन्न छ । . आप मन मेँ किचित् मात्न भी चिन्ता न करे कि मुझे कष्ट,डोगा। येशब्द सुनकर कैकेयी प्रसन्न हुई और उन्हे पुराने वस्तादिलाकेर दिये।॥ “श्रीरघुनाथ ने तो वह 'वस्त ले लिये और सीता जी नेभीले लिये । ४६ ऐसे वस्त्न आज मैं किस प्रकार धारण कर्खैँ। ' मनेमैंयह विचार कर सीता जी. ने लज्जापूर्वक 'श्रीरघुनाथ की ओर कटाक्ष-पूर्ण दृष्टि'से देखा ।", श्रीराम ने उन् वस्त्ाँ को अपने हाथ में ले. लिया, यहदेख सब राज-पत्नियाँ :(माताएँ) रोने लगी । ४७ ' अरी दुष्टे! तुनेआज' सीता को ये पुराने वस्त्न क्यो' दिये ? तूने इस 'कायँ से यहाँ जोलोग हँ उन सवके प्राणों को खीच लिया-है।', गुरु वशिष्ठ ने कैकेयी से.जैसे ही यह बात कही 'श्रीरघुनाथ विदा होकर रथ मैं,चढ् गये । उस समय,सब लोग "रोने लगे । ४० ' रथ मे चढ्ेकर सीताराम वन को चल पडे ॥साथ 'मैँ लक्ष्मण भी गये। घर छोड् कर' उस रात्लि को रधुपति एक ध्ष कर्ता छुँ पति भन्नु , छैन्, अभिमान् :कर्मैको फल- भोग मिल्छ तिमिले: धीरा भै 'रहन्-' विपत्ति सहनूः कैले मोहविषे : नपर्नु जनले यस्तै बात् सुनि रात् बित्यो गुहुजिको , गङ्गा तने हुकृम् भयो प्रभुजिको गंगे॥ आज मस जान्छु घोर वनमा : फिर्दामा म पुजा अवश्य गरँलायस्तो, बिन्ति गरी सिता पतिजिकोआज्ञाले घरमा फिच्यो. गुह पनी:गंगा पार् तरि मिगै मारि पकुवातेस्रो .वास् रघुनाथको तहि भयोचौथो वास् रघुनाथको हुन गयो,राम्ज्यूको त्रक्षिले:गच्या स्तुति 'तहाँ" आनुभक्त-रामायण जन्ले न, गर्नू , कहीं ।यो बुझ्नु जाहाँ तही ।॥५७।॥।कस्तै , . पर्न् :तापनि । -माया “छ ,संसार्' भनी“रासूका नजीक्मा :रही । ताहाँ उज्यालो, भई ॥५८॥केवल् 'नसस्कार् गरी ।सामग्रि ठ्लो , गरी ॥साथै चलिन्- पार् तरी ।, ' भक्ती, मनैमा धरी ॥।५९॥। तारेर खाया तहाँ। एक् वृक्षका : तलूमहाँ,॥;आश्वमू भरद्वाजको।सुर्जानिकामूकाजको॥६०।॥। तन-मन से:उनके, .वचनो को -सुनने लगे । ५१६ सुख-दुख का दाता ,यहाँ013 नही है ? वांस्तव मैं सुख-दुख के रूप मै यह 'सब कर्मो का फल. प्राप्त होता है । करना चाहिए। कहना मूखंता है, न कृहने से सब धर्म का नाश होताहै।मैं कर्ता नहीं हँ यह कहना ही उच्रित है। किसी को.भी.अभिमान नहीं तुम यही जान लो कि इस संसार मैं कर्मो का ही फल् भीग करने को मिलता है। ५७ कैसी भी विपत्ति आ. जाय धैयं-पूवेक, सहन ,करना चाहिए संसार को माया रूपी.जान कर कभी भी मोह केख्वश मे न पड्ना चाहिए । . रामके निकट वैठ ऐसी बातै -सुनते- हुए गुह की रात बीती।की आज्ञा हुई ॥.५८पूजा कङँगा । उजाला होने पर गंगा पारकरने के .: लिए-.प्रभूः“लौटते,. समर्य पर्याप्त -सामग्री लेकर मैँ अवश्यहे गंगे! आज तो. मैं केवल नमस्कार कर . घनघोर वन, को जाती हूँ” ऐसी विनती कर सीता अपृने पति के साथ: गंगा. जी को:पार कर चली गई। आज्ञा पार्कर गुह,भी. मन में भक्ति-भ्ाव धारणक्र घर लौट गये । ५९ गंगा के.पार आकर गुह् ने मृग-का शिकार कियाऔर उसी का “भोजत किय्रा। श्रीरधुनाथ का तीसरा. पड्डाव वहीएक वृक्ष के नीचे पडा और चौथा -पड्डाव भरद्वाज -क्रषि के आश्रम भैँहुआ । कार्यो के विस्तार को-ससझ कर त्रह्ृषि ने रामजी,-की स्तुतिकी.। ६० .पाँचवे दिन मारगेप्रदशैच के लिए, क्रषिकुमारों को साथ में: नेपाली हिन्दी । दष्र यस् बात्ले क्रषिले “मनुष्यहरुको खुप् “मन् बुझाई दिया/।'पौंच्या राम् पनि कैंकयी र दशरथ् जाहाँ बस्याका “थियो|हेः मातर्, ! वन जानलोइ अबःता आयौं जना . तीन् :“चलीः ।?बीर्दा जान मिलोस् मा जान्छु वनमा: रस् राग्रतीभर् नली॥४५।1 आज्ञो जानमिलोसूँ पिताजिकि पनी जान्छू सदा खुशू स'छु।दुख्पाउनन्किभनी पिताजिर्केन शोक् मनूमा नला गोस्कछु।।कीकेयी यति 'बात् ' सुनी 'खुशि 'भई,' बस्तर पुराना ।दिइनू ।,लाया :श्री “रघुनाथले ति. कपडा“ सीताजिले ता दिइन्॥४६॥/ यस्ता 'वस्ते म लाउँ आज कसरी ' भन््या मनैमा 'धरी।लज्जाले रघुनाथका : “मुखविधे हेरिन् 'कटाक्षै “ गरीश्वीरामूले मुटुरा गरी ति कपडा. हातमा :जसै ता लियां।॥त्यो, 'देखीकन!?-राजपस्तिहरु सब् रोया तहाँ जो थियो॥४७॥ढुष्टे,'आज” सिताजिलाई किन यो बस्तर “पुराना 'दियौ॥यस् काम्ले 'जेति छन् यहाँ ई सबको प्राण खचि ऐलै लियौः॥कैकेयी सित बात् वशिष्ठ गुरुले . येती., ,गच्याथ्या जसै।बीदा 'भै रघुनाथ चढ्या रथविष्े' ..संम्पूण रोया' तंसे ॥ ४०1 राम भी; जहाँ कैकेयी और दशरथ थें वही पहुँच गये और बोले; हे माता !वन जाने के लिए हम' तीनों जने आ गये हैँ। लेशमात्ने भी मन में क्रोधतथा द्वेष न र्खकर आपू हमे वन जाने,के लिए विदा देने की क्कपा करे । ४५पिताजी भी. कृपया आज्ञा दे--जिससेँ मैं वन चला जाऔँँ। मैँसदा हीप्रसन्न हुँ। आप मन मैं किचित् माल भी चिन्ता न करे कि.मुझे कष्टहोगा। ये शब्द सुनकर _कैकेयी प्रसन्न हुई और उन्है पुराने, वस्तादिलोकर दिग्रे । _श्रीरघुनाथ ने तो वह, वस्त ले लिये और -सीता जी नेभी ले लिये। ४६ ऐसे वस्त्र आज मैं किस प्रकार धारण कखैँ। ' मनमैं.यह, विचार कर सीता जी ने लञ्जापुवंक श्रीरघुनाथ की ओर. कटाक्ष-पूर्ण दृष्टि से देखा । . श्रीराम ने उन वस्तों को अपने हाथ में.ले लियी, यहदेख -सव ..राज-पस्नियाँ (माताएँ) रोने, लगी । ४७. अरी ढुष्टे!' तुनेआज 'सीता_ को ये.पुराने वस्त क्योँ दिये ? तुने- इस -कार्य सेयहाँ जोलोग हैँ उन सबके 'प्राणों को खींच लिया है। गुरु वरशिष्ठे'ने,ककेयी सेंजैसे ही यंह बात कंही श्रीरघुनाथ बिदा होकर, रथ मै चढ गये, । " उस-समयसब लोग रोने लगे । ४८ रथ मै चढ्कर सीताराम- वन को चल पढे ॥साथ मैं लक्ष्मण भी गये।' घर छोड कर् उर्स राँत्चि को रघुपति एक दद भानुभक्त-रामायण कर्ता:ह्ँ पनि, भन्नु; छैन,. अभिमान् ., जनूले न. -गर्नू,; कहीँ ।कर्मेको: फल भोग मिल्छ: तिमिले : यो .बुझ्नु जाहाँ तहीं ।॥५७॥।धीराँ भै- रहनू. विपत्ति सहनू कस्तै ।पर्न् तापनि ।:कैले: .. मोहविषे : नपर्नु जनले माया .छ संसार्, भनी ॥यस्तै बात् सुनि रात् वित्यो गुहजिक्रो रामूका, नजीक्मा.:रही-4 .गङ्गा तन हुकम्: भयो प्रभूजिको, --ताहाँ उज्यालो ,भई ॥१८॥गंगे। आज म जान्छु घोर वनमा केवल् : नमस्कार् , गरी;फिर्दामा म पुजा, अवश्य. गरेँला , सामग्रि: ठूलो ? गरीयस्तो: विन्ति गरी सिता,पतिजिको .. साथै चलिन् पार् तरी ।आज्ञाले घरमा फिग्यो..गुह पनी ;भक्ती मनैमा श्वरी ५९!गंगा पार् तरि मिर्गे मारि पकुवा: तारेर, खाया ततहाँ।तेस्रो वास् .रघुनाथको ताहि भयो एक् ' वृक्षका, तलूमहाँ॥।:'कौथो बास्:-रघुनाथको हुन गयो आश्रम् ... .-' भरद्वाजको ।रामूज्यूको क्रषिले गृच्या स्तुति तहाँ - सुर्जानिकामूकाजको॥॥६०।।' तन-मच से उनके , वचनों को सुनने लगे,। ५६ सुखन्दुख का दाता यहाँकोई नहीं है? वास्तव में सुख-दुख के रूप मै यह् सव -कर्मो का फलप्राप्त होता है । . कहना मूखंता है, न कहने से सव.धमे-का नाण. होता है.।,मै कर्ता नहीं हँ यह . कहना ही उचित है।. किसी को भी अभिमान नहींकरना चांहिए। तुम यंही, जान लो कि इस सँसार भै कर्मो का ही फलभोग करने क्रो मिलता है । १७... कैसी भी विपत्ति आ. जाय _धैयं-पूर्वेक,सहन करना चाहिए । संसार को माया रूपी जान कर कभी भी मोहके वश_मँ न पुड्ना चाहिए । -राम के निकट बैठ ऐसी वातें सुनते हुएःगृह की रात. बीती । - उजाला होने पर: गंगा, पार करने के लिए प्रभु,की आज्ञा हुई । ५5५ .“लौटते समय पर्याप्त सामग्री लेकर मैं अवश्य.पूजा . कंङँगा ।.: है गंगे!' आज तो',मैँ केवल नमस्कार कर घनघोर वनको जाती हँ।”' ऐसी विनती कर.सीता अपने पति के साथ :गँगा.जी.को ,पार कर चली गई । आज्ञा 'पाकर गुह् भी मन मैं भक्ति-भ्ोव धारणकर घर लौट गये.। १९' गंगा के पार आकर गुह ने मृग का.शिकार कियाऔर उसी का भोजन,.किया। श्रीरघुनाथ- का' तीसरा पड्ाव्र . वढीएक वृक्ष के नीचे पडाँ और चौथा पड्डाव भरद्वाज क्रदपिके आश्रम मै.हुआ । , कार्यो के विस्तार-को समझ कर त्रष्षि ने, रामजी. की स्तुतिकी ॥ ६०. _पाँचवे दिन मागे-प्रदशैन. के लिए त्रृषिकुमारों को साथ में नेपाली-हिन्दी ६९ पाँचौंदिन् क्रषिका कुमार् सेँगलिया , बाटो, ' बताउनू, भनी।राम्ज्यूलाइ' , यमुनाजितारितिकुमार् साँझ्मा-त फर्क्या प्नि ॥सीताराम् पनि" चिल्क्ट् पुगि गया वाल्मीकि बस्थ्या जहाँ।वाल्सीकीकन' दण्डवत् गरि बहुत् : आनन्द- मान्या । तह्ँ॥६१॥।वाल्मीकीकन:-- भन्दछन् -: .रघुपती -:.क्यै, दिन् ?-,रहन्छू - यहाँ ।..कुन्); जग्गा-:बढिया-छ सब्- तरहले.-. होला सुविस्ता ]' कहाँ ॥।,सून्या ,:-वाल्मिकिले मनुष्य: सरि भै: रास्ले - गच्याका, कुरा ।:सोही माफिक-विस्ति-वातँ- पत्ति गच्या : : वाह्मीकि छन् झनृपुरा॥६२।॥।'जान्दैनन् महिमा वडा क्रषि पनी -जस्का त. एक्. -नामको ॥यस्ता हौ रघुनाथ !. हजुर्कन यहाँ -क्या कासू, असल् - ठामको ॥सज्जनूको हृदयै.-छ घर हजुरको . -अच्छा बहुत्' फेर्.;कहाँ ।ब्रिस्ताद्,एक् -सुनिबक्सनू पति होस्. बिन्ती म; गर्छु यहाँ॥६३॥।व्याधा हुँ,अघिको -म सप्तक्रषिको _. निरमल् क्रू्पाले गरी।,वाल्मीको भनि नाम् चल्यो जब जप्याँ रामूनाम उल्टा गरी ॥उल्दै- वामकि ता छ यस्ति_ महिमा विस्तार धेर् क्या कठ्ूँ।गंगाको .र इ चित्रकूट :गिरिका बीचका जगाम[, रह ६४।। लिया,।.. रामजी को. यमुना पार करवा कर .वे-क्रषिकुमार संध्या तकलौट भी आयै,। ; सीता-राम् भी चित्वकूट, जहाँ बाल्मीकि रहेते_ थे,पहुँच गए और बाल्मीकि मुनि को दण्डवत कर अत्यन्त आनन्दित' हुए । ६१. कुछ,दिन वही।रहने की इच्छा प्रकट, करते :हुए“रघुपति-बाल्मीकि से कहते,हैँ-तकौन-सा ।स्थान "'सर्वप्रक्कार से सुविधापूर्ण , एवम् उत्तम होगा । : मन्नुष्य:की भाँतिः राम द्वारा कही गई वात को वाल्मीकि मुन्ति ने सुन्न ।; और उसीप्रकार विनय-पूर्ण वार्ता-की । -क्योकि-वाल्मीकि :ती पूर्ण ज्ञानी थे । ६२ हे,रख्रुनाथ आप. तो' ऐसे, हँ कि जिनके' कार्य की महिमा.क्रो. क्रृषिनहौं समझ . सकता ।॥; 'आपके: लिए उत्तम स्थान, की क्या आवश्यकता है?सज्जनो-का हृदय ही आपका- आगार है, इससे ' बढ्कर उत्तम स्थान ।आपक्ोऔर कहाँ “मिलेगा ॥.] मैं एक बात विस्तार-पूवँक :कहता छूँ, ,आप; श्रवणकरने की क्कपा,करेँ,। ६३, मैँ,किसी .समय,एक बहेलिया था,१ सप्तषियोंकी असीम. क्कपा से जव. राम-्ताम को, उलटी ओर से.जपना 'आरम्भ कियातवर: बाल्सीकि;के,नामँ से प्रख्यात: हुआ । , उलटे..नाम,की -ऐसी महिमाहै,कि और अधिक, क्या कङ्ँ। आप,गंगा-तथा चिल्नकूट पत्नेत के सध्य केस्थल मैं,निवास'करेँ। ६४ वाल्मीकि--क्ररषि के चचनों,को |सुन; कर-प्रभु ७२् भानुभक्त-रामायण बिन्ती यो गरि दुःखमा परि विलापूमन्त्रीवर्गे समेत् वाशष्ठ गुरुजीदेख्या शोक भरत्जिको र गुरुलेशोक् गर्नू बढिया त छैन किन शोक् नाना तत्त्व कही तहाँ भरतकोसब् आज्ञा गुरुको लिई: भरतलेराजाको किरिया जसो गरि सक्यातेस् बीच्मा मनले विचार् भरतलेमाता मेरि त राक्षसी सरि भइन्बस्नू योग्य अवश्य छैन अबतायस्तो चित्त थियो तहाँ भरतकोमालूम् 'ता गुरुमा थियो तरपेनी बाबाको छ हुकुम् यहाँ भरतले, चौधै वर्षे तलक् बसुनू' वनविषेसीता राम् यहि बातले वन गयागादी चढ्नुहवस् हुकम् दिनुहवस्यस्तो बिन्ति गरी वशिष्ठ गुरु चुप् उत्तर् जल्दि दिया तहाँ भरतले, गर्थ्या भरत््जी -तहाँ॥'पौँच्या 'नजीक्मा तहाँ॥-पीता बित्याछ्न् भनी॥गछौं महाराज् ! भनी।॥७३॥।सब् शोक् गुरूले हरन्योकाम्काज् पिताको गग्या “ दानूको असङ्ख्यै गरी । सख्या बहुत् शोक् गरी॥७ छ॥।इनूका नजीक्मा यहाँ।_जान्छू प्रभू. छ्न् जहाँ ॥,इन्ूको छयो मन् भनी ।.. भन्छन् उचित् हो भनी॥७५॥'“राजू गर्नु, ररामूले गई. मानो मुनीञ्चर भई॥ ' याहाँ . हजूर्ले . पत्नि ।॥:. यो राज्य मेरो भनी॥७६॥...जस्सै: _रह्याथ्या' तहाँ।': " ७) ॥। ७ 1क्या. गर्छु यो “राज् यहाँ ॥. सभी मंविगणों सहित वहाँ पहुँच गए भरत जी . को: शोकाकुल, देख गुरु ने'पिता की मृत्यु की सूचना दी ।' आप व्यर्थ ही शोक क्यो . करते है॥ ७३ वे बोले;:शोक करना ठीक नहीं; -अनेक प्रकार के. तत्यो का ज्ञान' दे करः गुरु ने-भरत के शोक को शान्त किया॥ गुरु की आज्ञा लेकर भरत ने पिता का.क्रियाकर्मादि,किया । जैसे ही राजा का क्रिया-कम समाप्त हुआ वैसे ही असंख्य दान-पुण्य आदि किए ।' 'उसी बीच भरत'ने शोकाकुल हो कर मन मे विचार. किया । ७४ मेरी माताःतो राक्षसी:तुल्य है।' . इसके समीप रहना अवश्य ही उचित नहीं है, अत: अब जहाँ:प्रभु हँ वहीं जाता हँ। गुरु को'विदित था कि भरत के मन'मै ऐसा हीबिचार था जो उचित ही था। ७५, पिता (दशरथ) की आज्ञानुसार”भरत को यहाँ राज्य करना है और राम को चौदह वर्ष तक बर्न ,मैं मुनियों”के रूप मे रहना है। सीता-राम इसी कारण वन को: गए । : अत: आप"राजगद्दी पर वैठ कर, 'यहु मेरा राज्य है“, कह् कह् र ,राज्य करेँ। ७६ नेपालौ-हिन्दी . “ && पाँचौंदिन् क्रषिका कुमार् . सँगलियारामज्यूलाइ :: यमुनाजितारितिकुमार्सीताराम् पनि चित्रकूट'पुगि गयावाल्मीकीकन दण्डवत् गरि बहुत् वाल्मीकीकन : भन्दछन्, रघुपती ,कुन् जग्गा बढिया छ सब् तरहले,सून्या वाल्मिकिले मनुष्य सरि भै सोही माफिक बिन्ति बात् पनि गच्याजान्दैनन् महिमा, वडा क्रद्षि पनीयस्ता हौ रघुँवाथ् ! हजुर्कन यहाँ सज्जनूको हृदयै. छ घर् -हजुरको . बिस्तार् एक् सुनिबक्सनू पति हओस् व्याधा छुँ अघिको . म सप्तक्रषिको , बाल्मीको भनि नाम् चल्यो.जब जप्याँउल्टै नामकि ता छ यस्ति महिमागंगाका र इ चिब्नकूट गिरिका बाटो : बताउन् भनती।साँझ्मा त "फर्क्या 'पत्ति ॥ बाल्मीकि बस्थ्या जहाँ ।: आनन्द मान्या.:तहाँ।॥६१॥।क्यै, दिन् रहन्छ यहाँ ।.होला सुविस्ता कहाँ॥रामले गग्याका कुरा ॥वाल्मीकि छन् झन्पुरा॥६२।। .जस्का त एक् नामको । क्या काम् असल् ठामको ॥अच्छा बहुत् फेर् कहाँ ।.बिन्ती म-गर्छू यहाँ॥६३।॥।विर्मेल् . कृपाले, .गरी ।रामूताम उल्टा. गरी ॥विस्तार धेर् क्या कहुँ।बीचका जगामा रह्॥६४।॥। लिया.। - रामजी को यमुना: -पार करवा,कर वे :क्रषिकुमार:_ संध्या'-तकलौट भी आये। ,सीता-राम भी चित्वकूट, जहाँ बाल्मीकि रहते थे,पहुँच गए और बाह्मीकि मुनि को दण्डवत कर अत्यन्त आनन्दित हुए । ६१.कुछ दित वहीं 'रहने की इच्छा प्रकट करते हुए रघुपति वाल्मीकि से कहते'हँ--कौन-सा) स्थान “सरवँप्रर्कीर से सुविधापू्ण एवम् उत्तम. होगा । मनुष्यकी भाँति राम द्वारा कही गई बात को वाल्मीकि मुनि ने सुना। और उसी:प्रकार विनय-पूर्ण वार्ता की । क्योकि वाल्मीकि तो पूर्ण ज्ञानी थे। ६२ हैस्बरुनाथ आप तो ऐसे है कि जिचके कार्ये की महिमा को क्रषिनहीं ससझं॑ सकता । आपके लिए उत्तम स्थान की क्या आवश्यकता है ? सज्जनों का हृदय ही आपका आयार है, इससे बंढकर उत्तम स्थान आपकोऔर कहाँ 'मिलेगा । ,” मैं एक बात विस्तार-पूर्वेक कहता, हुँ, आप श्रवणकरले ,की कृपा करे । ६३ मैं किसी समय एक -वहेलिया था। सप्तपियोंकी असीम कृपा से'जव राम-नाम को उलटी ओर से जपना : आरम्भ्न किया,तव वाल्मीकि के नाम सेप्रख्यात हुआ। उलटे नाम की ऐसी महिमाहै कि और अधिक क्या कह । आप गंगा तथा चिल्लकूट पर्वत के मध्य केस्थल मैं निवास -करें। ६४ “बाल्मीकि क्रट्षि के वचनो को सुन, कर प्रभू ७२बिन्ती-यो गरि दुःखमा परि विलापूमन्त्रीवग “समेत् . बशिष्ठ गुरुजीदेख्या शोक भरतूजिको, र गुरुलेशोक् गर्नू 'बढिया 'त छैन किन शोक् नाना तत्त्व कही तहाँ भरतको सब् आज्ञा गुरुको लिई भरतले राजाको किरिया जसो गरि संक्यातेस् बीच्मा मनले विचार् भरतलेमाता मेरि त राक्षसी” सरि भइन्वस्वू योग्य अवश्य छैन अबतायस्तो चित्त थियो तहाँ भरतको मालूम् 'ता गुरुमा थियो तरपनी बाबाको छ हुंकुम् यहाँ भरतले चौधै वर्ष तलक् बसूतू वनविषेसीता राम् यहि बातले वन गया. गादी चढ्नुहवस्' हुकूम् दिनुहवस्यस्तो बिन्ति गरी वशिष्ठ गुरु चुपूउत्तर् जल्दि दिया तहाँ भरतले भानुभक्त-रामायण गर्थ्या भरत्जी , तहाँ।'पौंच्या नजीक्मा तहाँ॥ -पीता बित्याछ्न् ' भनी: गर्छौं महाराज् ! भनी।1७३॥।सब् शोक् गुरूले हँन्याकाम्काज् पिताको गंच्या ॥।दानूको असङख्यै गरी । - राख्या बहुत् शोक् गरी।॥७ ४इनूको छयो मन् भनी।, भन्छन् उचित् होभनी॥॥७५१। मानो, मुनीश्वर भई ॥।.याहाँ , हजूर्ले पनि |. .यो राज्य मेरो भनी॥७६॥ .जस्सै- रह्याथ्या, तहाँ।' -क्या गर्छु उत्तर् जल्दि दिया तहाँ भरतले ,:क्या गरछु यो, राज् यहाँ ॥. यो: राज् यहाँ ॥, सभी संलिगणों सहित वहाँ पहुँच गए। भरत'जी को'- शोकीकुलदेख गुरु ने' पिता की मृत्यु की सूचना दी ।' वे बोले, शोक, करना,ठीक नहीं;आप व्यर्थ ही.शोक क्यो करते हैँ । ७३ "अनेक प्रकार के तत्वों का ज्ञानेदे कर गुरु 'ने भरत के शोक 'को.,शान्त ,किया ।- :गुरु की: आज्ञाःलेकर भरत ने पिता को क्रियाकर्मादि-किया । जैसे ही राजा, का क्रिया-कमै समाप्त हुआ वैसे ही असंख्य दान-पुण्य आदि किए । उसी बीच भरतःने: शोकाकुल हो कर मन मैं विचार किया। ७४, “मेरी माता तो' राक्षसीःतुल्य,है । , इसके समीप रहना अबश्य ही उचित नहीं :है, अतः अब जहाँ:प्रभु है वहीं जाता हुँ । , गुरु को. विदित,था क्रि भरत के मन'मै ऐसा हीबिचार ,था।जो उचित ही, था1,७५, पिता (दशरथ): की आज्ञानुसारःभरत को. यहाँ राज्य करना है और राम को 'चौदह वर्ष ;तक,वनों मैं मुनियों:केखूप.मैं रहना है। सीता-राम इसी कारण वन को गए ।'- अतः औफराजगद्दी पर वैठ कर, 'यह मेरा राज्य है.कह कह कर राज्य करेँ। ७६: नेपाली-हिन्दी ७ कीर्तीमा अपकीति पारि कसरी राज् गर्नु याहाँ बसी।दाज्यूको टहलै गरी सँग रह्या नक्ष्मण् रह्याछन् जसी॥७७॥।गया जाहाँ सीतापति म पनि जान्छ अब तहाँ।फगत् एक् कैकेयी यहि बसिरहन् छांड्दछु यहाँ ॥फलाहारी हुन्छ् शिरभरि जटा धारि वनमा ।सम“भोली जान्याछ् हिडिकन विचार् यै छ मनमा ॥७०।॥। प्रभूको गादी हो प्रभुकन फिरायेर घरमा ।म गादी सुम्पन्छू किन म गरँला राज्य करमा ॥भरत्का यस्ता बात् सुन्तिकन सबै खुश् अति भर्यो।'.भरत्. . भोलीबेरै उठिकन सबेरै हिड्गिया,॥७९।सबै माता भ्राता गुरु सहित सब् फौज पर्नि ली।फकत्' सीतारामूको चरणतलमा चित्त पनिदी॥:भरत् गङ्गा पौँच्या गुहजिकन : शंका हुन गयो।“ठुलो लश्कर् देख्या नबुझिकन तानेँ डर भयो ॥5०॥लडौंला नाउ खैंची भरत कपटी हुन् यदि भन्या ।- भनी मन् मन् लश्कर्हरुकन तयार् हौ पनि भन्या ॥ -ऐसी विनती कर जैसे ही गुरु वशिष्ठ चुप हुए, भरत ने तुरन्तउत्तर -दिया कि क्या राज्य कङँगा यहाँ ! कीति मैं अपक्रीति ले करकिस प्रकार यहाँ बैठ. कर राज्य करडं। भाई की सेवा कर साथझैँ रह कर लक्ष्मण यश के पाल्न हुए । ७७ सीतापति जहाँ, गए हैँ मैं“भी अब वहीं जाता हूँ, केवल कैकेयी अकेली यहाँ पर रहे। फलाहारी_होकरं शिर मै जटा धारण कर मैं कल पैदल ही. वन को चला जाउँगा,'यही मैँते मन मे ठाना है । ७5 यह गी प्रभु की है, अतः प्रभु को घरलौटा कर मैँ ग्ी उनको सौँप दूँगा। भरत की ये बातेँ सुन कर सबलोग अति प्रसन्न हुए। भरत ने कहा क्कि मैं क्यों विवशता-पूर्वक राज्यकङँगा, और ' दूसरे दिन. उठकर सबेरे ही चल पड्े । ७९ सब मार्ताऔं,तथा गुरु सहित सब सेत्ता को भी साथ लेकर केवल सीता-राम के चरण-तल में एकाग्रचित्त लगाकर भरत गंगा पर पहुँचे । . निषादराज को शंकाउत्पन्न हुई और भरत की. विराट सेना को देखकर वास्तविकता को जाने बिनाउन्है पार उतारते भी डरने लगे । ५० यदि कोई, कपट होगा तो तनावकोखींचकर लङ्गे, यही मन मै विचार कर उन्होँने अपनी सेना को सचेत किया ।स्थिति की गम्भीरता को समञ्च कर भरत ने कहा कि मैँ सब समझता हुँ ।
७४ भानुभक्त-रामायण - ठुलो भित्री मत्लबू गरिकन गयो बुझ्दछु भनी ।तहाँ भेटी राखी नजर तिर हेज्या कछु भनी ॥%५१।| जसै देख्या आँसू गहभरि घरी शोक् पनि गरी ।कहाँ मिल्छन् सीतापति मकन भन्दा घरिघरि ॥।जसै शिर् पाञमा गरि ति गुहले ढोग् पनि दिया ।भरत्ले अङ्कैमाल् गरेँ भनि उठाईकन लिया ॥८२॥। भरत्जीले सोध्या गुहसित सितका पति यहाँ ।सुत्याको स्थल् कुन् हो मकन कहु जान्छू अव तहाँ ॥गया विस्तार् पाई रघुपति सुत्याका शयनमा ।भरत्ले खेद् मान्या कुश-शयन देखेर . मनमा ॥5३॥ अहो ! मेरो खातिर् वन वन सिताजी पति सँगै ।कुशासन्मा सुतृछिन् न त यसरि सुतृथिन् अघि कतै ॥अहो धिक्कार् मेरा जनम जननी कैकयि भइन् ।इ्नैले गर्दामा पतिसँग सिताजी वन गइन् ॥ ८४ कहाँ छन् सीतानाथ् कति पर गया भेट्तछु कहाँ ।छ केही मालूम् ता मकन कहु जान्छू अब तहाँ॥ वे गुह से भैंट करने गये और कुछ समझने हेतु उसकी ओर देखा । ८१गुह ने भरत के शोकाकुल अथ्रुपूर्ण नेत्लो को देखा! सीतापति कहाँसिलेगे, कह् कर भरत बार-बार निपादराज से पूछ्ने लगे । जैसेही गुहनेपाँव मैं मस्तक रख कर नमस्कार किया, भरत ने उसे आलिगत करनेके लिए उठा लिया। ०२ भरत ने गुह् से सीतापति के शयनस्थलका पता पूछा। विस्तारपुर्वंक जान कर भरत रघुपति के शयनस्थल कीओर गए और राम की कुशोँ की शय्या देख कर भरत जी को अप्यन्त खेदहुआ । ०३ ओह! मैं ही निमित्त छ कि सीता जी पति के साथ वन-वन मैंकुशासन पर सोती हैँ। इस प्रकार पहले कभी नहीं. सोई। -ओहधिक्कार है मेरी जन्मदात्री जननी कैकेयी को जिसके कारण आज सीताजीपति के साथ वन चली आई। ०४ कहाँ हँ सीतानाथ ? कितनी दूरजाने पर उनसे भेंट होगी) कहाँ हँ? कुछ मालूम हो तो बताओ मैंअब वही जाता छूँ। तब गुह ने भी उन्है स्थान ,बता दिया जहाँ रामथे। गुह् के दिये हुए समाचार से ही राम-मिलन की आशा से भरतप्रसन्न हुए। ०५ सब कुछ विस्तारपुवंक वता कर गुहृने भरत को नेपाली-हिन्दी ' , ७५" बताया याहाँ छन् भनि ति गुहले रामूकन पति। -' गुहैका समूचार्ले खुशि पनि भया भेट्तछु भनी ॥०५।॥। : . सब् विस्तार् बताइ ताहि गुहले गङ्जाजि तारीदिया ।.ताहाँ देखि भरत् चली पुगिगया जाहाँ भरद्वाज् थिया॥एक् दिन् ताहि मुकाम् गज्या भरतले सन्मान् क्रषीले गच्या।बिलुकुल् सैन्य जती थिया भरतका मेजूमानिलेछक् पन्या॥५६।।भोली बेर सबेर लश्कर लिई बीदा क्रषीथ्यै भया।कैल्हे पुग्दछु चित्रकट गिरिमा भन्दै भरतृजी गया॥खुश् भै लश्कर चित्कक्ट गिरिका पौँच्या नजीक्मा जसै ।खोज्या ताहि भरेतृजिले अघि गई डेरा प्रभूको तसै॥1५७॥।डेरा देखी भरत््जी तहि नजिक गया पाउका छाप देख्या ।.श्रीरामँका पाउका छापू चिन्हकन खुशिले माथले ताहि टेक्या ॥भन्छन् धन्त्यै रह्याँड सहज नमिलन्या पाउका छाप देख्याँ।ब्रह्माजीले, नपाउनु छ तपनि सहजै माथले आज टेक्याँ 15८यस्तो बोल्दै प्रभुको चरणधुलिविषे भक्तिले लट्पटीदै।कैल्हेँ पुग्छु कहाँ छन् भनिकन सनले दसूदिशा दृष्टि दीदै॥जाँदा ताहीं भरत््ले प्रभुजिकन जस नेत्ले देख्न पाया।ख्वामितृलाइ आज पायाँ भन्तिकन खुशिले पाउमा पने धाया॥८९।॥। गंगा पार् करा दिया। बहाँसे चल कर भरत भरद्वाज जी के आश्चिम_ मैं पहुँच गये। -एक दिन वहीं ठह्रे। क्रृषिने भरत का सम्मानकिया। इस सत्कार को देख कर भरत की सम्पूणँ सेना चकित रहगई। ८६ दूसरे दिन प्रातः सेना को लेकर भरतनेक्रषिसेविदाली।चित्लकूट पवत- पर शीघ्रातिशीत्र पहुँचत्ते की इच्छा से भरत चल पडे।सेना जैसे ही चित्नकृट पर्वत के पास पहुँची वैसे ही भरत.अति प्रसन्न होआगे बढ् कर प्रभु के डेरे की खोज करने लगे। ०७ डेरा ज्ञात होनेपर् भरत जी जब. निकट ,पहुँचे तो उन्हेँ पाँवों के चिह्न दृष्टिगोचर हुएश्रीराम के चरण-चिह्न पहचान कर,भरत ने अत्यन्त हषत होकर बहींअपना मस्तक रख दिया । मैं धन्य हँ जो आज अप्राप्य पद-चिह्नो कोप्राप्त कर पाया जिन्हेँ ब्रह्मा भी नहीं पा सकते । दद - इसी प्रकारभक्ति-भावना में डूबे हुए भरत जी, प्रभु की चरण-धूलि से शरीर कोपवित्न -करते हुए, 'कब पहुचूँगा, राम कहाँ है' आदि बातेँ मन मैं सोचते ७६ भात्नुभक्त-रामायण देख्या पाक पच्याका गहभरि बहँदा अथुधारा ध्याको ।सब् राज्यै तृण् बरावर् गरिकन वहुतै आफुमा मन् गच्याको ॥यस्तो देखी क्रपाले भरतकन तहाँ काखमा राखिलीया ।जस्तो मन् हो भरत्को बुझि रघुपतिले खुप् क्कपादृष्टि दीया॥९०॥।श्रीसीतापति माइका चरणमा राख्या र शिर् फेर् पिता ।काहाँ छन् किन आज देख्तिने यहाँ क्या गर्देछन् छन्. कता ॥,भन्दै खोजि गण्या पिताकन तहाँ थीरामजीली जसैँ।सब् विस्तार बशिष्ठले भनिलिदा शोक् गर्ने लाग्या तसै॥९१॥गंगा स्तान गरी तिलाञ्जलि दिया फेर् पिण्डदानै , 'पति,।फलु फूलूले रघुनाथले तहि दिया पाञनू पिताले भनी ॥तेस् दिन्मा उपवास् गच्या जव वित्यो रातृ् फेरि गंगा गया ।गंगा स्वान् गरि फेर् फिरेर मढिमा आएर बस्ता भया ॥९२॥ तहाँ सीतारामूका चरण-तलमा शिर् पनि धरी।अयोध्यै लैजान्छु भनिकन ठुलो मनूसुव गरी ॥भरत् बिन्ती गर्छन् किचन रघुपते ! आज वनमा ।हजूरूले आयाको मकन अति ताप् हुन्छ मनमा ॥९३॥ हुए दशों दिशाओ की ओर दृप्टि डालते चले । जाते-जाते प्रभु के दशेन पातेहो कहते हैँ--आज स्वामी को पाया और अत्यन्त प्रसच्च हो उनके चरणों मैंआत्म-समर्पेण कर दिया । 5९ पाँव पड्ते, नेत्रों से अश्वुधार बहाते, तथा. समस्त राज्य-लोभ को तिचका सदृश समझ कर अपने हृदय को राम-चरणो मैंअर्पित करते हुए भरत को राम ने क्रपापूवँक अपनी गोद मैं वैठा लिया ।भरत की ऐसी मनोभावना देख कर रघुपति ने उन्है महान् क्कपा की दृष्टिसे देखा। ९० भरत ने प्रथम श्रीसीतापति के चरणों मै मस्तकझुकाया फिर सीता-माता को प्रणाम किया। श्रीराम ने पिता कोवहाँ न देख उनके विषय मेँ पूछा कि वे कहाँ हँ, वे क्या कर रहे हँ आदिगुरु वशिष्ठ द्वारा विस्तृत रूप से सव समाचार ज्ञात होने पर व अत्यन्तशोकाकुल हुए। ९१ गंगा-स्तान करके तिलाँजलि दे श्रीरघुनाथ नेफल-फूलों आदि से पिण्ड-दानादि किया । उस दिन उपवास किया।रात्रि व्यतीत होने पर पुनः गंगा में स्तानादि करके लौटे औरअपनी मड्ैया मै आकर बैठे । ९२ वहाँ सीता-राम के चरणों पर सिररख कर भरत ने उनके अयोध्या लौट चलने की उत्कट अभिलाषा प्रकटकी। भरत ने विनती की, हे रघुपते, आज आपके इस प्रकार वन चले नेपाली-हिन्दी ७७ ख्वासित् ! हजुरको म त दास पोहुँ।यो राज्य गर्नाकन योग्य को छूँ॥यो गादि ता याहि हजूरको हो। - मैले त सेवा गरि बस्नु, पो हो ॥९४।।छोरा हुनन् यज्ञ बहुत् गरीनन् ।सम्पुणे लोकको पनि तापू हरीनन् ॥तब्'पो ति छोरासित राज्य छाडी ।जानू असल् हो त छँदै छ झाडी ॥९५॥बेला त यो होइन जात वतूमा।मेरा त यै निश्चय हुन्छ मनूमा ॥जाऔं : घरै फर्कि सधाइ जावस् । |, मेरी इ मातासित , रिस् नआवस् ॥९६॥यस्ता प्रकारले गरि बिन्ति गर्दै। ,आँखा भरी आँसु बहूत धर्दै॥रोया भरतूले जब पाउमा गै।बोल्या प्रभूले पनि खूशि मनू भै ॥९७॥हे भाइ! गर्छौं किन आज जिट्दी। . फिर्न् असलू छैन नि कास् नसिद्धी ॥जान्छु म बनूमा तिमि फकि जाङ।तेस् राज्यको कास् तिमिले चलाङ॥।९८॥। आते से मेरे मन मैं घोर संताप हो रहा है । ९३ हे स्वामी, मैं तो आपकासेवक छँ। यह राज्य करने योग्य नहीं हँ। यह गद्दी तो आपकी है,मुझे तो सेवा करके रहना ही उचित है। ९४ जिसके पुत्न नहीं हुए,जिसने यज्ञादि भी नही किया, और न जिसने सम्पूर्ण लोकों का निवारणही किया, ऐसे पुत्न को राज्य त्याग कर वन : जाता ही उत्तम होगा । ९५मैने तो मन मैं यही निश्चय किया है कि आपके वन जाने का यह समयनहीं है। चले, घर लौट चले जिससे सबका सुधार हो और अपनी -माताके प्रति मेरा क्रोध दूर हो जाय। ९६ इस प्रकार विनती करते हुएनेत्लों में अरशु भर चरणों मै गिर कर जव भरत रोए तो प्रभु ने प्रसन्नमन से कहा.। ९७ हे भाई! आज तुम इतनी जिद्द क्यों करते हो।विना कार्य-सिद्धि के लौटना उचित नही है। मैं वन जाता छू, तुम ७प भानुभक्त-रामायण रामूले वनै गै सुन्नि भेप धर्नू।याहीँ भरत्ले बसि राज्य गर्नू ॥भन्त्या पिताको जब सुन्न पायाँ।आज्ञा उसैले वन जान आयाँ॥९९॥ई बातृू भरत्ूले जव सुन्न पाया।:फेरी चरणमा परि बिन्ति लाया ॥,.हे नाथ् ! पिता हुन् मतिहीन् भयाका ।स्त्रीका त साह्ग वशमा पच्याका ॥१००॥उन्ले भन्याथ्या पनि राज्य छाडी।जानू असल् होइन् आज झाडी ॥ख्वामित् ! बहुत् विन्ति छ फर्कि जाऔँ। - फर्केन्नै भन्त्या त जवाफ्ू नपाञँ॥१०१॥यस्ती भरत््ले जब जिद्दि लीया।उत्तर् प्रभुले पति फेरि दीया॥फर्केत्तै भैया तिमि फर्कि जाञ।:पिताजिलाई पति दोप् _नलाड ॥१०२॥ खुप् सत्यवादी त पिताजि थीया। साँचै हुनाले वरदान दीया॥ सो पुर्ण गर्नाकन जान्छु वनुमा। साँचो कुरा हो वुशिलेउ सन्मा ॥१०३॥लौट जाओ और राज-क्ाज का सब कार्य संचालित करो। ९5 जवमैँचे पिता की यह आज्ञा चुनी कि राम मुन्ति-वेष धारण करे और भरतयहाँ रह् कर राज्ग्र करेँ तदनुसार मैं वन जाने के लिए आयाहँ। ९९ जब भरत ने यह बात सुनी तो वे पुनः राम'के चरणों मैं गिरकर विनती करने लगे। हे नाथ! पिता की मति हीन हो गई थी, वेस्त्वी के वशीभुत थे । १०० उन्होँने यदि कहा भी तो भी राज्य छोडकरवन को जाना आज अच्छा नहीं। हेस्वामी! मेरी हार्दिक विनती हैकि आप लौट चले; न लौटने की बात मुझ्से न कहँ। १०१ भरतनेजब इस प्रकार हठ किया तो भी प्रभु ने पुनः यही उत्तर दिया कि मैं नहींलौटूँगा । तुम लौट जाओ और पिता पर भी दोषारोपण न करो ।,१०२पिता जी अत्यन्त सत्यवादी थे । - सत्य के कारण ही उन्होने वरदान दिये ।
नेपाली-हिन्दी ७९ उत्तर् प्रभूको सुत्ति दुःख .मान्या ।फेरी चरण्ूमा परि बिन्ति लाया ॥फिर्तू हवस् ख्वामित ! बिन्ति गर्छु।यस् दण्डकारण्य विषे ,.म जान्छु ॥१०४।॥यस्ता वचनू सूति - भरत्जिलाई ।फेरी हुकूम् भा तिमि फर्क भाई॥यो . राज्य साट्या प्नि हुन्छ झूटो।हे भाइ ! गछौं किन आज भुटो॥१०५।॥हुकम् यस्तो सूनी भरत पनि रामूका चरणमा ।परी बिन्ती गछन् मत रघुपते ! छू शरणमा ॥ -चरण् बाहिक् एक् छिन् रहन पनि तापू हुन्छ मनमा ।नफर्क्या ख्वामितृका पछिपछि म ता जान्छु वनमा ।॥१०६॥।«नेता फर्की जान्या न त मकन लान्या वन पत्ति ।.,, . भन्या मर्छू ख्यामित् ! अब अरु कुरा केहिन भनी ॥“भनी आस्नू बाँधी जब मरणमा निश्चय घप्या।' खुशी भै श्रीरामूले पनि अति दयालू मन गच्या ॥१०७॥।दिया सूचन् रामूले गुरुकन बुझाङ तिमि भनी ।गुरूले एकान्तै लगिकन भरत््जीकन पति ॥वह्ी पूर्ण करने. मै वन जा रहा ह्रँ। बात सत्य है, यह मन में जान-लो॥ १०३ प्रभु के इस "उत्तर को सुन कर भरत बहुत ही दुःखित हुएऔर पुनः चरणों मैं गिरकर विनती करने लगे। हे स्वामी! मैं आपसेविनती करता हुँ कि आप लौटने की क्कपा करेँ। दण्ड-स्वकू्प इस वनमें मै ही निवास करता हुँ । १०४ ऐसे वचनों को सुनकर उन्होने भरतको पुनः आज्ञादी कि हे भाई! तुम लौट जाओ। यह, राज्य बदलनेसे भी पिता जी का वचन झूठा हो. जायगा । हे भाई! आज व्यर्थ ही फिरहठ क्यों करते हो.। १०५ . ऐसी आज्ञा“सुन कर भरत फिर राम के चरणोंमै गिर क्र विनती करने लगे, हे रघुपते! मैं आपकी शरण में हँ औरआपके चरणों के विना एक क्षण रहने से भी मेरे मन मैं ताप होगा। यदिआप नहीं लौटते तो स्वामी के पीछे-पीछे मैं भी वन को जाढँगा । १०६न् ही लौटंगे और न ही मुझे वन ले जायेंगे तो मैं अब कुछ न कठगा, यूँही मंर जाजँगा । ऐसा कह कर जव भरने के लिए आसन बाँध लियाततो श्रीराम ने.भी मन ही मन प्रसञ्च हो अत्यन्त दया दिखाई । १०७ तब “८० भानुभक्त-रायायण बुझाया बातृ खोलीकन सुन इ जो हुन् रघुपति । जगचाथ् साक्षात् हुन् बिभुवनपतीका अधिपति ॥ १०५ अघी ब्रह्याजीले सकल भुमिको भार् हर भनी । स्तुती गर्दा खुश् भै सुन म हखँला भार्हरु पनि ॥ भन्याका हूनाले उहि वचन पालन् गरुँ भनी । प्रभु जान्छन् वनूमा 'पछि त सुन फि्छन् घर पनि ॥१०९॥ प्रभूकै इच्छा हो नतर कसरी कैकयि पन्ति। वनै जाउन् भन्थिन् प्रभुकन रती तुल्य नगनी ॥ कुरो यस्तो जानी नगर तिमि यो आग्रह यहाँ । भुमीको भार् टारीकन पछि त जान्छन् प्रभु कहाँ ॥११०|।रावण् मारि उतारि भारि भुमिको फिछँन् जगन्नाथ भत्ती।यस्ता हुन् रघुनाथ्ू भनेर गुरुले खोलेर गुह्यौ पनि॥सब् विस्तार गरीदिया र गुरुको वाणी सुनी खुश्ू भया।फर्क्यानन् रघुनाथू भनी मन बुझ्यो राम्का नजीक्मा गया॥ १११॥।हे नाथ् तत्त्व सुन्याँ म फिर्छुअवता जान्छू अयोध्यामहाँ ।पुजा गर्ने दिनू हवस् हजुरका एक् जोर् खराञ यहाँ॥00000000000000000000000540000000080 क लो तमामराम ने गुरु से भरत को समझाने की विनती की। गुरुजीने भरतकोएकान्त मे ले जाकर वात को स्पष्ट करके समझाया । सुना यहहैकिरघुपति साक्षात् जगन्नाथ, तथा व्विभुवनपति के भी अधिपति हैँ॥ १०८त्रह्मा जी के सम्पूणे पृथ्वी के भार हरण करने की स्तुर्ति पर प्रसन्न: होकर'शरीराम; ने भूर-भार हरण करने का वचन दिया था। उसी वचन कोपालन करने हेतु प्रभु अभी वन जा रहेहैँ। इसके वाद वेघरभीलौटेंगे । १०९ यह सव प्रभु की ही इच्छा है। नहीं तो प्रभु को किचित्मात्न भी न समझ कर कैकेयी किस प्रकार वन जाने को कहती । ईन बातोंको जान-समझ कर तुम यह आग्रह न करो। भू-भार हरण कस्ने के वाद,प्रभु जायँगे कहाँ (अर्थात् घर ही तो लौटेगे) । ११० रावण को मार करभू-्ार हरण करके जगच्चाथ लौटेंगे । रघुनाथ की लीला चाहे गोपनीय हो,गुरु ने स्पष्ट रूप से विस्तार-पूर्वेक वर्णन कर दी। गुरुकी वाणीकोसुनकर भरत प्रसन्न हुए और रघुनाथ लौट आगयेगे यह् मन मैं जान कर,रामके निकट गए । १११ हे नाथ ! मैँने सव तत्वों को सुन लिया। अब मैंअयोध्या जाता हुँ, प॒जा हेतु आप अपनी दोनों खडाउँ देने की क्रपा करेँ।ऐसी विनती करके चारो ओर परिक्रमा करके भरत ने प्रणाम किया । नेपाली-हिन्दी ष्प् यस्तो बिन्ति गरी प्रणाम् वरिपरी घुम्दै भरत्ूले गण्या।आफ्ना साफि खराउ दी प्रभुजिले सबूतापूभरत्काहन्या॥ १ १२॥।फेरी बिन्ति गच्या तहाँ भरतले लौ फिदेछ् फिने ता।चौधै वर्ष समाप्ति पारि नफिन्या मर्व्याठु साँचै म ता॥यो बिन्ती सुति लौ भनी भरतका सामूने हुकूस् भो तहाँ।कैकेयी रघुनाथका चरणमा छँदै परी खुपू तहाँ ॥११३॥हे ताथ् दुर्बुद्धि आई अति फजिति दियाँ राज्यको घात् गराई ।मायाले मोह पार्दा मन पति भुलिगै मेरि बुद्धी हराई ॥क्याङँ चाथ् । आज एन्छ् विपति गरिगयो आज यौ चेत पायाँ ।:कठ्पुत्ली झैँ नचाउँ छिन् व्विभुवन कन सब् धन्य छन् तिम्रिमाया । १ १४। मेरो माया छ छोरा जन धनहरुमा यो सबै खेँचिदेङ ।.ढुर्बुद्धी हो पछी ता शरण परि भनी खुप् क्कपा राखिलेक ॥केकेयी येहि पाठ्ले स्तुति गरि हरिको पाउमा शीर धारिन् ।हेनाथ् आई शरणमा परि भन्ति करुणा राख यो बिन्ति पारिन् ॥ १ १५॥।हाँसी सीतापतीले पति अभय दिया जो भन्यायाँ भन्यौ सो।“दोष् तिम्रो छैन यस्मा बुझ तिमि मनले मेरि इच्छातहोयो ॥ 2 अपनी पवित्व खड्डाऔँ देकर प्रभु ने भरत के सारे मानसिक ताप का हरणकर लिया। ११२ भरतने पुनः विनती करते हुए कहा--लौटने केलिए तो मै लौटता हूँ परन्तु चौदह वर्षे समाप्त कर यदि आपन लोटेतो मैं निए्चय ही मर जाउँगा। यह विनती सुनकर लौटने काआश्वासन, देते हुए रामने भरतको आज्ञादी। कँकेयी भी रोतीहुई रघुनाथ के चरणों मैं गिर पढी । ११३ हे नाथ ! मैँने ढुर्बुद्धि केकारण राजा को आघात पहुँचा कर घोर विपत्ति ढाई। माया के मोह्मै पड्कर मेरा मन भ्रमित हो गया और मेरी बुद्धिका नाशहो गया।क्या कड रघुनाथ ! विपत्ति आने पर आज रोती हूँ। आज यह समझआयी है। हे विभुवननाथ ! आप सबको कठपुतली के समान नचातेहँ, आपकी माया धन्य है । ११४ मेरा मोह जन-धन मैं है, यह आप जबेचाहेँ खीच ले और जब आपकी इच्छा हो तब दुर्बृद्धि व्याप्त हो जाय;बाद मैं शरणागत जान कर मेरे अपर क्र्पा करे। यह स्तुति करकेक्षैकेयी हरि के समाने क गयी और उनके चरणों मै अपना सिर रखकर कहने लगी-हेनाथ ! मै आपक्षी शरण मैँ आयी हुँ, मुझ परकरुणा-दृष्टि रखे । ११५ कैकेयीने जो कुछ भी किया था, हुँस कर च्र् भानुभक्त-रामायण मनूमा सन्तोष पाक मकत दिनदिनै सम्झँदै दिन् बिताङ।छुट्नन् सब् कर्म तिम्रा रतिभर मतमा शोक् नराखेर जाङ॥११६॥ कैकेयी करणा बुझी खुशि भई वीदा प्रभूथ्यै भइन्।श्रीरामको चरणारबिन्द॒ मनले भज्दै अयोध्या गइन् ॥सब् लङ्कर्हरु ली भरत् पनि बिदा भै फेर् अयोध्या गया।सब् बश्करहरुलाइ राखि घरमा आफू फरक्भै रह्यो। १ १७॥ नन्दीग्राम्मा सच्याका भुमिशयन गरी रोज् फलाहार् गच्याका ।एक् गट्ठा सब् जटाको गरिकन ति खराउ गादिमाथी धच्याका ॥गर्थ्यी सब् राज्यको काम् तपति सव कुरा गादिमा विन्ति गर्दै ।यस्तै रीत्ले बिताया दिन भरतजिले राममा चित्त धर्दै ॥११०॥। केही दिन् चित्रक्ट्मा बसिकन रघुनाथ् वाल्मिकीथ्यै विदा भै ।जान्छू वनूमा म फिर्छू भनिकन खुशिले अतिका आश्रमै गै ॥अत्वीका पाउमा शिर् धरिकन म त हुँ राम् भनी नाम् बताया ।श्रीरामूका वाणि सुन्दा मन अति खुशि भै अब्विले हे पाया ॥ ११९ सीतापति ने भी उसके क्वत्यौं को क्षमा करके उसे अभयदान दिया औरकहा कि. इसमें तुम्हारा कोई दोप नहीँं। यह मेरीही इच्छा है।यह मन मै सोचकर मेरी ओर से सन्तोष धारण करो और मेरा स्मरणकरती हुई दिन व्यतीत करो। सब अपराधों से तुम्हारी मुक्ति होगी,तुम मन मैं चिचित् मात्र भी शोक न करो और जाओ । ११६ कंकेयीभी राम की करुणा को समझ कर प्रसन्न हुई और प्रभु से विदा लेकरअपते मन मै राम के चरणारविन्दों का भजन करती हुई अयोध्या चलीगयी। भरत भी सम्पूणँ सेना-सहित विदा लेकर अयोध्या चले गए।सारी सेना को घर मैं रखकर स्वयं दूसरे स्थान पर निवास करनेलगे । ११७ भरत जी नन्दीग्राम मैं भुमि पर शयन करते । सदैव फला-हार ग्रहण करते। जटा को एक जूट करके बाँधते । खड्डाऔँ को अपनीगोद मैं रख कर सेवा करते तथा गट्दी पर स्थापित कर सविनय ध्यानपुर्वेकराज्यके सभी काय करते। इसी प्रकार नियमित रीति से भरतजीते राम के ध्यान मैं लीन हो दिन व्यतीत किए । ११० कुछ दिनचिल्नकूट मै रहकर रघुनाथ ने वाल्मीकि से वन जाने के लिए विदा ली।उपराँत अत्यन्त हृषे के साथ अत्ति मुन्ति के आश्रम मैं जाकर उनके चरणोंमै सिर नवा कर अपना परिचय दिया। श्रीराम की वाणी सुन, मुनिको'बङ्डी प्रसच्चता हुई । ११९ सीतापति की पुजा कर क्रकृषि ने उनके चरणों नेपाली-हिच्दी प्डै पूजा सीतापतीको गरिकन क्रषिले पाउमा बिन्ति लाया।बृद्धा छन् पत्नि मेरी सकल विषयमा एक् रती छैन माया ॥भित्चै छन् आज दशनू दिन मढुलिविषे भित्र सीताजि जाउन् ।सीताजीलाइ पाई अब त ति बुढिले जन्मको सार पाञन् ।॥१२०॥ अब्वीको बिन्ति सूनी हुकुम पनि दिया लौ सिता भित्न जाड ।अल्लीकी पत्नि भेटीकन अब तिमिले जल्दि फर्केर आउ ॥आफ्ना नाथ्को हुकूम् यो सुनिकन खुशि भै भित्न सीताजि जाई ।भेटिनू बृद्धा बहुत् भैकन बसिरहन्या अततिकी पत्निलाई ॥१२१॥ सीताले पाउमा शिर् धरिकन बहुतै प्रेम् बुढीमा बढाइन् ।जोर् जोर् कुण्डल् र सारी दिइकन बुढिले अङ्गराग् फेर् चढाइन् ॥यस्ले शोभा निरन्तर् दृढ पनि रहला यो पनी बिन्ति लाइन् ।सीताजीलाइ आशिष् दिइ ति अनसुयाले बहुत् हे पाइन् ॥१२२॥ सीता र लक्ष्मण सहित् गरि रामलाई । भोजन् मा दिन्छु भन्ति खुपूसित चीजू बनाई ॥ भोजनू गराइ रघुनाथकि जानि माया । ताहाँ सपत्नि भइ रामकि कीति गाया ॥१२३।॥। अयोध्याकाण्ड समाप्त मै विनती कीकि मेरी पत्नी वृद्धा है और उसके मन में किचित् मात्नभी भक्ति नहीं है। अतः दशँन देने के लिए सीताजी अन्दर पधारने कीकृपा करेँ, जिससे सीताजी के दशंन प्राप्त कर बुढिया को जन्म के फलप्राप्तह्रो जायें। १२० अत्ति की विनती सुन-कर श्रीराम ने सीताको अन्दर जानेकी आज्ञादी। अत्तिकी पत्नी से भेंट करके अब तुमशीघ्र ही लौटआओ। अपने नाथ की आज्ञा पाकर प्रसच्चहो सीताअन्दर गई और अप्यन्त वृद्धा अत्लि-पत्नी से भेंट की। १२१ सीतानेपैरों पर सिर रख कर वृद्धा के प्रति अत्यन्त प्रेम प्रदशित किया। अव्वि-पत्नी ने सीता जी को जोड्-कुण्डल और साडी देकर उवटन का लेप कियाऔर कहा कि इससे तुम्हारे शरीर की शोभा स्थिर रहेगी । इस प्रकारसीता जी को आसीस देकर अनसूया को अत्यन्त हं प्राप्त हुआ । १२२सीता एवं लक्ष्मण-तहित राम को भोजन कराने के लिए विविध प्रकारके भोजन तँयार किये। भोजन कराके रघुनाथकी माया को समझकर त्रटुषि तथा उनकी पत्नी दोनों ने राम-क्रीति के गीत गाये । १२३ अयोध्याकाण्ड समाप्त
अरण्यकाण्ड
अत्नीका आश्रसैमा बसि खुपतिले प्रेमले दिन् बिताई।दोस्रा दित्तमा सबेरै उठिकन बनमा जान मन्सुव् चिताई ॥अत्वीजीका नजीक्मा गइकन अब ता जान्छु बीदा म पाऔँ।रस्ता यो जाति होला भनिकन कहन्या एक् अगूवा म पाउँ ॥। १।॥ सीताराम्को हुकम् यो सुनिकन क्रषिले भन्दछन् क्या -वताजँँ ।सब््को रस्ता त देख्न्या यहि हजुर भन्या कुन् अगुवा खटाउँ॥चिन्छु लीला हजुर्को तरपत्ति अगुवा याहि अस्सल् खटाई ।यै सर्जी पुर्ण गर्ताकत पनि अगुवा आज दिन्छु पठाई ॥ २ ॥ अत्लीले बिन्ति येती गरिकन अगुवा शिष्य धेरै खटाया।केही रस्ता त आफै पनि पछि पछि गै रामलाई पठाया ॥एक् कोश् तक् पौचंदामा बडि नदि बहेँदी नाउले तर्नुपर्न्या ।मिल्थिन् त्योतारिफर्क्या मढितिर त्रषिकाशिष्य सब्फिर्नु पर्त्यी ॥३।॥। सीताराम् बनमा पुग्या बन थियो साह्रै खजित्को तहाँ।बाघ् भालू अरु दुष्ट राक्षसहरू डुल्छन् चिरन्तर् जहाँ ॥ अघि के थाश्रम मैँ रघुपति ने प्रेमपु्वंक दिन व्यतीत किया।”दुसरे दिन सबेरे उठकर वनगमन का निश्चय कर अत्लिजी के निकटजा कर विदा माँगी और कहाकि उत्तम पथ-प्रदशेंक की भी व्यवस्थाकरदे। १ सीताराम का यह आदेश सुन कर क्रषि कहते हैँकि जबश्रीमन् स्वयं ही सबको पथ-प्रदशंन करनेवाले हँ तो मैं आपके लिएकिस पथ-प्रदशंक को भेजूँ। आपकी लीलाओं को मैँ भली प्रकार जानताहँ, फिर भी मैं आपक्की इच्छा-पूति के लिए इस समय एक पथनप्रदशेंक कोभेजदुँगा। २ अत्ति यह विन्ती करके कुछ दूर तक स्वयं ही राम केपीछ्लेपीछ गये और कई शिष्यों को पथ-प्रदशेनार्थ नियुक्त कर दिया।एक कोस चलने के पश्चात् एक बडी नदी को ताव द्वारा पार करवा करत्रहषि के सब शिष्य आश्रमकी ओर लौट पङ्गे। ३ सीताराम जिसवन में पहुँचे वह अत्यन्त घना था, जहाँ बाघ, भाल् तथा दुष्ट:राक्षसगण चिरन्तर घूुमा करतेथे। वहाँ पहुँच तत्पर होकर प्रभु जी नेपाली-हिन्दी पपन ताहाँ पौंँचि हुक्म् भयो प्रभुजिकोसीताका म अगाडि हिड्छु तिसिले यस्ता बात् गरि राम लक्ष्मण तहाँएक् सुन्दर बनमा तलाउ मिलिगोठण्डा जल् तहि पान् गरेर रघुनाथूआयो ताहि विराध राक्षस ठुलोको हौ स्ती पति साथमा छ किनयोकस्तो सुर् मनमा छ फेर् अब उपर्मैले सुन्दर गाँस् बनाउन असल्सब् नाम् कामस मेत् बताउ तिमिलेराक्षस्का इ वचन् सुनी प्रभुजिलेबाँच्ने सन् छ भन्या सिता र हृतियार्यस्तो बोलि सिताजिलाइ लिन सुर् दौडेथ्यो रघुनाथले पनि ति हात् जस्सै हात गिच्या तसै त रिसलेदौडन्थ्यो मुख बाइ फेर् प्रभुजिले भाई! तयारी भई।हिड्न् पछाडी रही ॥ ४॥'हिड्थ्या तयारी भई।ठ्लो छ कोश् वन् गई॥छायाँ बस्याथा जस।डर् दीन लाग्यो तसे ॥ ५॥।आयौ बडा त्वन्सहाँ। -जानू छ इच्छा कहाँ॥मान्याँ र सोध्याँ यहाँ।जुन् काम् छ जान्छौ जहाँ॥६।।नाम् काम् बताया सबै।छोडेर जाक उसै॥बाँधेर राक्षस् जसै। दूवै गिराया तसै॥७॥। खाँ रासलाई भनी।काट्या ति गोडा पनि॥ ने आज्ञा दी कि भाई लक्ष्मण ! तुम सीता के पीछ्रे-पीछे हो लो, मैं आगे-आगे चलताहँ। ४ इस प्रकार बातचीत कर राम-लक्ष्मण तत्परतासे चल पड्रे। लगभग एक कोस चलने के पश्चात् एक सुन्दर वन मेंपहुँचे,जहाँ एक तालाब मिला। शीतल जल पान कर जैसे ही रघुनाथएक वृक्ष के नीचे उसकी छाया मे बैठे कि एक बडा विशालकाय भयंकरराक्षस वहाँ आकर उन्है भयभीत करने लगा। ५ तुम कौन होजी'जो स्त्ी के साथ इस बीहृड वन मैं आये हो ।. तुम्हारे मन मैँ क्या इच्छाहै और आगे कहाँ जाना चाहते हो ? सब नाम, काम सहित, किस कार्यवश कहाँ जाओगे इत्यादि बात सविस्तार बताओ । तुम्हँ अपचे उदर काआहार बनाने की इच्छा हुई है इसी कारण से पूछ रहाहँ।६ राक्षसके इन वचरनो को सुन कर राम ने नाम तथा काम सब बता दिया।राक्षस ने कहा, यदि जीवित रहना चाहते हो तो सीता और सअस्ल्लों को.छोड कर चले जाओ । इतना कहकर मन मे निश्चय कर के राक्षस सीताको पकड्ते के लिए दौड्गा, वैसे ही रघुनाथ ने उसकी दोनों भुजाओं को काटदिया। ७ भुजाएँ कट कर गिरते ही राक्षस क्रोधित होकर जैसेही रामकोभक्षण करनेके लिएदौडा वैसेही प्रभुने उसके पा्वोको भी काट पद भानुभक्त-रामायण हातृ गोडा तहुँदा त सपै सरिकोहात् गोडा सब कटिया तब पनी घस्री घख्रि उ सदेथ्यो प्रभुजिलेविद्याधर् गण हो छुटोस् अब सरापूराक्षस् देह मच्या सरापू पति टप्योश्रीरास्को स्तुति खुपू गरेर खुशि भै जस्सै स्वगें विराध् गयो प्रभुजिलेपाल्नन् गर्छुम योगिको अब भनीध्यान् गर्दै शरभङ्गजी बनमहाँताहीँ श्रीरघुनाथजी खुशि हुँदै ताहीँ श्रीशरभङ्गले प्रभुजिमाआफ्नू कम जती थियो तहि ततीअस्सल् ताहि चिता बनाइ हरिकोताहाँ देह दहन् गरी चलिगया मुक्ति श्रीशरभङ्गको जब भयोआया भेट्न भनी बहुत् खुशि भई द्या।॥ पस्च्यो भुमीमा जसै।घस्रेर आयो तसै॥५ ॥ काट्या तहाँ शिर पनि।जाओस् परसमूधाम् भनी ॥विद्याधरै फेर् भयो।फेर् स्वगेलोकूमा गयो ॥ ९।॥। रस्ता बनेको लिया।मनूमा दया खुपू लिया ॥.जाहाँ बस्याका थिया।॥पोँचेर दशैन् दिया ॥१०॥ तन् मन् वचन् सब् धरी । सम्पुण अपँंण् गरी॥दरशन् नजर्ले गरी।संसार सागर् तरी ॥११॥तस्सै मुनीश्वर्हरू । बन्ूमा थिया जो अरू॥ हाथ-पाँव से रहित होकर वह सर्प के समान पृथ्वी पर लोटनेलगा, फिर भी वह खिसक-खिसक कर आगे बढा। ८खिसकते हुए आता देख प्रभु ने उसका सिर भी काट दिया । ड्स प्रकारवह पह्ले विद्याधरथा। अव श्राप से मुक्त हो उसका राक्षस शरीर भी मृत्युकोप्राप्त हुआ और उसने पुनः विद्याधर् के छ६प को धारण किया, तथाअत्यन्त प्रसञ्चतापुवंक श्रीराम की स्तुति कर स्वगंलोक को चला गया । ९विद्याधर के स्वर्ग चले जानेके बाद प्रभुजी नेवन का माग लिया।दया से भर कर योगियो के कष्ट-विवारण के लिए श्रीरघुनाथजीश्रीशरभंग का स्मरण कर के उनके आश्रम मैं जातेके लिए उस वनकी ओर चल दिए। १० श्रीशरभंभ जी ने वहाँ प्रभु मै ही अपना तन,मन, धन से ध्यान लगाकर कमं-मुक्त होकर एक उत्तम चिता का विर्माणकरके हरि के दशैन किये। तदुपरान्त शरीर को अग्नि मै समपितकर संसार-सागर तर कर चले गये। ११ श्रीशरभंग जी की मुक्तिहोते ही अन्य मुनीश्वरगण जो वन में थे प्रसन्न चित्त से भगवान् से भेटकरने के लिए आये। उन्हीं को अपना स्वामी जात कर खूब स्तुतिकी। नेपाली-हिन्दी पछ हात्जोरी स्तुति खुप् ग-्या ति क्रषिले कोमलू चित्त गरी तहाँ नजरले बिन्ती सब क्रषिले गच्या हजुरमादेख्या पूण दया हुन्या थिइ बहुत् जाऔं सब् क्रषिका मढीमढिविषे ' होला चित्तविषे भनी ति क्रषिले देख्या तेस् वनमा अनेक् पृथिविमाकस्का खप्पर हुन् अनेक् नजरलेश्री सीतापतिका वचन् सुनि तहाँई शिर् हुन् क्रषिका यहाँ छल परी राक्षसूका छलले बहुत् च्ग्रषि सथ्याताहाँ सब् क्रषिलाइ राखि सबकासब् राक्षस्हरुको म नष्ट गरुँलाखूशी मन् हुनगो र ताहि क्रषिताकेही वर्ष बिताइ ताहि हरिलेमाया फेरि सुतीक्ष्णका उपर भैजाहाँ भक्त सुतीक्ष्ण छन् तहि गईपूजा पूण गरी सुतीक्ष्ण क्रषिले ख्वामित् इनै हुन् भनी ।हेच्या प्रभुले पन्रि॥ १२ ॥ हाम्रो विपत्ती पनि।आपत् रह्याछन् भनी ॥बाहीं गई यो दया।भन्दा प्रभुजी गया।॥। १३ ॥खप्पर र सोध्या तहाँ।देख्छु , मच्याका यहाँ॥बिन्ती क्रषीले गच्या ।धेरै क्रषीश्वर् मच्या ॥ १४।।भन्न्या कुरा यो सुनी।सामूने प्रतिज्ञा पत्ति॥भन्न्या प्रभुले गप्या।आनन्दमा सब् पच्या ॥१५॥सब् योगिको ताप् हप्या ।प्रस्थान् प्रभूले गग्या॥दशँन् प्रभुले दिया।रामूलाइ मन्मा लिया॥१६॥ प्रभु ने भी शान्त एवम् कोमल हृदय से उन्हुँ देखा । १२ सब क्रषियों नेप्रभु के समक्ष विनती की कि हमारी विपत्तियों को देख कर, हे रघुनाथ !आप अवश्य दया करँगे। आपत्तिसे पीडितोंके मठों मैं स्वयं जा करदया करने की कृपा करेंगे। तदनुसार प्रभु जी सभी क्रषियों के आश्रमोंमैगये। ११३ उस वन में पहुँच कर अनेक मृतको की खोपडियों कोबिखरा हुआ देखकर प्रभुको यह जानने की उत्कण्ठा हुई कि ये किसकीखोपड्याँ हँ। श्रीसीतापति के वचनों को सुन कर क्रृषि ने विनतीकी कि ये शीश छल द्वारा मारे गये क्रषीश्वरौं के हैँ। १४ राक्षसों द्वाराछल से मारे गये क्रषियों की मृत्युका कारण जान कर, सभी उपस्थितत्रष्रषियों को एकत्न करके उनके समक्ष प्रभू ने प्रतिज्ञा की कि मैं सब राक्षसोंको नष्ट कर दूँगा; यह सुन कर क्रषिगण अत्यन्त आनन्दित हुए। १५कुछ वर्षो तक वहीं रह कर हरि ने सब क्रृषियों के कष्टौं का हरण किया ।इसके पश्चात् सुतीक्ष्ण के अपर कृपा करने हेतु प्रभुने वहाँ से प्रस्थान द५ भानुभक्त-रामायण सयुज्यै मुक्ति मिल्ला तिमिकत सुन यो देह जैले त छुट्ला ।भन्या आज्ञा प्रभुको सुतिकन अब ता कमको पाश टुट्ला ॥भन्न्या यो सन् क्रषीको हुन गइ बहुत चित्तमा हर्ष पाया ।.सीतारामूले अगस्ती सित गइ कछु दिन् बस्त मनूले चिताया॥। १७।। प्रभुका साथैमा पछि पछि सुतीक्ष्णै पनि गया ।अगस्तीका भाई सित पुगि त एक् रात् प्रभु रह्या ॥ति अग्वीजिल्वा खुपू खुशि पति भया ईश्वर भनी ।चिनी ताहाँ तिन्ले विधिसित गच्या पु॒जत पत्ति ॥१८५॥ तहाँ देखी सीतापति उठि सबेरै चलिगया ।अगस्ती काहाँ छन् भनि खबर ली दाखिल भया ॥अगस्तीले खुश् भै स्तुति गरि बहुत् मन् पनि धच्या ।विराट् रूपूले वर्णन् गरिकन त पूजा पनि गच्या ॥१९॥। सुन्दर धनू र तरवार् सँग बाण् धच्याका।ठोक्रका त जोडि अघि इन्द्रजिले धब्याका ॥ताही थिया सब दिया रघुनाथलाई।बिन्ती गच्या सकल भार् हुर आज जाई ॥२०॥ किया। भक्त सुतीक्ष्ण को प्रभु ने दशैन दिया। पूजा पूर्ण करके त्रद्षिसुतीक्ष्ण ने मन मै रामका ध्यान किया। १६ रामने विचार प्रगटकिया कि इस शरीर से सायुज्य मुक्ति मिलनी चाहिए । देह से छुटकारापाने की बात प्रभु से सुन कर वह अत्यन्त हृषित हुए। उन्हेँ यह सोच करबड्गा सन्तोष हुआ कि अब मैं कमंके बन्धन से भी मुक्त हो जाउँगा ।सीताराम ने अगस्त्य मुर्ति के पास जाकर वहाँ कुछ दिन रहने काविचार किया । १७ सुतीक्ष्ण भी प्रभुके साथहोलिये। अगस्त्यकेभाई के पास जा कर प्रभुएक रात वहाँरहे। उन्हेँ ईश्वर जान कर,अस्निजिह्वा मुनि भी अत्यन्त प्रमुदित हुए। उन्होने श्रीराम का पुजनविधिवत किया । १५ बहाँ से उठ कर सीतापति सबेरै ही चले गए।अगस्त्य जी के आश्रम का पता लेकर वहाँ पहुँच गए। अगस्त्यनेभी ,मन ही मन ध्यान धर के स्तुति की और विराट रूप से पूजा भी की । १९वहाँ पर अगस्त्य ने इन्द्र का रक्खा हुआ सुन्दर धनुष भौर बाणौंसेभरेहुए तरकसकी जोड्डी श्रीरधुनाथ को अपँग की और विनती कीकिआज ही जाकर पृथ्वी का सम्पूर्ण भार हरण कीजिये । २० नेपाली-हिन्दी यश आठ् कोशम असल पञ्चवटी भन्याको ।आश्रम् असल् छ रमणीय बढहुत् बन्याको ॥ताही बसेर कुछ दिन् तिमिले बिताङ।सब् साधघुमाथि करुणा तहि गै चिता ॥२१॥ ' यस्तो अगस्ति क्राषिको उपदेश पाई।श्रीराम् तयार् पति भया ताहि जानलाई ॥मालूम् थियो त पनि जुन् क्रषिले वताया ।सो मार्ग जात्कन पाउ उतै चलाया॥२२॥ जान्थ्या प्रभू अलिकती पर केहि जाई।जंगलूविषे अधिक वृद्ध जटायुलाई ॥देख्या र राक्षस भनीकन मानेलाई।माग्या धनू प्रभुजिले र लिला जनाई ॥२३॥ मार्या कुरा सुन्ति जटायु बहुत् डराई।राजाजिको प्रिय सखा हुँ भनी कराई ॥गर्न्यीछु हित् यहि वसी म सिताजिलाई।कल्याण् मिलोस् हजुरदेखि बहुत् मलाई ॥२४।॥। श्रीरामले प्नि तहाँ अति खूशि मन्ूले।आनन्द निर्भय दिया पछि फेरि तिनूले॥ हाँ से आठ कोस की दूरी पर एक अति उत्तम एवं रमणीय आश्रमहै जिसे पंचवटी कहते हैँ; तुम वहीं रहकर कुछ दिन व्यतीत करो औरसमस्त साधुवर्गे पर करुणा करके उनके कष्ट-निवारण का उपायसोचो । २१ अगस्त क्रषि के ऐसे उपदेश पाकर थीरामजी भी जानेकेलिए तत्क्षण तैयार हो गये। यद्यपि वह सब कुछ स्वयं ही जानते थे,फिर भी क्रषियों के वताये हुए मागे से चल पड्ग । २२ कुछदूर चलकर जंगल कं मध्य मै एक अप्यन्त वृद्ध गिद्ध (जटायु) को देखा। उसेराक्षस समझ कर मारने के लिए प्रभु ने धनुप माँगा । २३ मारै जानेकी बात सुनकर जटायु बहुत भयभीत हुआ और चिल्लाकर कहने लगा किमै राजा दशरथ का प्रिय सखा हुँ और यही रहकर मैं सीता जी का कुछकल्याण कङँगा; अत: आप मेरे अपर क्रपा-दृष्टि रखे और मेरा कल्याणकरे । २४ श्रीराम ने भी अत्यन्त प्रसञ्च मन से उसे अभयदान दिया ।तदुपरान्त उसने पुनः विनती की कि हे स्वामी ! मैं आपकी शरण ९० भा्ुभक्त-रामायण ख्वामित् ! शरण् छु भनि खुप्सित बिन्ति लाया ।श्रीराम् तहाँपछि त पञ्चवटी त आया ॥२१५॥ डेरा पप्यो प्रभुजिको ताहि-“वीच बनूमा।एकान्त देखिकन हर्ष भयो र् सनूमा॥आतच्द पूर्वक रह्या रघुनाथ ताहीँ।आर्को त आश्रम नजीक थियेन काहीं ॥२६॥।एकान्त देखिकन क्षक्ष्मणले चरणमा ।बिन्ती गरया रघुपती! म त छ् शरण््मा॥ज्ञान् कुन् -कहिन्छ भनि कुन् त कहिन्छ विज्ञान् ।जान्दीनँ केहि म विषे त ठुलो छ अज्ञान् ॥२७॥आज्ञा हवस् सकल तस्व सम सुन्न पाउँ।जान्नया पुरुष अद छ को र् करा म जाऔँ॥यो बिन्ति लक्ष्मणजिको सुन्ि हृषे पाया।लक्ष्मणृजिलाइ सब तत्व तहाँ वताया॥२८॥।यै ज्ञान् कहिन्छ सुन येहि कहिन्छ बिज्ञान् ।यो रीत् गरीकन बस्या हुँदि छुट्छ अज्ञान् ॥खोलेर येहि रितले प्रभुले बताया।लक्ष्मणूजिले पनि तहाँ सब तत्त्व पाया ॥२९॥। यै बीचमा नजिक शुर्पणखा त आई ।देख्या तहीँ प्रभुजिले पनि दुष्टलाई ॥ मैहँ। इसके बाद श्री राम पंचवटी चले गये । २५ उसी वन के मध्यसँ श्रीरामजी का डेरा पड्रा। विकट मेँऔर कोई आश्वम नहीँथा।एकान्त स्थान देख वे मन मै हृषित हुए और आनन्दपूवंक वहीं रह्नेलगे । २६ एकान्त वन को देखकर लक्ष्मण ने श्रीरघुपतिसे कहा किमैं आपक्की शरण में हँ । ज्ञान-विज्ञान का मुझे कोई ज्ञान नहीं । यही मुझ-मै अज्ञानता है । २७ अतः सब तत्वो को मुझे सुनाने की कृपा करे, क्योंकियहाँ और अन्य कौन पुरुष है, जिसके पास मैं जाँ। लक्ष्मणकी यहविनती सुनकर राम अत्यन्त हाषित हुए और उन्है तत्त्वज्ञात का उपदेशदिया । २८ ज्ञान-विज्ञान के विषय मै समझा कर तथा किस रीतिसेअज्ञान का नाश होता है, यह सभी स्पष्ट रूप से प्रभु ने बताया और लक्ष्मणने भी उन सव तत्वों को सीख लिया । २९ इसी वीच शूर्पणखा भीवहाँआ नेपाली-हिन्दी ९१ कन्दर्पका बश परी प्रभुको नजीक् गै।सोधी हहाँ प्रभुजिलाइ बहूत खुश् भै॥३०॥चासम् सब् क्या प्रभुजिले जब नाम सूनी। - ऐले म भज्दछु पति भनि येति गुनी॥बिन्ती गरी सकत पति बनाइलेङ।कन्दर्पंको कठिन ताप छुटाइदेङ ॥३ १यस्ता वचन् सुनि सिताकन हाँसि हेरी।उत्तर् दिया प्रभुजिले सँगमै छ मेरी॥सीता बुझीकन नभज्ू तँ पती सलाई।भाई छ खालि बरु भजू पति भाइलाई ॥३२॥साँचो भन्या भनि त लक्ष्मणका नजीक् गै।आयाँ स पत्नि हुन येति भनेर खुश् भै॥सून्या वचत्ू सकल शक्ष्मणले र् ताहाँ।दास् हँ मता मसित कुन् सुख मिल्छ याहाँ ॥३३।।जा वाहि मालिक उ हुन् उहि वस्नु अच्छा ।बुद्धी रहेनछ बहुत् रहिछ्स् तै कच्चा॥यस्ता वचन् सुनि र शुफपैणखा रिसाई।सीताजिलाइ अब खाँ भति फैकि आई ॥३४।॥। गयी। प्रभुने भी उस ढुष्टा की देखा । घमण्ड के वशीभूत हो अत्यन्त हर्षसे भरी वह प्रभु के निकट गयी और उनसे प्रश्न किया। ३० प्रभु ने अपनापरिचय दिया। उसने जब प्रभुका नाम सुना तो मन मै कुछ सोचकरवित्तती की कि मुझे भी अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर कामदेव के कठिनताप से मुक्त करने की कृपा कर॑। ३१ ऐसे वचन सुनकर सीता की ओरहँसकर देखते हुए प्रभु ने उत्तर दिया कि घर मैं मेरी पत्नी सीता बैठी है,अत: मुझे तुम पति न कह्रो। भाई लक्ष्मण अकेला है अतः उसे ही पतिकहकर भजो। ३२ इस कथन को सत्य मानकर शू्पंणखा ' लक्ष्मण केनिकट गयी और पत्नी वनने की इच्छा प्रकट करके अत्यन्त हषत हुई ।लक्ष्मण ने उसकी वाते सुनकर कहा कि मैं तो राम का दास हू, मुझसे-तुम्हैं यहाँ क्या सुख प्राप्त हो सकता है । ३३ जहाँ अपना मालिक है, वहींरहना उत्तम है। तुम बुद्धिहीन हो और ज्ञान मैं परिपूर्ण नहीं हो ।ऐसे वचन सुनकर शूर्पेणखा क्रोधित हुई और सीता जी को भक्षण करने केलिए दौड्डी । ३४ पृथ्वी के भारहरण-हेतु प्रभ् ने वीज बोया और लक्ष्मण ९२ भानुभक्त-रामायण भार् हन बीज् प्रभुजिले हि रोप्न आँट्या ।लक्ष्मण्जिलाइ भनि नाक र कान काट्या॥"आज्ञा लि शक्ष्मणजिले पनि काटिदीया ।भागी डराइकन भाइ जहाँ त थीया ॥३५।॥ बिस्तार् गरी बिशिर दृूषण खर् भन्याका।राक्षस् पती सुति ति अग्ति सरी वच्याका॥आया जहाँ प्रभु थिया तहि तीन भाई।लङ्कर् समेत् अधिक जल्दि कदम्ू बढाई ॥३६॥। राक्षस् भनी प्रभुजिले तहि चाल पाया। लक्ष्मण्जिलाइ तहि काम् प्रभुले अह्वाया॥ हे. भाइ ! आज तिमिले इ सिताजिलाई। गृफाविषे लागि वसीरहु जल्दि जाई ॥३७॥ एक् बातृ नबोलिकन जल्दि उठेर जाङ। संग्रापमो बखत भो अब बेर् नलाङ॥ मार्छु म दुष्टकतन तेज् अधिकै जनाई। चौधे हजार्कत सहजू टुकुरा बनाई ॥३०।॥ यस्तो हुकूम् हुन गयो र सिताजिलाई ॥ लक्ष्मणूजिले सँग लिईकन जल्दि जाई। गूफावि बसिरह्या रघुनाथ तयारी- चाँडै भया धनु र बाणू्हरु ठिक्क पारी ॥३९॥जी के द्वारा शूर्पणखा की नाक और कान दोनो कटवाये । इससे भयभीतहवोकर गूर्पेणखा अपने भाई के पास भाग खडी हुई । ३५ खर, दूपण तथा,क्िशिरा राक्षसों को गूर्पणखा ने विस्तारपूवंक सारी घट्ना सुनायी, जिसे-सुनते ही. अग्नि के समान अपनी सेना को लेकर गीध्रता से तीनोँ भाईवहाँ पहुँचे, जहाँ प्रभ् विराजमान थे । ३६ प्रभु जी ने राक्षसों को पहचानकर लक्ष्मण को कार्य सौपते हुए कहा, “है भाई । आज तुम सीता को लेकरगुफा के वीच जाकर रहो । ३७ कुछ भी न कहकर शीघ्रता से उठकरचले जाओ । संग्राम का समय आ गया है, अव देरन करो। दुष्टोकोमै तीब्रता से मार डालूँगा और चौदह हजार सेनाओं को सहज ही मैं ट्कडे-टुकड्रे,कर दूँगा । ३० ऐसी आज्ञा पाकर लक्ष्मण जी सीता जी को लेकरतुरन्त चले गये और गुफा के अन्दर बैठे रहे। श्रीरघुनाथ भी धनुष नेपाली-हिन्दी ९३ आया खर , बिशिर दृूषण तीन भाई।लश्कर् समेत् सँग लिँईकन रिस् बढाई ॥ठाकुरुजिका उपर बाणकि वुष्टि पाच्या।ठाकुर्जिले पनि ति बाण् सब काटि टान्या ॥४०॥तिच्का ति सर्व हतियार्हुरु काटि टारी।सम्पूणे, राक्षसहरूकन जल्दि मारी ॥काटया खर क्विशिर दूषणलाइ ताहाँ।सम्पूणे राक्षस सक्या घरि चारमाहाँ ॥४१॥।माप्या खर ब्विशिर दूषणलाइ जस्सै।सीता र लक्ष्मण पनी प्रभुसीत तस्सै॥आया डराइकन - गुर्पणखा त भागी।रावण् जहाँ छ उहि जाँ भनि जान लागी ॥४२॥रावण् जहाँ छ उहि पौचि विलाप गर्दै।सब् भाइ बन्धुहरको मनलाइ हर्दै॥देख्यो तहाँ बहिनिलाइ त ताक् गयाकी।त्यो फेरि बुच्चि पति कान नभै रत्याकी ॥४३।॥माया भयो बहिनिमाथि र झट्ट ङठ्यो।बिस्तार सोध्न नजिकै पनि जल्दि छुट्यो ॥ और बाणों को ठीक करके तत्परता से तैयार हो गये। ३९ खर, ब्विशिराऔर दृषण तीनों भाई अत्यन्त कुपित हो सेना-सहित आ गये। उन्होँनेराम के ञपर वाणोंकी वृष्टिकी। श्रीराम नेभी उन सव बा्णोंकोकाटकर नष्ट 'कर दिया । ४० उनके सारे हृथियारों को 'काट कर सबराक्षसों को भी तुरन्त मार डाला। चारघण्टे के अन्दर खर, लिशिराऔर दूषण-सहित सारी राक्षस-सेना को समाप्त कर दिया। ४१ जैसेहीखर, त्विशिरा और दूषण का वध हुआ, वैसे ही सीता और लक्ष्मण भीप्रभु के पास आगये। और शुूपंणखा भयभीत होकर रावणके पासभाग गयी । ४२ रावण के पास्_ पहुँच कर वह् विलाप करने लगी ।उसके ढुःख से सभी भाई-वन्धु प्रभावित हो गये । ' उन्होने वहन की नाककटी हुई'देखी तथा उसको कानो से भी विहीन देखा । ४३ बहन कीइस अवस्था को देख वे सव कर्णा'से परिपूर्ण हो गये और उसके निकटजाक्र उसी समय सारा हाल विस्तारपूर्वक जानने की जिज्ञासा प्रकटकी । उन्होने पुछा, हे वहन, तेरी वाक और कान काटनेवाला यह् कौन टो ९४ भाचुभक्त-रामायण हे बैत्ति ! कुन् पुरुष हो भन नाक काट्न्या ।खूबै रहेछ सहजै पनि मर्नै आँट्न्या ॥४४॥ जस्ले त नाक् सित इ कानूकन आज काट्यो ।हे बैति ! जान सुन त्यो अग मर्ने आँट्चो ॥यस्ता वचन् सुनि र नाम समेत्ू बताई।सीता र लक्ष्मण सहित् रघुनाथलाई ॥४५।॥ती छन् पराक्रमि त पञ्चवटी वस्याका ।ठोक्रा भिरीकन धनू पनि खुप् कस्याक्ा ॥।गर्छु विचार मतले त यही म समान्छू।सब् थस्म पो गरिदिनन् कि भनेर ठान्छु ॥४६॥।आईरह्याँछु सम त खुपूसित मनू डराईफिछँन् ति सर्व क्रषिलाइ त खुश् गराई ॥आश्चर्य मानिकन दौडि म याहि आगाँ।विस्तार पती हजुरमा सब बिन्ति लायाँ ॥४७।॥ सीताजिलाइ अति सुन्दर मानि ताहाँ।ल्याँ टपक्क टिपि सुन्दरिलाइ याहाँ॥भन्ता-तिमित्त अति चित्त धरी गयाकी।पायाँ विपत् नकटि वुच्चि समेत् भयाकी ॥४८।। ल्याक समर्थ छ भन्या तिमि आज जाञ।सास्ते त हर्ने छ कठिन् तिमि मत् तलाङ॥ पुरुष है, जिसने सहज ही अपनी मृत्यु को आमंव्ित किया है। ४४जिसने भी यह कुकर्म किया है, है बहन, तुम यह जान लो कि अब बह्म्रृत्यु को प्राप्त होनेवाला है । यह सुनकर' गूर्पणखा ने सीता, लक्ष्मणऔर राम के नाम बता दिये । ४५ पंचवटी में तीन पराक्रमी हँ, जोतरकस एवम् धनुप-बाण धारण किये हुँ, मुझे ऐसा लगता है किये सबकानाश कर देगे । ४६ मैं अत्यन्त भयभीत होकर आरहीहँ। त्रह्षियोंको प्रसञ्च करके वे घूमते रहते हुँ। उनके कार्यो से चकित होकर मैंदौड कर यहाँ आयी हँ और आपके सम्मुख विस्तारपूर्वेक विनती की है । ४७सीता जी अपुूवे सुन्दरी हुँ, उसे उठाकर आप यहाँ ले आयें, यही मन मेंविचार करके आपसे कहते आयी छुँ। नाक-कान से रहित हो कर अत्यन्तकष्ट पारही हूँ। ४5 यदि आप में सामथ्ये है तो आज ही जाकर सीता नेपाली-हिन्दी ९५ एक् युक्तिलि छल गरीकन हर्नुपर्ला।साम्ते कदापि नगया ताहि देह् मर्ला ॥४९॥तेस्ले बह्ृत भयमा परि बात् गच्याको।लश्कर् समेत् बिशिर दूषण खर् मच्याको ॥सून्यो र बैह्विकन खातिर खूब दीयो।एकान्तमा गइ लहृड् पनि खूब लीयो॥५०॥सामान्य मानिस भया कसरी ति माग्या।लश्कर् खर बिशिर दूषण छुट्टि पाञ्या॥सामान्य होइन इ ता परमेश्वरै हुन्।नाहीँ त भाइहरुको अघि तिक्तथ्यो कुन् ॥५१॥।ईश्वर् भया हुँदि कसै पनि मादेँछ्न् ती।सामाव्य हुन् पनि भन्या हरुँला सिताजी ॥ईश्वर् भया हुँदि विरोध् गरि खुश् हुन्याछन् ।रीसै हुन्याछ भजुँखा त ममाथि ता झन् ॥५२॥।येती विचार गरि तप्यो र समुद्र पारि।मारिच् जहाँ छ क्रषिको सरि रूप धारी॥पुग्यो तहाँ र रथ राखि नजीक्- गयाको ।. विस्तार् गच्यो खरहरू सब नाश् भयाको ॥५३।॥।को ले आओ। पहलेयह सोच लो कि सीता का सामने से हरणकरना कठिन है। एक युक्ति से उसे हरण करना होगा, सामने कदापिन जाना, वर्ना मारे जाओगे । ४९ सेना-सहित खर, ब्विशिरा और दूषणके मारे जाने की खबर सुनकर रावण अत्यन्त भयभीत हुआ, फिर भी उसनेअपनी बहन को सान्त्वना दी और एकान्त मैँ जाकर अपने मन को बड्डेप्रयत्त से उत्साहित किया । ५० राम द्वारा अपने भाइयों के संहारकासमाचार सुनकर रावण बडी चिन्ता में पड् जाता है। वह सोचता है कियह राम कौन हाँ सकता है? जो भी हो यह कोई साधारण मनुष्य तोनहीं है, अवश्य ही यह परमेश्वर है; यदि यह साधारण मन्नुष्य होता तो मेरेभाइयों के सम्मुख केसे टिक पाता ) ५१ यदि राम ईश्वर होंगे तो किसीप्रकार से मार लगे और यदि साधारण मनुष्य होंगे तो मैं सीता का हरणकर लुँगा। ईश्वर होंगे तो मेरे विरोध पर वह् प्रसन्न होंगे और भजनकरने से मुझ पर क्रोधित होंगे । १२ यह विचार करके त्रहृषि के समानखूप धारण कर वह समुद्र पार मारीच के पास पहुँचा। रथ कोवहीं ९६ भातुभक्त-रामायण यस्तो पन्यो मकत आज सहाय देअ।सुन्दर् ठुलो मृग स्वरूप् तिमि आज लेङ॥रामूचन्द्रलाइ छलि दूर तिमिले गराया।सीता जसै म हसँला तब फर्कि आया ॥१४। मारीचले यति हुकम् जव ताहि सून्यो।तेस्तो हुकुम् सुति तहाँ मनभित्न गुन्यो ॥बिन्ती गच्यो सकल तेज् प्रभुको जनाई ।ख्वामित् भनेर मनले जय खुप्ू चिताई॥५५।।कस्ले गच्यो र उपदेश् तिमि आज आई।सीता म हर्छु मृग हो तै भन्यो मलाई ॥त्यै शब्गु हो तिमि त्यसैकन मार ताहाँ।कूलै समेन् क्षय गराउन खोज्छ याहाँ ॥१६॥।को सक्छ जिल्ल र ठुलो तिमि सूर गरछौं।यो सूर् लिया कुल समेत् तिमि आज मछौं॥एक् वाणले सकत चार् सय कोश साच्या।बालक् थिया तपनि श्स्म सुवाहु पाच्या ॥५७॥। खड्डा करके उसके निकट पहुँचा और खर आदि के मारे जाने के विपयभै सविस्तार कह सुनाया । ५३ मेरे झपर आज ऐसी समस्या आपड्डीहै, तुम मेरी सहायता करो । तुम आज एक अप्यन्त सुन्दर मरण का रूपधारण करो और छ्ल से रामचन्द्र को द्र तक ले जाओ औरजँसे ही मैंसीता का हरण कर लूँ, वैसे ही तुम चले आना । ५४ मारीच ने यह आज्ञासुनकर अपने मन मैं विचार किया और प्रशु के सम्पूर्ण पराक्रम का वर्णनकर विनती की, और स्वामी कहकर मन म जय-जयकार किया । १५उसने कहा कि किसके उपदेश को सुनकर आज तुम आकर सोता-हरणके लिए मुझे मृग वननेको कह रहेहो। यदि वह शलु है तो तुम उसेही मार डालो, नहीं तो वह तुम्हारा सम्पूर्ण कुल ही समाप्त कर देगा । ५६उन्है कौन जीत सकेगा, जो तुम ऐसी धारणा बना रहे हो। ऐसा विचारकरना उचित तथा कल्याणकारी नहीं, उतसे युद्ध करने पर तुम कुल-सहितनष्ट हो जाओगे। उनके वाण के एक प्रहार से मै चार सौ कोस दूरजा गिरा । जिस समय वह् एक वालक थे, उस कोमल अवस्था मेँभीउन्होनि सुबाहु को भस्म कर दिया। ५७ आज मैं मूग-छप धारणकरके वन भै गय्रा। उनके एक ही वाण ने मुझे पछाइ, दिया । नेपाली-हिन्दी ९७ आजूकाल् गयाँ वनविषे मृग-खुप धारी । एक् वाणले यहि पनी त दिया पछारी॥ छाद्दै रगत् अति डरायर भागि आयाँ। जावैन भन्छु अव खुप् सित चेत पायाँ ॥५८५।।तस्मात् तिमी पनि विरोधू मति यो नलेकसीता म हर्छु भनि आग्रह छाडिदेङ ॥सब् नष्ट हुन्छ तिमिले मति यस्ति लीयादेख्यौ खर लिशिर दूपण मारिदीया ॥५९॥हीतै कहन्छ भनि यो तिमि जानिलेङआर्को कहन्छु म गुठिल् तिमि चित्त देडई ता अनन्त अधिनाथ्ू परमेश्वरै हुन्ब्रह्माजिले पनि भजिन्छ सदा पुरुष् जुन् ॥६०॥नारद्जिका वचन सुनि म आज भन्छु। ख्वामित् ! म ता हित चिताइ सदा रहन्छु ॥ लौ मार रावण भनी वरदान माग्याब्रह्माजिले र उहि सुर् प्रभु गने लाग्या ॥६१।॥।जाक घरै बसिरह् मति यो नलेङईश्वर् बुझेर उहि माफिक चित्त दे॥ ५ रक्त-वमन करते हुए अत्यन्त भयभीत होकर मैं भाग कर आया हुँ। अव मैंचैतन्य हो गया हँ, अव वहाँ नहीं जाजँगा । मैं सम्हल गया हँ और उनकेपराक्रम को समझ गया हँ । ५५ अतः तुम इस विरोध करने की भावनाको त्याग दो। सीता-हरण का विचार छोड दो । ऐसे विचारो से, तुम्ह्वारासर्वनाश होगा। उन्होँने खर, क्विशिरा और दूषणका वध करदियासोतुमने देखही लिया है । ५९ मैं तुम्हारे हित की वात कहता हूँ, इसेसमझो । एक और विशेष रहस्य की वात कहता हुँ, उसे ध्यान लगाकरसुनो। ये तो अनन्त अघिनाथ परमेश्वर ही हँ; इनको स्वयं ब्रह्याजीहीनित्य भजते हैँ। ६० आज मैं नारदजी द्वारा वतायी हुई बाते कहता हूँ ।स्वामी ! मैं तो सदैव हित का ही चिन्तन करता हूँ । ब्रह्मा से रावण-वध का वरदान माँगा और तदनुसार प्रभु ने उसके लिए तत्परतादिखायी । ६१ अपी वुद्धि से ऐसी बातों को निकाल दो और घर मेँजाकर् रहो । उन्है ईश्वर समझकर उनका ध्यान करो। प्रभजो करतेहँ, करे, यह उनकी लीला है। उसमेँ किसी प्रकार का हस्तक्षेप उचित नहीं । ९८ भानुभक्त-रामायण जो गर्दैछन् प्रभु गरुन् छ लिला उनैको ।चल्दैन जोर् प्रभूबिषे अरुका कुनैको ॥६२॥। . मारीचले जब त बातृ् यति सब् बतायो।झन् वात् सुनी बुझि त खुपूसित चित्त लायो ॥मारीचलाइ अनि रावण भन्छ हेरी।सीता म हर्छु मृग भैकत जाउ फेरि॥६३॥ ईश्वर त हुन् यदि भन्या ति अवश्य माछन् ।सामान्य हुन् यदि भन्या ति अवश्य हार्छन् ॥ईश्वर भया पति असल् छ अवण्य तर्छु।सामान्य हुन् त म सितासँग भोग गर्छु ॥६४॥। जाञ अवश्य स सिताजि हरेर लिन्छु।बोल्यौ यहाँ कछु भन्या त म काटिदिन्छु॥यस्तो हुकम् गरि तहाँ जब वीच पाण्यो।मारीचले पत्ति तसै जिय आश मसाख्यो॥६५॥ आखिर् सम्याँ म हरिदेखि भन्या त तर्छुँ।यस् दुष्टदेखि मरिया त नरक् म पर्छु॥यस्तो विचार् गरि तहाँ मृगरुप धारी।सुकृम् शिरोपर धरीकत भो तयारी ॥६६॥ प्रभु के अपर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड सकेगा । ६२ मारीचसेयह सव वातेँ ध्यान से सुनकर रावण कहता हैँ कि तुम पुन: मृग बन कर _चले जाओ- मैं सीताका हरण कङँगा । ६३ यदिवे ईश्वर हाँगेतोअवण्य मुझे मार डालेगे, अन्यथा स्वयं ही पराजित होंगे। यदि वे ईश्वरहोंगे तो उनके हाथ से मारे जाने पर मै तर जाउँगा, अन्यथा सीता के संगभोग कङँगा । ६४ तुम अवश्य जाओ--मैँ सीता को हर कर ले आउँगा ।अव तुम आगे कुछ मत कहो, अन्यथा मैं तुम्हारा बध कर डालुँगा।रावण की ऐसी आज्ञा को सुनकर मारीच ने भी अपने जीवन की आशाछोड दी। ६५ उसने सोचा--यदि मैं प्रभु के हार्थो से मझँगा तो करजाञँगा, इस ढुष्ट द्वारा मारे जाने से तो मै नरक को ही प्राप्त होअँगा, इस-लिए ईश्वर के हाथों मारा जाना ही उचित होगा । यह सोच कर मारीचने ग्रुग-छप धारण किया और रावण की आज्ञा को स्वीकार करते हुएतैयार हो गया। ६६ ढबड ही विचित्न ढंग से उछ्लते-कूदते हुए सीताजी नेपाली-हिन्दौ ९९ दौडयो लिला पत्ति चरित्न विचित्र गर्दै।सीताजिका नजिक गैकन ताहि फिर्दै॥सीताजिलाइ गइ मोह भनेर दाग्यो।लीला गरीकन वरीपरि चर्न - लाग्यो ।॥६७॥ छल् हो भनी प्रभुजिले पनि चाल पाया।एकान्तमा गइ सिताकन काम् अह्लाया॥सीते ! अदृश्य ,भइ लौ वस अनिनमाहाँ ।छाया सिता पनि बत्तायर छोड याह्ाँ॥६०।॥।एक् भिक्षुको रप लि रावण आज आई ।हर्न्याठ दुष्ट तिमिलाइ स्वरूप छिपाई ॥चाँडो अवश्य तिमिले पनि रूप् छिपाङ ।एक् वर्षेसम्म छिपि दिन् तिमिले बिताङ ॥६९।॥। यस्तो हुक्म् सुनि अदृश्य सख्प धारी।छाया सिता पनि ढुरुस्त गरिन् तयारी ॥सीता छिपीकन रहिन् जब असितमाहाँ ।छाया सिता-सँग बस्या रघुनाथ ताहाँ ॥७०॥छाया सिताजि अति चित्न विचित्ग मानी।खेलाउँ तेस मृगलाइ भनेर ठानी॥बिन्ती गरिन् रघुपते ! मृग आज देङ।खेलाउँछ् अधिक जाति छ पक्रिलेक ॥७१॥ को आकर्षित करने के लिए वह उनके निर्कट जाकर चरने लगा । ६७प्रभुजी ने इस छली मृग को पहचान कर सीता से कहा कि हे सीते, तुमअग्नि मेँ अदृश्य होकर रहो और यहाँ अपनी जगह पर छाया-छ्पी सीताको रखदी। ६८ एक भिल्लु के खूप मै रावण यहाँ आज आयेगा और, बह् ढुष्ट इस छद्म वेष मैं तुम्है हरण करेगा । अतः तुम भी तुरन्त अपनाखूप छिपा लो और इसी प्रकार तुम एक वर्ष व्यतीत करो । ६९ _ ऐसीआज्ञा सुनकर सीताजी अदृश्य हो गयी और छाया-छपी सीता को रखकरस्वयं अग्नि मे छिप गयी । रघुनाथ छाया रूपी सीता के संग वहाँ रहे । ७०छाया-छपी सीता ने अत्यन्त आश्चर्य-चकित होकर उस मूगसे खेलनेकेविचार से रघुनाथ से विनती की-हे रघुपति ! इस सुन्दर मृग को पकडकर् आज ही ला दे, मैं उससे खेलुँगी । ७१ सीताजी की विनती सुनकर १०० भानुशक्त-राययेण इच्छा थियो प्रभुजिको पति वित्ति सुनी ।जानू असल् छ भनि यो मनभित्न गुनी॥हातृमा धनू लि मूगका पछि आफु धाया ।लक्ष्मण्जिलाइ वस तीमि भनी अह्वाया ॥७२।॥। लक्ष्मण् रह्या ताहि सिता-सित चौकिदारी ।मारीचलाइ प्रभुले पनि खुप्ू लघारी॥माच्या तहाँ जब त दिक् बहुतै गरायो ।हे भाइ लक्ष्मण | मच्याँ भनि छल् करायो ॥७३।॥छ्ल्का वचन् सुनि सिताजि बहुृत् डराइन् ।लक्ष्मणृ्जिलाइ तिमि जाउ भनी अह्लाइन् ॥लक्ष्मणूजिले हुकुम यो सुनि बिन्ति पाग्या ।हे माइ ! जो मृग थियो प्रभुले त मान्या ॥७४।।तेस्तो कहाँ मृग थियो मूगरूप-धारी ।मारीच राक्षस थियो र त आज मारी॥ठाक्रुजिले ताहि गिराइदिदा करायो।हे भाइ लक्ष्मण ! मच्याँ भनि छन् गरायो ॥७५।॥। ज्योतिस्वरूप् ताहि भयो र मिल्यो हरीमा ।आएचयं भो सकललाइ तसै घरीमा॥यस् दुष्टले पनि त यो गति आज पायो।भन्त्या बुझेर सव जनूकतन हर्ष आयो ॥७६॥ प्रभुजी की आन्तरिक इच्छा हुई कि मुझे जाना ही उत्तम है। वे धनुपहाथ में लेकर मृग के पीछि दौड पडे। लक्ष्मणजीको वहीं रहने कीआज्ञा दी। ७२ लक्ष्मण सीता के संरक्षक वनकर वहीं रहे। प्रभुनेभी मारीच को बडी द्र तक दौडने के वाद मारा । मारीच (प्रभुको)दुविधामैं डालने के लिए छलपूर्ण स्वर मै चिल्लाया--मर गया' । ७३ इस छलनामयपुकार को सुनकर सीता अत्यन्त भयभीत हुई । लक्ष्मण को तुरन्त आज्ञादी कि वे राम की सहायता के लिए दौडें । लक्ष्मण ने उनकी यह आजासुनकर विनती की कि हे माता, जो मृग था, उसे प्रभु ने मार डाला है । ७४वह मृग नहीं था, वह तो मृग-हूपी मारीच था, जो प्रभु द्वारा मारे जातेही हे भाई लक्ष्मण मरा” कहकर चिल्लाया । ७५ वह ज्योति-स्वखपधारणकर हरि मैं विलीन हो गया। उस समय सबको आश्चय ि नेपाली-हिन्दी १०१ लक्ष्मणूजिको वचन् सूनि सिता रिसाइन्।' आँसू बहुत् नजरदेखि पनी खसाइन् ॥बोलिन् अवाच्य पनि लक्ष्मणलाइ ताहाँ।- भजूली मलाइ भनि सनू छ कि आज याहाँ ॥७७॥।रामृदेखि वाहिक अवर् त भजैनँ मैले।तिम्रै अगाडि यहि छोड्दछु देह ऐले॥ "तिम्रो त चित्त अति दुष्ट रहेछ जान्याँ।कामू देखि आज तिमिलाइ त शब्रु मान्याँ ॥७८।॥।यस्तो वचन् सुचि ति लक्ष्मणजी रिसाया ।बोलिन् अवाच्य भनि भिल्न मनै चिताया ॥घिक् चण्डि ! येति भनि खुप् सित चट्पटाया ।बन्-देविलाइ रखवारि तहाँ खटाया॥७९॥सीताजिलाइ तहि छोडि उठी गयाका।दुरै हुँदा नजरदेखि फरक भयाका॥देख्यो र रावण सितातिर जल्दि आयो।सन्त्यासिको स्वरुप लीकत रछूपू छिपायो ॥८०॥।सन्यासि हुन् भनि बहुत् गरि भक्ति लाइन् ।' पूजा प्रणाम् पनि गरीकन हृषे पाइन् ॥हुआ कि दुष्ट को भी यह मोक्षगति, प्राप्त हुई है और साथ ही यह जानकर सबको हर्ष भी हुआ । ७६ लक्ष्मणजी के वचन सुनकर सीताजीक्रोधित हुई । उनके नेल्लों से अश्रु प्रवाहित होने लगे । उन्होने लक्ष्मणको अपशब्द भी कहे और कहा कि कदाचित् तुम यह् समझते हो कि रामको कुछ हो जायगा तो उनकी अनुपस्थिति मै मैं तुम्हारी सेवा करनेलगूँंगी । ७७ राम के अतिरिक्त मैं किसी की सेवा नहीं कङँगी । यहाँतुम्हारे सामने मैं अपने प्राणों को त्याग दुँगी । तुम्हारै इस पापी मनको मैं आज ही पहचान सकी हुँ। आज से मैं तुम्है अपने शत्नु के समानमानती हँ । ७० सीताके इस प्रकार के वचनों को सुनकर लक्ष्मण कोक्रोध आया। उनके अपशब्दों को सुनकर निवेदन किया-- धिक्कार चण्डी! 'कहकर खूब बड्बडाये। वन-देवी को (उनकी) रक्षा-हेतु नियुक्त किया । ७९सीताजी को अकेली छोड्कर लक्ष्मण के आँखो से ओट होते ही रावणसीताके पास आया। उसने अपने वास्तविक खूप को छिपाकर एकसंत्यासी का ख्प धारण -करके सीताको छलने की युक्ति की। ०० गपैग्र भानुशक्त-रामायण बिन्ती गरिन् बस गुरो ! प्रभु फर्कि आई। गर्नेन् बहुत् प्रिय हजूरकन चित्त लाई ॥5१।। यस्ता वचन् सुन्ति सितातिर दृष्टि दींदो। को हो पती बुझुँ भनीकन गुल्ल लीँदो॥ सोध्यो सितासित पती पनिजो छको हो। नाम् काम् समेत् तिमि बताउ न आज जो हो ॥५२॥ सीताजिले पनि भनिन् सव जो छ नाम् काम् । सन्यासि जानिकन कत्ति नपारि छन्छाम् ॥ सोधिन् तहाँ म पनि नामूहरु सुन्न पाउँ कुन् हो बताउ तिमिले पति ताम ठाऔँ॥5३॥- यस्ता वचन्ू सुनि सिताकत हर्ने आँटी। नाम् काम् तहाँ सब कह्यो रतिभर् नढाँटी ॥ बोल्यो अवाच्य पति मानि मलाई ले रासूचन्द्वरलाइ तिमिले अब छाडिदेङ ॥5४॥ यस्तो वचन् सुनि अलिक् यनले डराइनू बात्ले त दुष्टकन तृण् सरिको गराइन् ।॥। हे ढुष्ट रावण ! अवश्य त आज सर्लास् । ऐले जसै प्रभुजिका अगि याहि पर्लास् ॥८५।॥।संस्यासी समककर सीताजी उसके प्रति भक्ति-भावना से परिपूर्ण होक्रबिनती करने लगी। उन्होने कहा कि आप विराजें। प्रभु अभीलौटकर आते होंगे और तब वह आपका उचित स्वागत-सत्कार करेँगेऔर भक्ति-वार्ता करँगे। 5०१ यह सुनकर संन्यासीछूपी रावण नेसीताजी की ओर प्रश्नपूर्ण दृष्टिसे देखा और कहा कि तुम्हारे पतिकौन हँ, वाम और काम-सहित बताओ । ०८२ . सीताजी ने भी उसे वास्तवमैं संन्यासी ही समञकर सविस्तार सव कुछ कह सुनाया। तत्पश्चात्संन्यासी का परिचय तथा निवास-स्थान जानने की जिज्ञासा प्रकट की । ८३यह सुनकर रावण ने सीताजी को हरण करने का विश्चय करके अपनापुर्ण परिचय देते हुए कहा कि अब तुम मुम्ने ही अपना पति मान लो औररामचन्द्र को हृदयसे त्याग दो। ५४ उसके ऐसे वचनों को सुनकरसीताजी लेश-मात्न भी भयभीत नहीं हुई और उस दुष्ट को एक तितके केसमान समझकर कहा, है दुष्ट रावण | आज तू प्रभु के लौटने पर अवश्यही उनके हार्थो से मारा जायेगा । ५५ ऐसी वाणी सुनकर रावण अत्यन्त नेपाली-हिन्दी १०३ यस्ता वचन् सुति रिसायर जल्दि ङठ्यो।धाप्यो सरूप् र अब हर्छु भनेर छुट्यो ॥बीस् बाहु दश्ू मुख शरीर् पनि शुद्ध कालो ।देखाइ सब्कन तरास् मन-भित्न हाल्यो ॥८६॥। सीताजीलाइ मनूले चिल्विकन मनसा मातृवत् बुद्धि गर्दो।हात्ले मैले छुँदामा अनुचित छ भनी स्पर्श केही नगर्दो ॥आफ्ना नङ् सब् जमीनूमा धसिकनजमिनैजल्दि हात्ले उठायो ।सीताजीलाइ रथमा धरिकन दगुम्यो रामदेखी छुटायो ५७ हा राम् ! लक्ष्मण! येति मात्न मुखले बोलेर साह्रै रुँदी।तन् मन् रामविषे धरेर बहुतै विह्वल्ः निरन्तर् रँदी ॥देख्या ताहि जटायुले र उडि गै रथ् चूर्ण पारीदिया।घोडा चूण गराइ फेर् धनु समेत् टुकृटुक् गराईदिया ॥॥5०॥राबण् झन् वीर थीयो झटपट करमा क्रोधले खड्ग लीयो।काट्यो दूवै पखेटा रिससित र तहाँ भूमिमा पारिदीयो ॥बाधा पाई जटागू पृथिवितल गिन्यां फेरि रथूको तयारी ।जल्दी पान्यो र सीता लिइकन पुगिगो दुष्ट त्यो सिन्धु पारि ॥ ५९ क्रोधित हुआ और तत्क्षण उठकर खड्डा हो गया और अपना वास्तविक रूपधारण किया। तब सीताजी को हरण करने के लिए वीस भृजाओ तथादस शीशोंवाले अपने रूप को प्रर्दाशत कर अपने मन मैं आवेग उत्पञ्चकिया । ५६ सीताजी को हृदय से पहचान कर माता-तुल्य समझकरअपने हाथों से स्पर्श करना अनुचित समझा, अत: उसने अपने नाखुनों कोभ्रुमि मै धेंसाकर सीताजी को जमीन-सहित उठाकर रथ में र्ख लियाऔर राम से विलग करलेगया।०७ हा राम ] हा लक्ष्मण ! केवलइतना ही सीताजी के मुख से निकल पाया और बह् अत्यन्त व्याकुल होकरविलाप करने लगी । केवल राम को ही अपने ध्यान मैं बसाये हुए मनही मच अपना तन-मन राम को अर्पण करती हुई वह वार-बार विलापकरती रही । मागे मै उनकी ऐसी दशा देख जटायु उनकी सहायता कोदौड्ा और उसने रावण के रथ को च्र-चूर कर दिया। घोडोंकोभीमार डाला और रावण के धनुष के टुकड्-टुकङे कर दिये। कक रावणतोवीरथाही। उसने तुरन्त तलवार खीचकर क्रोधित जटायु के दोनों परौंको काटकर उसे धराशायी कर दिया। पंखोंसे विहीन जटायु भूमिपर गिरपड्गा। शीश्र ही रावण ने रथ तैयार किया और सीताजी को १०४ भानुभक्त-रामायण आकाशमा जब कत्रध्ष्यमुक गिरिका अपर् पुगीथितृ् जसै।आफ्ना सब् गहना फुकालि वलियो पोको बनाइन् तसै॥राम् लक्ष्मणकन यो दिउन् भनि तहाँ पोकै खसालिन् पनि ।सुग्रीव्ले त गुफाविषे धरिलिया कस्ले खसाल्यो भनी ॥९०॥ सीताजीलाइ लक्का लगिकन मनमा मातूवत् वुद्धि गर्दो।भित्री जुन् हो बगेंचा तहि असल अणोक् वृक्षका नीच घर्दो ॥सेवा खुप् गर्ने लाग्यो तर पनि मनमा माइले दुःख पाइन् ।हाराम्! हाराम्! जगन्नाथ्! यहि वचन गरी राममा चित्त लाइन् ॥९ १॥ मारीच् मारेर फिर्थ्या प्रभु पत्ति वनमा देखिया ताहि भाई ।राम्ले ताहीँ विचारया मन मन इ कुरा भाइ पुग्नै नपाई ॥साया सीता बच्याकी अलिकति पनि याद् छैन ई भाइलाई ।साँचै सीता इनै हुन् भत्तिकन मलले भन्दछन् चालू नपाई ॥९२॥।यो बात् बोह्दिनँ गुद्य राख्छु म पनी सानून् सिता हुन् भनी।सीता निश्चय हुन् भन्या त रिसले लड्नन् रिपूथ्यै पनी॥यस्तो निश्चय मन् भयो प्रभुजिको लक्ष्मण् पुग्या झट् तहाँ।सोध्या श्री रघुनाथले किन सिता छोडेर आयौ यहाँ ॥९३।॥। साथ लेकर वह दुष्ट समुद्र को पार कर गया। 5९ आकाश मागंसेजैसे ही सीताजी कत्रद्ष्यमूक पर्वत पर पहुँचीं, उन्होति अपने समस्त आभूपणउतार कर एक गठरी मै बाँध लिये और नीचे गिरा दिये, जिससे वे किसीके द्वारा राम-लक्ष्मण के पास पहुँचा दिये जायें । सुग्रीव ने उन्है उठाकरतुरन्त अपती गुफा मे रख लिया । ९० रावण ने सीताजी को लंकालेजाकर अपने हृदय से उन्है माता-तुल्य जानकर अपने अंतःपुर की बाटिकामै अशोक वृक्ष के नीचे बैठा दिया और खूव सेवाकी। तथापि सीतामाता के मन में महान् दुख रहा और वह मन ही मन हा राम! हाराम!हा जगन्नाथ! जपकर राम की स्मृति, को अपने मन में वसाती रही । ९१मारीच का वधकर लौटते समय राम ने वन-घीच भाई लक्ष्मण को देखाऔर भाई के पहुँचने के पूर्वे ही मन ही मन विचार किया कि सीता माया-रूपी वनी हुई हँ, यह भाई को किचित-मात्न भी स्मरण नहींहै। सत्यही सीता यही होगी, ऐसा सोचकर मन मैं कहते है। ९२ यह वात मैगुप्त रबखँगा, किसीसे नकह्ँगा। इसेही सीता मान लें। निश्चयही सीता होने पर शत्रु के साथ लड्ने का विचार प्रभ् के.मन मैँ हुआ ।तुरन्त ही रघुनाथ ने प्रश्न किया कि सीता को छोड्कर क्यो आये हो ) ९३ नेपाली-हिन्दी -लक्ष्मण्ले पनि यो हुकम् सुनि तहाँजो दुर्वाच्य गरिन् सबै भनुँ भन्यासारीचूका छ्लका वचन् सुनि बहुत्सम्झायाँ भरसक् अपेक् तरहलेफेर् उत्तर् प्रभुले दिया अनुचितैछोड्नू कत्ति थियेन दुर्वचनलेयेती बात् गरि राम आश्चमविषेदेख्यानन् र सिताजिलाइ बहुतै १०५ बिन्ति गच्या क्या कखँ।सक्तीनै मेलै बरु ॥दुर्वाच्य बोलिन् जसै।लागेन बिन्ती कसै ।॥९४।।हो यो गच्या तापनि ।स्की हुन् ति सीता भनी ॥जल्दी कदस् ली गया।शोक् गर्ने लाग्दा भया॥९५।॥। की दुष्टले पेट भन्या।कुन् दुष्टका खेल् पर्चा ॥विस्तार् बताञड यहाँ।जान्छ् सिता छन्जहाँ।॥९६॥। की राक्षस्हरुले हच्या कि वनमाएक् थोक् क्या त भयो अवश्य म गयाँवन्देवीहरुलाइ मालुम भयासीता मेरि पियारि देख्तिने म ता यस्ता रीतृसित सोधि सोधि रघुनाथ् ज्चानै स्वर्पी पन्ि।जस्तो मानिस गर्छे सोहि रितले हा मेरि सीता! भनी॥फिर्थ्या तेस् वनमा बडा विरहले सोध्या नपाई उसै। यै बीच्मा वनमा त रथ् र धनुको देख्या अनेक् टुक् तसै ॥९७॥। यह आज्ञा सुनकर लक्ष्मण ने भी विनती कीकि मैं क्या कछ, मारीचकीछलपूर्ण चीख को सुनकर सीताजी ने अनेक दुवेचनों का प्रहार किया औरभैँने अनेक प्रकार से समझाने की चेष्टा की, परन्तु सब व्यर्थ हुआ । ९४प्रभु ने फिर उत्तर दिया कि यह तो अनुचित ही हुआ है। स्त्वी केदुवेचनों को सुनकर भी उसे स्त्री समझकर अकेला नही छोड्ना चाहिए ।इतना कहकर राम ने . शीघ्रता से आश्रम मैँ देखा। सीता को न देख करअत्यन्त शोकाकुल हुए। ९५ किन्हीं राक्षसों ने हरण किया होगा या वनमैँ किसी दुष्ट ने अपने पेट का आहार बनाया होगा--कुछ तो अवश्य हीहुआ है। मेरे चले जाने पर किस दुष्ट ने यह खेल किया ? वनदेवियो ! यदि तुम्है विदित हो तो मुझे विस्तारपू्वंक वता दो। मेरी प्यारी सीताकहीं दृष्टिगोचर नही होती। मैंतो सीता जहाँ होगी, वही जा रहा,हँ। ९६: ज्ञान-स्वछपी होने पर भी सीता को न देखकर रघुनाथ अत्यन्तव्याकुल हो उसी प्रकार हा मेरी सीते ! कहकर पुकारते हुए उस वन मैंभटकने लगे, जिस प्रकार मनुष्य किया करता है। उसी वीचवन मेंरथ एवस् घनुष के टुकडे देखे । ९७ लक्ष्मण से कहते हँ, भाई ! तुम यहाँदेख रहै हो--क्या हुआ है, कोई और ही .आकर विजय प्राप्त कर ले गया १०४ भानुभक्त-रामायण आकाशमा जब क्रष्यमूक गिरिका अपर् पुगीथितृ् जसै।आफ्ना सब् गहना फुकालि वलियो पोको बनाइन् तसै॥राम् लक्ष्मण्कन यो दिउन् भनि तहाँ पोकै खसालिन् पनि ।सुग्रीव्ले त गुफाविषे धरिलिया कस्ले खसाल्यो भनी ॥९०॥ सीताजीलाइ लङ्का लगिकन मनमा मातूवत् वुद्धि गर्दो।भित्ती जुन् हो बगंचा तहि असल अगणोक् वृक्षका नीच धंदो ॥सेवा खप् गर्ने लाग्यो तर पनि मनमा माइले दुःख पाइन् ।हाराम्! हाराम्! जगन्चाथ् ! यहि वचन गरी राममा चित्त लाइन् ॥९ १॥ मारीच् मारेर फिर्थ्या प्रभु पनि वतमा देखिया ताहि भाई।रामले ताहीँ विचारया सन मन इ कुरा भाइ पुग्नै नपाई ॥साया सीता बन्याकी अलिकति पनि याद् छैन ई भाइलाई ।साँचै सीता इनै हुन् भत्तिकन मलले भन्दछन् चालू नपाई ॥९२।। यो बात् वोह्दिनँ गुल्य राख्छु म पनी सानून् सिता हुन् भनी ।सीता निश्चय हुन् भन्या त रिसले लड्नन् रिपूथ्यै पनी ॥यस्तो निश्चय मन् भयो प्रभुजिको लक्ष्सण् पुग्या झट् तहाँ।सोध्या श्री रघुनाथले किन सिता छोडेर आयौ यहाँ ॥९३।॥ साथ लेकर वह ढुष्ट समुद्व को पार कर गया। ८९ आकाश मार्गसेजैसे ही सीताजी क्रष्यमूक पर्वत पर पहुँची, उन्होने अपने समस्त आभूपणउतार कर एक गटरी मैं बाँध लिये और नीचे गिरा दिये, जिससे वे किसीके द्वारा राम-लक्ष्मण के पास पहुँचा दिये जाये। सुग्रीव ने उन्है उठाकरतुरन्त अपनी गुफा मै रख लिया । ९० रावण ने सीताजी को लंकालेजाकर अपने हृदय से उन्है माता-तुल्य जानकर अपने अंत:पुर की बाटिकाअशोक वृक्ष के नीचे बैठा दिया और खुव सेवाकी। तथापि सीतामाता के मन में महान् दुख रहा और वह मन ही मन हा राम ! हा राम!हा जगन्नाथ! जपकर राम की स्मूति,को अपने मन में वसाती रही । ९१मारीच का वधकर लौटते समय राम ने वन-बरीच भाई लक्ष्मण को देखाऔर भाई के पहुँचने के पूर्व ही मन ही मन बिचार किया कि सीता माया-रूपी वनी हुई हँ, यह भाई को किचित-मात्न भी स्मरण नहींहै। सत्यही सीता यही होगी, ऐसा सोचकर मन मैं कहृते है। ९२ यह बात मैंगुप्त रक्खुँगा, किसीसे नकङ्गा। इसेही सीता मान ले। निश्चयही सीता होने पर शल्ु के साथ लड्ने का विचार प्रभु के मन में हुआ ।तुरन्त ही रघुनाथ ने प्रश्न किया कि सीता को छोड्रकर क्यों आये हो ? ९३ तेपाली-हिन्दी लक्ष्मण्ले पनि यो हुक्म् सुनि तहाँजो दुर्वाच्य गरिन् सबै भनुँ भन्यामारीचूका छलका वचन् सुनि बहुत्सम्झायाँ भरसक् अपेक् तरहलेफेर् उत्तर् प्रभुले दिया अनुचितैछोड्नू कत्ति थियेन दुर्वचनले १०५ बिन्ति गच्या क्या कछँ।सक्तीनँ मेलै बरु॥दुर्वाच्य बोलिन् जसै।लागेन बिन्ती कसै ॥९४।हो यो गन्या तापनि ।स्त्ी हुन् ति सीता भनी ॥ जल्दी कदम् ली गया।शोक् गर्ने लाग्दा भया॥९५।॥।की दुष्टले पेट् भन्या।कुन् दुष्टका खेल् परया ॥विस्तार् बताञ यहाँ।जान्छू सिता छन्जहाँ॥९६॥। येती बात् गरि राम आश्रमविषेदेख्यानन् र सिताजिलाइ बहुतैकी राक्षस्हरुले हच्या कि वनमाएक् थोक् क्या त भयो अवश्य म गयाँवन्देवीहरुलाइ मालुम भयासीता मेरि पियारि देख्तिने म ता यस्ता रीत्सित सोधि सोधि रघुनाथ्ू ज्ञानै स्वरूपी पत्ति॥जस्तो मानिस गछ सोहि रितले हा मेरि सीता! भनी ॥फिर्थ्यी तेस् वनमा बडा विरहले सोध्या नपाई उसै। यै बीच्मा वनमा त रथ् र धनुको देख्या अनेक् टुक् तसै ॥९७॥ यह् आज्ञा सुनकर लक्ष्मण ने भी विनती कीकि मैं क्या कर, मारीचकीछलपूर्ण चीख को सुनकर सीताजी ने अनेक दुर्वेचनो का प्रहार किया औरमैँने अनेक प्रकार से समझाने की चेष्टा की, परन्तु सब व्यथै हुआ । ९४प्रभु ने फिर उत्तर दिया कि यह तो अनुचित ही हुआ है। स्त्वी केदुवेचनों को सुनकर भी उसे स्त्री समझकर अकेला नहीं छोड्ना चाहिए ।इतना, कहकर राम ने शीघ्नता से आश्रम मैँ देखा। सीताको न देख करअत्यन्त शोकाकुल हुए। ९५ किन्हीं राक्षसों ने हरण किया होगा या वनमैं किसी दुष्ट ने अपने पेट का आहार बनाया होगा--कुछ तो अवश्य हीहुआ है । मेरै चले जाने पर किस दुष्ट ते यह खेल किया ? वनदेवियो ! यदि तुम्है बिदित हो तो मुझे विस्तारपुवेक बता दो। मेरी प्यारी सीताकहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। मैंतो सीता जहाँ होगी, वहीँ जा रहा,हूँ । ९६. ज्ञान-स्वछूपी होने पर भी सीता को न देखकर रघुनाथ अत्यन्तव्याकुल हो उसी प्रकार हा मेरी सीते ! कहकर पुकारते हुए उस वन मैंभटकने लगे, जिस प्रकार मनुष्य किया करता है। उसी बीचवन मेंस्थ एवम् धनुप के टुकडे देखे । ९७ लक्ष्मण से कहते हैँ, भाई ! तुम यहाँदेख रहे हो-क्या हुआ है, कोई और ही आकर विजय प्राप्त करले गया १०६ भानुभक्त-रामायण भन्छन् लक्ष्मणलाइ भाइ ! तिमिलेअर्को आइ जिती लिगरेछ बिचमायेती बात् गरि राम् अलिक् पर गयाचिन्नैलाइ कठिन् जटायुकन ता अज्ञान् कत्ति थियेन तापर्नि तहाँचीन्याको नचिन्ह्यौ गरेर भगवान्हे भाई ! धनु देउ दुष्ट मिलिगोखान्या येहि रहेछ हेरि बुझियोन्या बात् र जटायुले पनि हृवाल्सूनी पूर्ण दया भयो नजिक गैसीताको समचार् खबर् कहि तहाँस्तान्ू दाहा गरि मांसपिण्डह् रुदी देख्यौ यहाँको कुचाल्।मैले त देख्याँ कुचाल् ॥देख्छन् त पल्टी रही।दुवै पखेटा गई ॥९८५॥ लीला नरैंको गरी।भन्छन् अगाडी सरी॥मार्छु म वाणै धरी।पल्टेछखुब् पेट् भरी ॥९९॥वृत्तान्त विन्ती गप्या।छास्यार सव्तापू हप्या ॥सामूने जटायू मच्या।क्रीया प्रभूले गच्या॥१००॥। सागुज्यै मुक्ति पाई स्तुति पनि बहुतै भक्ति राखेर लाई ।पौंच्या धामूमा जटायू प्रभु पनि नरको ठिक्क लीला जनाई ॥वनुवन्मा फिनें लाग्या विरह गरि गरी सोद्धछन् जाहि ताहि।दोख्रादेख्न्यामिल्याननूसकलबढ्ड्याएक् पती काहि नाही ।॥।१०१॥। क्वै तो कुछ अनर्थ के लक्षण ही देखता हुँ। इतना कहकर राम ने है। मैकुछ दूर जाने पर पख कटे हुए जटायु को अचेत अवस्था मे पडा देखा,जिसे पह्चानना भी कठिन था । ९५ प्रभु अज्ञानी नहीं थे, तथापि मनुष्यकी ही लीला करके अपरिचित की भाँति आगे वढ्कर भगवान कहते हैँ,हे भाई ! दुष्ट मिल गया । धनुष दे दो, मैँ वाण से इसका वध करताहँ। इसी ने सीता को खाया है और पेटभर खाकर लेटा हुआ है । ९९इन वातो को सुनकर जटायु ने भी विनती-स्वरूप-सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।वृत्तान्त सुनकर दया से पूर्ण हो राम ने उसके निकट जाकर उसका स्पशेकिया और उसके दुख-ताप का हरण किया। सीता के विपय में सारासमाचार ज्ञात करने के पश्चात् जटायु का प्राणान्त हो गया। स्तानो-प्रान्त दाहसंस्कार, कर माँस-पिण्डादि देकर प्रभु ने उसका क्रिया-कमेकिया । १०० अत्यन्त भक्तिपूवेक स्तुति करने के बाद, मुक्ति पाकरजटायु स्वगे-धाम को पहुँचे। प्रभु भी. मनुष्य के समान लीला करते हुए,विरह व्यक्त करते तथा सीता के विषय मै पुछ-ताछ करते हुए, वन-वन_ भटकने लगे, परन्तु दूसरा और कोई ऐसा नहीं मिला, जिसने सीताजीको देखा हो। १०१ राम की भेट एक कवंध नामक राक्षस से हुई, नेपालो-हिन्दी १०७ छातीमा मुख् भयाको शिर पनि नहुँदा नाम् कबन्धै- रह्याको ।.चार्चार्कोश् सम्म पुग्न्या दुइ अति बलिया दीघे वाह भयाको ॥राक्षस् थीयो तहाँ एक् बसि बसिकन सब् हातले खचि खान्या ।'तेसैका बाहु बीचमा रघुपति पुगदी रोकियो मागे जान्या ॥१०२॥ राक्षसूले घोरियाको बुझिकन रघुनाथ् भन्दछन् ' भाइलाई ।'हे,लक्ष्मण् ! आज देख्यौ अब बिच परियो निल्छ की हामिलाई ॥ठाकुरुजीका वचन् ई सुनिकन विनती ताहि लक्ष्मणूजि गर्छन् ।हेनाथ्! क्या डर् छ यस्को दुइ भइ दुइ हात् काटियँ याहि झन् ॥३॥।येती बात् गरि हात् दुवै सहजमा काटी खसाल्या जसै।राक्षस्ले पनि हात् गिच्या जब तहाँ आश्चये मान्यो तसै॥सोध्यो आज म वीरका पनि सहज् हातै खसाल्यौ. यहाँ।'को हौ क्या मतमा लियेर वनमा ड्ल्छौ छ जानू कहाँ॥१०४।॥। उत्तर् श्री. रघुनाथले पनि दिया हाँसेर विस्तार गरी ।सुन्यो राम भनी तहाँ, र मनले चौन्ह्यो इनै हुनु हरि ॥ठाकुर्जीकत चीन्हि खुश् अधिक भै विस्तार आफ्नू गन्यो।हेनाथ्! आज चिस्ह्याँ हज्र्कन यहाँ पायाँ र सब् तापू टम्यो।॥ १०५।। जिसका मुख उसकी छाती में था और सिरथा ही नहीँ। उसकी भुजाएँन्नार-चार कोस की लस्वाई मैँ थी और बहुत' ही बलिष्ठ थी । वह अपनीउन्हीं बलिष्ठ भुजाओं से अपना आहार खींच कर खाता था। उसकी दोनोंभुजाओं के बीच मैँ रघुपति आ गये, जिसके कारण उनका आगे जानेकामाग रक्ग गया ।१०२ राक्षस से घिरा हुआ समझकर रास भाई से कहतेहुँ, हे,लक्ष्णण! आज देखो, कदाचित् यह राक्षस हम निगल न ले। ठाकुरकेइन.वचनो को सुनकर लक्ष्मणजी विनती करते है, हे नाथ, इसका क्या भय है,दोनों मिलकर दोचों भृजाओं को काट डाले, वस यह यही गिर जायेगा। १०३ऐसा कहकर जैसे ही दोनौं भुजाओ को सहज ही काटकर गिरा दिया ।यह देखकर राक्षसको भी अपनी भृजाओं के कटकर गिरने से.आश्चय .हुआ ।अतः उसने पृछा, आज मुझ-जैसे वीर की भूजाओ को सहज ही में गिराने-वाले तुम कौन हो, किस उद्देश्य से वन मैं धूम रहेहो और कहाँ जानाहै ? १०४ रघुनाथ ने भी हँसकर धीरेसे उत्तर दिया, राम कहकरपुकारे जाते हुँ, और मन मैं हरि समझकर पहचाने जाते है। ठाकुरजीको पह्चानकर, अत्यन्त हापित हो 'उसने विनती की--हे नाथ! आज आपकोयहाँ पह्चानकर मेरे सब पापौं का. नाश हुआ । १०४ गन्धर्व होने पर १०५ ब्रह्यादेखि अवश्य पाइ वरदानराम्रो छु भन्ति गर्वेभो रक्रषि ताहाँस्याँ कोहि र अष्टबक्र क्रषिलेपैले श्चाप गरी दिया पछित फेर्राक्षस् भैकन फिर्देथ्याँ म रिसलेब्रह्माको वरदान्, थियो र म जियाँशीरै गै पत्ति यो जियो अव कसोआयो इन्द्रजिका र खानकन मुख् चार्चार् कोश तलक् समाउन भनीसो हातृ् आज गिराइवक्सनुभयोजस्तो मुक्ति ति अष्टवक्र क्रषिलेतस्तो ठिक्क्र भयो इ हात् गिरिगयाक्यावात् धन्य रहेँछु आज म प्रभू !रातोदिन् रटता थियो चरणकोखाडल् खुप् गहिरो खनेर उसमा भानुभक्त-रामायण गर्ने हुँ तापनि।साह्लै नराम्रा भनी ॥ राक्षस् भयास् लौ भनी ।मुक्ती बताया पति ॥१०६॥।शिर् इन्द्रजीले हप्या।झ्न्द्रादि सब् छक् पन्या ॥गर्ला भनी खुपू दया।छाती विपे दी गया॥ १०७।॥ लामा त हातै दिया।याहीं तलक् ई थिया॥पैले वत्ाया यहाँ।मुक्ती त पायाँ यहाँ ॥१००॥आख्रा गप्याँथ्याँ जति ।भैगो शरणूको गति॥यो देह मेरो धघरी। पोली भस्म गराइबक्सनु हवस् जान्छु म संसार तरी॥१०९॥। भी ब्रह्याजी से वरदान पाकर, अपनी सुन्दरता पर् गर्व करने पर, क्रटपियोंको कुख्प कहकर उनकी हँसी उड्डाने पर, अष्टावक्र त्रट्रपि ने मुझे राक्षस_होने का शाप दिया, साथ ही इस शाप से मुक्तिपाने का भी मार्ग वताया । १०६मै राक्षस वनकर घूमने लगा था। क्रोधित होकर इन्द्र नेमेरे सिरकाहरण कर लिया। ब्वह्या के वरदान से मैं जीवित रहा और इन्धादि सभीआशचयं-चकित हुए । सिर कट जाने पर भी यह जीवित रहा, अबक्याकरेगा, यह सोचकर इन्द्रजी को अत्यन्त दया उत्पन्न हुई और भोजन करनेके लिए उन्होँने मेरे वक्षस्थल मँ मुँह वना दिया । १०७ चार कोस लम्बीभुजाएँ शिकार को पकड्ने के लिएदीं। वे ह्वाथ भी अव गिरा दिये गये ।शाप का प्रभाव भी यही तक के लिएथा। जिस प्रकार अष्टावक्र क्रपिने पहले ही वता दिया था, ठीक वैसा ही हुआ । हाथों के गिरने पर उन्होनेमुक्ति पाने को बताया था । १०० क्यावातहै! मैधन्य हँकि जोकुछआशा करता था और रात-दिन इन्ही चरणों की रट लगाये था और प्रभकी शरण में मुझे गति प्राप्त हो गयी । मेरे शरीर को भस्म करके एकगहरा गड्ढा खोदकर भूमि को अपित करने को क्रपा करे, जिससे मैंसंसार से मुक्ति पा जाऔँ । १०९ सीता को प्राप्त करने का भी उचित नेपाली-हिन्दी 0 १०९सीता पाउनको उपाय विनती गर्न्याठु साँचो गरी।भन्त्या या बिततती सुन्या र हरिले पोलीदिया खाक् गरी ॥सुन्दर शुद्ध स्वरूप् धप्यो प्रभुजिले खुश् भै दिया वर् पनि ।भक्तीले बहुतै गच्यो स्तुति र त्यो पौँच्यो परम् धाम् पनि॥ १ १०॥।हे नाथ्! सीताजि मिल्निन् अब तिमि शबरी छन् जहाँ ताहि जाङ ।साह्रै भक्ती छ तिम्रा चरणकमलको ताप तिनूका छुटाङ॥येती बिन्ति जगन्नाथ् सित गरि जब धाम् त्यो गयो राम फेरि।आश्चमूमा पौंँचि दशेन् शबरिकन दिया खुपृक्रपा राखिहेरी ॥१११।॥।आसनूदेखि -उठेर जल्दि शबरी राम्का चरण्मा परिन् ।सक्भर्को बहुतै पुजा गरि तहाँ हात् जोरि बिन्ती गरिन् ॥हेनाथ्! हीन् कुलकी स्ती जाति म गरीब् जान्दीनेँ तिम्रो स्तुति ।आधार् मात्न फगतृ छ यै चरणमा यस्तै छमेरो गति ॥११२॥। विस्तार् सब् गुरुदेखि सूनि गुरुको आज्ञा मनैमा लिई।कैले देख्छु हजूरलाइ भनि -खुपू तन् मन् हजुर्मा दिई ॥पुजा चित्य हजूरको गरि यहाँ ख्व्रामित्! बस्याकीथियाँ ।हे नाथ्ू आज दया भयो हजुरको प्रत्यक्ष देखीलियाँ ॥११३।॥। -उपाय मैं आपको बताउँगा । कबंध की ऐसी विनती सुनकर हरि ने उसकेशरीरको भस्म कर दिया। तदुपरान्त एक सुन्दर शेरीर प्रकट हुआऔर प्रभृजी ने भी हित होकर उसे आशीर्वाद दिया । भक्तिपरवंक स्तुतिकर वह परमधाम को पहुँच गया। ११० कबंध प्रभुृजी से कहता है,हे नाथ! जहाँ शबरी रहती है, आप वहीं चले जाये, अब आपको सीताजीमिल जायेगी । उसकी आपके चरणों मैँ अगाध भक्ति है; आप जाकरउसके तापों का अन्त कर । जगन्नाथ से इतनी विनती कर जब वह परसम-धाम पहुँच गया, तब राम ने भी आश्रम में पहुँच कर शबरी को क्रृपापुवंकदशंन दिये। १११ शबरी राम को देखकर तुरन्त आसन से उठ बैठी,और राम के चरणों पर गिर पड्डी। अपनी शक्ति के अनुसार पूजाकरहाथ जोडकर विनती की-हे नाथ ! मैं एक नीच कुल की दीन स्तीहू।आपकी स्तुति किस प्रकार करखँ, यह ज्ञान नहीं है, हमेँ केवल आपके चरणों का ही सहारा है, चाहे मेरी जैसी गति हो। ११२ गुरु की बतायी हुईविधि को सुनकर और उनकी आज्ञा मन मै धारणकर कभी आपको देखतीहुँ, तन-्मन लगाकर नित्य आपकी पूजा करके मैंयहाँ रहरहीह्ँ। हेनाथ! आज आपकी इतनी क्कपा हुई कि मैं साक्षात् आपके दशँन पा रही ११० भानुभक्त-रामोयण क्याले आज बढहुत्ँ प्रसञ्च हुनुभो कुन् कर्म मैले गच्याँ ॥योगीको मनले, नभेटि सकित्या मँले त -दशैन् गग्याँ॥यस्तो बिन्ति सुती दया बहुतभो हेतु प्रभूले कह्या।उच् तीच् स्त्ी र पुरुष् विचार्दिनँ मता खुग् हुन्छु भक्ती भया॥ ११४नौ साधन् कि त भक्ति छन् ति नवमा पैलो त सत्सँग हो।पैलो साधन् पो भयो पत्िभन्या वाँकी रह्याका तिजो॥आठ साधनूहरू हुन् ति ता क्रमसितै ' मिल्छन् असल् सङ्गले।सत्को संग भया सबै बनिंगया क्याहुन्छ कुन् सङ्गले।।१ १५।।सत्को सङ भै रह्याकी दिनदिन न उपर् भक्ति ठूलो भयाकी ।सज्जनूको सङ्ग पाईकन सग गुणमा पार पौँची गयाकी ॥देख्याँ मैले र दर्णत् दिन भनि खुशिले आज आफैं म आई।॥दीयाँ दशैन् र पायौ तिमि अधम भवा पाउँथ्यौ क्या मलाई॥ १ १६।॥। मुक्ती भो आज तिम्रो अव फजिति छुटया खुशि भै आज जाडमेरी सीता कहाँ छ्न् कछु खवर भया त्यो पनी सब् वताङ॥।हृक्म् जस्सै सुनिथिन् तव तहि विनती गर्दछिन् क्या वताऔँ।सवव्यापी हजूर्ले बुझि त नसकिन्या एक् रती छैन ठाउँ ॥११७॥ हँ। ११३ पता नहीं, कैसे आज आप दइ्रतने प्रसन्न हो गये। आज सैँनेकौन-सा ऐसा सुकर्म किया। आज मैँते आपका दशंन पा लिया, जिसेवड्न्वङ्के योगी नही पा सकते है। शवबरी की ऐसी विनती सुनकर, प्रभुका हृदय दया से भर उठा । उन्होने कहा--मैं झँच-नीच तथा स्ती-पुरप काबिचार नहीं रखता, मै तो प्राणिमात्र की भक्ति से प्रसन्न होता हँ । ११४भक्ति के नौ साधन हैं, जिनमेँ प्रथम तो सत्संग है । प्रथम साधन हो जानेपर जो भी शेप आठ है, अच्छी संगत से भी कठिनता से प्राप्त होते हैँ। सत्के सँग होने पर सब बनता है, जो कुसंग से नहीं वनता । ११५ सत्संग मेंरहकर प्रतिदिन मेरी भक्ति में,तल्लीन, सज्जनो के सम्पर्क से सभी गुणोंसे परिपूण देखकर, प्रसञ्च होकर मैँ आज स्वयं दशँन देतेके लिए आयाहँ। तुम्हैँ' दशेन मिल गया, अन्यथा तुम अधम होती तो क्या मुझेपासकती थीं। ११६ आज तुम्हारी मुक्ति हुई। आज तुम्हारे संकट दूरहो गयेहँ। मेरी सीता कहाँ है, यदि तुम्है कोई सूचनाहोतोवह भीमुझे वताओ । राम की यह आज्ञा सुनते ही, शवरी विनती करने लगी,मै क्या वताओेँ, आप तो स्वयं सवँव्यापी हुँ, आपसे छिपा हुआ कोईस्थान नहीं । ११७ यह मैं सत्य ही कह रही हुँ, परन्तु आज मनुष्य-छ्प नेपाली-हिन्दी १११ साँचो बिन्ती, गच्याँ यो तर पति नरको आज यो रूप धारी ।आज्ञा.भो ता म बिन्ती पनि हजुरविषे गदेछ् काल् विचारी ॥सीता लङ्काविषे छन् अब त हजुरले भेट सुग्रीवलाई'। बक्स्याजावस् ति गर्नैन् जतिजति अरुकास् बिल्कुलै पार लाई॥ १ १०॥ पम्पा भन्न्या तलाञ पत्ति नजिक हुन्या क्रष्यमूक् पर्वेतैका ।टाक्रैमा ति बस्छन् अति फजिति सही दिन् बिताई सधैंका ॥।बालीको डर् हुनाले तहि बहुत बस्या बालि जाँ दैन ताहाँ ।बालीलाई वजानू भत्रिकन छ सराप् सब् गच्याँ बिन्ति याह्ाँ॥ १ १९॥सुग्रीव् सीत मित्यारि गन सब काम् हून्याछ सीता पनि।मिलूतिन् आज म देह खागू गरि यहीँ पोल्छ् नजीक् भै भनी ॥.- बिन्ती पारि चिताविषे पसि शरीर् त्यो जो छ सब् खाग् गरिन्ठाकुरको अति भक्तिले ति शबरी संसार सागर् तरिन्॥ १२०॥ क्या ढुलैभ् रघुनाथ् खुशी हुन गया जातृकी अधम् भै पनि।श्वीरामूका अगि देह छाडिकन पार् पौंचिन् सहजूमै तिनी ॥ब्राह्वाण् भैकन भक्ति गर्दछ भन्या उस्का त झन् क्या कुरा ।जो कोही पनि भक्ति भो भनि,भन्या योगी ति हुन्छन् पुरा॥१२१॥। धारण कर यह आज्ञा की है, तो मैँ,अवसर को विचार करके आपसे विनतीकरती हुँ --सीताजी लंका में हँ। जब आप सुग्रीवसे भेंट करेँगे तोजो काम होगें, सव अवश्यमेव पूर्ण होंगे । ११५ वह सुग्रीव पंपा नामकतालाव के निकट त्रष्ष्यमूक पर्वत के शिखर पर अत्यन्त संकटयम तथा दुखीजीवन व्यतीत कर रहाहै। बालिके भय से वह वही रहताहै। बालिको शाप है, इसलिए वह वहाँ नहीं पहुँच सकता । ११९ सुग्रीव सेमिल्नता होने पर पर जब सब कायं पुर्ण होंगे, तव सीता भी मिल जागेगी ।आज मैं आप के निकट इस देहु को भस्म करती हुँ । ऐसी विनती करकेशबरी ने चिता में प्रवेश किया और अपने शरीर को अग्नि को अपितकर दिया। इस प्रकार की भक्ति,से शबरी ने' संसार-सागर पार करलिया । १२०: नीच जाति' की होकरभी शबरी का' साहस देखकर,रघुनाथ अत्यन्त प्रसन्न हुए। जव ऐसे लोग श्रीराम के. ही समक्ष देह त्यागकर परम-धाम को प्राप्त कर सकते है, तो फिर ब्रांह्दाण होकर भक्ति करनेपर तो उसका कहनाहीक्या! जोकोईभी हो, उनका भक्त होने परमनुष्य पूर्ण योग्य होता है। १२१ : हे मनुष्यो ! रघुनाथ के चरणोंकीभक्ति मोक्ष दिलातेवाली है, यह जानकर कामधेनु के समान रामका मनः ११९ भनुभक्त-रामायण हे लोक् हो! रघुनाथका चरणको शक्ती छ मुक्ती दिन्या।यो जानीकन कामधेनु सरिका राम् नाम् मनैमा लिच्या ॥क्या गछौं अरु मंत्न-तँवहरुले छोडेर सब् राममा।तनूमन्लाइ अवश्य जान मनले सार् मिल्छ यै काममा॥ १२२॥ अरण्पयकाण्ड समाप्तभै ध्यान करने से अन्य मंत्न तथा यंब्लों का प्रयोग करके क्या करेगा ?मन सै निश्चित ही जानो कि तन-मन से एकान्त मैं ध्यान घरकर चिन्तनकरने से ही सार प्राप्त होता है । १२२ 00006001000001 ४" - फिष्किन्धा काराङ जस्सैमुक्त भइ गइन् ति शवबरी स् वात् सुनी राम् पनि ।जान्छ आज म क्रष्यमूक गिरिमा सुग्नीव भेट्छु भनी ॥जान्थ्याकोश् भरिको तलाउ मिलिगो पम्पा भन्चाको पनि।चीन्द्या श्रीरघुनाथले णवरिले यै हो भन्याको भनी ॥१।! माछा कच्छप चल््दछ्न् कमलको सब् गिर्छै केसर् तहाँ।केसर्ले जव छोपियो पनि भन्या देखिन्छ जल् पो कहाँ ॥नीला लाल सफेद् कमल् पनि अनेक्ू रङ्का भयाका हहाँ।वोल्छ्न् हाँस चकोर सारसहरू लाटाकुस्यारा जहाँ ॥२॥ जैसे ही शवरी चुप हुई, रामने सारी बाते सुनने के पङ्चात्त्रष्ष्यमूक पवेत पर सुग्रीव से भेट करने के लिए तत्काल ही जाने कीझ्च्छा प्रकट की । लगभग एक कोस दूर जाने के वाद पम्पा नामक एकताल उन्हँ मिल्ला, जिसे शबरी के कथनानुसार श्रीरधुनाथ ने पह्चाना । १उस ताल मे मछली और कछुए रहते थे और, कमल के केसर गिरकरजल को पूर्णरूप से ढके हुए थे, जिससे जल कहीं भी दिखायी नहीं देताथा।- उस ताल के कमल लाल, नीले तथा सफेद अनेक रगो मैं खिलेहुए थे, जहाँ हंस, चकोर तथा सारस समुह बोलते रहते थे। २: नेपाली-हिन्दी जस्तो, विमल : हुन्छ सन्तहरुकोनिर्मेल् , देखि बहुत् प्रसन्न हुनुभोथोडाजल्, पत्ति पान् गरी सकल वन्देख्या; सुग्रिवले डरायर नजर्.बालीको छल हो भन्या बुझि -तहाँ'औरै कोहि: रहेछ सज्जन भन्याब्राह्माणको लडिका बनेर हनुमान्जान्छन् क्या समचमा छ सब् वरिपरीसुग्रीवले हनुमानलाइ जब योब्राह्मणको. लडिका बनेर हनुमान्पौंची, पाठ्सित बिन्ति पारि सब काम् :विस्तार्. नाम र कामको प्रभुजिलेसुग्रीव्को -हनुमानले पति ठहाँ“ बोकूँ ,.श्रीरघुनाथलाइ भनि , फेर्राम् लक्ष्मण्कन बोकि जल्दि हनुमानपौँचाझँ रधुनाथलाइ भनि खुप्जल्दी पर्वतका उपर् पुगिगयासुग्रीव्लाइ खबर् दिनाकन ठहाँ ११३ « मन् सोहिमाफीक जल् । लाग्यो र साह्वै असल् ॥हेर्थ्यी .,जगन्नाथ्ू तहाँ।लाया प्रभू छन् जहाँ ॥३॥ -हातुले इशारा दिया । हेरेर हाँसी लिया॥जाड तिको हुन् कहाँ।हेरेर डुल्छन् तहाँ ४11हकूम् दिया जौ भवी।रामूका हजुर्मा पनि॥सोध्या प्रभूको जसै।खुश् भै बताया तस ॥५।॥। “विस्तार बिन्ती गच्या.। आफ्नू स्वरूप झट् धन्या ॥सुग्रीवका पासमा ।क्द्याति आकाशमा ॥६॥छायाविषे राम् रह्या।जल्दी हनूमात् गया॥ जैसे सन्तों के हृदय जल के समान निमेल होते हँ, उसी प्रकार उस तालभै निमेल जल को देख अप्यन्त प्रसन्न हुए और आर्काषत हुए। कुछजलपान करके श्रीजगत्नाथ ने सारेवनको देखा। प्रभू जहाँ थे, वहाँसुग्रीव, ने भयभीत ,होकर देखा। ३ बालि का छ्ल,तो नहीं है, यहजानने के 'लिए-हाथ से इशारा करना और सज्जन हो तो देखकर हेँसदेना, ,यह कहकर सुग्रीव ने. ब्राह्वाण-पुन्न के छूप में हनुमान को उनके विषयमैँ 'यह पता लगाने के लिए कि उनके मन में क्या है, और इस प्रकारचारों ओर देखकर क्यो घूम रहे है ? यह जानकारी करने को कहा । ४,सुग्रीव ने जब हनुमान को यह आज्ञा दी तो हनुमान भी ब्राह्मण के पुत्नके रूप मै श्रीराम के समक्ष पहुँच्चे और नियमित रूप. से, प्रभुजी से समस्तकार्यो के विषय,. मे ज्ञान देने की विनती की। प्रभृजी ने भी प्रसन्नहोकर नाम तथ्रा कार्य के विषय मैं प्रणं-छूप से वताया । ५ हनुमान नेभी सुग्रीव के विषय में विस्तारपूवेक विनती की.। श्रीरघुनाथजी को ढोनेके लिए अपने वास्तविक रूप को धारण किया । राम-लक्ष्मण दोनों को ११४ बिस्तार् पायर आइ सुग्रिवजिलेहाँगा कोमल भाँचि आसन दियाआसन् सुग्रिवलाइ: लक्ष्मणजिलेलक्ष्मण्जीकन बस्ने आसन दियासब् वृत्तान्त बताइ लक्ष्मणजिलेसीता जुन् गहना खसालि गइथिन्हा राम्! लक्ष्मण! येति मात्न मुखलेजान्थिन् सब गहना फुकालिकन तागिर्न्या पाठ् सित पो खसालि ति गइन्कस्का हुन् यहि चीन्हि बक्सनुहवस्येती बिन्ति गरी दिया ति गहनाचीन्ह्या सब् गहना र शोक् बहुत भोरोया . छातिविषे धन्या र गहना लक्ष्मण् सुग्रिवले तहाँ प्रभुजिको : हे राम् ! रावणलाइ मारि सहजैहाजिर् हामि गराउँला हजुर्मा, भानुभक्त-रामोयण ० दशन् प्रभूको गच्या।आनन्दसागर् पच्या ॥७॥। द्रीया, “ हनूमानले--ताहीँ ठुला मानले॥विस्तार् सुनाया. जसै।हाजिर् गराया तसै ॥%॥बोलेर आकाशमा ।हाम्रा यसै वासमा) चिन्हीने याह्ीँ थियाँ।॥यै हो हजूर्मा दियाँ ॥९॥। देख्या प्रभूले- पनिहा! मेरि सीता भनी॥नाना विलापूले. जसै। दिन् खुश् गराया तसै॥ १०सीताजिलाई यहाँ । त्यो दुष्ट जाला कहाँ॥ ढोकर सुग्रीव के पास पहुँचने के लिए आकाश की ओर अत्यन्त तीब्र गति सेक्दे। गीघ्रता से पर्वत के शिखर पर पहुँच कर राम को छाया में रखकरहनुमान तुरन्त सुग्रीव को सूचना देने के लिए गये। विस्तारपुर्वेक समाचारपाते ही सुग्रीव तुरन्त ही राम के दशेनों के लिए आये और वृक्षकीशाखा को तोडकर आसन देते हुए आनन्द के सागर मैँ डूव गये । ६-७सुग्रीव को लक्ष्मणजी ने आसन दिया और लक्ष्मणजी को बैठने के लिएँहनुमानजी ने आसन दिया । लक्ष्मणजी ने जैसे ही विस्तारपूर्वेक साराहाल वताया, वैसे ही सीताजी द्वारा गिराये गये आभूपणों को सुग्रीव ने.प्रस्तुत किया । ५ आकाशन-मागं से जाते समय केवल हे राम ! हे लक्ष्मण!' सुँह से चीत्कार करती हुई, सीताजी ने अपने आभूषणों को उतार-उतारकर हमारे इसी तिवास-स्थान पर गिरा दिया था, ये वही चिन्ह हँ, यहकूपया पह्चानने का कष्ट करेँ। ९ इतना कहकर उन्होने गहने दे दिये। प्रभुजी ने भी उन गह्नो को भली प्रकार पह्चान लिया और अत्यन्तशोकाकुल होकर बोले ! हाय सीते, और गह्नो को वक्ष से लगाकर अनेकप्रकार से विलाप करते हुए रोने लगे । यह् देखकर लक्ष्मण और सुग्रीव'ने प्रभुजी को ढाढ्स वँधाकर उनके हृदय को शान्त किया। १० हेराम! रि “ ज्नेपाली-हिन्दी येती बिन्ति तहाँ ति सुग्रिवजिलेबोल्या, श्री हनुमानले पनि तहाँअग्ती साक्षि धरेर सुग्रिवजिलेबाहाँ जोरि सखा. भई नजिकमासुग्रीव्ले तहि बिन्ति बात् पनि गच्याबालीका डरले बहुत् दिन बित्यायाहाँ बालि त आउँदैन छ संरापूपायाँ बस्न, नहीं भन्या मकन ताबालीको बल बिन्ति गर्छु अहिलेक्रस्तै वीर हउन् लड्चा पनि भन्या ठूलो वीर् मयपुत्च दानव थियो बालीसीत लडाइँ गर्ने भनि त्योबालीले, पति दौडि. गैकन हहाँवाधा : पाइ डराइ भागिउ गयोबालीका पछि लागि मै पनि गयाँढोकामा त मलाइ राखि रिसले ११५रामूका हजुर्मा गप्या ।अग्ती त साक्षीधस्या।! १ १॥। “राम्थ्यै मित्यारी गरी । सुग्रीव् बस्या तेस् घरी ॥हे नाथू्! फजीती सही ।येसै जगामा रही ।॥१२।॥।मातङ्गजीको रे पो.कस्ले बचाँउँदथ्यो ॥जस्देखि सब् डदँछ्न् ।लड्न्या सबै मदेछन् ।। १३॥।मायावि नाऔँ' थियो।आयो र हाँक् खुपू दियो।॥हान्यो मुठीले जसै।'लाग्यो पछाडी तसै॥ १४॥राक्षस् गुफामा गयो ।फेर् भित्न जाँदो भयो ॥ हम रावण को सहज ही मारकर सीताजी को आपके ससक्ष प्रस्तुत करँगे,,व्रह दुष्ट कहाँ 'जायेगा । इतनी .विनती करके सुग्रीव राम के चरणों परगिर पड्डे , और श्रीहनुमान ने भी उसी समय अग्नि को साक्षी रखा। १.१अग्नि को साक्षी रख के सुग्रीवने राम के साथ मित्रता की शपथ ली ।अपने हाथों को जोडकर मिल्न के निकट जाकर सुग्रीव बैठ गया ।- सुग्रीवने पुनः प्रभु से विनती .की, हे नाथ! बालि के भय से अनेक कष्टों को सहनकर इसी स्थान पर रह: रहा हँ । १२ मातंगजी के शाप के कारण बालि यहाँनहीं आ सकता । यदि मुझे यहाँ रहने ,को न मिलता तो कौन बचा सकताथा; क्योकि,बालि की शक्ति को देखकर सभी भयधीत होते है। औरकैसा भी वीर क्यों न हो, यदि बालि से लड्डाई ठान ली तो यह निश्चित हैकि लइने,वाला मर जायेगा । १३ मय-पुत्त मायावी नामक एक वीररासक्ष बालि से युद्ध करने हेतु आया और बालि को ललकारा। बालिन्नेभी दौइकर उसे घुँसा मारा । अपने सम्मुख वाधा आयी देख, वह भयभीतहोकर भाग निकला और वालि उसके पीछे दौड्ा । १४ मैँभी वालिकेपीछे-पीछि गया और वह राक्षस गुफा के अन्दर चला गया । द्वार पर मुँझेरखकर क्रोधित होकर बालि अन्दर चला गया। एक मास व्यतीत होने ११६ भानुम्क्त-रामायण मैह्वा दिन् बिति गैगयो त पनि त्यो, फर्कन वाली . जसै।साह्वै दिक् म थियाँ कसो गुरँभनी आयो रगत् पो तसै ॥१५॥,लौ वाली त मरेछ हेरि रगतै आयो गुफादेखि ता।सैलाई पत्ति फर्कि माछै रिसले गुफा थुनी जाँ मता॥यस्तो बुद्धि भयो र पत्थर ठुलो ल्यायाँ ,र गुफा थून्याँ।फर्की आउन मनु गच्या पनि सहज् निस्की नसक्न् हुन्या॥ १६॥यस्ता पाठ्सित खुप् थुन्याँ रम फिन्याँ वाली मच्या लौ भनी।विस्तार् सब् ति सुनाउँदा मकनता राजा बनाया पत्ति॥राजा भैकन राज्य भोग् पनि गन्याँ ' क्यै दिन् पछि बालिता।राक्षस् मारि फिरेर” दाखिल भयो रीसाइ मैमाथि ता ॥१७॥।उस् दिनदेखि डराइ याहि म रह्याँ मेरी त पत्नी पनि।बलजफ्ती सित भोग गर्छे गरेँ क्या पुग्दैन जोर् तैपनि ॥याहाँ आउन सक् भये यहि पनी आएर . सार्न्या थियो।पापूको क्या डर मान्छ त्यो र बलले जस्ले बुहारी लियो ॥१८॥ साह्लै दुःखि भयेर सुग्रिवजिले बिन्ती गप्याको सुनी ।सुग्रीव्को अब दुःख हृदेखु भनी अन्तस्करण्ले गुनी ॥ पर भी वालि लौटकर नही आया। मैं किकतँव्य-विमृढु-सा होकरअत्यन्त चितित था कि देखा, द्वार से रक्त की नदी बाह्र की: ओर बहरही है। १५ .मैने सोचा, कदाचित वालि का बध कर दिया गया है, इसी-लिए गुफासे रक्त बह् निकल -रहा है। कहीं वह क्रोधित होकर मुझे भीनमार दे, इसलिए गुफा को बन्द करके मैँते चले जाने की सोची। यह सोचंकरएक बड्डा-सा पत्थर लगाकर गुफा को बन्दकर दिया, जिससे-वह लौटकरआने पर भी निकल न सके । १६ इस प्रकार गुफा को बन्द करके बालिको मरा समझकर मैं लौट पड्रा और यह सब वृत्तान्त सुननेके बाद मुझे यहाँका राजा बना दिया गया। राज-भोग करने के एक ही दिन: पश्चातबालि राक्षस को मारकर आ पहुँचा, और मुझ पर अत्यन्त क्रोधित हुआ ।१७उस दिन से भयभीत होकर मैं यहाँ पर रह रहा हँ, बालि मेरी पत्नी कोभी बलपूवंक छीन ले गया। क्या, कङँ, मुझमे कोई जोर नहीँ। यदिचह यहाँ आ संकता तो यहीं आकर मुझे मार डालता । जिसने बलपूर्वकअपनी बह्ग तक को छीन लिया, उसै पाप'का क्या डरहै ? १८ सुग्रीवकी ऐसी दुख-भरी विनती सुनकर अपने अन्तःकरण मैं सुग्रीव के दुखकोहरण करने का विचार करके प्रभुजी ने कहा, सुनो सखे ! उस बालिका नेपाली-हिन्दी : खातिर् श्रीप्रभुले गच्या सुन, सखे!तिम्रो राज्य गराउँला अब उपर्यस्तो सत्य वचन् सुन्या प्रभुजिकोशक्छन् क्या तब वालि मानेकन, ता.बालीलाइ ,बहूत,.वीर् बुझि तहाँबालीको अघिको पराक्रम कह्याएक् दिन् दुन्दुभि नाम , रासस् ठुलोबालीले सहजे निमोठिकन शिर्सोही फ्याँकिदिदा यहाँ गिरिगयोछीटा पने गयो. बहुत्' रगतकाबालीलाइ सरापू दिया अब यहाँशिर् जुद्दा, भइ पृथ्विमा गिरिगयास्यो मालुम् त मलाइ सब् अघि थियो ११७ त्यो बालि मारी' यहाँ।जोर् चल्छ तेस्को कहाँ॥ १९॥।शंका -पच्यो तैपनि ।ठूलो छ बाली भनी॥रामूका अगाडी सरी।बिल्कूल विस्तार्.गरी॥॥२०॥आयो र हाँक् खुपूदियो।छुट्ट्याइ हात्मा लियो ॥चार् कोश् जगामा जसै । . क्रषी रिसाया तसै ॥२१॥।- आइस्_,भन्या तै पनि जस्तै -गिच्यो यो। भनीसो जानि याह्रीँ- रह्याँ।: उस्लाई पति यो छयाद् तब मतेस् - सोही शिर् अझतक् छ पर्वेत सरी यो फ्याँक्न ..सक्नू . भया ।बाली माने समर्थ ताहि चिन्हुँला मेरा- त सेखी गया॥ वध करके मैं तुम्है राजा बनाअँगा, क्योंकि अब् यहाँ पर उसकी कोई शक्तिकाम नहीँ आयेगी । १९ प्रभुजी के ऐसे सत्य वचनों को सुनकर भी सुग्रीवके मन मैं शंका उत्पच्च हुई कि बालि तो भयंकर है, क्या प्रभुजी उसका बधकर सकेंगे ? बालि को अत्यन्त वीर संमझकर राम के सम्मुख खडे होकरबालि के पराक्रमों का सविस्तार वर्णन. किया । २० एक दिन, दुदु्मीनामक भयंकर राक्षस ने आकर- जोरों से'ललकारा । . वालि ने सहज हीउसे हाथ मे लेकर शरीर से सिर अलग करते हुए मरोड दिया और फेकदिया। उसको फेकने पर चार कोस भूमि' उसके शरीर' ने घेर लीजिससे भ्रूमि कम हो जाने पर क्रषि आदि क्रोधित हुए । २१ क्रषियों नेक्रोधित होकर बालि को शाप दिया कि यदि तुम यहाँ आओगे, तो तुम्हारेशरीर से तुम्हारा सिर अलग हो जायेगा, और उसी राक्षस की भाँति- गिर जांओगे । यह सव : बातेँ मुझे पहले'से ही ज्ञात थी, इसीलिए यहाँआकर रहने लगा हुँ, और उसे भी यह स्मरण है कि वह यहाँ जीबित नहींरहेगा, इसीलिए तो मैं उस वीर से वचा हुआ हुँ । २३ वही सिर अभीतक पर्वत के समान यहाँ पडा हुआ. है, और यदि इसे फेक सकते होतोबालि का वध करने की सामथ्ये को पह्चाबूँगा। मैतोहारखा चका। वीर् देखि,बाँचूतो भयाँ॥२२॥। ११५ भानुभक्त-रामायणे यी बात् सुग्रिवका सुनी झलक यूँफ्याँक्या शिर् तहि पाउका अँगुलिले देख्या सुग्रिवले तथापि मनमासक्छन् क्या तब वालि मानेकन तासात् ताल् वृक्ष इ छन् इ एक शरलेसुग्रीवका मनमा भयो र्इ कुरीहे नाथू ! बिन्ति म गदेछ् अरु पनीयेही शिर्कन फ्याँ कि मात्र मतलेवालीले यहि ताल बुक्षकन' ताहल्लाएर खसालिदिन्छ जति छनूँई ताल् वृक्ष पती यहाँ हजुरलेसब्मा छिद्र गराइबक्सनु हवस्!येती बिन्ति तहाँ ति सुग्रिवजिलेःरामूजीले पनि लौ भनेर खुशिललेबाण् फ्याँक्या प्रभुले र वेग् सित गयो थिनूलाइ भन्त्या: भयो|चालीस कोश् तक् गयो॥२३॥शंका त फेरी रह्यों।,'ठ्लो छ भन्या भयो।॥।छेड्छन् त माछ्न् भनी।'सब् थोक्: सुनाया पनि॥२४।॥।यस्तो, छ वाली भनी ।. मानने विश्वास् पनिबुटै " बराबर् गनी।सम्पूण पत्ता'पनि ॥२ शोएक् बाण ऐले धरी। बुझ्न्या छ मन् खुप् गरी ॥।रामथ्यै जसैता:गच्या।हात्माधनुष्वाण््धच्या ॥२६॥सात्' ताल भेदन् गरी।' प्वेत् भूमि समेत् विदारि पर गो सामूने त सब् साफ् गरी ॥ यह सुन प्रभु ने उसे अपने पराक्रम का परिचय देने की सोची और अपनेपाँव की उँगली से उसके सिर को धकेल दिया, जो चालिंस कोस दूरजापहुँचा । २३ सुग्रीवने यहसव कुछ देखा तथापि उसके मन में पुनः शंका उत्पन्चहुई; क्योकि वालि महावली है, उसे मारना फिर भी सम्भव,नहीँ । साततालवृक्ष जो यहाँ हँ इन्है एक सर से गिरा देता है। ऐसेवीर को मारने,की वात ने सुग्रीव के मन को चिन्तित किया और उन्होँते सव कुछ रामसे कह सुनाया। २४ हे नाथ ! बालि के इसी प्रकार के और भी बहुतसे पराक्रम हँ जो मै आपको सुनाता छुँ। यह सिर फेक देने मात्न से मेरेमन में विश्वास नहीं हुआ, क्योकि वालि इन ताल वृक्षों को छोटे पेडके समान समझकर हिलाते हैँ और सम्पूर्ण पत्ते गिरा देते है। २५ अतःझ्न तालवृक्षां को आप भी एक बाण द्वारा छेदने की क्रृपा करेँ, तब मैँअपने को सन्तुष्ट कर लूँगा। सुग्रीवने जैसे ही रामसे यह विनतीकीराम ने भी तुरन्त प्रसन्न होकर हाथ मैं धनुष-वाण ले लिया । २६ प्रभुद्वारा. छोडे गये वाण अत्यन्त तीब्र गति.से सातो तालवृक्षों को छेदते हुएपर्वेत-भूमि सहित काटकर सामने की सव भ्रूमि साफ करने के पश्चात्पुनः तरकश मै लौट आये । यह देखकर सुग्रीव को वड्डा आश्चयं हुआ । नेपाली-हिन्दी' ठोक्रैमा फिरि आइ बाण् जब पच्योसाक्षात् श्रीपति हुन् भनी चिन्हि तहाँहे नाथ्! बल्ल चिन्ह्याँ अहो सकलका,'मायादेखि फरक् “भयो. अब त मन्क्या गर्छु अब पुत्र दार धनलेमेरा सब् 'दश इन्द्रिय हजुरकायै पाठ्ले जब ता गन्या स्तुति तहाँयो ज्ञान् आज नदूँ भनी प्रभुजिलेमायाले अनि मोह पारि रघुनाथ्सुग्रीव् मोह भया वचन् सुनि तहाँहे सुग्रीव. सखे ! . मलाइ दुनियाँकुन् चीज् सुग्रिवलाइ दीकन गयायो लोकको अपवाद् म मेट्छु अब ताताहाँ गैकन हाँक देउ तिमिलेऐले. राज्य गराउँछ भनि तहाँसुग्रिव् खुशि ' भयेर वालिकन खुपूकिष्किन्धा पुरिका नजीक वनमा 'हांक्या ११९ सुग्रीवजी छक् पच्या।रामू को स्तुती खुप्गज्या ॥आत्मा जगत्चाथ् भनी ।लाग्दैन माया .. पत्ति ॥सम्पूर्ण ई ' दुर् हउन्।सेवा टहल्मा रह्न् ॥२०॥सुग्रीवको सो सुनी।'अन्तस्करण्ले गुनी ॥हाँस्यार बोल्या जसै।उ ज्ञान बिर्स्या तसै ॥२९॥।भन्नन् मित्यारी गरी।आपत्ति तिनूका हरी॥बाली छ ऐले जहाँ।त्यो बालि माछ् यहाँ॥३०॥।राम्को हुकुम् भो जसै।वचन्ले तसै॥आयेर हाँक् खुप् गरी।. सुग्रीवृजी जब ता चल्या बुझि खबर् वाली छुट्या तेस् घरी॥३ १॥। साक्षात् श्रीपति राम को पह्चान कर उनकी नियमपूर्वक स्तुति की । २७हे नाथ ! सकल संसार की आत्मा श्रीजगन्चाथ ! अब मैँते आपकोपह्चाता । माया के कारण विचलित मेरा मन भी अबनहीं स्थिरहै।माया-मोह लेकर अब मै क्या कसँगा । पुत्न एवं स्त्ी-धन से मुझे द्रूरहीरवरखे। मेरी दसौं इन्द्रियाँ आपकी ही सेवा-टहल मै समपित रहेँ । २८जब इस प्रकार की विनती राम ने सुनी तो'इस विचार से कि अभी आजयह ज्ञान न देना ही उत्तम होगा, माया-मोहपूर्वेक हंसकर बोले औरसुग्रीव उनके मोहपूर्ण वचनों को सुनकर अपना सारा ज्ञान भूल गया । २९हे सखे सुग्रीव : संसार कदाचित् यह कहे कि मित्रता करके आपत्तियोंका हरण कर सुग्नीव को कौन सी चीज सौंप गए हैँ। इंस लोक-भपवादको मैं मिटाता हँ। अव तो जहाँ बालि है वहाँ जाकर तुम ललकारो,मैं उसका वध-करंगा । ३० जैसै हीरामने यह कहा कि तुम्हँ राज्यदिलवाउँगा वैसे ही सुग्रीव ने प्रसञ्च होकर बालि के पास जाकर उसे जोरोंसे ललकारा । किष्किन्धापुरी के निकट वन में आए सुग्रीव की ललकारको सुनकर और सुग्रीव को पहचानकर बालि भी वहाँ आ गया । ३१ १९० वाली सुग्रिवको लडाइँ पनिभोसक्थ्या सुग्रिवले कहाँ सहजमाबाण् छोडीकन वालिलाइ अबताएक् क्षण् ता यहि आशले टिकिगया बाली सुग्रिवको दुरुस्त अनुहार वाण् थाम्या टिकिसक्नु मुशकिल भईपौंँच्या श्रीरघुनाथका हजुरमाबल् तोडीकन् वालिले हरिलियोसुग्रीव्ले तहि बिन्ति खुपूसित गञ्यामानेको यदि मन् छ पो पत्ति भन्याआफैँले यहि मारिवक्सनु हृवस्शबलाइ लगाइ माने त उचित्सुग्रीवूका इ वचन् सुनी , गहभरीसुग्रीवजीकच अङ्घमाल गरि खुपूहे सुग्रीव सखे ! दुरुस्त अनुहार् भानुभक्त-रामायण सुग्रीव एक् क्षण् लड्या ।वालीक विरलै धर्या॥मानेन् प्रभूले भनी।घुस्सा दिदामा पनि ॥३२ ॥एक्र देखि रामले जसै।,सुग्रीव भाग्या तसै॥काम्दै र, छाहै रगत्।एक्, देह पौंच्यो फगत् ।॥३३।॥।हे नाथ् ! .मलाई यहाँ।जोर् चल्छ मेरो कहाँ॥ख्वामित् ! हजूरले पनि।हो क्या सखा हो भनी॥३४॥आँसू प्रभूले धच्या।खातिर् प्रभूले .गग्या ॥एक् देखि शंका भयो। बाँचेर वाली 'गयो ॥३५।॥। मनन् मित्न भनेर पो डर हुँदा बालि तथा सुग्रीव-का युद्ध कुछ क्षणो तक हुआ। वालि के सामने सुग्रीवक्या कर सक्ताथा। वीर वबालिने वड्डी सरलता से उसे पकड लिया।इस आशा पर कि.अभी प्रभु बालि को वाण-प्रहारकर- मार डालेंगे, सुग्रीवकुछ क्षणों तक घँसा मारने पर भी सहन कर टिका रहा। ३२ बालिऔर सुग्रीव दोनांका ही एक ही रूप देख प्रभु ने अपने वाण को रोकलिया। परन्तु सुग्रीव के लिए अब अधिक टिकना अत्यन्त कठिन होगया, अतः वह वहाँ से .धाग-निकला और काँपते हुए वमन करता हुआश्रीरधुनाथ जी के पास पहुँचा। बालि ने सुग्रीवकी शक्ति का हुरणकरलिया और केवल उसका शक्तिहीन शरीर ही-वहाँ तक पहुँचा । ३३सुग्रीव ने अत्यन्त व्यग्न होकर प्रभु से विनती की, हे नाथ ! यदि मुझे मारडालना- चाहते हँ तो आप स्वय मार डालें। मेरा अपने पर कोई वशनहीं। स्वामी ! क्या अपने मित्न-को इस तरह शत्नु के हाथ: सेःमरवाडालना उचित होगा । अंच्छा हो यदि उस शत्रु के हाथ; से न मारा जाकरमै आपके हाथों मारा जाऔँ ।-३४ सुग्रीव के इन बचनों को सुनकुर प्रभुद्रबीभूत होकर वड्रे ढुःख से आँसू वहाने लगे ।. अत्यधिक स्नेह से भरकरउन्होने सुग्रीव को अपने आलिंगन मैं भर् लिग्रा और बङ्गे आदर से कहा,हे सखे सुग्रीव ! तुम दोनों का एक-सा रूप ,देखकर मैं शंका से भर गया,
तेपाली-हिन्दी चिह्वो देह विषे (धरेर. अहिलेवालीलाइ- म मारिदिन्छु सहजैयस्ता बात् गरिखुप् शपथपनि गण्याआज्ञा लक्ष्मणलाइ बक्सनुभयोसो, माला - पहिराइ भाइ तिमिले हाँक्: दीउन् अब वालिलाइ अहिले: लक्ष्मण्ले पनि यो हुकम् सुत्ति तहाँत्यो, माला -,पहिरेर सुग्रिव गयावालीलाइ सुनाइ हाँक् बहुतदीवालीले पनि शब्द सुग्रिवजिकोआश्चर्य मनमा भयो अघि भन्या वालीले पत्ति फेर् कछाड् कसि तयार् १२१ जाञ र :हाँक् देउ फेर्।लाग्दैन ऐले त बेर्॥ सुग्रीवको मन् भरी।फूल् ल्याउ माबाधरी ॥३६।॥।जल्दी . पठाञ, तठहाँ। मार्छु सम छोड्छू कहाँ॥ माला लगाईदिया । -वाली जहाँ वीर् थिया॥३७।। - सुग्रीव् बस्याथ्या जसै ।सुच्या र उठ्या तसै॥ 2 _कठ्यो पछी रिस् अनि।“मुक्का ख्वाइ लगारियो, तपनि फेर्.. फर्क्यो भगुवा पनि ।॥३८॥।भै जान लाग्या -जसै। ताराले त नजाउ यस् बखतमाकोही वीर् बलवान् सहायं मिलिंपो,साहायै नभया त येहि घडिमा भन्दै समातिन् तसै॥सुग्रीव आया यहाँ।सुग्रीवं फिर्थ्याकहा ॥३९॥ और शत्नु की जगह कहीं मित्र का ही बध न हो जाय इसी डर से मैने प्रहारकरना रोक दिया' और बालि बच गया। ३५. अपने शरीर पर कोईचिल्व धारण करके. जाओ और फिर से बालि को ललकारो। मैं बालिको सहज ही मैं मार डालुँगा। 'आँज इस कार्य मे कोई विलम्ब नहींहोगा । ' ऐसा कहकर सुग्रीव को आशवांसन दिया और उसके सामने इसकार्य की शपथःली । फिर लक्ष्मण से'बोले कि एक फूलों की माला बनालो। ३६ यह माला ःपहनाकर सुग्रीव को वहाँ भेजो। 'अब बालिकोजाकर वह ललकारे ।, ' मैं इस बार उसे नहीं छोड्ँगा, अभी मार डालुँगा ।राम की यह् आज्ञा सुनकर लक्ष्मण ने सुग्रीव ' को माला 'पहना दी औरसुग्रीव वह माला ' धारण किये हुए बालि के“पास गया । ३७ बालिकोललकार कर जैसे सुग्रीव बैठा होथाकि बालि भी सुग्रीव के शब्दोकोसुनकर उठ बैठा। पहले-तो 'बालि 'आश्चयं मैं ड्ब गया, लेकिन फिरतुरन्त ही क्रोधित होकर बोला कि मुक्का खाकर और इस प्रकार खदेडेजाने पर भी वह फिरकैसे लौटकर आया है । ३० वालि भी कमर कसकरलड्ने के'लिए तैयार होने लगा। पर तारा ने उसे 'इस समय न जाओ'ऐसा कहकर रोक लिया। निश्चय ही किसी वीर का सहयोग पाकर हीसुग्रीव यहाँ आया है। यदि कोई सहारा न होता तो सुग्रीव इसी समय १२२ भानुभक्त-रामायण ताराका -इ वचन् 'सुनेर,,बलवान्ः वीर् 'वालि बोल्छन् तहां.। ह्ेप्यारी ! नडराउ को छमसरी वीर् .आज दोस्रो ' यहाँसुग्रीवलाइ सहज् सहाय सहितै. ,मारेर. /फिर्न्या म 'छु॥वीर छूँ हाँक दिदा कसो गरि वसूँ “शङ्का नमान्या कछु ॥ ४०वालीका इ वचन् सुनीकन तहाँ:' 'ताराजिले (फेर पति। भन्छिन् नाथ्! कैछु सूनि बक्सनुहवस् ' क्र्या 'भन्दछे : योः भनी -।बिन्ती गर्छु म हित् कुरा. हजुरमा “सालषात्” _, अयोध्यापतिश्वीरामूचन्द्र। संहाय - छन्, अब तँहाँ चल्दैन जोर् एक् रती॥ ४१सुंग्रीव्सीत मित्यारि लाइ रघुनाथ् ' ज्यूले - पिछामा - लिया ].वाली मारि म राज्य आज दिउँला भन्न्या वचन् यो दियो ॥भन्त्या बात् अरुमा हुँदा“ बनमहाँ , सूनेर, ..अङ्गद् _ यहाँ ।आई सब् इ कुरा: मलाइ ,अघि नै ' भन्थ्यो न जा तहाँ॥४२१।सुग्रीव्सीत विरोध नराख' तिमिले, “जाड. र, ल्याक यहाँ.यो राज् सुग्रीव्लाइ देउ-अब ता -जित्, छैन. तिम्रो : तहाँ ॥श्वीराम्का _दुइ पाउमा, पर तिमी ' गर्ननू -प्रभूर्ले . दया.1.साँचा हुन् इ कुरा बुझी लिनु हंवस् भोग् गर्ने इच्छा भया॥४३।|.कसे लौटता । ३९ तारा के. ऐसे वचनों कोसुनकर-वलवान वीर बालिबोला,:हे प्यारी, डरो मत ।-: मेरे: समान्;वीर आज. यहाँ- और कौन है?सुग्रीव को उसके सहयोगी-सहित आज मार कर ही: मैं :आअँगा '-सैँ वीरहुँ । शल्ु के ललकारने पर“मैं क्रिस प्रकार,: बैठा, रहँ:?:- अतः "तुम; शंकीमत् करो,। ४० ; बालि के.इन बचनों क्रो- सुनकर। तारा, पुनः-कहती है--हे चाथ-३ यूह (दासी) क्या कहती है,'कुछःतो सुनने'की कृपा करे॥; पै(आपके.और) ,अपने हित की बात; कहती, हँ अयोध्यापति “साक्षात्"श्रीरामचखजी -सुग्रीव-, के सहायक हैं, -अत:- अव-तो 'कुछ भीबशे नरहीचलेगा !-४१ सुग्रीव-के संग मित्रता करके रघुनाथ: जी ने बालिःका वधकर राज्य दिलाने का बचन् दिया है; और यह, बात'वैन' "मै औरो के-मुँहसे सुनकर अंगद: ने. पहले ही आकर मुझे , सूचित, किया है; और इसीलिएपह्ले-भी -मैँने, आपको वहाँ जान्नेत्से:रोका था 1०४२ -:,औप, "सुग्रीव.के:साथगब्नुता-न. करे जाइए और उन्हेँ यहाँ ले आइए:आप:' उनसेः.-जीत नहीसकते । -- अव. यह- राज्य सुग्रीव को सौंप दीजिए-।:- -जाकर “श्रीराम/जीके चरणों. मैं पडे,, वे प्रभु निश्चय -ही- दया करेगे, ।-; यब्रि 'जीवन -कीड्र्च्छाहोतोइन वातों को सत्य समझने की कृपा करेँ। 0४३1: यह-वि्तेती नैपाली-हिन्दौ ' १२३ येर्ती, बिन्ति ; गरेर" पाउ' दुइमा पक्रेर '.रोइनू' जसै ।तारालाइ- बुझाउनाकन, तहाँ फेर् बालि बोल्या तसै॥हे प्यारी !, नडराउ कत्ति. रघुनाथ . साक्षात् (रमाका पति। नारायण भन्नि चिन्दछु म पनि:सो' नाथ् हुन् जगत्का'गति॥ ४४ताहाँ छन् रघुनाथ्ू भन्या चरणमा' पर्त्याछु' चाँड, ' वहाँ। सुग्रीवै: छ फगत् भन्या . सहजमा : 'मार्न्याछु छांड्छू कँहाँ॥।सुग्रीव् कुन् बलियो छ..पाजि भगुवा ' त्यो लड्न मन्सुव् लिन्या । तेस्-पाँजीकन, डाकि... आज. कसरी- यो राज्य मैले दिन्या।॥४५१।तस्मौत् शोक् नगरी बसीरहु तिमी - जान्छ, म, ताहाँ” भनी । लड्नैलाइ केछाड् कसीकन. तयार् ,;भै बालि दौड्या - पनि ॥बाली सुग्रिव दुइ भाइ रिसले फेर् लड्न लाग्या जैसे-4 रूखको आड गरी तहाँ प्रभुजिले एकूबाण छोड्या, तसै ।॥४६॥।वाण् बज्च्यो जब बालिका हृदयमा सर्वाङ्ग बाधा गरी। पृथ्वी कम्प.गराइ झट् -तहि गिच्या वीर् वालि मुर्छा परी ॥॥मूर्छा दुइ घडी पन्या पछि अलिक् चैतन्य आयो जसै। देख्या.. श्रीरधुनाथलाइ ,खुशि भै साम्ने-.बस्याका तसै॥४७॥।.भन्छन् श्रीरघुनाथलाइ रघुनाथ् |, , तिम्रो; बिराम् क्या गच्याँ॥ धर्म छाडि लुकेर आज:-तिमिले , माच्यौ,' म ऐले मच्याँ॥कर; 'दोनों पाँव पकड्कर रोती हुई तारा को समझाने के_ लिए बोलि पुनबोला;--"'हे'प्यारी ! तुम किचित्मात्न भी भयभीतन हो। साक्षात् रमाके पति 'जगत्-पति नारायण रघुनाथ को मैं भली प्रकार पहचानता छुँ । ४४यदि रघुनाथ वहाँ होंगे तो मैं तुरन्त उनके चरणों मैं पड् जाञँगा और यदिकेवल सुग्रीव ही अकेला होगा तो उसे नहीं छोडँगा, सहज ही मार डालुँगा |सुग्रीव कौन ऐसा बलवान है,' भगोडा कहीं का ! मुझसे युद्ध करने कीइच्छा करता 'है!' उस (दुष्ट को बुलाकर मैं किस प्रकार् यह राज्यसौंपूँ ? ४५ इसलिए शोक न करो ! तुम यहीं बैठी रहो, मैँ बहाँ जाताहँ यह कहकर लड्ने के .लिए लँगोट,कसकर तैयार हो बालि दौडपड्डा । ' वालि-सुग्रीव दोनों भाई क्रोधित हो पुनः ग्रुद्ध करने लगे । वैसेहीपेड की आइ से प्रभु ने एक बाण छोड । ४६ 'जँसे ही राम का बाण,वालि'के हृदय में, सर्वाग को छेदता हुआ टंकराया, पृथ्वी ' मैँ' कम्पन हुआऔर बालि मूच्छित होकर तुरन्त वहीं गिरि पड्गो। .दो घडी मूछ्ति रहनेके पश्चात् वालि'को जैसे ही. थोडी चेतना आई, 'वैसे ही श्रीरघुनाथ कोप्रसञ्चचित्त सामने बैठा ' पाया । ४७ : बालि ने श्रीरघुनाथ जी से कहा १२४ यो क्या क्षत्रिय धर्मे हो लुकिलुकीक्षक्ती भैकन धमे छोडि लड्न्यासाम्ने भैकन बाण छोडि तिमिलेसुग्रीवृहो कति साख् म छ कति कुसाख्सीता रावणले हच्यो भनि बढह्ुत्सुग्रीव्लाइ सहाय ली मकन तामाप्यौ यो अति चुक् भयो गरँकसोरावण््लाइ कुलै समेत् ' सहजमा लङ्का पूरी समेत् पनी म बलले: पाजी रावणलाइ माने तिमिलेचोरी मारि लिदा न यश् हुन गयो धर्मात्मा तिमि पापि झैं हुन गयौ भानुभक्त-रामायण वीर् वाँण छोड्छन् कहीं, ।एक् आज ; देख्याँ यहीँ।॥४८॥माथ्यौं त खुप् यश थियो।हादैव ! क्या मन् दियो॥सन्ताप मनूले गरी।लूकेर चोर् झैं गरी ॥४९॥। बाँच्थ्याँ त याह्रीँ बसी।झिक्थ्याँ म पाता कसी ॥झिक्थ्याँ सहज््मा यहीं।क्या जानुपर्थ्यो उहीँ ॥५०॥। -मासू न खानू भयो। ज्यानू व्यर्थ मेरो गयो ॥ वालीका इ वचन् सुनेर रघुनाथ् , भन्छन् तँ बोल्छस् कति ।वाली हुँ भनि गर्व गर् त पनि हेर् _ साँचै तँ होस् दुमति॥॥५ १॥। हे रघुनाथ ! मैँने आपका क्या बिगाड्रा था। धम को त्याग कर आजआफ्ने मुझे छिपकर मारा और मैँ अब मरा। क्या वीर के लिए, छिप-छिपृकर बाण प्रहार करना कोई क्षत्िय-धम है। क्षत्विय होतेहुएभीधम को त्यागकर लइनेवाले को आज ही मैँने देखा । ४5. सामने- आकरबाण छोडकर यदि तुम मुझे मारते तो यशकी बातथी। मसुग्रीव कितनेसज्जन हैँ और मैं कितना बुरा हूँ ।.- ह्वा दैव ! यह कैसा हृदय: है । सीताको रावण-द्वारा हरण करने पर अत्यन्त सन्तापग्रस्त होकर सुग्रीवसेतोयह सहायता ली और मुझे छिपकर चोरों की भाँति मारा । ४९ भयंकरभूलहोगई। क्या कर्खै! यदि बच जाता तो यहीँ रहकर रावणकोउसके सम्पूण कुल-सहित, सहज ही में बँधवाकर यहाँ प्रस्तुत करता। मैंअपनी शक्ति से सरलतापू्वंक लंकापुरी, सहित उसे यहाँ उठा लाता।दुष्ट रावण को मारने के लिए तुम्हँ वहाँ जाने की भी आवश्यकता नहींपड्ती । ५० मरते समय बालि कहता हैकि चोरी से यो मारने से कोईलाभ नहीं हुआ ।, न तो तुम्हँ ही यश प्राप्त हुआ न मेरा माँस ही किसीकाम आया । तुमने छिपकर मुझे मारा इसलिए मुझे मारकर, भी तुमधर्मात्मा नहीं, पापी के समान हो। वालि के-इन वचनों को सुनकररघुनाथ कहते है--“चाहे भले ही तुम बलिष्ठ होने का गवै करते हो फिरभी तुम ढुमेति से युक्त हो। ५१ तुमने किचित्मात् भी पापका भयनहीं वैपाली-हिन्दौ . ११५ पापको डर् रतिभर् नराखि तईँले खुश् भै बुहारी हरिस् ।सोही पाप् अहिले प्रकट् हुन गयो तेस् पापले पो मरिस् ॥धर्म स्थापन गर्नेलाइ त यहाँ औतार मैले लियाँ।धमैं जानि अधमे ठानि अहिले तलाइ मारीदियाँ ॥५२॥।श्रीरामूका इ वचन् सुनी: प्रभु भनी जानी चरणूमा पच्या ।बानर् हूँ रघुनाथ् ! क्षमा गर भनी. हात् जोरि बिन्ती गन्या ॥नामोच्चारणले ' फगत् सहजमा' संसार सागर् तरी।ख्वामित् ! जान्छ हजूरमा,अव भन्या मैले त दशन् गरी ॥५३।.पायौँ मनै'म भाग्यको कति बर्खान् मेरो सम ऐले _ गर्छै।को पाउँछ- हजुरलाइ भगवान् ! मर्न्या बखतूमा अरू॥मेरो ता गति यै थियो मिलिगयो जान्छू परमूधाम् मता।अङ्गद्माथि दया रहोस् हजुरको हाजिर् छसेवक् उता॥ ५४॥। मेरा छातिमहाँ छ बाण् हजुरको यो खेँचि छोईदिया । शीतल् देह हुने थियो सहजमा प्राण आज जान्या थिया ॥बालीका इ वचन् सुनी प्रभुजिले वाण् झीकि छुँदा भया । ठाकुर्का अगि देह् छाडि खुशि भै बाली परस्धाम् गया॥५५॥।किया और प्रसन्नतापूर्वेक अपनी वह का हरण किया। तेरा वही पापअब प्रगट हुआ है और इस 'प्रकार मृत्यु को प्राप्त होरहाहै। धमे-स्थापना के लिए ही मैँते यहाँ अवतार लिया है और धमं-अधमँ दोनोंकाविचार करके ही मैने तुम्हारा इस. समय 'वध किया है। ९२ श्रीरामकेइन वचनों को सुनकर, उन्हेँ प्रभु जानकर बालि तुरन्त ही उनके चरणौं मेंगिर पड्गा और बोला, दै रघुनाथ ! मैं वानर ह' यह कहते हुए हाथजोइकर क्षमा-याचना करने लगा । प्राणी केवल आपके नामोच्चारण सेसहज ही में संसार-सागर तर जाता है । फिर मैँते तो अन्त समय मैं आपकेदशैंच कर लिए है, अतः हे स्वामी अब मैं बैकुण्ठलोक को जाता हँ। ५१३हे भगवन् ! मैं कहाँ तक आपकी सराहना कङैँ। मुझे आपके हाथोंमरने का अवसर प्राप्त हुआ । मृत्यु के समय आपको कौन पा सकताहै। मेरीतो गतियही थी कि मै आपको न पाता । लेकिन मैने तोआपको पा लिया । अब मैं परमधाम को जाता ठूँ। अंगद के उपरआपकी कृपा दृष्टि बनी रहे, वह आपके सेवक के रूप मे तत्पर है । ५४मेरे वक्ष पर आप्के वाण हैं, आपके करकमलों से इन्है बाहर खीचकर स्पशेकर् देने से मेरी देह शीतल हो जायगी और प्राण सहज में तिकल जायेगे । १२६वालीका सँगमा थिया जति तहाँ ताराजी.' सित गै, वहाँ सब हवाल् ' राम्जीले लुकि बाण छोडि सहजैसुग्रीव् मंब्रि समेत् बहुत् खुशि भईयो राज्, अङ्गदलाइ वक्सनुहवस्बस्छौं 'जल्दि हुकूम् । हवस् हजुरकोयेती,' बिन्ति गच्या र वबानरहरूहक्म्' साफिक, काम गर्नै भनि सब् बालीको परलोक् भयो . भनि खबर् हा ताथ् ! आज कत्ता गयौ भनि बहुत्, क्या, गर्छु अब, पुत्न राज्य धनले, वालीको परलोक भयो सहि जगा, भानुभक्त-रामीयण -बानर् ति भागी गया.। ' विस्तार गर्दा - भया॥'वाली: 'त मारीदिया।रामूकै हज्रैमा थियो॥५६।॥। ढोका., छ्ाहरको थुनी॥क्या हुन्छ धेरै गुनी॥जल्दी ; तयारी भया। वाचर् खडा भै रह्या॥५७।सूनिन् र तारा सँ दै।बिह्वल् , निरन्तर् .. हुँदै ॥भन्दै, ति “तारा,' जहाँ।सोधेर पौंचिनू तहाँ ॥१५५।॥। बालीकोभन्छिन्मारीदेउखोज्छन् दुइ पाउ पक्रि बहुतै छँदी विलाप् खुप् गरी।श्रीरघुनाथलाइ रघुनाथ फेर् वाण ऐले धरी ॥'मंलाइ जान्छु म पनी मेरा पतीका सँगै॥स्वर्गंविपे मलाइ पतिले काहाँ म वस्छ् नगै ।॥५९।। बालि के इन वचचों को सुनकर प्रभू प्रसन्न होकर वाण चिकालकर बालिका गरीर छु देते हुँ, जिससे वालि प्रभू के: समक्ष प्रसन्नतापूर्वक देह त्यागकर परम-धाम चला गय्रा। ९१५ वालिके मरने के वाद वहाँ (वालि पक्ष के) जिंतने, वानर थे सव भाग गए और तारो के पास जाकर साराहाल कह सुनाया कि राम ने (किस प्रकार) छिपकर वाण-प्रहार करकेबालि को मार डाली ।' सुग्रीव अपने मंत्वी-सहित अत्यन्त हपित' हो ' वहींश्रीराम के पास वैठे..हँ । ५६ . .हम लोग शहर के द्वार को बन्द करःदेगे ।आप यह राज्य अंगद को सौँपने कीः क्रपा'करे। गीत्र ही आदेश देनेकी .क्पा कर, अव अधिक विचार करनेसे क्या होगा'। इस प्रकार विनतीकारके सव वानर तत्पर हो गए; आदेशानुसार सब वानर काय करने कोखडे हो गए । १७ बालि के देहावसान होने की सूचना सुनकेर तारारोती हुई अत्यन्त विल्लल हो विलाप ,करती है--“ हि नाथ ! आज आप कहाँ'बले,गये ?,1 मैं अव पुत्-धनादि -लेकरः- क्या कङंगी॥”: यह “कहती हुईतारा उसी स्थान पर पहुँची जहाँ वालि का देहाव्रसान' हुआ था । १६बालि के दोनों चरणों को पकड कर रोती और अत्यन्त विलार्प करती' हुईतारा कहती है-- है रघुनाथ,; मुझे भी बाण-प्रहार' कर मार डाले । मैं;भी अपने पतिके साथ जाउँगी॥ मेरे पति मुलने 'स्वग भै ढुँढंगे, अतः मै '
' नेपालोःहिन्दी ' पत्नी सीत वियोंग् हुँदा यति विलाप'मालुम् सब् त तेही छ फेर् म भनुँक्यापत्नीदान् गरि पुण्य हुन्छ जतिसो:'तस्मात् आज! अवश्य हान शंरलेयेती बात् अघि' रामसीत गरि _फेर्भन्छिन् लौ गर राज्य ओज खुशिलेताराका.'ई' वचन् सुनीकन बहुँत्तारालाइ " बुँझाउनाकन तहाँ हे ताराजि, विच्रार् नराखि तिमिले 'पदन“मिल्त्याछ पुण्यै “पनि । -मित्ले १२७ हँदा 'रह्याछ्न् “भनी ।भन्नू" ' पत्ति जावस् पतीथ्यै भनीसुग्रीव् - जिलाई पनि ।'दियाक्रो . भनीआयो प्रभूमा' दया ।एक तत्व भन्दा भयो॥६१।। शोकै कती , गदेछ्यौ । यो मेरो पति हो. भनेर -नबुझी- ग्यर्थै शरीर्, हर्देछ्यौ ॥जीवैःहो पति -भन्दछ्यौ--पति,भन्या . मर्दैन - जीव् - ता-. पकहीँ । देह हो पति भन्द्रछ्यौ त किन शोक् गछ्यौं छ ञ ता-यहीं।॥६२॥। श्रीरामूका इ: बचन् 'सुनीकन,तहाँ :-ताराजि ।चुप्. भै. रहिन् ।जुन् सन्देह .'पथ्यो: वहाँ ज्मन्नमहाँ,. सो, मात्न , सोद्धी “भइन् ॥हेनाथ् !!मिजि भयो- सुन्याँ सब कुरा ।: बुझ्दैति, मनु'/ तैपनि ।सन्देहै ! मनैमा? रह्योः"मकन -ता::-कोगछेँ यो भोग् भ्त्तीत।६३।॥। कैसे यहाँ रह् सकती छुँ? ५९ पत्नी-वियोग में कितनी पीडा होती हैयह सब आपकी ज्ञात : है।'1अंत; इस. विषय मैं: और मैं आपक्रोक्या “कङ्री "पत्नीदान करने पेरे जी कुछ (पुर्ण्य प्राप्त होता“हैवही' सब ।पुण्य 'आपको प्राप्त 'होर्गी॥; '“इसीलिए 'आप ' अब ,अवश्यैही बोणप्रहार केरे, जिसँसे' मैं पति-के पासःशीत्न' पहुँच जाँझँ।'? ६5राम से “इतनी बार्त कहने के' बाद तारा पुर्ने: सुग्रीव'से बोली---“आजप्रसंच्चे होकर' आफ्ने मित्न'के दिए हुए /राउँय-को भोश,कर ' लो॥” ।ताराःकेइन वचेनो को 'सुनकर प्रभु को अत्यन्तै दया आयी अतः 'तारा को समझानेके लिंए' एक तत्त्व “केह: सुँनाया । ६१ “तारा ! तुम विना विचारेँहीशोक 'केरती हो ॥ :' इसे अपनो पति कहेकर व्य, ही अपनेः शरीर कोःकण्टदेती हो।' यदि ओत्मा/को ही पति कंहेती हो तो आक्मो ।कभीःनहीं'मरतींऔर यदि 'शरीर ही को पति कहेती: हो तो व्य्थै- शोक क्यो केरती हो, वेहतो यहीँ पँडा है।” ६१' श्रीरामजी के इन वचनो को सु्नकेर तारीँ 'चुपँहो गई । जिस् बात कां'सँदेह हुआ-केवल वही बात पृछी-- हे नाथ? आपैनेसंव'कुछ सुनाया “फिर भीः मेन नहीं मानती' है ॥।” यदि मेरे 'मने मै संदेहँबना रंहा तो' यह भोग कौन करेगा। ६३ ५यंदि मैं 'यह् कहर कि.शरीर-ही
१३० भानुभक्त-रामायण लेखै हवैन अब कर्मे पत्ती गरीन्या।रस्ता कह्याँ भवसमुद्र सहज् तरीन्या ॥,. . मेरो स्वरूपू र इ वचन् जति सम्झि लिन्छन् ।:सब् कमँपाश् ति सहजैसित काटिदिन्छन्-॥७३।।यस्ता वचन् प्रभुजिको -सुनि खूशि मंन्ले । . छोडिन् जति छ अभिमान् पत्ति ताहि तिन्ले ॥सुग्रीवको ,पनि गयो अभिमान ताहाँ।
- . राम्को क्र्पा हुन गयापछि टिक्छ. काहाँ ॥७४॥
। हृकृम् भयो प्रभुजिको तहि मित्लाई। - हैं मित्न सुग्रिव ! जलाउ इ वाँलिलाई॥
- क्रीया गरीकन शरीर गर गुद्ध ऐले।“सब् काम छोडिकन यै गर आज पैले ॥७५॥हकूम् भयो र तव बालि लगी जलाया। २क्रीया गरीसकि ति. सुग्रिव . ताहि आया ॥
पँँण् गरी सकल राज् प्रभुका चरण्मा ।सेवक. बनीकन म बस्छ भन्या शरणमा ॥७६।॥। सुग्रीवूलाइ हुक्म् भयो प्रभुजिको -जोहौ तिमि सोमहुँ।जाञ आज र गादिमा बसमता याह्ीँ बनैमा रहुँ॥ समझोगी तो जो कष्ट तुम्है अव तक हुआ है वह नष्ट हो जायेगा ॥। ७२(पिछ्ले कर्मो की) रेखा भी कदाचित् अब मिट जाय और कर्मादि भी नहींकिया जायेगा । सहज ही भव-सागर तर्ने का -मागै ही कहाँहै? मेरेस्वरूप तथा वचनों को जितना ही समझ लोगी उतने ही सहज भावसेकर्मेपाश कट जायेगा । ७३ प्रभु जी के ऐसे वचनों को -सुनकर -तारा नेप्रसञ्च मन से जो भी अभिमान था सब बहीं त्याग दिया । सुग्रीवकाभीअभिमान समाप्त हो गया-। राम, की क्नपा होने--पर अभिमान कहाँटिकता है? ७४ वही पर मित्नु के लिए, प्रभु की आज्ञा हुई--हे मित्नसुग्रीव ! बालि का दाह और क्रिया-कमे आदि कर शरीर को अभी गुद्धकरो । सब काम “छोडकर आज सकेंप्रथम- यही ,.कायँ करो। ७५ ऐसीआज्ञा होते ही सुग्रीव ने बालि को ले जाकर, दाह दिया 'और क्रिया आदिकरने के बाद सुग्रीव ने लौटकर सकल राज्य,-प्रभु के चरणों में, अपित करकेसेवक बनकर रहने की इच्छा प्रकट की। ७६. सुग्रीव-को प्रभु.कीआज्ञा हुई किजो तुम हो वढी मैं हुँ। तुम आज जाकर,; गद्दी: पर बैठो, नैपाली-हिन्दी गांअँमा घरमा: बसोइने भनीजानन् लक्ष्मण ता सँगै घर पनीवर्षी काल् बितिसक्छ यो जब तसैयेती मजि दिया र -सुग्रिव बहुत्लक्ष्मणंजी पनि रामका हुकुमलेसुग्रिव् गादिविषे बस्या पछि फिरीराम्ले ताहि थियो पप्रवर्षणगिरी 'देख्या सुन्दर एक् गुफा स्फटिककोफ्लू फूल् ताहि खचित् थियो नेजिकमैदेख्या मन् खुशि भो दहाँ प्रभुजिकोवर्षा कोल तलक रह्या प्रभु तहाँजन्तु पुष्ट थिया सबै ति वनकाबस्थ्या श्रीरघुनाथका वरिपरीध्यान् जन्तूहरुको विचार् गरि तहाँ १३१ मेरो प्रतिज्ञा छ यो।.भाई गया भैगयो ॥७७॥सीताजिको खोज् गच्या । आनन्द-सागर् पप्या ॥,सुग्रीवका साथ् गया। दाखिल् प्रभूथ्यै भया॥७०८।॥.तेस्का शिखरमा चढी । ताहीं गराया मढी॥थीयो तला : पनि। बस्न्यै जगा हो भनी ॥७९।।पर्थ्यो बखतमा झरी ।खायेर घाँस् पेट भरी ॥खुप् ध्यान् प्रभूमा धरी.खूशी रहन्थ्या हरि ॥5०॥। हेनाथ् ! पुजाको विधान् ।'कुन् हो करूणा-निधान् ॥भन्छन् पुजाले सरी। -खुश् छन् पुजेमा हरि ।॥5 १॥ लक्ष्मण्ले तहि बिन्ति एक्'दिनगच्या पा सुन्न हुकम् हवस् खुशि भई ब्रह्मा, व्यास् अरु -नारदादिहरु सब् आर्को तर्न उपाय छैन जनकोमैं यहीँ वन मैं रङँगा। गाँव में, घर मैं न रहने की मेरी प्रतिज्ञा है, अतः.लक्ष्मण के संग से तुम्हैँ घर जाना -उचित- होगा । ७७ जब वर्षाकालव्यतीत . हो, जायगा तब- सीता की खोज की जायेगी। ऐसी आज्ञासुनक्कर सुग्रीव आनन्दसागर मैं डूव गया। लक्ष्मण जी भी श्रीराम कौआज्ञा पाकर सुग्रीव के साथ (नगर में) गए और सुग्रीव का राज्याभिषेककरने के बाद पुनः प्रभु के पास उपस्थित हुए । ७८ राम ने प्रवषंण गिरिके शिखर पर चढ्कर एक रस्फटिक की बनी हुई सुन्दर गुफा देखी जो चारौंओर से फल-फूलो से घिरी हुई थी। उसके निकट ही एक तालाबभीथा। ठह्रने योग्य ऐसा देखकर प्रभु जी के मन में प्रसञ्चता हुई । ७९प्रभु वहाँ वर्षाकाल तक रहे ।. समय-समय पर वर्षा होती थी। पेटभर घास खाकर उस वन के सभी जन्तु हृष्ट-पुष्ट थे और श्रीरघुनाथ केध्यान मैं उन्हीं के चारो ओर वे घुमा करतेथे। जन्तुओ की इस ध्यान-मग्न दशा पर प्रभू जी मुग्ध रह्ते-थे । ५० एऐंक दिन लक्ष्मण ने विनती-की-- हे नाथ ! हे करुणानिधान,, पूजा के विधान क्या है, मैं सुनना चाहताहँ, प्रसन्न होकर बतलाने की कुपा करे। ब्रह्यो, ब्यास और नारद आदि १३२, यस्तो सून्ति गच्याँ र मन् चरणमासाँचो तत्त्व बताउन्या हजुर झैंयस्ता लक्ष्मणका वचन् सुनि तह्राँसेब् संक्षेप रितले कह्या प्रभुजिलेवर्षाकाल् यहि रीतले तह बित्योसम्झ्याझट्ट सिताजिलाइ र विलापूकिष्किन्धा पुरिमा यसै-बिचमहाँसुग्रीव् सीत सिताजि खोज् गर भनीहे राजन् रघुनाथले त उपकार्यो राज् बक्सनुभो हजूर्कन ठुलोसो विर्स्या झइँ मान्दछ हजुरलेगर्न्यी हो अव ता बखत् पनि भयोयादै छैन हजूरलाइ त सितावालीको यति जुन् भयो उहि गतीयरो बिन्ती, हनुमानको सुन्ति तहाँसुग्रिव्ले हि झट् हुकम् पनि दिया भानुभक्त-रामायण सोध्याँ पुजाको - विधान् ।को छन् दयाका निधान् ॥पूजा विधी हो जति।लक्ष्मण् भया खुश् अति ॥वार्ता कथाको .गरी।फेर् गर्ने लाग्या हरि॥मन्त्री - हुृनूमानले ।,:विन्ती गच्या - ज्ञानले ॥ठूलो इजूर्को, -. गरी ।. .वीर् बालिलाई हरी ॥ सीताजिको खोज् खबर्।सब् काम छोडी अव्र्॥८४॥खोज् ' गनुपर्ला भनी।-होला हजुरको पनि॥साँचो भन्या यो भनी। _लश्कर् पठाञ, भनी ॥5५।॥। सबका यही कर्थन है कि पूजा के समान तर्ने का अन्य कोई उपाय नहींहै । (भगवान्) पूजा (भक्ति)से ही प्रसन्न होते है। ५१ लक्ष्मण का मन पूजाका विधान जाननेके लिए राम के चरणों मैं केन्द्रित हो गया । वेः बोले,हे दयानिधान ! सत्य-तत्वों को जानने और वतानेवाला आपके समान.औरं कौन है ? लक्ष्मण के ऐसे वचनों को सुनकर जितनी भी पुजाकीविधियाँ हँ, प्रभु जी.ने प्रसन्न होकर लक्ष्मण को संक्षेप म वतायी । ०२इ्सी प्रकार कथा-वार्ता करते हुए वर्पा-काल व्यतीत किया। एक दिनअकस्मात् सीता जी का स्मरण हो आया और श्रीराम पुनः विलाप करनेलगे । इसी वीच मंल्ली हनुमान ने किप्किन्धापुरी मैं सुग्रीवसे सीता जीकी खोज करने के लिए विनतीकी | ५३ हे .राजन् ! रघुनाथ ने वीरबालि को मारकर यह राज्य आपको देकर महान् कुपा कोहै। परम्तुमुझे लगता है कि वह सव आप भूल गए है; अव तो सव काम छोडकरसीता जी की खोज कराइए। ८४ लगता है, आपको याद ही नहीँहैँकिसीता जी की खोज करना है। वालि की जो गति हुई है आपकी भी वहीगति होगी । हनुमान की यह विनती सुनकर 'यह सत्य ही कह रहा है',ऐसा जानकर सुग्रीव ने तुरन्त सीता जी को खोजने के लिए वानरोंकीसेना भेजने की आजा दी । ५५ दस हजार वानर जाकर, ईशान दिशा मेँ नैपाली-हिन्दी दस् हज्जार् विर जाइ सात ढ्विपमा'खोजी आज खबेर् दिउन् र सब वीर् जो आवैन हुक्म् बदर् गरि यहाँ तेस्को प्राण्म लिच्याछु निश्चय बुझ्न्यस्तो सुग्रीवको हुकूम हुन गयोदश् हज्जार् विरको खटन् पत्ति गच्यादश् हज्जार् विर दश् दिशातिर छिटी तीवीर दश् तिर गैखबर् दिइ अनेक लाग्या गर्ने विलाप् अनेक् तरहलेभन्छन् छ्न् ति सिता कहाँ अझ पनीयाहाँ छ्न् ति सिता भनीकन खबर् ल्याँ अमृत झैं सितांकन यहाँहे भाई ! सुन जो छ आज इ सिता क्लै भस्म गराउन्याछु करुणायेती बात् तहि भाइ सीत गरि फेर्लाग्या गने विलाप अनेक् तरहलेहेसीते ! कसरी म देखि पर भैप्राण थाम्त कठिन् भयो म. बिनुता १३३ बानर्- जती छन् सबै।जस्मा हउन् झट् ,अबै ॥।ई पन्ध्र दिन् भित्रमा ।मानून् सबै चित्तमा॥५६॥।सोही बमोजिम् गरी ।लागेन बेर् एक् -घरी ॥खुश् भै हुनूमान् रह्या ।सेना बटुल्दा भया ॥५७॥लीला, गरी राम् उसै।लागेन पत्ता कसै॥पाञँ त जाउँ तहाँ।पाउँखबर्पो कहाँ ॥८८॥हर्न्या म तेस्को सबै ।राख्वैन उस्मा कबै॥सीताजिको शोक् गरी ।तैलोक्यका नाथ् हरि।॥५९॥बस्छ्यौ तिमी छौ कहाँ।आपत् भया हुन् तहाँ॥ जो भी वानर है उन्है खोजकर यह सूचना दे दे कि सब वीर तुरन्त एकब्वितहो जाएँ। जो भी इस आज्ञा का पालन कर पद्धह् दिन के अन्दर नहींआता है उसके प्राण मैँ ले लूँगा, इसे निश्चय जान ले और स्मरण रक्खेँ । 5६सुग्रीव की ऐसी आज्ञा के अनुसार दस हजार वीरों को एकत्न कर नियुक्तकरने मैँ कुछ भी देर नहीं हुई। दस हजार वीरों को. दसों दिशाओं मैंभेजकेर हनुमान प्रसन्ततापूर्वेक रहे। उन वीरौं ने दसौं दिशाऔं मैँ जाकरसुचना देते हुए विपुल सेनोएँ एकत्रित की । ५७ श्रीराम अनेक प्रकार कीलीलाएँ कर, विलाप करने लगे। “सीता कहाँहै? क्या अबतकभीकहीँ पता नहीं लगा ? सीता के अमुक स्थान पर होने की सूचनामुझे दो ताकि मैं वहाँ जा सकूँ। अमूृत-तुल्य सीता को यहाँ ले आओ।कहाँ हँ, इसकी सूचना कहाँ मिलेगी | दद हे भाई ! सुनो, आज सीताका हरण करनेवाला जो भी हो, मैं उसके कुल को भस्म कर दुँगा। उसपर कभी दया नहीं कँगा ।' इतनी वात भाई से कहकर पुनः सीताके शोक में'तैलोक्य के नाथ हरि अनेक प्रकार से विलाप करने लगे । 5५९“हे सीते ! मुझसे अलग किस प्रकार रहतीहो। कहां हो! तुम्हारे १३४ तिम्रो भेट नपाउँदा सकन' तातिम्रोतागर क्याबखानूतिमित झन्सुग्रीव् आज क्रृतघ्न झैं हुन गयासुत छैन सिताजिलाइ अझतक्मार्छै सुग्रिव दुष्टलाइ' पति फेर्लक्ष्मण्ले प्रभुका वचन् सुनि गज्याहे नाथ् ! आज मलाइ बक्सनु हवस्लक्ष्मणूका इ वचन् सुनेर रघुनाथ् भन्छन् भाइ ! नमार आज बहुतै मारी हाल्न त योग्य छैन तर खुपूहक्म् यो प्रभुको सुनीकच, तहाँसीतावाथ् नर्को लिला गरि विलापू किष्किन्धापुरि पौंँचि लक्ष्मणजिले पत्थर् वृक्ष उठाइ : वानरहरूसब् वानर्कन नष्ट गदेछु भनीअङ्गद् आइ हटाइ बानरहरू भानुभक्त-रामाय्ण नई चन्द्र सूर्ये बन्या। , छ्यौदुष्टकापास्भन्या॥९?' आयो शरद्काल् पति॥'खोज् गर्नु .पूर्ला भनी ॥ वाली -,सरीक्रो गरी। ,' बिन्ती अगाडी सरी॥९१॥ हुकम् म सार्छू -गई।अत्यन्त खूशी भई॥ . हृप्काउ जा हहाँ।._ चेताइ आड यहाँ ॥९२॥ लक्ष्मण्जि जल्दी गया।खुप् गर्ने -,लाग्दा - भया, ॥टङ्कार् धनूको गग्या ।कोही -अगाडी सम्या॥लक्ष्मण्जिले वाण् धप्या ।-जल्दी चरण्मा ,पच्या॥ विना प्राण वचाना भी कठिन हो गया है। तुम्हारे वियोग में तुम्हारे गुरु-स्वरूप चन्द्र और सूर्य मुझसे कहते है कि तुम दुष्ट के और निकट हो । ९०आज सुग्रीव अक्कतञ्च सा हुआ है। शरदकाल भी आगया । किन्तु उसे कोईचिन्ता नहीं है कि अभी सीता की खोज करनीहै। वालिकी तरहदुष्टसुग्रीव को भी मैं मार डालूँगा ।” - प्रभु के इन वचनों को सुनकर लक्ष्मणआगे बढ्कर विनती करने लगे-- ९१ हिनाथ। मुङ्ले आज्ञा करे, मैंअभी जाकर सुग्रीव को मार डालँगा ।” लक्ष्मण की ऐसी विनती सुनकरश्रीरघुनाथ अत्यन्त प्रसन्न हुए और वोले हे भ्राता ! आज उसेन मारो |किन्तु जाकर उसे डाँटो-फटकारो । ' अनावश्यक लड्ना और मारनाउचित नही है; अतः उठो, केवल चेतावनी देकर आओ । ९२ प्रभुकेइस आदेश को सुनकर लक्ष्मण शीव्रता से चले गये । सीतानाथ मानव-लीला कर अप्यन्त दु:ख, से विलाप करने लगे'। - किष्किन्धापुर पहुँचकरलक्ष्मण ने अपने धनुघ को टंकारा। टंकार सुनकर पत्थर तथा वृक्षोंकोउठाकर कुछ वानर आगे बढ्-आए । ९३ सव वानरों का नाश करताहुँ, कहकर लक्ष्मण ने वाण चढाया । अंगद ने शीघ्रता से आकर: वानरौंको हटाया और लक्ष्मण के चरणो मैं गिर पड्रे। .लक्ष्मण ने प्रसञ्च होकर: चेपाली-हिन्दी अङ्गद् सीत - बहुत् प्रसन्न भइ झट्जाञ देउ खबर् अगाडि तिमिलेअङ्गद् गैकन त्यो, खबर् जब दिया जल्दी: सुग्रिवले, हुकम् पत्ति दिया: अङ्गदूलाइ सँगै लियेर हनुमानलक्ष्मणूलाइ - बुझाइ ल्याउ तिमिलेयस्ती- सुग्रिवको -व्रचन् सुनि तहाँपाअमा परि, बाहुमा ' धरिलियाहृकम सुग्रिवको ,सुनीकन तहाँलक्ष्मण् लाइ बुझाइ खुश् गरेँ - भनीलक्ष्मण सुग्रिवको भयो जब त भेट्लक्ष्मणले,,पनि ताहि सुग्रिवजिकोवाली झैं हुन, मन् छ की 'भनि जसैलक्ष्मणूलाइ : बुझांउनाकन .तहाँलक्ष्मण्जी पनि: कामले ,बुझि गया १३१ ताहाँ अह्वाया पति।' - लक्ष्मणूजि आया भनि॥९४।॥। सुग्रीवलाई तहाँ।लौ जाउ ल्याञड ,यहाँ ॥चाँडै : चरणमा परी।सब्रीस शान्ती गरी॥९ ५॥।सोही बमोजिम् गरी।ल्याया बहुत् खुशू गरी ॥ताराजि चाँडै गइन् ।' ' खुप् बिन्ति गर्दी भइन्।।९६॥। सुग्रीव् चरणमा पप्या ।सातो कुराले हन्या॥लक्ष्मण्ूजिले बात् गच्या ।जल्दी हनूमान् सच्या॥९७॥बात्चित् खुशीका गरी । फिर्ताको मतलब् गच्या प्रभु थिया-लक्ष्मण्का सँग लागि सैन्य पनि ली. सुग्रीव खुश् भै गया ।:जाहाँ श्रीरघुनाथ्_ थिया तहि सबै दाखिल् क्षणमा भया।॥।९५।॥। अंगद को आज्ञा दी कि जाओ: और सुग्रीव को मेरे आने की सूचना देदो। ९४ अंगद ने जाकर जब सुग्रीव को यह सूचनादी तो सुग्रीव नेभी तुरन्त जाकर, उन्हैँ लिवा लाने की आज्ञा दी। सुग्रीव ने अंगद सेँकहा कि हनुमान'को संग लेकर जाओ और लक्ष्मण के चरणौं मैं पड्करसमझो-बुझाकर तथा उन्के क्रोध_को शान्त करके उन्है ले आओ । ९५सुग्रीव के: आदेशानुसार अंगद जाकर 'लक्ष्मण के चरणों मैं 'गिरा और उन्हेअपनी बाहोँ मै समेटकर प्रसन्न करके ले आया । सुग्रीव का आदेश सुनकंरतारा भी वहाँ आ गई। लक्ष्मण जी को समझाकर प्रसन्न करनेकेउद्देश्य से वह विनती करने लगी ॥ ९६.. जब ' लक्ष्मण और सुग्रीव कीभैँट हुई तब सुग्रीव तुरन्त उनके चरणों मै गिर पड्गे। लक्ष्मण, नेभीअपनी बातों 'से सुग्रीव के होश ठिकाने कर दिये। जैसे ही लक्ष्मण नेकहा कि कदाचित् 'तुम्है भी बालि की तरह मरने की इच्छा है तो उन्हेँमनाने के लिए हनुमान आगे बढे । ९७ लक्ष्मण जी भी इन सब कार्योसेसन्तुष्ट हो गए और प्रसन्चतापू्वेक वातचीतकर प्रभुकेपास लौटने की उन्होनेइच्छा की । साथ ही सुग्रीव भी अपनी सेना सहित, अत्यन्त प्रसञ्चतापूर्वेक, जाहाँ जगन्चाथ्, हरि ॥ १३६ देख्या श्री रुनाथलाइ र परैलक्ष्मण् सुग्रिव पाउमा परि गया राम्ले सुग्रिवलाइ मित्र! भनि खुपू सोधपुछ् गर्नुभयो बहुत् खुशि हुँदैलाग्या सुग्रिव बिन्ति गने रघुनाथ् !ल्यायाँ वीर्हरू छन् अनेक् तरहकाई सब् ख्वामितका निमित्त खुशि भैहृकूम् हुन्छ हवस् यहाँ हजुरकोखूशी भै रघुनाथको हुकुम भोहे सुग्रीव सखे! इ बानरहरूजाहाँ छन् ति सिता तहीँ पुगि खबर्हृकूम् पाइ पठाइ बानरहरूजाउ वीर्हरु सब् दिशा दशबिषेपत्ता लाइ सिताजिको खबर लीमैन्हा दीन विताइ एक् रति खबर्ढील् गर्न्या तसलाइ ता म सहजै - हर्षाश्रुधारा“जाञनू दिशा दश् भरी ॥'ल्याञन् भनी रामको । भानुभक्त-रामायर्ण रथ् देखि: उक्लेर फेर्।लागेन एक छीन वेर्॥आलिङ्गनादी गरी।आफैं अगाडी सरी ॥९९॥मैले त सेना पनि।छन् इ्ध तुल्यै पति॥प्राणै दिन्याछन् जसो।गर्छन् ति ऐले तसो॥ १००॥गरी। उर्दी दिया कामको॥१०१॥सीताजि मिल्छिन् जहाँ।सब् वीर आउ यहाँ॥ “केही नपाई त जो। मार्न्याछु मर्न्याछ त्यो॥०२॥ जहाँ श्रीरघुनाथ थे, वहाँ तत्क्षण पहुँच गए । ९५ श्रीरघुनाथ को देखतेही, दुर ही से रथ पर से उतरकर लक्ष्मण और सुग्रीव को राम के चरणोंमैं पहुँचने मै किचित्माव् भी विलम्व नहीं हुआ। राम ने सुग्रीव कोमित्नकहकर आलिंगन किया और अत्यन्त प्रसन्न होकर स्वयं. आगे बढ्करवेपूछ-ताछ करने लगे । ९९ सुग्रीव विनती करने लगे, हे रघुनाथ ! मैंतो-अपनी सेना भी साथ लेकर आया हुँ जिसमेँ इन्द्र के समान अनेक वीरहँ। येसभी अपने स्वामी के - निमित्त अपने प्राण न्यौछावर करनेकोतत्र हैँ। जैसी आपकी आज्ञा होगी वैसा ही किया जायगाः। १००प्रसन्नता से हर्षाश्रु की धारा प्रवाहित करते हुए श्रीरघुनाथ ने आज्ञाःदी,हे सुग्रीव सखे ! ये वानर चारो दिशाओं को, ओर चले जायेँ और जहाँसीता हों वहाँ पहुँचकर उनका समाचार ले आवबेँ। राम का: यह आदेशपाकर (सुग्रीव ने) सव बानरों को कायं-विवरण समझाकर उन्हेँ चारोदिशाओं की ओर भेज दिया। १०१ जाते समय सुग्रीव ने सब वानरौंको आजा दी कि हे वीरो !. सब दिशाओं की ओर जाओ-- जहाँ भी सीताजी हों, पता लगा कर उनकी खबर लेकर पुनः लौट आओ। महीनाभर के अन्द्र पता लगाने,मै जो ढिलाई करेगा उसे मैं तुरन्त मार डालुँगावह् बच नही पायेगा । १०२ इस प्रकार शीघ्रता, से आदेश. देकर, अन्य नेपाली-हिन्दी १३७ यस्तो जल्दि हुकम् गरी. अर दिशा बाचर् पठाया अवर्।दक्षिण् तीर त खुप् बडा बिरहरू छानी पठाया जबर्॥अङ्गदूलाइ र जाम्बवान् र हनुमान् वीर् नल् सुषेण् फेर् शरभू ।मैँद ढ्वीविद आठ् पठाइ प्रभुका पास्मारह्याएक्फगत्।। १०३॥।हकूम् पाइ इ आठ वीर्हरु पनी झट् जान लाग्या जसै ।हात्मा औंठि लियेर एक् हुकुम भो राम्चन्द्री को तसै॥जाञ काम् पनि साधि आउ हनुमान् ली जाउ औंठी पनि।मेरो नाम् यहि औंठिमा छर दियाँ सीताजि चिन्लिन् भनी ४॥।यो काम् सिद्ध गराउन्या त तिमिछौ तिम्रो छयो बल् भनी ।चीन्याको छु तबै त भन्छु मणुभै हून्याछ रस्ता पनि॥येती श्रीरधुनाथको पनि हुकम् पाया र औंठी लिया।खूशी भै हनुमानले प्रभुजिमा सम्पूण तन्मन् दिया॥ १०५।अंगदू वीर् हनुमानूहरू हुकुमले दक्षिण् दिशामा गया।सवेत्नै पृथिवी ढुँडी ढुंडि सबै घुम्दै ति जाँदा भया॥एक् दिन् बिन्ध्य गिरीविषे वनमहाँ देख्या र राक्षस् जसै।रावण् होकि भनी मुठी कसि कसी माज्या कसैले तसै॥१०६।। दिशाओं की ओर वानरों को भेज दिया, किन्तु दक्षिण दिशा की ओरमहाबली और चुने हुए अत्यन्त पराक्रमी, वावरों को भेजा। अंगद,जाम्बवन्त, हनुमान, नल, सुषेण, शरभ, मैन्द और द्विविद नामक आठोंवानरों की भेजकर केवल सुग्रीव, अकेला ही प्रभुके पास रहा“। १०३सुग्रीव की आज्ञा लेकर जैसे ही ये आठों वीर जाने लगे, श्रीरामचन्द्रजीहाथ'मैं एक अँगुठी लेकर कहने लगे-- जाओ, काम मैँ सफल होकरं आओ ।हनुमान ! यह अँगुठीलो। इसमेँ मेरा नाम अंकित है, इसे सीताजीसहज ही पहचान लेगी इसीलिए दे रहा हुँ। १०४ यह : मैं भली प्रकार-जानता हूँ कि इस कार्य मैं सफलता प्राप्त करनेवाले तुम ही हो, क्योकितुममेँ वह शक्ति निहित है। इसीलिए मैं कहता हँ कि .मागे मै भी सबप्रकार से शुश्न ही होगा। श्रीरघुनाथ की यह आज्ञा पाकर हनुमान नेप्रसन्न होकर प्रभु से वह अँगुठी लेली और सम्पुणे तन-मन से स्वयं कोप्रभु की सेवा मैं अपित कर दिया । १०५ अंगद और वीर हनुमान प्रभुकी आज्ञानुसार दक्षिण दिशा की ओर चले गए। पृथ्वी पर चारो ओरढुँढते हुए जा रहे थे, तभी एक दिन बिन्ध्यपवत के 'बीचोबीच वन मेँएक राक्षस को देखा और उसे रावण समझकर सब ने उस पर मुष्टिका(घूँसे) से प्रहार किया । १०६ परन्तु वह रावण नहीं था यह् जानकर १२५ रावण् होइन यो त जाउँ भनी फेर्ढुँढ्थ्या प्यास वढ्यो र जल् पततिढुँडीगूफा देखि त प्वाँख् चिसा गरिगरीगुफा भित्न पस्या सबै विरहरूठण्डा जल् सितका तलाउ पनि धेर्धेर् छन् घर् घरमा छ चीज् पनि अनेकगुल्जार् देख्नु भन्या मनुष्यहरु ताएक् योगीनि स्वयंप्रभाकन ' जहाँ सोधिन् योगिनिले प्रणाम् तब गच्या . क्या मनृसुब् छ बताउ फेर् अब उपर् भानुभक्त-रामायण अर्का वतैमा गई।हिड्थ्या ति आकुलु भई ॥|हाँस् निस्किँदादेखि तेस् ।देख्या बहुत् बस्ति बेस्।॥ ७1सब् बृक्ष फल्फूल् भरी ।हीरा जवाहर्ु धरी ॥ "एक् देख्नु नाही कहीं। ध्यान् गदि देख्यातहीँ॥०॥।कुन् काम आयौ यहाँ।जानू छ इच्छा. जहाँ यस्ता योगिनिका वचन् सुनि तहाँआयौं आज यहाँ सबै यति जनाकास् यै हो यहि काम गर्नुछ भनीसाह्लैँ खुश् हनुमानका: वचनले -बोलिन् फलफुल खाउ जल् पत्ति पिईमेरो नाम बताइ आज; तमता: अन्य वन मैँ जाकर खोज करने लगे। खोज करते-करते जब वे प्यासेहुए तो अत्यन्त आकुल होकर, जल की खोज करने लगे । इतने मै अचानकएक गुफा से हंसों को अपने पर भिगो-भिगोकर बाह्र निकलते देखा ।अत; उसी गुफा मैँ समस्त वीरों सहित प्रवेश किया तो वहाँ एक अत्यन्तउत्तम वस्ती देखी,।- १०७ उन्होने देखा कि. वहाँ पर शीतल जल वालेतालाब के चारो ओर वृक्ष हैं, जो फल-फूलों से लदे हुए हैँ। अनेको घरभी हैं जिनमेँ तमाम वस्तुएँ और हीरे-जवाहरात, भरै पड्े हैँ। परन्तु वहाँपन तो कोई चहल-पहल थी न कोई मनुष्य था; केवल एक योगिनी, जिसकानाम स्वयंप्रभा था, ध्यानमग्न बैठी थी । १०८: योगिनी ने जव उनवानरों से यह, प्रश्न किया कि आप लोग किस काम से आए हैँ, क्या इच्छाहै और अब आगे कहाँ जाना है तबःसब वात्ररो ने योगिनी को प्रणामकिया और योगिनी के ऐसे वचनों को सुनकर' हनुमान ने कहा कि इससमय हम सव लोग केवल जल पीने के लिए आए हैं । १०९ जब हुँनुमानने अपने . आने का कारण तथा कार्य के विषय मै सविस्तार कह सुनायातोग्योगिनी अत्यन्त हृषित हुई और उन्है फलादि खाने को देकर बोली किखा-पीकर जाओ और मेरा नाम वताकर लौट आओ॥ मैँ,भी जहाँ प्रभुहै वहाँ जाञंगी । ११० योगिनी के आदेशानुसार बे जलपान करके गए वोल्या हनूमानले ।केवल जलै खानले ॥९॥।विस्तार् सुनाया जसै।हँबी भइन् ती तसै॥फ॒कर आड यहाँ।जान्छ प्रभू छन् जहाँ॥ १०॥। नैपाली-हिन्दी यस्ता योगिनिका वचन् सुनि' गगाआया' योगिनिले गरिन् सब कुराहेमाकी सखि हँ सखी गइगइन्धेरै वर्ष बसी प्रभू भजि लिदाभन्थिन् राम् अवतार् हुन्याछ हरिकोखोज्न्या वानर आउनन् तहि तलक्वानर्को रघुनाथको गरि पुजाजान्छ आज ,म ता तिमी बसिरह्यस्तो अति दिई गइन् सङिनिज्यूनाच्तैमा शिव खुशृहुँदा अघि दिया पुत्गी हुन् .उ त बिश्वकर्मेकि मह विस्तार् आज कह्याँ म जान्छुखुशिभ आँखा चिम्ल पुग्याइदिन्छु सहजै जाड तीमिहरू पती भनि सहज्श्रीरास्चद्धजिथ्यै ति योगिनि गइन् पौंचिन् योगिनि रामको- कुटि जहाँ " हर्य्याछ रावण् १३९जल्पान् गरी फेर् पनि ।.रासुका इ दूत् हुन् भनी ॥उन्का वचवूले यहाँ।'ऐले क्रृतार्थे - भयाँ ॥१११।॥।सिता।याहीं रह. तीमि ता॥यै ब्रह्वालोक् पाउली ।क्यैकाल् पछी आउली॥ १२॥।जुन् ब्रह्वालोक् हौ वहाँ ।यो स्थान बस्ती यहाँ ॥गन्धवै कन्या सबै।जाहाँ प्रभू छन् अबै॥१ १३॥।रस्ता विषे क्षण्महाँ ।,पौंचाइ रास्तामहाँ ॥वानर् पुग्या रस्तिमा ।,थीयो उस बस्तिमा ॥ १४।। और लौटकर आ गए। उन्हेँ राम के दूत जानकर योगिनी ने भी उनसेअच्छी तरह बात-चीत की और बताया कि मैं हेमा की सहेली स्वयंप्रभाहँ। सहेली तो चली गई पर मैं उसी के वचन के प्रभाव से यहीं बैठीहुँ। यही रहकर कितने ही वर्षो से मैं प्रभु को भजते-भजते आज कृतार्थेहुई हँ। १११ उसका कथन था कि श्रीराम का अवतार होगा, तब उनकीपत्नी सीता का-रावण द्वारा हरण होगा, उस समय उन्ह ढुँढ्ता हुआ वानरयहाँ आएगा; तब तक तुम यहीँ रहो । उस समय वाचर तथा रघुनाथकी पूजा करके ब्रह्वालोक आओगी मैं जाती छ । तुम बैठी रहो कुछ समयके बाद आओगी । ११२ - ऐसे उपदेश देकर मेरी सहेली उंसी समय ब्रह्वा-लोक को चली गई। वहाँ उसके नृत्य से प्रसच्च होकर_. शिवजी ने उसेयह बस्ती दीथी,। वह विश्वकर्मा की पुल्ली है और मैं गन्धवे-कन्या हुँ ।इस प्रकार विस्तृत वर्णन कर स्वयंप्रभा ने प्रसन्नचित्त होकर जहाँ प्रभुहँ वहीं जाने की इच्छा प्रकट की। ११३- (फिर उसने कहा कि) आँखबन्दे करो; मैं सहज ही में तुम्हैँ'रास्ते तक पहुख्ना ढुँगी, यह कहकर उसत्तेउन लोगौं को रास्तै पर पहुँचा दिया ।- वह योगिनी श्रीरामचद्ध के पासगई। वानर शी रास्तै पर पहुँच गए। रासकी कुटी -जिस वस्ती मेंथी योगिनी वहाँ पहुँच गई । ११४ उसने राम की-स्तुति की और रार्म १४० रास्को स्तूति गरिन् र वर् दिनुभयो,मेरो ध्यान् गरि यो बिताउ र शरीर् जो तिम्रा मनमा छ त्यो सब पुगोस् बद्रीमा गइ रामका वंचनलेसीता खोज्न भनेर वानरहरू-सीतालाइ नपाउँदै बितिगयो अंगद्ले अति शोक् गच्या अब सहज्प्यारो प्राण गरौं कसो अब सप्यौंसुग्रीवूले त मलाइ मार्नु छ सहजूमाछँन् निश्चय शबु जानि अहिलेकेवल् राम-क्रपा हुँदा अघि बच्याँ“दिन्छन् निश्चय मार्नलाइ मतलब्अंगद्का इ वचन् सुनीकन तहाँहे साहेब ! यहीँ बसौं यहि बस्याअंगद्का अरु वानरादिहरुकाबोल्या श्रीहनुमानले किन बहुत् भानुभक्त-रामोयण जाड र बढ्रीमहाँ। -पाउली परमूधाम् तहाँ ॥यस्तो त वर् ली गइन्, . संसार तर्दी भइन् ॥ १ १५॥ फिर्थ्यी सबै, बनूमहाँ ।धेरकाल एकदिन् तहाँ॥माछँन्, सबैको गयो--बाँच्न यहीं तक् भयो॥ १६पाया निर यो प्नि।यो शब्नुको बीज् भनी॥ऐले त रामूले पति!खोजेन सीता भनी ॥१७॥क्वै बिन्ति यो पादँछन् । "कुन् पाठले मादँछन् ॥ सून्या र कूरा तहाँ।छोटो गच्यौ बात् यहाँ॥१८।॥ ने (प्रसन्न होकर) उसे वर दिया । उसे आज्ञा मिली कि बदरीनारायण धामभै जाकर मेरा ध्यान करो, तभी तुम्है परमधाम प्राप्त होगा। “जोतुम्हारे मन मैं हैवह् सब तुम्हँ प्राप्त हो”, ऐसा वर प्राप्त कर बदरी-नारायण धाम मैं जाकर श्वीराम के ध्यान मैं मग्न हो स्वयंप्रभा संसार सेतर गई । ११५ सीता की खोज करते हुए वन मेँ घृमते-घूमते बानरों कोबहुत समय बीता, पर सीता नहीं मिली तो एक दिन वहाँ अंगद ने अत्यन्तखेद प्रकट किया। अब तो हम सभी मारे जायेगे, सबके प्रिय प्राणोंकी रक्षाकिस प्रकार की जाये। अब तो लगता है कि बचने का समय यहीँ तकहै।'११६ सुग्रीव तो बहाना पाकर मुझे मार ही डालेगा, मुझे शत्नु काबीज समझकर सहज ही में समाप्त कर देगा,'यह निश्चय जाँनो ।: पह्लेतो राम कीक्रपासे वचाथा। अब तोराम भी सीताकी खोजनकरने का कारण वताकर निश्चय ही मुझे मार डालने का प्रोत्साहनदँगे । ११७ अंगद के इन बचनों को सुनकर वहाँ कुछ लोग यह विनयकरते हँ, हेश्रीमन् ! यहीं रह जायँ। यहाँ रहने पर किस प्रकारमारँगे। अंगद एवं अन्य वाचरों की ऐसी बाते सुनकर हनुमान कहते हैँकि तुम लोग ऐसी तुच्छ कल्पना क्यों कर रहे हो? ११८ सुग्रीव के नैपाली-हिन्दी सुग्रीवका प्रिय छौ अवश्यं भगवान्साँचो भन्छु म बेस् कुरा हजुरमाभूभार् हने . भनेर राम-अवतार्कस्को सक् छ सिताजि हन नहिता मानिस् को अवतार् भयो प्रभुजिको पैथ्दै रामूचन्द्रजीका पन्ति।यस्तो छ कारण् भनी ॥आदी पुरुषको भयो।झ्च्छा प्रभूकैछयो ॥११९॥। सेवक् त बानर्ं भई। गछौं सेवन भक्तिले प्रभुजिकोजान्याछौ पछि धाममा पति ' सँगैक्या गछौं मतमा कुतके हरिको यस्ता बात् हनुमानका सुचि बुझ्ष्याबिन्ध्याचल् गिरिका कुनाकुनिसमेत्पौंच्या क्षीरसमुद्वरका तिरमहाँतेस्को वाम महेन्द्र हो नजिकमा पृथ्वीमा न मिलिन् सितान जलमाखोजौं जाउँ भन्या सक्यौं पृथिवि सब्फर्की जाउँ भन्या पती अब सहज्मर्नु. आज निको भनेर तिरमा केवल् हुकूमूमा रही ॥यो जान मनूले ,यहाँ।रिसूछैन कस्सै महाँ॥ १२०॥अंगद् र खूशी भई।सस्पूर्ण खोज्दै गई॥पवैत् थियो एक् तहाँ।देखिन्छ सागर् जहाँ।॥२१॥जाच्याछ बाटो क्तै।पायौं - सीता कसै॥माछँन् त चाहीँ यहीं।बंदर् बस्या सब् तहीँ।॥२२॥। तो तुम प्रिय हो ही, श्रीराम के भी अवश्य प्रिय हो। सत्य कहता हुँ, यहबडी उत्तम वात है। श्रीराम चे भुभार-हरण करने के लिए पुरुष के खूपभै अवतार लिया है। किसकी शक्ति है जो सीता का हरण करे? यहस्वयं प्रभु की हीइच्छा है। ११९ प्रभुजी ने मनुष्य के रूप मे अवतारलिया है और वानर उनके सेवक बने हैँ। उनकी भाज्ञा का पालन करतेहुए हम लोग प्रभु जी की सेवा भक्तिपुवेंक करँगे । जिससे अन्त मै परम-धाम को प्राप्त होंगे, यह भी मन मै जान लो। मन में कुतके उत्पन्न करकेक्या करोगे? हरिका किसीके झपर क्रोध नहीं है। १२० हनुमानजी की बातो को सुन और समझकर अंगद प्रसन्न हुए और विन्ध्याचलपवेत के कोने-कोने मै सीताजी की खोज करने लगे । वे क्षीर-सागर केकिनारे पहुँचे । वहाँ एक पवंत था जिसका नाम महेन्द्र था। वहाँसेसमुद्र अत्यन्त निकट दिखाई देता था। १२१ पृथ्वी पर सीता जी कहींभी नहीं मिली तो सोचने लगेकि जल मे ही जाने का मागे ढुँढा जाये,क्योकि सम्पूर्ण पृथ्वी पर न मिलने से लौट भी जायँगे तो मारे ही जायेंगे ।अतः मरता ही उत्तम है यह् समझकर सब वानर किनारे पर बैठगए । १२२ उस वनका निवासी एक वृद्ध गिद्ध जैसे ही वाहर निकला १४२ सम्पाती अति यूद्ध गृद्ध वनमाया दृष्टि फिराइ तेस् तिरमहाँबोल्या वाक्य पत्ती म भर्छु अव पेट्अंगद् वीर्हरुले सुन्या र इ वचन्पग्या भन्न सबै ति वानरहरूमछौं आज अवश्य माछं यसलेक्याबात् भाग्य जटायुको प्रभुजिकोठाकुरलाई रिझाइ पार् पति गयाव्यर्थ हामि त गृद्धका मुखविषेयेती वानरका वचनू् सुनि तसहे वीर हो नडराउ आज तिमिलेमेरै भाइ जटायु हो कहु खवरअङ्गुद् वीर्हरुलाइ निभेय दिई सब् बुत्तान्त बताइ अङ्गदजिले सम्पाती ताहि भन्दछन् मकन लौदिन्छु आज जटायुलाइ जलदान्ूसीताको म बताउँला सव खबर्ई बात् सूनि उचालि झट् लगिदिया भनिभक्त-रामायणे थीया ति निस्क्या जसै ।देख्या ति वानर् तसै॥पायाँ अह्दारा भनी।साह्लै डराया पनि॥१२३॥।आयेछ हाम्रोत काल्।यो गृद्धको हेर चाल् ॥प्यारो हुन्या काम् गरी ।-संसार सागर तरी॥१२४।॥।सब् पर्ने आयौं यहाँ।.सम्पाति बोल्या तहाँ॥प्यारो सुनायौ कुरा।.तेस्का त सप्पै कुरा॥२५॥ येती भन्याथ्या जसै।विस्तार् सुनाया तसै॥लैजाउ सागर् महाँ। चाँडो म ऐले तहाँ ॥१२६।।स्नान् अञ्जलीदान् गरी ।सम्पातिले स्नान्ू गरी ॥ और उसने तटकी ओर दृष्टि डाली तो उसे वातर दृष्टि मै आए उन्हे देखते ही वह वोला, मुझे आहार मिल्ला है; अब पेट भर लूँगा । अंगदआदि बीर उसके इन बचनो को सुनकर अत्यन्त भयभीत हुए। १२३ वेसब बोले कि अब तो काल निकट ही आ पहुँचा है। आज तो अवश्यहीमरँगे। इस गिद्ध की चाल देखो ! यह आज अवश्य ही हम लोगोंकोखाडालेगा । जटायु भी केसा भाग्यशाली था जो प्रभु का प्रिय कम करकेउन्हँ सतुष्ट करके ससार-सागर को पार कर गया । १२४ वातर परस्परकहने लगे कि हम व्पर्थ ही गिद्ध केमुँहके समक्ष आएहै। वाररौंकेइन वचनों को सुनकर सम्पाति नेकहा--हेवीरो ! तुम वीर हो, भयनकरो। आज तुम लोगो ने वड्डी अच्छी बात सुनाई है; जटायु मेराही भाईहै। उसके बारे मै सविस्तार सव समाचार ' वताओ । १२५तब अंगदने उसे सव, वृत्ताँत सविस्तार कह् सुनाया। उसी समयसम्पाति वोला, मुझे शीश्र सागर मै ले चलो, आज मैं अपने “भाई जटायुको जलदान दूँगा । १२६ स्नान एवं अंजलि-दाव कर मैँ सीताजीकेवारै मै सब समाचार बताडँगा। इस बात को सुनकर वार तुरन्त नेपाली-हिन्दी दीया अञ्जलिदान् जसै फिरिउहीँसम्पाती खुशि भै सबै कहिदियाहँ बीर् हो [मत गृद्ध हँ र मसिता याही छन् यहि भेष् छ यति सँग छन्।भन्छ सब् तिमिलाइ चार सय कोशूसो लङ्का प्नि पुग्दछौ उति कुद्यालङ्कामा ति सिताजि छन् तहि गयागाह्ठो चार् सय कोश कद्न छ तहींरावण्ले लग्रि भिन गुप्ति वनमापौँची भेट् गर जान सक्छ तिमिमाअएशोककी वनभित्न वृक्ष छ असलसीता छन् तहि भेट् हुन्याछ्तहिलौक्या रावणलाइ माने म सहज् साक्षात् सूर्येजिका कठोर् किरणले' 'ल्यायेर १४ . राखीदिया ।आपत्तिदेख्तै थिया ।॥ १२७।॥।देख्छु नजर्ले पति।यस्तो छ चाला भनी॥जो कुद्न सक्छौ यहाँ।पौंचिन्छ लङ्कामहाँ॥ १२०मिल्छिन् सिताजी वहाँ ।जाञ न जाड हहाँ॥राख्याकि छन् बेश् गरी।को यो सनुद्रै तरी १२९।॥। एक् शिशपाको तहीं। जायो गङ काल् यहीं ॥मार्नया थियाँ होरको।प्वाँख डढयासब् र् पो॥ १३०॥ जाङ चार् सय कोश कुद्न सकन्या कुन् वीर् छ सागर् महाँ।सीताको समचार् खबर् बुझि सहज् फर्क फर्क आउ यहाँ॥ सम्पाति को उठाकर ले गये और जैसे-ही वह अंजलि-दान कर चुका, वैसेही उसको पुन: वही लाकर 'रख दिया । सम्पाति ने प्रसन्न होकरसबकुछकहसुनाया । १२७ ' हे वीरो;! मैं तो गिद्ध हँ अत: मै अपनी आँखो सेयहींसे. सीताजी को देख रहा हुँ कि वह किस स्थान पर हैँ, किस रूप में हैँ किनकेसंग मैं हुँ और कैसी युक्ति मैँ(फसी) हैं । मैंतुम्हंसव बतलाताहँ। यहाँसेजोचारर,सौ कोस छलांग भर सकेंगा, वह लंका पहुँच जागेगा। १२८५ सीताजी लंका में हीहँ।.. वही जाने पर ; मिल जायँगी। चार सौ कोसकृदना कठिन है । . तब भी किसी प्रकार वहाँ अवश्य जाओ । सीताजीको रावण ने ले जाकर लंका केःअन्दर एक गुप्त वन मै रखा,है। समुद्रपार कर तुममेंसे जो वहाँ जा, सकता हो जाये, और भेट करे । १२९अशोक वन के अन्दर एक अत्यन्त उंत्तम शिशपाका वृ्षहै। सीताजीवहीं है, वहीँ भेट होगी अत: चले जाओ । क्या बतायें समय निकल गया ।मै रावण को सहज ही मार सकता था, परन्तु साक्षात् सूयं की तीव्र किरणोंसे (मेरे पंख) जल गये हैँ और इस कारण लाचार होना पडा । १३४चार सौ कोस कू्द' सक्नेवाला वीर कौन है,? । वह चला जाये और सीताका समाचार आदि-पता लगाकर लौट आये। यह समाचार बताकर, पुन;
॥ १४४ यो समूचार बताइ फेर् खुशि भईजुन् रीत्ले अघिप्वाँख्डढघार विपतीसम्पाती र जटायु भाइ दुइबल् जान्ताकन दुइ भाइ उडिगैपुग्दामा ति जटायुले त अति तापूबाँच्या भाइ जटायु क्यासँ म गिण्याँउच्चादेखि गिण्याँ म विन्ध्यगिरिमाब्यूत्याँथ्याँ जब चन्द्रमा मुनि मिल्यासोध्या ती क्रषिले र सब् जब भन्याँमेरो चित्त बुझाउनाकन भन्यायस्तो हुन्छ विपत्ति गभेँ रहँदायस्तो हुन्छ बुढो हुँदा त भनुँ क्याजाहाँ देह बन्यो र दुःख छ भनीजाहाँ देह छ ताहि दुःख छ चिन्ह्या भानुभक्त-रामायण आफ्नू हवाल् सब् क्या ।पाई अनेकृतापू सद्या॥३ १॥हाम्रो कती, वलू भनी ।,श्रीसूयंविमूबै मनि ॥मान्या र छोप्याँ जसै।मेरा डढ्या प्वाँख् तसै॥३२॥।तीन् दिन् त मुर्छा भयाँ । तितूका नजीक्मा गयाँ॥ , आफ्ना विपत्का गति।सब् दु:ख हुन्छन् जति॥३३॥यो हुन्छ यौवन्महाँ।थाहै छ सब् मतूमहाँ ॥पर्देन भन्नू पति।साँचो कुरा हो भनी ॥३४॥ ' तस्मात् ढुःख नमान देह छ त रोग् दुःखादि सारा सही। श्वीराम्को अवतार् हुन्या बखततके यस्सै जगामा रही॥ प्रसच्च होते हुए अपना भी सब हाल वताया कि किस प्रकार उसके पंख जल गये और उसने विपत्ति मैँ पड्कर अनेकों कष्ट सहे । १३१ सम्पातिऔर जटायु हम दो भाई हैँ। हममेँ कितना वल है यह जानने के लिएहम दोनों भाई सुयंमण्डल के समीप पहुँचे थे। वहाँ पहुँचने पर जटायुको जैसे ही अत्यन्त ताप का अनुभव हुआ उसने उड्ना छोड दिया । जटायुतो वच गया परन्तु मैं' (उड्ता ही गया ।) क्या कछ मेरे पंख जल गयेऔर मैं गिर गया । १३२ मैं इतने अँचे से बिन्ध्यगिरि मैं गिराकि तीन दिन तक मुछ्ति पड्डा रहा। जैसे ही मुझे चेतना आयीमुझे चन्द्रमा मुनि मिले और मैं उनके निकट गया। उन क्रषि के पूछनेपर मैँने अपनी सारी विपत्ति कह सुनाई । मेरे चित्त को सान्त्वना देनेके लिए उन्होने सभी दुखोँ के विषय मै वताया । १३३ (उन्होने कहा)गर्वे करने से ऐसी ही विपत्ति प्राप्त होती है और यौवन के बाद वृद्ध होनेपर तो कैसा दुख होता है क्या कङ्रँ; सब मन में ज्ञात हीहै। जहाँ देहका सृजन हुआ बहाँ दुःख की प्राप्ति होती ही है; जहाँ देह है वहीं दुःखहै, इसे ही सत्य जानो । १३४ इसीलिए दुःख न मानो, देह है तो रोगहै और दुःख भी है। श्रीराम के 'अवतार होने के समय तक तुम इसीस्थान पर रहो और कुछ काल व्यतीत करी। राम का अवतार होगा ।11१ नेपाली-हिन्दी केही काल बिताउ राम अवतारहर्खा रावणले र तेस् बखतमावीर् बानर्हरु आउनन् ति सँग भेट्सीताको समचार् जसै त कहुलाभन्थ्या सोहि कुरा सबै पुगि गरयोप्वाँख् देखाइ बिदा भई उडिगयाअङ्गद् वीर्हरु खुश् भ्रया अब सिलिन्लाग्या गम्त समुद्वलाइ र गमनूफेरी ताप् मनमा पच्यो र अति शोक्अँंगद्लाइ बुल्ाउनाकन अघीसाहेव् ! शोक् रतिभर् कदापि नहृवस्अङ्गदू्लाइ बुझाइ झट्ट हनुसान्-पौँची बेस् स्तुति ग्देछन् किन यहाँराम्का काम निसित्त मात हनुमान्!क्या वर्णन् बलको गर्छे जव तिमी १४५ होला र सीता पनि।सीताजि खोज्नै भनी ।॥॥३५।॥।होला उ बेला सहाँ।प्वाँख् उम्ननन् फेर् तहाँ॥हेर् प्वाँख उम्प्या भनी ।जा तिमी लौ भनी॥ १३६: सीता भनी सब् जसै ।,गर्ने नसक्त्ू कसै॥अङ्गदूजि गर्दा भया।श्रीजाम्बवान्जी गया॥३७।॥।जाउन् हनूसान् भनी।जीका नजीक्मा पनि ॥'चूप्चापू भई दूर् रह्यौ।'योजन्म लींदा भयौ ॥३।जन्म्यौ उसै फल् भनी। पाक्याको फल ठानि सूयंकन ता हात्ले म टिप्छू भनी॥ और सीता का भी रावण द्वारा हरण होगा। उसीसमयसीताजीकोखोजते हुए चीर वानर आदि आगेँगे । १३५ उन लोगो से तुम्हारी भेटहोगी और उसी समय जव तुम सीता जी के समाचार सुनाओगे, तुम्हारेँपंख फिर से उग आयँगे । उनकी कही गयी वही सब बात अब पुणे हो रहीहुँ। अपने उगे हुए पंखों को दिखाकर संपाति ने विदाई ली और सवसेजाने की इच्छा प्रकट करके उड गया। १३६ अंगद आदि वीरोंकोजैसे ही यह मालूम हुआ कि अव सीता मिल गयौ, उन्है हादिक प्रसब्चताहुई । वे समुद्री को गिनने लगे और पार जा सकने का कोई माग सोचनेलगे; किन्तु उन्है कोई मागे नहीं सुझा और वे मन मै चिन्तित होने लगे ।अंगद गहरे शोक मैं डूव गये। अंगद को सान्त्वना देने के लिएश्रीजाम्ववन्त आगे बढे । १३७ श्रीमान् ! आप किचित्मात्न भी शोकन करे, हनुमान चला जायेगा। अंगद को समझाकर हनुमान के तिकटपहुँचे और उनकी उत्तम प्रशंसा करने लगे । तुमने ये जन्म राम के लिएही लिया है और तुम ही यहाँ चुपचाप दूर बैठे हो। १३८५ तुम्हारे बलकेवारे मै मैं क्या वर्णन कर्डं। जब तुम जन्मे थे, सूर्यको पका हुआफल समझकर उसे हाथ से पकडने के लिए तुमने आकाश की ओर छलाँग १४६ आकाश्मा जब ता कुद्यौ दुइ हजार्यस्ता बालकमै थियौ किन यहाँसून्या सब् हनुमानले स्तुति तहाँसाह्रै खुश् हनुमान् भया र खुशिलेपर्वेत् तुल्य बडो स्वरूपू धरि वचन्लङ्का भस्म गराइ रावण समेत्सीता लीकन आउँछु कि रिसलेज्यंदै दाखिल गर्छु रामूचरणमाकी ता छन् ति सिता यहाँ भनि खबर्फिर्छ् श्रीरघुनाथका चरणमाश्रीरामूका चरणारविन्द॒ सनमाबोल्या श्रीहनुमानले यति कुराभन्छन् श्रीहनुमानलाइ तिमिलेफर्की आउ सिताजिको खत्ररलीख्वामितृका सँग लागि गैकन पछी भानुभफक्त-रामायण कोश्तक् पुगी फेर् झय्यौ ।कोश्चार् सयैमा डस्यौ।॥३९॥ जो जाग्ववान्ले गन्या।खुपू गजेना पो गप्या॥वोल्या स सागर् तरी।सब् सैन्य चूर्ण गरी ।॥४०॥।झुन्ड्याइ रावण् पन्ति।खुनी हजूरको भनी॥मात्रै सिताको लिई।तन् मन् वचन् सब्दिई।॥४१॥।धर्दा र उठ्ता जसे।श्री जास्बवान्ले तसै॥भेट् माब्च ऐले गरी।एक्लै नलड्न्या गरी॥४२॥सक्भर् लडौंला भनी। भन्दा खूशि भई बिदा भइलिया झट् कुद्न मन् सुब् पनि ॥ मारी थी । उस समय तुम दो हजार कोस पहुँचकर पुनः लौटे थे। जबतुम बाल्यावस्था मै ही ऐसेथे तो यहाँ केवल चार सौ कोस के लिए क्योंडर कर बैठे हो । १३९ जाम्बवन्त की इन सब बातो को हनुमान ने सुनाऔर अत्यन्त प्रसन्न हुए। प्रसञ्चता के मारे वे जोर-शोर से गर्जन करने लगे ।इसके बाद वे पर्वत तुल्य विराट रूप धारण करके वोले कि मैं सागर पारकर लंका को भस्म करने के बाद रावण सहित उनकी सेनाओं को समाप्तकर दुँगा । १४० सीताजी को ले आअँगा और रावण को लटकाकर जीवितहत्यारे के रूप मैँ श्रीरास के चरणों में उपस्थित कखंगा ! नहीं तो सीताजीके बारै मैं सुचना मिलते ही श्रीरधुनाथ के चरणों मै लौट आअँगा औरअपना तन-मन-बचन सब (उनके लिए) अर्पण कङँगा । १४१ श्रीरामके चरणारविन्दु मन मैँ धारण कर हनुमान ने जैसे ही यह इच्छा प्रगटकीवैसे ही जाम्बबन्त ने श्रीहनुमान से कहा कि हनुमान, अभी केवल भेटकरके सीताजी की सूचना च्ेकर लौट आओ; अकेले लड्ने का झंझटमत मोल लो। १४२ स्वामी के संग जाकर बाद मैँ हम लोग यथासाध्यलङगे । ऐसी बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो हनुमान ने विदाई ली औरतुरन्त कूदने की मन मै ठानी । लाल मुख पीला शरीर धारण किथे हुए नेपाली-हिन्दी १्श्७ बालुमुख् पीत शरीर् गरी गिरिउपर् जल्दी हनूमान् गया ।सब् प्राणीहरुले तहाँ ति हनुमान्- जीलाइ हेर्दा भया ॥१४३॥" ।॥॥ किष्किन्धाकाण्ड समाप्त ॥ हनुमान शीघ्र ही पर्वत के झपर चले गये और सब प्राणी हनुमान कोदेखने लगे । १४३किष्किन्धाकाण्ड समाप्त
सुन्दर काण्ड
तर्छ क्षार समुद्र आज सहजै भन्त्या इरादा धरी।श्रीरामूका चरणारविन्द॒ मनले अप्यन्त चिन्तन् गरी ॥भन्छन् वीर्हरुलाइ ताहि हनुमान् हे वीर हो! पार् तरी ।सीताजीकन भेट्तछ् म अहिले जान्छ् बडो वेग् धरी ॥१॥पापी जन् पनि रामका स्मरणले संसार पार् तछँ ता।रामूकै काम तिमित्त औंठि सँग ली जान्छु दुतै हँमता॥क्या डर् क्षार समुद्र तन सहजै पौँचन्छु लंका भनी।चारै पाउ जमिन् विषे धसि कुद्या हेर्दै तमसा पति ॥२॥दक्षिण् तरफ् मुख गरीकन कुद्न वस्ता।अपर् नजर् दि अघिका दुइ पाउ धस्ता॥सोझो गराइकन घाँटि कुद्या जसै ता।वाग्रु सरी हुन् गया हनुमान् तसै ता॥३॥ उसी दिन क्षीरसागर पार कर लेने की कामना से उन्होने मन ही मनश्रीराम के चरणारविन्दों का ध्यान कर अपने वीरों से कहा-हे वीरो ! मैंसागर के पार पहुँच कर बडी तेजी से जाकर सीताजी से भेट कङँगा । १पापी जन भी केवल राम का स्मरण करके ही संसार-सागर पार कर लेतेहँ। रामके ही काय से यह अँगुठी लेकर जाउँगा । मैं तो उनका हीदूत हुँ, डर किस बातका है ? क्षीरसागर पार कर णशीघ्न ही लंकापहुँचूँगा । ऐसा कह कर चारों पाँव-हाय धरती पर जमा कर कौतुक केसाथ कूदे । २ हनुमान ने दक्षिण की ओर मूँह करके कृदने के लिए अपरदृष्टि उठायी और आगे के दोनों हाथों को जमा कर जैसी ही गर्दैन उठायी १४६५ भानुभफ्त-रागायण [ ति आकाशमा | आकाग् मागे गरी कुद्या र हनुमान् उड सीताजीकन भेटि फर्किकन फर् रामूचन्द्रका पासमा ॥ पुग््या अक्कल वल् छ छैन इनको बूझौं सवै वल् भनी। इ्न्द्वादीहरुले खटाइ सुरसा जल्दी पठाया पति ॥४॥'जल्दी गै सुरसा अघिलूतिर बसिन् सामू हनूमानका । क्या भन्छन् हनुमान् भनेर खुशि भै कूरा गरिन् खानका ॥भोकी धेर् दितकी म खोजिहि क्या खाँ अहारा भनी। पायाँ बल्ल यहाँ मिल्यौ तिमित एक् साह्०व भयाँ खुण् पनि ॥५॥।आउ लौ पस मूखमा जव भनिन् बोल्या हनूसान् तसै।भन्छन् आज सिता नभेटिकन ता पस्तीनँ मुख्मा कसै॥सीता भेटिम फ्कुला र रघुनाथ् ज्यूका हजुर्ता गई।विस्तार् विन्ति गरेर आइ पसुला तिम्रो अहारा भई ॥३।यस्ता बात् सुनि भन्दछिन् ति सुरसा मेरा मुखमा पसी।निस्की जाउ नहीं भन्या म बलले पक्रेर दाह्का घसी॥मार्छु येति भनित् र् लौ तव यहाँ मुख् बाउ चाँडो भनी।चार् कोश्को त शरीर् गरीकत वस्या आफू हनूमान् पति ॥७11और छलाँग मारी, वसै ही वायु के समाव उइ चले । ३ जब हतुमातआकाश की ओर कूदकर वायु-मण्डल मै उड्के तो इन्द्रादि ने यह जानचा चाहाकि हनुमान मे सीता से भेट करके लीट कर श्रीरामचन्द्रजी के पास पुनःपहुँचने का बुद्धि-वल है अथवा नहीं; और यही जानचे के उद्देश्य से उन्होनेसुरसा को तुरन्त वहाँ भेजा । ४ युरसा जीत्रता से जाकर हनुमान केसमक्ष बैठ गयी और यह जातने के लिए कि हनुमान क्या कहता है, इसप्रकार वोली कि मैं तुम्है खाने आयी छूँ। कार्ड दिनों की भुखीहँ। वयाआहार कछ, इसी खोज मै भटक रही थी ! आज तुम्है पाकर मैं अत्यधिकप्रसन्न हँ। १ सुरसा ने कहा, “तुम आओ और मेरे मुँह्र मं प्रब करो”उसकै इन वचनों को सुनकर हनुमान ने कहा कि जज मै सीताजी की खोजभै हूँ, उनसे भेट किये विना मै कदापि तुम्हारे मुँह मैं प्रवेश नईसीताजी रो मिलकर सैँ लौट्गा और थ्ीरामजी से सविस्तार चिनती करकेपुनः लौटकर तुम्हारा आहार वनकर प्रवेण कछँया । हनुमान की बातसुनकर सुरसा कहती है कि मेरे मुँह् मै प्रवेण करके निकल जाओ, नहीं तो मैंवलपूवंक पकडकर दाढ मैं फाँसकर मार डालूँगी । इतना कहने पर हनुमानने उसे मुँह खोलने को कहा और तुरन्त .अपचा शरीर चार कोस का बनाकर
नेपाली-हिन्दी चार् कोश्का हनुमान देखि सुरसाचालीस्कोश्हनुमान्धयारअसिकोशजल्दी फेर् हनुमानले छ बिस कोश-फेर् दूई सय कोश मुख् जब गरिन्निस्क्या जल्दि र भन्दछन् ति हनुमानतिस्क्याँ जान्छु म ता अवश्य अब ताअक्कल् बल्सितका वचन् जब सुनिन्आफ्नू सत्य कुरा तसै सब कहिन्सक्छौ काम् तिमि साधि आउ अनुमात्चीन्ह्याँ भन्छु म इन्द्रका हजुरमाबलु बुझ्नै भनि इन्द्रका हुकुमलेखुश् भै स्वगंविषे गइन् ति सुरसाजस्ले सागर नास् धन्या मकन सोतिनका वंशमहाँ विभुषण सरीतिन्का काम निमित्त आज हनुमान्सैचाक् पर्वत! तिस्कि जाउ तिमि गै १४९ बिस् कोशको मुख् गरिन्।मुख् फेरि जल्दी धरिनू ॥को खूप गराई: बस्या।अंगुष्ठ झैं भै पस्या ॥८॥।हे देवि! मुख्मा पसी ।बन्दैन् कास् ता बसी॥यस्ता हनूमानका ।छाडिन् कुरा खानका ॥९॥यो बल् छ तिम्रो भनी।तिम्रो पराक्रम् प्नि॥आयाकि ता हुँ भनी।क्द्या हनूमान् पनि ॥१०॥।राजा सगर् जो गया।श्रीराम राजा भया ॥जान्छन् इ लङ्कामहाँ।विश्वाम् गराड तहाँ ॥११॥। बैठे। ७ चार कोस का हनुमान देखकर सुरसा ने अपने मुँहको बीसकोस का बनाया और तब हनुमान चालिस कोस का हुआ। सुरसानेतत्क्षण ही अपना मुँह् अस्सी कोस का बत्ताया हनुमान ने शीघ्रतासे अपने कोएक सौ बीस कोस का बना डाला और जब सुरसानेदो सौकोसका मूँहबनाया, वैसे ही अंगुठा-सदृश सूक्ष्म रूप धारणकर हनुमान ने उसके मुँह मैंप्रवेश किया । ८ सुरसा के मृँह मैं प्रवेश कर हनुमान कहते हैँ कि हे देवी मैंमुँह मै प्रवेश कर विकल आया छूँ। अब मै जाता हँ । अब जाता हुँ, यहाँरहकर अवश्य ही कार्य मे विलम्ब होगा । सुरसा ने जब हनुमान की ऐसीशक्ति तथा बुद्धिमत्ता देखी तो आहार करने की बात छोइकर सब सत्यकह् सुनाया । ९ हनुमान ! तुम अपने कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त करआओगे । तुममेँ अपार शक्ति है, यह मैँने जान लिया। अब मैँइन्द्वकोभी तुम्हारै पराक्रम के विपय मैं कह सुनाउंगी । इन्द्र के आदेशानुसार मैंतुम्हारी परीक्षा लेने ही आयी थी । इसके बाद सुरसा प्रसन्न होकर स्वगेको चली गयी और हनुमान भी कृद पडे । १० सागर,ने कहा कि जिसने मुझेसागर के नाम से विभूषित किया है, उन राजा सगर के वंश मैँ श्रीराम राजाहुए हँ और उन्ही के कार्य से आज हनुमान लंका जा रहे हँ, अतः हे मैनाक ११० थाक्या हुन् हनुमान् बिसाइ फलफूल्भन्दा सागरका वचन् सुनि तढाँअर्को एक सनुष्यको स्वरूप लीआई फल्फुल् खाइ जाउ हनुमान्आज्ञा सागरको हुँदा चरणमामैनाक्ले यति बिन्ति बात् जब गग्यारासूको काम् नगरी बसेर कसरीहात्ले छुन्छु म यौ भनेर खुशि भैकेही दुर हनुमान् पुग्या पछि तहाँछाया पक्रि उ जन्तु खेचि बललेछाया पक्रि उ तान्न लागि हनुमानूकस्ले बन्द गन्यो गती भनि दिशा देख्या तल्तिर दृष्टि दीकन तहाँएकै चोट् दुइ लात् दिया र सहजेताहाँ देखि कुदी गया र हनुमानूलङ्कापुरि तहाँ त्विकूट गिरिका भनुभक्त-रामायण खाञनू र जाउन भत्ती।निस्क्या ति मैनाक् पनि ॥हात् जोरि बिन्ती गण्या ।भन्दै अगाडी सञ्या ॥१२॥आयाँ म ऐले भनी।बोल्या हनूमान् पनि।खान्छू म जान्छू यसै।छोयेर कृद्या तसै ॥१३॥एक् खिंहिका राक्षसी ।खान्थी जलैमा बसी॥ज्यूको गती बन्द भो।दशमा तसै दृष्टिगो ॥१४॥ जस्सै नजर्मा परी।घुख्रुक्क्॒ ताही मरी॥पौँच्या जसै तीरमा। देख्या उपर् शीरमा ॥१५॥ पर्वत ! प्रकट हो जाओ और जाकर विश्वाम कराओ । ११ हनुमान थकेहोँगे, विश्वाम कर लें। उन्हैँ फल-फूलादि दो, खाकर जायँ । इस प्रकारसागर के बचनों को सुनकर मैनाक भी प्रकटहो गये। वेएक्र अन्यमनुष्य के रूप मै प्रकट होकर आगे वढे और इस प्रकार विनती की--/िहनुमान, आओ, फल-फूल खाकर जाना । १२ सागर की आज्ञा पाकर मैंआपफकी सेवा मैं उपस्थित हुआ हँ" । यह कहकर मैनाक ने जव विनतीकीतो हनुमान ने भी कहा कि राम का कार्य सिद्ध किये चिना मैं कैसे जलपानकरखै? मैं ऐसे ही जाता हुँ। केवल हाथ से स्पशै करके ही चलताहूँ।इतना कहकर प्रसन्न होकर स्पशै किया और कृदवेपड्रे । १३ कुछद्दूरचलकर हनुमान को सिहिका नामक राक्षसी मिली, जो जल मैं ही रहकर अपनीशक्ति द्वारा जीव-जन्तुओ को खींच लेती थी और उसी से अपना आहारचलाती थी । उसने छाया देखकर ज्योँही हनुमान को खींचना चाहा त्योहीहनुमान की गति लुप्त हो गयी । किसने गति लुप्त कर दी ? -कहते हुएहनुमान ने दसों दिशाओं की ओर दृष्टिपात किया । १४ हनुमान ने जँसेही नीचे की ओर देखा तो राक्षसी दृष्टिगत हुई; और उन्होने दोनों लातो सेएक साथ प्रहार किया। राक्षसी सहज ही सें मृत्यु को प्राप्त हो गयी । नेपाली-हिन्दी १११ वरिपरि तहि तीर्मा छन् भरी वृक्ष फनुफूल् ।जउन बनमहाँ धेर् गर्दैछन् पक्षिले गुल् ॥भ्रमरहरु लताक फूलमा हल्लि हल्ली।घुनुनु घुनुनु गर्दै हिंड्द्छन् बल्लि बल्ली ॥१६॥।नजर वरिपरीको जो छ शोभा नजर् भो।ब्िकुट गिरि उपर्का पुरिमा फेर् नजर् गो॥वरिपरि परखाल् छन् बीच-बीच्मा छ खावा।सहजसँग अख्ले गर्नै को सक्छ दावा ॥१७।. अति तखत पच्याको खुपू अगम् देखि लंका ।यहि घडि पसि जाँ की राति जाँ येति शंका ॥गरिकन ठहराया याह्रि बस्छ र राती।सहज सित स जाँलाँ जान ता राति जाती ॥१०॥। तहि बसि यति गम्ले बाँकि दिन् सब् बिताया।दिन बिति जब रात् भो जान पाक चलाया ॥स्वर्प पनि त सानू ली पस्याथ्या जसै ता।दगुरि नजिक आइन् लंकिनी पो तसै ता ॥१९॥ वहाँ से कूदकर हनुमान किनारे पहुँच गये और वहाँ से ह्विकृटगिरि के ञपरीशिखर से लंकापुरी देखी । १५ अन्होने देखा, किनारे चारौं ओर फलो सेलदे वृक्ष हैँ। उस वन के पक्षीगण अपनी मधुर ध्वनि से वातावरण कोगुंजित कर रहे हँ और भँवरे लताओं मैं लगे फूलो के साथ झूम-झूमकरगुनगुनाते हुए उइ रहे हँ। १६ हनुमान ने वहाँ की ऐसी छटा देखी, फिरबिकृटगिरि के कपर से दूर तक दृष्टिपात किया--चारों ओर दीवार खडीहै और बीचोवीच मैं पहरा लगा है। ऐसी जगह में, भला कौन सहज हीमैं आक्रमण कर सकता है ? १७ अति अगम और कठोर व्यवस्थापूर्ण लंकाको देखकर हनुमान सोचने लगे--इसी समय प्रवेश करेँ अथवा रात्ति में?सोचते-सोचते, निश्चय किया कि अभी यहीं ठहरता हँ; रात्रि मै ही सरलताहोगी, वही समय इस काय के लिए उत्तम है । १५ ऐसा सोचकर शेष दिनवहीं ठहर कर बिताया । दिन व्यतीत होगया। रात आयी तो जानेकेलिए पाँव उठाया। सुक्ष्म ख्प धारणकर उन्होने जैसे ही प्रवेश किया,वैसे ही लंकिनी दौडकर निकट आयी । १९ कौन है यह! आज मुझे कुछभी न समञ्कर अन्दर प्रवेश करनेवाला ! चोर ही है-ऐसा सोचकर क्रोध १५२ को हो आज मलाइ केहि नगनीचोरैँ हो भनि लात् उठाइ रिसलेजल्दी वाम मुठी उठाइ सहजैछाद्दै ताहि रगत् गिराइ झटपट्लंकापूरि त हुन् ति राक्षसि भईजानिन् श्रीहनुमान् भनेर जब चोट्लंकीवी हुँ मलाइ त जितिगयौरावण्को त मरण् हुन्या बखत भोब्रह्माजी अघि भन्दथ्या प्रभुजिकोहर्ला रावणले सिता र रखघुनाथ्गर्नेत् सुग्रिवले पनी दश दिशागर्नालाइ पठाउतन् विरहरू तिन्मा एक् विर आउला र तिमिलेहान्ला वाम मुठी उठाइ र रगत्रावण््को तहिसम्म आयु छ भनीब्रह्याको त वचन् प्रमाण् गरि भन्याँ भानुभक्त-रामायण यो भिन्न जान्या भनी।एक् चोट् त हान्तिन् पनि ॥ठोक्ता जमिनूमा परिन् ।ञठेर विन्ती गरिन् ॥२०॥।वस्थिन् सदा द्वारमा ।पाइन् चलिनू सारमा ॥यस्ले सक्यो राज् गरी ।आयो सरण्को घरि॥२१।।हृन्याछ रामावतार्।सुग्रीवथ्यै मित्न चार्॥सीताजिको खोज् खवर्।छाने र खुप् खुप् जबर्॥२२। लात् मारिद्यौली जसै।छादूदै गिरौली तसै॥भन्थ्या र सो बात सुनी ।त्यो मछँ रावण् पत्ति ॥२३॥ से उसने (हनुमान पर) लात से प्रहार किया। तत्क्षण (प्रय्युत्तर मैंहनुमान के) मुट्ठी कसकर घुस से प्रहार करते ही वह पृथ्वी पर गिरगयी और रक्त-वमन करते हुए तुरन्त उठकर विन्ती करने लगी । २०वह लंक्रापुरी (की रक्षिका) है, जो सदैव राक्षसी वनकर द्वार पर रहतीथी। चोट खाने के बाद उसने हनुमान को पह्चान लिया तथा उनकीशक्ति का परिचय पाया। सन ही मन कहने लगी-मैं लंकिनी हुँ । मुझेतो इसने पराजित कर दिया है और अब राज्य भी हइप कर लेगा। ऐसालगता है कि रावण का तो अव अन्तिम समय आ गया है । २१ ब्नह्याजीकहते थे कि प्रभुजी का राम अवतार होगा; रावण सीता का हरण करेगा;रघुनाथजी सुग्रीव के साथ मित्नता करेँगे तथा सुग्रीव भी अपने वलिष्ठ वीरोंको सीता की खोज में भेजेंगे । २२ उनमेँ से एक वीर आयेगा और जैसेही तुम लात से प्रहार करोगी, वैसे ही वह वाई मृठ्ठी से प्रहार करेगा औरतुम रक्त-वमनकर गिर पड्रोगी । कहा जाता है कि रावण की आपु उसीसमय तक के लिए है। अतः हनुमान की बाते सुनकर उन्हैँ प्रणाम कियाऔर कहाकि यह व्रह्वा का वचन है कि रावण सरेगा । २३ जाओसीताजी से भेंट करो। वहाँ अन्दर उद्यान मै अशोकवन के एक उत्तम नेपाली-हिन्दी १५३ जाक भेट सिताजिलाइ ति अगम्ू भित्ली बषेँचामहाँ ।अशोक्का वनमा छ वृक्ष बढिया एक् शिशपाको तहाँ॥ताहरीं छन् प्रभुकी प्रिया वरिपरी छन् राक्षसीगण् पनि ।भेटी गै रघुनाथथ्यै भव तिली यस्ता विपत् छ्न् भनी॥॥२४।। धन्यै भयाँ म अहिले प्रभुको स्मरण् भो।संसारको भय छ जो उत आज टूर् भो॥जस्तो मिल्यो सकन संग र अक्ति ऐल्हे।यस्तै रहोस् यहि म पाउँ न बिसुँ केल्है ॥२५॥ जस्सै श्री हनुमान् पुग्या सहजमा लंका समुव्रै : तरी।तस्सै जानकिको फुच्यो नजर वामू हातै समेत् खुपू गरी ॥रावण्को पनि वाम हात्, नजर वाम् फूस्यो, रघूनाथको ।दक्षिण् अंग फुच्यो तसै बखतमा खुश् मन् भयो नाथको।।२६।॥। सानू छूप लिई पसी सब शहर् हेदैँ विचार् खुपू गरी ।रावण्को दरबार् विशेष् गरि ढुँडचा चोटा र कोठा गरी॥पायानन् र कता म जाँ भनि तहाँ मनूमा विचार् भो जसै ।सम्झ्या लंकिनिका वचन् र ति गया अशोक वनूमा तसै ।॥२७।॥ शिशपा के वृक्ष के नीचे प्रभु की प्रिया विराजमान है। उनके चारो ओरराज्यका पहराहै। सीता से भेंट करके शीप्न ही रघुनाथजी से उनकीविपत्तियों का हाल कहो। २४ मैं घायल हो गयी हँ। अभी प्रभुकास्मरण हो आया । संसार के सारे भय मेरे हृदय सेदूरहोगये। मेरीयही कामना है कि अभी जैसी भक्ति भावना प्रभु के लिए मेरै हृदय मैं है,बैसी ही सदा वनी रहे । २५ इधर हनुमान सहज ही समुव्र पार करकेलंका पहुँच और उधर उसी समय जानकी के बाम अंग (बायाँ नेत्न तथाबायाँ हाथ) अत्यधिक फड्कने लगे। तभी रावण का भी बायाँ हाथ तथानेत्र फडक उठाऔर उसी समय रघुनाथ के भी दक्षिण अंग फड्क उठे । ऐसाशुभ लक्षण देख. राम के मन मैं प्रसञ्चता छा गयी । २६ हनुमान ने सूक्ष्मशरीर धारणकर नगर में प्रवेश किया । चारो ओर भलीभाँति देखते हुएऔर सोचते-विचारते हुए कमरे-कमरे की छान-बीन की और रावण केदरबार-विशेष को खोजने लगे । जव कुछ पता नहीं चला तो सोचने लगेअव कहाँ जाउँ ? तत्क्षण ही लंकिनी की बात याद आयी और वे अशोक-वन मैं चले गये । २७ उन्होने देखा- इन्द्र की नगरी के समस्त वृक्ष वहाँ ११४ जो जो वुक्षका त इन्द्रका नगरिमारत्नैका शिढि साफ् असल् जल पनीफलफूल्ले अति भार् भयेर रुखकालच्क्याका भ्रमरा र पन्छि बहुतैविच्बीचूमा सुनका हृवेलि पत्ति छन् भानुभक्त-रामायण सो सो त सब् छन् तहीं ।यस्ता तला कहीँ।॥सबका ति हाँगा पनि।रूख्मा बस्या का पर्नि॥२८॥उच्चा मणीको छ थाम् । जस्मा छन् कति गर्नु वर्णन जहाँयस्तो सुन्दर वन् नजर् गरि सबै डुल्दै हनूमान् गया।देख्या सुन्दर शिशपा र खुशि भै ताहीं ति दाखिलु भ्रया॥२९॥अधिक गंभिर छाया सूयंको तापू नपसून्या ।उपर अति पहेँला वेस् चरा मात्र वसूच्या॥वरिपरि पति नाना राक्षसीको छ घेरा।रुखमति तहि सीता देखिइन् फेद-तेरा ॥३०॥भोकी मैलि निनाउरी न त कपाल कोच्याकि सब् केश उसै।लट्टा माब्न गप्याकि खालि भुमिमा छँदै वस्याकी यसै॥राम् राम् राम् यति मात्र बोलि रहँदी देख्या र साना भई।पातृका अन्तरमा लुक्या ति हनुमान् रूख्का उपर्मा गई ॥1३१।॥। हेप्यो तहाँ पर्विक काम् ॥ भन्छन् श्रीहनुमान् तहाँ समनमचै ऐले क्कतार्थ, भयाँ।जो सीताकन देखि आज खुशिले सीता-समीपूमा रह्याँ॥ हुँ। निर्मल एवं स्वच्छ जल के तालाव, रत्यों से जडी सीढियाँ, फल-फूलोंसे लदी झुकी हुई टहनियाँ और उन पर भैँवरे तथा पक्षी बैठे हुए है। २०वीच-बीच मैं स्वणं-हवेलियाँ भी है। मणि-जटित अँचे-ञँचे मंदिर है, जोवर्णन-शक्ति से परे है। जिधर देखो, उधर ही पक्के काम है । ऐसे सुन्दरवन मेँ घूमते हुए और चारो ओर निरीक्षण करते हुए हनुमान गये । सुन्दरशिशपा को (अशोक-वृक्ष) देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और वहीं प्रवेशकिया । २९ अत्यन्त घना छायादार वन, जहाँ सूयं की गर्सी भी प्रवेश नहींकर सकती, जहाँ अत्यन्त उत्तम पीले रंग के पक्षी ही क्रेवल रहते थे, वहाँ एकवृक्ष के नीचे राक्षसियों से घिरी हुई सीताजी दिखायी दी । ३० भुखी-प्यासी, हताश, अस्त-व्यस्त केश-राशि खुली हुई,.लटे विखराये सीता भूमि परबैठी रोती और केवल राम-राम की रट लगा रही है । हनुमान ने अपने सूक्ष्मखूप मैँही उस पेड पर चढ्कर पत्तो मै छिपे हुए ही सव हाल देखा 1.३१श्रीहनुमानजी मन ही मन कहते हैँ--अब मैं सीताजी के पावन दशंन पाकरकृतार्थ हुआ । आज मैं प्रसन्चतापूर्वेक यहीं सीताज्ी के.समीप रह । अव ७ ७: « नेपाली-हिन्दी साध्याँ काम् पनि रामको भनि तहाँफेर् अन्तःपुरमा भयो र खलबल्-क्याको शब्द भयो भनेर हनुमानआयो रावण जल्दि ताहि चजिकैकैले मर्छु म रामदेखि अझतक्आयाननू रघुनाथ भनेर रहँदारामको दूत् अति वीर वानर अशोक्सीताजीकन देखिन्या गरि तहाँहेरी सुर् सब कामको खुशि भईसाँच्चै हो कि भनेर दौडिकन झट् साँच्चै पो यदि हो भन्या असल भो. सीतालाइ यसो सुनेर रिसलेमेरा दुष्ट वचन् सुनेर रघुनाथ्यस्तो निश्चय मन् गरी नजिक गैसीताजी , पनि, ढुष्टलाइ नजिकै १५५ खूशी भयाथ्या .जसै।त्यो शब्द सून्या तसै ॥३२॥।ल्क्या ति झन् पातमा ।सब् स्बी लिई साथमा ॥सीता हप्याँ तापनि।देखेछ स्वप्ना पनि ॥३३॥।वन्-भिल्ल आई पसी।वन्-भित्च लूकी बसी॥स्वप्ता मिलेथ्यो जसै ।आयो नजीक्मा तसै ३४दुर्वाच्च बोल्छु जसै।जाला त भन्ला तसै॥आएर सानेनू भनी।दुर्वाच्य बोल्यो पति ॥३५।॥।देखी अधोमुख् गरिन् । श्ीरामूका चरणारबिन्द॒ मनले अन्तःकरणूमा धरिन् ॥ राम का कार्य भी पूरा हुआ । ऐसा सोचा ही था कि अन्त:पुर मैं खलबली-सी मच गई' और बडा बसचक सुनायी दिया । ३२ कँसी हलचल मचीहै-- मित ही मन) यह कहते हुए हनुमान और भी पत्तो के बीच छुप गये ।रावण शीघ्र ही तमाम स्लियों को लेकर वहाँ आ गया। निकट आकरवोला-सीता का हरण करने पर भी रघुनाथ अभी तक नही आये।आखिर कव तक मैं राम के हाथों मारा जाउंगा। कहनेलगाकि एकस्वप्न भी देखा है। ३३ स्वप्न मै देखाकि राम के दूत अत्यन्त बलीवानर अशोक वन से प्रवेश कर सीता को देखने-भर की व्यवस्थाकरके पत्ते के अन्दर वहीं पर छिपकर निडरतापूर्वक देख-देख प्रसन्न हो रहाहै। ऐसा स्वप्न देखकर सोचा कि कदाचित् यहसचही तोनहींहै।यह जानने के लिए तुरन्त दौडकर निकट आया । ३४ यदिसत्यही होगातो अति उत्तमहै। सीता को दुर्वाक्य कङ्गगा, जिसे सुनते ही वह क्रोधितहोकर चला जायगा और सव यथाथे (वृत्तान्त) कह डालेगा । मेरे दुष्टवचनों को सुनकर रघुनाथ आकर मुल्ने मारेंगे । ऐसा सोचकर वह निकटगया और (उसने) सीताज्ी को दुवंचन कहे। ३५ सीताजीने भी उप्तदुष्ट को देखकर अपना मुँह नीचे किया और अपने अन्तःक्ररण मैं राम के ११६ चूपू लागि जननी रहिन् जब तहाँलाग्यो भन्न मलाइ देखि किन हैरास् मेरा पति हुन् भनेर तिमि पोमेरी हो यदि भन्दथ्या पत्ति भन्यामाया छैन तिमी उपर् नवुक्षि क्यायौवन् व्यथै गयो विचार किन योयौबन् व्यर्थ नफाल व्यर्थै मनमामैलाई पति मान आज तिमिलेमेरी पत्नि भयौ भन्या त सवकीसाह्वै प्रेम् गरि राखुला बुझ अधिक्मानी मूखे कृतध्त मानुषमहाँशक्तीका पनि कम् उ राम् पनि यहाँतस्मात् छोड वराख रासतिर मन्लाल् लाल् नेत्न गराइ पूण रिसलेपाजी रावण! बोल्दछ्स् कति बहुत् भानुभक्त-रामायण सो देखि रावण् पन्ति।लायौ अधोमुख् भनी ।॥३६॥भन्छ्यौ उ भन्छन् कहाँ।आउनु पर्थ्यो यहाँ॥शोक् मात गछ्यौ उसै।यौवन् अफाल्छ्यौ यसै।॥३७॥।शोक् ग्देछ्यौ यो कति।हुन्छ स तिम्रो पति॥मालिक् हुन्याछौ मता ।बैगू्नि छन् राम ता ॥३८॥साह्ैँ अधम् जोत छन्।आउडन क्या सक्तछन् ॥यस्ती भनेथ्यो जसै।बोलिन् सिताजी तसै ॥३९॥।दुर्वाच्च बक्-बक् गरी। राघवूदेखि डराइ छल्च भनि एक् सन्यासिको रूपू धरी॥ श्रीचरणारविन्दों का ध्यान किया । सीता को मौन खडी देख रावण कहनेलगा--मुझ्ले देखकर मुँह क्यों नीचे कर लिया । ३६ तुम कहती हो, राममेरा पतिहै। यदि ऐसा ससझता तो उसे यहाँ आना चाहिए था।तुम्हारे अपर उसका कोई प्रेम नहीं है। केवल तुम्ही व्य्थे मै शोकग्रस्त होरही हो। विचार करके देखो यौवनावस्था व्यथे हीजा रही है। ३७यौवन व्यर्थ न गेंवाओ । कहाँ तक शोक मैं डूबी रहोगी ? आज ही तुममुझे अपना पति स्वीकार करो । तुम मेरी पत्नी हो जाओगी तो सबकीस्वामिनी वन जाओगी और मै स्वयं तुम्है अत्यन्त प्रेमपुवंक रवखूँगा ।- समझो और जानो कि राम तो वहुत ही अवगुणी है । ३5 जिस मनुष्य मेंअध, मुखेता एवं अभिमान ब्याप्त है और जिसकी शक्ति भी थोडी है, वह(राम) यहाँ किस प्रकार आ सकता है। अतः रामको मनसेत्यागदो।रावण ने जैसे ही ये वचन कहे, सीताजी के नेल्ल क्रोधसे लाल हो गयेऔर बे बोली-- ३९ पाखण्डी रावण ! दुर्वेचन कहाँ तक बोलते हो।रघुनाथ से भयभीत होकर छल करके संन्यासी का ख्प धारण किया ।जिस प्रकार कुत्स यज्ञ मै हवन अपित पदार्थो को चुरा ले जाता था, उसीप्रकार राम-लक्ष्मण की अनुपस्थिति मैं तुमने मेरा हुरण किया । समझ लो, नेपालौ-हिन्दी जस्तै यज्ञविषे हृविस् कुकुरुलेराम् लक्ष्मण् नहुँदा हरिस् तँ बुश्चिलेसागर् शोषि कि साघुँलाइ रघुचाथतेरो वंश विनाश् गरेर पछि फेर्लैजानन् रघुनाथ मलाइ भनि झट्, लाल् लाल् नेब् गराइ खड्ग पनि ली मन्दोदरी बिन्ति यो खड्ग गर्नेटार कसरी भनि चित्त धर्दी॥ ११७ हर्छर् उसै चालले।मर्लास् यसै कालले ॥४०॥आयेर घेरा दिई।प्राण खैँचि तेरो लिई॥दीइन् जवाफ् यो जसै।काट्नै तयार् भो तसै ॥४१॥अगाडि सर्दी। पाङ परीकन बहुत् गरि बिष्ति लाइन्।सबू रिस् शमनू पनि गरायर खड्ग टारिन् ॥४२।॥। हृकुम् रावणले तहाँ यति दियामैल्वा दुइ यसै बसुन् तब उपर्बस्निन् बस्तिन पो पनी भनि भन्यातर्कारी भुटुवा बनाउनु असलुमासू खाइ म छाडुँला अझ पतीरावण् फकि गयो ति राक्षसिहरू हे राक्षसी! ई सिता।मेरा शयनूमा कि ता॥काटेर टुक् टुक् गरी।मीठा मसाला धरी ॥४३।॥चेताउ येती भनी।एक् मुख् भया फेर् अनि ॥ तुम इसी काल-्सै मरोगे । ४० सागर का शोषण कर सेना-सहित रघुनाथआकर यहाँ घेरा डालेंगे और तेरे वंश का विताशकर तेरे प्राण खीच लगेतथा उसके वाद रघुनाथ मुझे लिवा ले जायेगे। सीता ने जैसे ही ऐसेउत्तर दिये, वैसे ही रावण ने क्रोध से लाल आँखें करके देखा और खड्ग लेकरकाट डालने के लिए तत्पर हो गया। ४१ मसन्दोदरी ने किसी प्रकारखड्ग को रोका और चित्त मैं विचार करती हुई रावण के चरणों पर गिरपडी और विनती करने लगी । अब शीन्न ही शान्त हो जायें और खड्करोक लें। मन्दोदरी की विनती सुनकर रावण ने अपने समस्त क्रोधकोशान्त कर खड्ग रोक लिया । ४२ उस समय रावण ने इस प्रकार आज्ञादी-हे राक्षसी ! यह सीता दो महीने तक इसी प्रकार रहे, तदुपरान्त मेरेशयन में रहेगी । यदि रहने के लिए अस्वीकार करे तो इसके टुकडे-टुकडेकर देना और उत्तम मीठा मसाला डालकर भूनना । ४३ मैं इसका मासभक्षण करके ही छोड्ँगा। अभी भी इसे सावधान कर दो। इतनाकहकर रावण लौट गया। वहाँ की राक्षसियाँ सब एक-मुँह होकर कहनेलगी, क्र्यो यौवन को नष्ट करती हो ? रावण को पति स्वीकार करलो।जिसे सुनकर एक राक्षसी कहती है कि बार-बार इसे समझाकर तुम थक १्प्र्द एक् भन्छे किन ब्यथैं यौवन सक्यौदोस्री क्या भनि उठ्तछेकि कति वार्काट्नैपर्छै नकाटि हुन्न भनि बातूहात्मा ली तरवार दौडि पनि गैआर्की घोर् मुख वाइ डर् दिन नजीक्बूढी राक्षसि एक् थिई र बिजटालागी भन्च अभागि ढुष्टहरु हो गछौं छोड विरोध् नराख गर खुप्पाञमा परि दण्डवत् गर सबैमेरा आज वचन् लियौ भनि भन्या भानुभक्त-रामायणै रावण् ग्राञक पति।भन्छेसूतँथाक्छेसूकति ।४४॥।गर्दै थिई अकि ता।भन्दै सम काट्छ सिता॥धाई सिताथ्यै जसै।तेस्ले हटाई तसै ॥४५॥क्या दुष्टको झैं मति।सीताजिको ता स्तुति॥मालिक् इनै हुन् भनी।खुप् हीत होला पनि ॥४६॥ स्वप्नाको सुन भन्छु लक्षण यहाँऐरावत् उपरी चढेर सँगमायाहाँ आइ रिसाइ भस्म सब योरावण् मारि सिता लियेर सँगमारावण् गोमय कुण्डमा कुल समेत्बुड्थ्यो सब् मुड आफना उनि उसै श्रीराम् सिताका पति।भाई लिई वीर् अति॥लंकै गराईदिया ।पर्वेत् उपर् पो थिया ॥४७॥खुप् तेल सरदैनू गरी।गुड्को त माला धरी॥ जाओगी । ४४ एक अन्य राक्षसी तो कह रही है कि इसे काटना ही पड्गा;विना काटे काम नहीं चलेगा। हाथ मै तलवार लेकर सीता को काटडालुँगी--यह कहती हुई सीता की ओर दौड्डी । दूसरी मुँह फैलाकर सीताको भयभीत करती हुई, उनकी ओर लपकी, जिसे एक किजटा नामकराक्षसी ने पकड्कर हटा लिया । ४५ कहने लगी--अभागिन ! दढुष्टाओं !क्यो दढुष्टों की भाँति अपनी बुद्धि करती हो ? विरोधी बिचारों को हटाकर,सीताजी कोख्रूव स्तुतिकरो। इन्हीँ को सवस्वामिनी मानो। इनकेपाँब पड्गो और दण्डवत करो । मेरे इन वचनों को मानोगी तो तुम्हारावडा हित होगा । ४६ सुनो, अपने स्वप्न के लक्षण मैं यहाँ बताती हूँ ।श्रीराम, सीता के पति हाथी पर सवार होकर और साथ मे अपने अत्यन्तवीर भाई (लक्ष्मण) को लेकर यहाँ आये और क्रोधित हो सम्पूण लंकाको भस्म कर दिया और रावण को मारकर सीता को लेकर पर्वत के ञपरचले गये । ४७ रावण के कुल वाले (अन्य राक्षस) खूव तेल मालिश करअपने-अपने सर गोवर के कुण्ड मैँ डुवाति थे। उन्हीं सरो की माला धारणकर विभीपण श्रीराम के निकट प्रभु की भक्ति करते थे और अत्यन्त प्रसन्नहोकर तन-मन-वचन से सेवा करते थे । ४५ राग आज रावणको समस्त
नेपाली-हिन्दी श्रीरामूका नजिकै विभीषण थिया ; गर्थ्यी खूव टहल् बहुत खुशि हुँदैरामूले रावणलाइ आज सहजैरावणको अव वृद्धि छैन यसकोराम्को भक्त विभीषणै अब उपर्जस्तो हुन्छ हुकूम् सितापतिजिको १५९ भक्ती प्रभूको गरी।तन्मन् वचन्ले गरी ॥४८॥। . माछैन् कुलै साफ् गरी ।. आयो मरणको घरि॥बस्नन् यहाँ राज् गरी।सोही शिरोपर् धरी ॥४९॥ जस्तो स्वप्न भयो उ सब् भनिसक्याँ येती भनी चुपू जसै।लागीथी ब्विजटा ति वात् सुनि डप्या सब् राक्षसीगण् तसै॥निद्रामा वशमा सबै परिगया सीता बहूतै रँदी।आधार् कोहि नपाउँरी अधिक ताप् मानेर विह्वल् हुँदी ॥५०॥।भोकी शोक् गरि भन्दछिन् अवयहाँ ऐले कसोरी सखेँ।इन्का हात परेर मर्नु ननिको आफैं म मर्छु बरु॥ताप्ले पूण हुँदी उपाय अरु थोक् केही नजान्दी कबै। सन्पा स्वस्थ नपाउँदा विरहलेराम्मा चित्त दियेर मर्नु बढियाझुन्डीन्या मतलब् लिई खडि भइन् देख्ती अँध्यारो सबै ॥५१॥।सानेर सीता हहाँ।.पक्रेर हाँगामहाँ ।॥। कुल-सहित सफ्राया कर मारेगे । रावण की बुद्धि अब क्षीण हो गयी है।अब उसकी विपत्ति की घड्डी आ गयी है। राम के भक्त विभीषण ही अबयहाँ, सीतापति की जैसी आज्ञा होगी, उसे शिरोधायं कर राजा बनकररहुंगे । ४९ जैंसा स्वप्न हुआ, वह सव मैं बता चुकी हुँ, इतना कहकरजैसे ही बिजटा चुप हुई सब राक्षसियाँ उसकी बातौं से प्रभावित होकरभयभीत हुई और डसी समय तिन्रा के वशीभूत हो गर्यौ। सीता कोईसहारा न देख असहाय वनकर अत्यधिक रोयी । ५० भूखी-प्यासी सीताअत्यन्त शोक में डूवी हुई कहती हैं कि मै यहाँ म भी किस प्रकार ? इनलोगो के हार्थो सेतो मरना भी उचित-नहीँ। इससे तो अच्छा ,होगाकि मै स्वयं ही अपना प्राण त्याग दूँ। सन्तापग्रस्त मस्तिष्क मैं कोईउपाय भी नहीं सुझ रहाथा। बिरह से मन मे चिन्ता छायीथी। सबओर अन्धकार ही अन्धकार दृष्टिगोचर होता था । ५१ उन्होँते सोचा किरास के ध्यान मैं लीत होकर ही मृत्यु को प्राप्त होना अति उत्तम होगा ।यह निश्चयकर सीताजी ने रामका ध्यान किया और वहाँ एक डालपकड्कर खड्डी हो गयी । ' राक्षसौं के बीच रहकर जीवित रहना धिवकारहै, इससै तो मर जाना ही अच्छा है । अतः अब मैं मर ही जाजँ। लटेलम्वी हैँ, इसलिए गले मैं फन्दा डालकर लटकने के लिए, रस्सी वनाने के १६० राक्षस्का बिचमा वसी जिउनु धिक्चुल्ठो लामु छ झुन्डिनाकन यहाँयस्तो निश्चय सुर् गरीकन सिताकाम् बित्ला भनि सानु बोलि झटपट्भारतवर्ष विषे मणी मुकुट झैँठ्लो एक शहर् थियो मणिमयी भानुभक्त-रामायण मर्नू निको सदेछु।डोरी त यै गदेछु ॥५२॥झुनृूडीन आँटिन् जसै।बोल्या हनूमान् तसै॥नाम् ता अयोध्या भनी।सुन्दर् बन्याको प्नि ॥५३॥। इक्ष्वाकूका कुलैमा अति बलि दशरथ् वीर् सहाराज् रह्याछन् ।तन्का तीन् रानिमध्ये गुणिगुणि अति वीर् चार छोरा भयाछ्न् ॥जेठा रामूजी ति चार्मा उहि पछि त भरत्जी र लक्ष्मण् इ तीनै ।भन्दा शबृध्न कान्छा सकल गुणमहाँ कम्ति छैनन् ति कूतै ॥५४॥। जेठा राम पिताजिका हुकुमले राज्य छोडीदिई।वन्मा बस्त चल्या बहुत् खुशि हुँदै सब्सीता र लक्ष्मण् लिई ॥ एक् दिन् पञ्चवटी गया प्रभु तहीँ डेरा प्रभूको पप्यो।रावण्ले अति छल् गरीकन तहाँ सीताजिलाइ्कै हप्यो ॥ ५१५राम् लक्ष्सण् नहुँदा सीता पनितहाँ चोरी जसै ता हन्यो।चोरी आज सिता हच्यो भनिवहुत् खेद् रामलाई पन्यो॥जान्थ्या खोजि सिताजिलाइ वनमा फेला जटायु पप्या। तिन्माथी करुणा भयो प्रभुजिको ताहीं जटायु तप्या ॥५६।॥। लिए यही ठीक्रहै। ९२ इस प्रकार निश्चयकर साहस बटोरकर सीताजैसे ही लटकनेवाली थीं, वैसे ही कही काम न विगड जाय--यह सोचकरहनुमान तुरन्त ही धीरे से बोले, “भारतवर्ष मैं सरताज के समान एक सुन्दरसुसज्जित अयोध्या नामक नगर है जो बड्डा ही विशाल है । ५३ इक्ष्वाकुके वंश में अत्यन्त बली वीर दशरथ नामक महाराजा रहते है। उनकीतीन रानियों से बढे ही उत्तम गुणवान् एवं वीर चार पुत्र हुए। ज्येष्ठरामजी, उनके बाद भरत, फिर लक्ष्मण और उनसे भी कनिष्ठ पुत्रशब्ग्ध्न,, जो सकल गुणोंसे सम्पन्न है। ५४ ज्येष्ठ पुत्र राम पिता कीआज्ञा से सकल राज्य का त्यागकर वन मैं रहने के लिए सीता और लक्ष्मणको लेकर अत्यन्त प्रसन्नतापुर्वेक एक दिन पंचवटी गये, जहाँ प्रभु का पड्डावपड्गा। रावण नेअति छल करके सीता का हरण किया । १५ राम-लक्ष्मण की अनुपस्थिति मैं (रावण ने) जैसे ही सीता की चोरी की, वैसेही इस सत्य को जानकर राम के मन मैं घोर चिन्ता और विरह उत्पन्नहो आया। सीताजीकी खोज मैँ जाते हुए वन में (राम से), जटायुसे भेंट हुई। उन पर प्रभुकी क्र्पाहुई और वे वहीं तर गये । ५६ नेपाली-हिन्दी भेट् सुग्रीवूसित भो पछी प्रभुजिकोबाली मारि “रजाइँ बक्सनुभयोवीर् वीर् वानर छानि सुग्रिवजिलेहृकुम् बक्सनुभो र वीर्हरु गयातिन्मा एक् विरता मह मत यहाँसम्पाती-सित भेट हुँदा खबर भैलंका दाखिल भै गयाँ छिनमहाँफुल्खयाँ ल॑ंकिति देखि निभेय -भईदेख्याँ सुन्दर वाटिका वरिपरीबेह्वघाका चहुँओर रत्न सरिकादेख्या आज सिताजिलाइ र यहाँयेती बिन्ति गरेर चुप् भइरह्यासीताजिले जब इ बात्आश्चयं भैकन वरीपरिकोही नदेखि ति सिताभन्छिन् कुरा इ कहन्या जन १६१ लाया मित्यारी पत्ति ।मित् हुन् इ मेरा भनी ॥सीताजि खोज्नै भनी ।सीताजि खोज्नै पत्ति ।१७।आयाँ समुत्रै तरी ।उनूका वचनूले गरी ॥रामूका प्रतापूले गरी ।अश्शोक वनूमा परी ।५८।ख्ख् बेस् लताले गरी ।फल् फूल् फल्याका भरी ॥आनन्द पायाँ भनी।ताहाँ हनूमान् पनि ॥५९॥क्रमले सुनीथिन् । हेरि एकछिन् ॥ अरुलाइ ताहाँ। को छ याहाँ॥६०।॥। ज्रस् हो भनूँ पनि भन्या सब चेत् छ मेरा। स्वप्ता कसोगरि भनूँ नि 'बाद मैं प्रभुजी की भेट सुग्रीव से हुई और उनसै बालि को मारकर और उन्हैँ (सुग्गीवको) द् छैन मेरा॥ । भित्ता हुई। उन्हेनि अपना मित्न कृह् कर राज्य सौंपते कीक्पाकी। एक सै एक वीर वानरौं को चुनकर सुग्रीवजी.ने सीता जी की खोज मैं भेजा! समस्त वीर सीता की खोज मै चलपड्रे। २७ उनमे से एक वीर तो मैं स्वयं हुँ । संपाती से भेंट होने पर (यह) समाचार मिला और उन्हीँ के कथनानुसार, राम की क्र्पा से मैं क्षण-भर में ही लंका मैं प्रबिष्ट हो गया ।बच निकला और अब अशोक वन मेैँ आया लँकिनी से भी निभंयतापू्वँकहँ। १० चारो ओर वृक्ष और सुन्दर लताएँ देखी, रत्नौं के समान फल-फूलों से भरी हुई एक सुन्दर बाटिका देखी ।हुआ । इतनी विनती-कर हनुमान जी मौन हो गये। ५९ आज सीता माता के दशेन पाकर बडा आनन्द प्राप्त सीता ने जब इन बातौं को क्रम से सुना तो आश्चयं-चकित हो चारो ओर देखनेलगी और किसी को वहाँ न देख कहने लगी-यह् सब बातेँ कहनेवाला यहाँ कौन जीव है ? ६० यदि मैँ इसे भ्रम कहर, तो किस प्रकार ? मैं १६२ भागुजप्न्राणासण जो होइ बात कहन्या उ अगाडि आई । अमृत् वचन् इसीताजिको यत्ति वचन् जव अति आज भनोस् मलाई ॥६१॥। गुन्न पाया । साचू स्वरुप् लि हनुमानूजि अगाडि आया ॥ दशन् प्रणाम् पनि गच्या र सिताजिलाई ताहीं खडा भइ र्च्या अविलाल् मुख् पीत गरीर् णरीर् पनि अधिक्धाच्याका हनुमान देखि मतलेरावणको छल हो कि यो गनि तहाँशंका भो अव माइला भन्ति छट्हे माता! म त दास छू हजुरआयाकीो छु हजूरको खबरमाराजा सुग्रिवको म सन्त्ि पनि छूथेती बिन्ति गरेर चुपू भइ रह्यासीताजी पति भन्दछिन् कसरि योबानर् मीत मित्यारि लाउँछ कर्त तो सचेतङँ। यदिख्वप्तभेरे सम्मुख आकार इन अमृत-तुत्य वचनां को थे वचन सुनते ही हनुमान अपना छोटा-ता रप धारण किउन्होमि सीता जी वग दर्शन कर प्रणाम किया और अत्यन्तहनुमान कन्त छोर आकारसोचा कि कहीं रावण ह्वी सामने आये ।हर्पोन्मुख होकर उनके आगे खडे रह । ६२पीला शरीर और गोरेया के समान 5सीता जी के मन में शंका उत्पन्न हुई, उन्होनेतो नहीं उनके साथ पुनः छल कर रहा है । को मँह नीचा किये देख कर हनुमान समझ गये कि उन है, अतः बे तुरन्त बोल पडे--६३ मैसो नही रही हँ। हरप॑ पाई ॥६ भकरा र सानू सरी ।आफैं ति गणका परी ॥ब्रोल्या हनमान् तसै।६३राम् हुकम्ले गरी ।गम्भीर समुद्रै तरी ॥वायु पिता दृन् पनि ।क्या ठ्रुन्छ मर्जी भती।६४जान म मानरिस् पनि ।क्या हुन् कुराको जनी ॥ जोभी होवसीता जी के टाहग उन उ्नक्के खर (मजा 1 न ८५नाल मुँह तथादेख कर हौँ विचारो मे इब्ी सीताशंका हो रही हे माता ! मैं तो आपका सेवक हूँ। राम की आज्ञा से कठिन समुद्र को पार कर यहाँ आपकी सूचना लेनेआया हूँ । राजा सुग्रीव का मैं मंत्ी है और वायु मेरा पिता है। इतनाकहकर चे मौन होकर सीता की आाज्चा की प्रतीक्षा करने लगे । ६४सीता जी कहती है कि मैँ यह कैसे मान लूँ कि बानर और मनुप्य कैबीच भी मित्नता होती है? कहाँ क्या वात है, मैं वास्तविक सत्य को कैसे जानूँ ? अविश्वास प्रगट कर सीता जी जैँसे ही चुप हुई, वैसे ही नेपाली-हिन्दी १६३ येती बोख्ति सिताजि चुप भइरहिन् साँचो नमानी जसै।फेर् वृत्तान्त गरी सुनाइ सब बातृू औंठी दिया पो तसै।६५।औंठी दीकन फेर् प्रणाम्ू पति गरी जस्सै हनूमान् बस्या ।देखिन् औंडि जसै तसै बखतमा हर्षाश्रुधारा खस्या॥बर्बर् आँसु खसाउँदै प्रभुजिको औंठी शिरोपर् धरिन् ।साह्लै खुश हनुमान उपर् भइ तहाँ प्राण् झैं पियारो गरिन् ६६ हित गरि हनुमानूजीलाइ भन्छिन् ति माता ।सकन तिमि भयौ खुप् प्राणका आज दाता ॥तिमिसित रघुनाथूले खुब विश्वास सान्या।तब मसित पठाया येहि कामले त जान्याँ ॥६७।॥।अव त तिमि हनूमान् जल्दि गै रामलाई ।भन विपति पच्याकी देखिहाल्यौ मलाई ॥जति गरि म उपर् श्रीरामको हुन्छ माया ।तति गरि तिमिले खुप् युक्तिले बिन्ति लाया ॥६८।॥। जिनृतिन् शरीर महिना दुई ता म धर्छु।ताहाँपछी त तिमि निश्चय जान मर्छु॥खान्या छ दुष्ट तरकारि बनाइ येही।छैनन् यहाँ अरु सहाय मलाइ कोही ॥६९॥ हनुमान ने पुनः विस्तारपूर्वंक सारा वृतान्त सुनाकर उन्हे श्रीरामचन्द्र जी कीअंगुठी दी । ६१ अंगृठी देकर हनुमान ने पुनः प्रणाम किया और वहींबैठ गये । सीता जी अंगुठी देखते ही हर्ष से विभोर हो उठी औरउनके नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित हो चले। अश्रु वहाते हुए उन्हाँने प्रभुकी अंगुठी अपने मस्तक से लगाली। हनुमान के झपर अत्यधिकप्रसन्न होकर उन्हेँ प्राणों से बढ कर प्यार किया । ६६ हनुमान के प्रतिकृतज्ञ होकर सीता माता कहती हैँ-आज तुमने मुझको जीवन दिया है,अतः तुम मेरै प्राण-दाता हुए हो। अव मैं मान ययी कि प्रभु ने तुम्हारेअपर विश्वास कर इसी काम से मेरे पास भेजा है । ६७ हनुमान !अब तो शीम्न ही तुम राम के पास जाकर मेरी विपत्तियों का हाल कहदो। जैसा तुम देख रहे हो, श्रीराम से उसी प्रकार युक्तिपू्ण विनतीकरना, जिससे उनकी सहान् क्र्पा शीव्रातिशीघ्र हो। ६५ एकन्दी माहतक तो मैं किसी प्रकार अपने शरीर को धारण किये रह्ँगी, ततश्चात्तुम निश्चित जानो कि मैं जीवित रहने मैं असमर्थ हो जाउँगी। ये ढुप्ट
१६४ भानुभक्त-रामायण तस्मात् अवश्य इ दुई महिना नजाई। सुग्रीव् समेत् सकल सैन्य लियेर आई ॥ यस् ढुष्टलाइ सव वंश समेत माख्नू। यो दुःख-सागर पच्याकि मलाइ ताख्न् ॥७०॥ सिप सित गरि बिन्ती खुप् दयालू बनाया । जति छ फजिति मेरा यो सबै थोक् जनाया ॥ यति विनतति गन्या लौ पाउला धसँ धेरैँ। सकल भनि सक्याँ बात् क्या भनूँ बेरबेरैँ ॥७१॥बिन्ती श्री हनुमानले पनि गच्या माता म सेवक् तहूँ।ख्वामितृका इ विपत् सबै म कहुँला धेर् बात् यहाँ क्या कठँ॥रास् लक्ष्मण् दुइ भाइ सुग्रिव समेत् बानर् कि सेना लिई।वंशै रावणको विनाश् गरिदिनन् घेरा शहर्मा दिई ॥॥७२॥ख्वामितूलाइ लियेर फेरि रघुनाथ जानन यअयोध्यामहाँ ।आवैनन् रघुनाथ्, भनेर मनमा शङ्का नलागोस् यहाँ॥यो विन्ती सुति भन्दछिन् हि सिता राम्चन््रजी क्या गरी।सेना लीकन आउनन् अति गभीर् यस्तो समुद्रै तरी ॥७३॥ 0004मुझे तरकारी बनाकर खा डालेगे । यहाँ मेरा सहायक, मेरी रक्षा करने- वाला कोई नही है। ६९ उनसे कहना कि ये दो महीने व्यतीत होने- के पुर्व ही निश्चित रूप से सुग्रीव-सहित समस्त सेना लेकर आयें औरइस दुष्ट को सपरिवार नष्ट करके इस दासी को ढुःखसागर से उबारले । ७० अप्यन्त चातुर्यप्रुवंक विनती करके प्रभु का हृदय दया औरकरुणा से द्रवित कर देना। जो भी मेरी कष्टमय दशा है, विस्तार-पू्वेक कह देना । केवल इतना ही कर देने से तुम्हैँ एक महान् धमकरने का पुण्य प्राप्त होगा । अपना सब हाल तुमसे कह् डाला, अबऔर क्या कह ? ७१ थ्रीहनुमान ने भी विनती की, हे माता! मैँतोसेवक हूँ। स्वामितनी की समस्त विपत्तिजजक कथा कह सुनाउँगा ।मुँह से अधिक क्या कङ्रै ! राम-लक्ष्मण दोनों भाई एवं सुग्रीव समस्तवानर-सेना सहित यहाँ आयेगे और सारे नगर मैं घेरा डाल कर रावण काउसके वंश-सहित नाश कर डालेगे । ७२ स्वामिनी को लेकर रघुनाथपुनः अयोध्या जायेंगे । आप मन में तनिक भी चिन्ता न करेँ। आपऐसी शंका न करे कि रघुनाथ कदाचितृू न आयें, वे अवश्य आयेगै ।यह विनती सुनकर सीताजी कहती हँ कि लंका आने के मागे मैं पड्ने-वाले ऐसे गम्भीर-गहन सागर को श्रीरामजी सेना-सहित किस प्रकार पार नैपाली-हिन्दी १६५ जननिकत बुझाया यो हुकम् सूनि ताहाँ। सइ छु प्रभुजिको दास् बोकुंला पीठमाहाँ ॥ रघुपति दुई भाईलाइ क्या दुःख पर्छन् । सकल अरु र सुग्रीव कृदि आफै ति तछँन् ॥७४।। जननि ! म त बिदा झट् पाउँ मर्जीत सूच्याँ । अब त उह गया पो हुन्छ काम् जल्दि हन्या ॥ जउन चिज दिंदामा राम विश्वास मान्छन् । उहि चिज पत्ति पाउँ जान्छु दिन् माब्न जान्छन् ॥७५॥ यति सुत्ति अघिदेखिन् केशपाश्मा धप्याको । मणि झिकि दिइहालिन् रामको मन् पन्याको ।॥। मणि दिइ फिरि भनुछिन् चित्नकृट्मा भयाको ।. शरण परि नजर् दी काग बाँची गयाको ॥७६॥।एक् दिन् है हनुमान् ! म चित्नकुटमा रास्का नजीक्मा थियाँ ।मेरा काखमहाँ सुत्या र रघुचाथ्ू हात्को तकीया दियाँ॥मेरा लाल् दुइ पाउ देखिकन काग आयो र ठुँग्यो जसै।मेरा ई दुइ पाउदेखि बहुतै आयो रगत् पो तसै॥७७। कर पायेंगे ? ७३ सीताजीकी यह शंका-युक्त वात सुनकर हनुमानने समझाया--मैं तो प्रभूजी का दासह्रँ। उन्हैँ पीठ पर उठा लँगा।राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को कैसे कष्ट उठाना पड्डंगा। समस्त वानर-सेना तथा सुग्रीव (आदि) छलाँग मार कर स्वयं ही पार हो लेगे। ७४हे जननी ! अब मुझे शीघ्र ही जाने की आज्ञा दें। आपकी आज्ञा काप्रत्येक शब्द मैन ध्यानपूर्वक सुन लिया है। अब यहाँ अधिक रुक्ने सेकाम नही बनेगा, शीप्नातिशीघ्न जानेसे ही होगा। मुझे कोई ऐसाचिल्ल दै, जिसे देखकर राम को विश्वास हो जाये; मैं बही लेकर चलाजाउँ । समय व्यथं ही व्यतीत न हो जाय। ७५ ऐसा सुनकर' (सीताने) पह्ले से ही केश-पाश मैं, धारण किये हुए मणि को तिकाला, जोराम के मन को अधिक भाता था, वही हनुमान को दिया। सणि देकरचित्वकूट मैं घटित एक घटना सुनाते लगीं। यहृ् घटना एक शरण मेंआये हुए कौए की, उनकी कृपा-दृष्टि द्वारा वच जाने के विषय मैँ थी।बे पुनः कहती हैँ--७६ हे हनुमान ! एक दिन मैं चिल्कूट मै रामजीके निकट थी। वे मेरी गोद मे हाथ का तकिया लगा कर लेटे हुए थे।मेरे दोनों लाल पाँचौं को देख कर एकाएक, एक कौए को भ्रम हुआ -औरउसने आकर जैसे ही मेरे पाँचो मै चोँच मारी कि दोनो पावौं से रक्त १६६ ञठी श्रीरघनाथको नजर भोफ्याँक्या एक् तृण ली तहाँ प्रभुजिलेत्यो काग चौधभुवन् डुल्यो त पत्ति एक्फेरी आइ शरण् परी नजर दी मेरो आज शरण् पच्यो भनि दयाञ्जै माथी त दया कसो हुनगयोहात् जोरीकन बिन्ति फेरि हनुमान्याहाँ छन् भनि यो खबर् नभइ पोरावण्ले हरि ली गयो भनि खवर्आज् तक् रावणको कुलै प्रभुजिलेदेख्छ रूप त सानु मानु भङिराराक्षस् नाश् तिमि गदेछौ तिमि ठुलातिम्रो खूपू अति सानु देख्छु अरु तासंझन्छ मनले र गस्छु सनमायस्तो मजि सिताजिको सुनि तहाँमेर तुल्य स्वरूप् गरेर हनुमान् बह् निकला । ७७ श्रीरघुनाथ ने उठ कर देखा । “ भानुर्भक्त-राँमार्यण ही थियो काग् पत्ति।यो काग मार्छ भनी॥पायेन आधार् जसै।बाँची गयो काग् तसै ।७८। आयो उ कागूमा पति।भन्थिन् भन्या यो पत्ति ॥वीर् गर्ने लाग्या तहाँ।आउन ढीलुभो यहाँ॥७९॥हुन्थ्यो त बाँच्थ्यो कहाँ।सब् भस्म गर्थ्या यहाँ ॥जब्बो कसोरी लडी।हुन्छौ स्वरूपकी वढी ।५०।कत्वा हुनन् झन् भनी।आश्चर्य मान्छु पत्ति॥पर्वत् सरीका भया।साम्ने खडा भै रह्या।८१। कौआमभी वहीं था। इस कौए को मारने के लिए रघुनान नै ककड उठाकर प्रहार किया।कौआ चौदहो भुवन मे घुमा, परन्तु कहीं उसे कोई सहारा न मिला औरपुनः उन्हीं की शरण में.आ गिरा। रामकी ही क्रकृपादृष्टि पाकर उसकौए के प्राण बच गये। ७८ श्रीराम ने देखा कि अन्त मैं कौआउन्ही की शरण मै आया। यही देखकर उनका हृदय पक्षी के प्रतिकरुण हो उठा और उन्होने उसकी रक्षा की। अतः वे मेरे ञपर भीअवश्य दया करेँगे और इन दुष्टों से मेरी रक्षा करेगे । हनुमान पुनःहाथ जोड्कर' विनती करने लगे-है माता ! आप यहाँ हैँ, यह पता लगानेमै ही विलम्व हुआ है। ७९ यदि यही निश्चय होता कि रावण द्वाराआपका हरण हुआ है तो वह वच कर कहाँ जाता ? प्रभु ने अब तकरावण को उसके वंश-सहित नष्ट कर डाला होता । हनुमान की विनतीसुनकर सीता कहती है कि तुम्हरा रूप तो मैं अत्यन्त सुक्ष्म देख रही हुँ।गौरैया चिडिया के समान हो । किस प्रकार लड्कर तुम रावण के वंशका नाश करोगे ? तुम वडे होगे या तुम्हारा स्वख्प वड्डा होगा। ००' तुम्हारा छप तो मैं अत्यन्त छोटा देखती ठुँ। मैं विचार करती हँ तोसोचती हूँ, तुम्हारे अन्य साथी कैसे होंगे। यह सव सोच कर आङ्चयं नेपाली-हिन्दी १६७ जव त ति.हनुमानूको रूपू ठुलो देखिलीइन् ।खुशि भइ तहिं बीदा, माइले जल्दि दीइन् ॥अब त तिमि हनूमान् धुष्ट चाला छिपाङ।इनिहरु सब देख्छन् कूदि फेर् जाइ जाञ ॥८२॥। यति सुति हनुमान्ले फेरि बिन्ती लगाया ।. सहज सित मस जान्थ्याँ केहि फल् खान पाया॥वरिपरि फल फूल् छन् मजि मात्रै म पाऔँ।हुकुम बिनु कसौरी आज आफै म खाउँ ॥८३।॥।यति वितति गच्याथ्या खानको मजि पाईखुशि, भइ फल खाई माइथ्यै जल्दि आई ॥चरण परि बिदा भै क्यै गया दूर् जसै ता।अलिकति कछु काम् फेर् गने आँटया तसै ता ॥५४।॥।आफ्नै मन्मन भन्दछन् ति हनुमान् जुन् वीर दूत् भै गई ।॥जत्ती ख्वामितको हुक्म् छ उतिमा माल्लै चवाखो भई ॥उत्ती काम गरि फिर्छ पो पनि भन्या ' त्यो दृत् अधम् हो भनी ।भन्छन् 'सब् दुनियाँ त भैंटिकन जाँ कस्तो छ रावण् पनि।८५।' यति गमि ति बघ्ैचा फैक्न मनसुब चलाई ।'.खुशि भइ ति महावीर् जल्दि फ॒कि आई ॥ जी होताहे। सीता की यह आश्चरयपूर्ण वाणी सुनकर मर पत करैससात्त विराट् छूप धारण करके हनुमान सीता के सम्मुख खड्टे हो गये । ०१सीता माता ने जब हनुमान का ऐसा विराट् छूप देखा तो अत्यन्त प्रसन्नहोकर उन्हैँ तुरन्त विदा किया । उन्होने कहा-हनुमान अव अघिक नदिखाओ, अपने कौशल को छुपा कर रक्खो, अन्यथा यहाँ के लोगो केसम्मुख प्रगट हो जायगा । अतः तुरन्त कूद कर चले जाओ । ८२ यहसुनकर हनुमान ने पुनः विनती की कि हे माता। यहाँ चारो ओर फल-फूलादि भरे पड्डे हैँ। यदि इतनी आज्ञा हो तो मैं कुछ खा लूँ तब जाऔँ ।बिना आपकी आज्ञा, मैं स्वयं कैसे खा लूँ? ०३ उनकी इतनी विनतीसुनकर सीता ने आज्ञा देदी। उन्होने प्रसञ्च होकर फल-फल - खायेऔर तुरन्त माता के निकट आकर विदा ली। जैसे ही कुछ दूर गये थेकि कुछ और काम करना चाहा । ०४ वे मन-ही-मन वोले--हनुमान एकवीरदूत होकर गया, जितनी स्वामी की आज्ञा हुई, उतना ही करकेवापस लौटने पर सारी दुनिया कहेगी कि वह् दूत अधम हैँ। अतः १६८ भानुभक्त-रामायण सकल वन खखेल्दै चौकि सम्पुर्ण माज्या। फकत जननि बस्न्या एक् सिसौ शेष पाच्या ॥५६।। जब त वन बिनास्या राक्षसी जल्दि आई।॥ पुगि नजिक सितताका सोधि सीताजिलाई ॥ भन न तिमि सिताजी वीर् को हो क्यान आयो। अति असल बचैंचा मासि मैदान् बनायो ॥5७॥। यति सुनि तहि सीता भन्दछिन् क्या म जानूँ । बिपत परि रद्याकी छम ता चानुमानू ॥ तिमि बुझन सबै बात् कौन हो क्या न आयो । अति असल ब्ेँचा क्यान मैदान् बनायो ॥द८॥ सकल छल त हो यो राक्षसै गर्छे माया । जब त यति भनीथिन् राक्षसी सब् डराया॥ कहन भनि गया सब् रावणैका हजूर्मा ।॥ पुगि कहन ति लाग्या बन् गयो जो बिसुर्मा ॥॥5९॥ऐले हे महाराज् ! अधीक बलियो आयो र वानर् यहाँ।सीताजीसेँग केहि बातूचित गरी कृद्यो बघेँचामहाँ॥ 3 रावण से भेंट करके भी देखना चाहिए, वह कैसा है। ५५ ऐसा बिचार कर अशोकवाटिका उजाइने की आकांक्षा से प्रसन्न होकर वह महावीरपुनः लौट आया । सारेवक्षोंको नष्ट करतै हुए समस्त वाटिका कोउजाड डाला। केवल वही शिशपा का वृक्ष, जहाँ सीता माता बैठतीथीं, शेष रह गया । ५६ जब सारी वाटिका उजड्ग गयी, तब वहाँ एकराक्षसी तुरन्त आ पहुँची और सीता के निकट आकर वबोली-सीता तुमबताओ, यह वीर कौन है ? क्यों आया है? ऐसी उत्तम वाटिका कोनष्ट करके मैदान्त क्यों बनाया ? ८०७ सीताजी ने कहा--मैं क्या जानूँ !मैं तो स्वयं ही विपत्ति मैं पड्डी हुँ। स्वयं ही समझो, कौन है, क्योंआया है और इन उत्तम बगीचों को मैदान क्यों बनाया ? पप सतछल है। सीता की यह वात सुनकर राक्षसी डर गयी और सब कुछकहने के लिए रावण के पास गयी । उसने रावण के पास जाकर कहाकि वन में एक वीर सुरमा आया है। ५९ हे महाराज ! - अभी आज यहाँ एक बलिष्ठ वावर आया। सउसने सीताजी से कुछ बातचीत की ' और बगीचे की ओर कूदा और सारे वृक्षो को बडी सरलता से उखाइ कर सारा वगीचा मैदान बना दिया। चौकी को चूर्ण कर हवेली को :नष्ट कर के बैठा है । ९० मैं तो यही विनती करने के लिए,आयी हुँ। नेपाली-हिन्दी सब् तो रुख् सहजै उखेलिकन साफ्चौकी चूर्ण गरी हबेलि पनि सब्आयौं हामि त बिन्ति गने भनि योसून्यो जल्वि उठेर पक्रन भनीहुकम् पायर लाख लश्कर गयोएक् लाख् लश्करलाइ देखि हुनुमानूत्यो गब्दै सुति मोह लश्कर भयोसब् माण्या हुनुमानले क्षणमहाँलोहस्तम्भ उठाइ साफ् सब गण्यारावण् खूब रिसाइ फेर् पत्ति ठुलोसेनाका पति पाँच्ू गया हुकुमलेत्यो सेवा पत्ति साफ् तहाँ गरिदियाफेर् मन्त्ठी सुत सात् गया हुकुमलेलोहस्तम्भ उठाइ साफ् फिरि गण्यासात् मन्त्री सुतलाइ सैन्य सहितैकान्छो रावणपुत्न अक्षयकुमार् “१६९बैदात् बनाईदियो।नासी बस्याको थियो।९०।बिन्ती गप्याथ्या जसै।लए्कर् पठायो तसै॥पक्रेर ल्याँ भनी।अत्यन्त गर्ज्यी पनि।९१।छोड्यो हतीयार् पनि ।ई हुन् भुसुना भनी ॥समूचार् पुगेथ्यो जसै ।सेना पठायो तसै । ९२ ।ठूलै थियो तापनि ।उस्तै भुसुना गनी॥खुप् भारि लश्कर् लिई ।सब्लाइ ठक्कर् दिई ।९३।मारी सक्याथ्या जसै ।पो लड्न आयो तसै॥ रावण ने जैसे ही यह विनती सुनी, उसने उठकर सेना को आज्ञा दी किउसे (हनुमान को) पकड लिया जाये। आज्ञा पाकर लाखों सैनिक दौडपड्रे । एक लाख सैत्तिको को देख कर हनुमान ने तीव्र गजेना की। ९१उस गजँना को सुनकर समस्त सैन्य-दल आक्नुष्ट हो उठा और अपने-अपने'हृथियार डाल दिये । हनुमान ने भी सबको भुनगे की तरह क्षण-भर मैंही नष्ट कर डाला। गदा उठाकर सबका सफाया कर डाला। जब यहसमाचार (रावण के पास) पहुँचा तो रावण ने पुनः एक विराट् सेनाभैजी । ९२ आश्चञानुसार सेना बडी होते हुए भी साथ मैं केवल पाँचसेनापति ही गये; हनुमान ने उस विराट् सेनाका भी उसी प्रकारसफाया कर डाला। इस बार तो गिन-गिन कर एक-एक को समाप्तकिया। उसके बाद रावण ने फिर एक भारी सेना भेजी जिसके साथ मेसात संल्ली गये। (हनुमान ने) गदा उठाकर इन सबको भी धकेलते हुएसमाप्त कर दिया । ९३ जैसे ही सेना-सहित सातौं मंच्ियों को समाप्तकिया, वैसे ही रावण का कनिष्ठ पुंत्च अक्षयकुमार लड्ने के लिए आया।तितली की तरह जैसे ही वह भारी सेना लेकर पहुँचा, वैसे ही हनुमानआकाश'की ओर उछ्लेः और गदा-से सरलतापुर्वेंक उसके सिर पर प्रहार १७० भारी फौज लियेर त्यो पुतलि झैंआकाशूमा कुदि लोहदण्ड शिरमापैले अक्षकुमार मारि अरु सब्आउँ दैमा तहि बत्तिका पुतलि झैंसब् राक्षसूहरुलाइ मारिसकि फेर्लोहस्तम्भ लिई खडा भइ रह्या भागुभक्त-रामायण आई जसै ता पप्यो।ठोक्या सहज्मा मच्यो।९४।सेना समेत् नाश् गच्या ।हँदै अनेक् वीर् मच्या ॥आउँछ कुन् वीर् भनी ।ताहाँ हनूमान् पत्ति ।९५। जब त अति पियारो पुग्न कान्छो मप्याको । खबर कहन आयो फौज् समेत् नाश् गप्याको । तब त अधिक ताप् भै भन्छ रावण् रिसाई । अब त गइ म आफै मादँछ् तेसलाई ॥९६॥की मार्छु कित बाँधि ल्याउँछु यहाँ तेरा. नजीकूमा भनी।रावण्ले यति इन्द्रजित् सित भन्यो तेस् इन्द्रजित्ले पनि ॥हात् जोरीकन बिन्ति गर्छुम छँदै आफै इजूरले ठहाँ।जानूपछे कतै म गै सहजमा ल्याउँछु बाँधी यहाँ ।९७।येती बिन्ति गरी चढ्यो रथमहाँ क्यै फौज् पनी साथ् लिई।आयो श्री हनुमान् भयातिर गयो साम्ने मुहूडा दिई ॥देख्या श्रीहनुमानले पनि र खुपू गर्ज्या ति साम्ने भई।-लोहस्तम्भ लिई कुदीकन उपर् आकाश बीच्मा गई ।९०। किया और मार डाला । ९४ इस प्रकार (हनुमान ने) अक्षयकुमारको मार कर (उसकी) शेष सेना को भी नष्ट किया। आते ही दीपकके उपर नष्ट होनेवाले पतिगों के समान सारे वीर समाप्त हो गये। सबराक्षसों को मारकर हनुमान यह सोच कर कि अब कौन सामने आता है,वहीँ गदा लेकर खड्े रहे । ९५ जब अपने अति प्रिय कनिष्ठ पुत्न केसेता-सहित मारे जाने की सूचना रावण को मिली तो वह अधिकचिन्तित हो क्रोध से कहता है--अब तो मैं स्वयं जाकर उसे मारगलूँगा । ९६ अब या तो उसे मार ही डालुँगा, या बन्दी बनाकर तेरेनिकट ले आउँगा । इन्द्रजीत से रावण ने इतना कहा, तो वह हाघजोड्कर विनती करने लगा--मेरे होते हुए श्रीमान् को वहाँ जाने कीआवश्यकता नहीँ। मैँस्वयं ही जाकर वहाँ से 'उसे बाँध कर यहाँलाउँगा । ९७ इतनी विनती करके वह रथ पर आ-चढा और कुछ सेनाभ्रीसाथमैँलेली। जहाँ हनुमान थे वहीं जाकर सामने घेरा डाला।श्रीहनुमान ने देखा-और तीन बार गरज कर आकाश की ओर उछले और नेपाली-हिन्दी लोहस्तम्भ उचालि घुम्न बिचमापाँच् वाण् छोडि लगाइ आठ अति थपीबाण् लाग्या भनि इन्द्रजित् खुशि भईघोडा सूत् रथ चूर्ण पारि हनुमान्फेर् अर्का रथमा चढेर अब ताफाँक्यो जल्दि र ब्रह्मापाश् ति हनुमान्बाँधी श्रीहनुमानलाइ सँग लीबाँध्याका हनुमान देखि शह्रैजुन् रास्का चरणै स्मरण् गरि सहज्वैकुण्ठै सब पुग्दछन् भनि भन्याबाँधिन्थ्या हनुमान् कहाँ तर पनीरावण् भेटि त जाँ भनेर हनुमान्जस्सै' इन्द्रजितै गयो र हनुमान्-फर्क्थ्यो घर जाँ भती तब तहींरिस् फेन्या पुरवासिले पनि मुठीरिस् फेर्छन् भुसुना' भनेर हनुमान् पृष१ लाग्या गरुड् झैं जसै।फेरी लगायो तसै॥गर्ज्यो जसै ता ठहाँ!कृद्या ति आकाश महाँ।९९।बाँध्छ् म ऐले भनी।जीलाइ बाँध्यो पनि ॥फर्क्यो र दर्बार् गयो ।सम्पूर्ण खूशी शरयो ।१००।अज्ञान पाश् नाश् गरी ।तेस् ब्नह्मपाश्मा परी ॥बन्धन् पन्या झैं भया।चुपूचाप लागी गया।१०१।जीलाइ बाँधी तहाँ।आयेर रस्तामहाँ ॥उठाइ हान्दा भया।चुपूचाप लागी गया ।१०२। गदा लिये हुए आकाश के बीच में पहुँचे । ९८५ वे गदा बुमाते हुए गरुडकी तरह सध्य आकाश में ही मँडराने लगे। इसी समय (इन्द्रजीत नेउन पर) पाँच बाण छोड्टे-आठ बाण और लगाये और उसके ञपर औरचलाये । बाण लगा, समझ कर इन्द्रजीत ने प्रसञ्च होकर जैसे ही गजेनाकी, वैसे ही घोडा-सहित रथ को घ्रकर हनुमान आकाश में कूदे। ९९फिर वह दूसरे रथ मैं चढा और “अब तो इसे वाँध लुँगा', यह सोचकरशीश्नता सै ब्रह्वापाश फेंक कर हनुमान जीको वाँध लिया। हनुमानकोबँधे देखकर सारा नगर प्रसन्नता मैं डूब गया । हनुमान को दरबार मेललेजाया गया । १०० जिस राम का स्मरण करने-माल्न से ही मनुष्य अज्ञचान-पाश से मुक्त हो जाता है और बैकुण्ड पहुँच जाता है, तो भला (उसराम के कृपापात्न भक्त एवं ढूत) हनुमान (जिससे इन््रजीत ने उन्हे वाँधाथा) उस त्रह्वपाश से कहाँ बंध सकते थे? वे तो केवल बँध जाना दिखारहे थे (वह बँधना तो) बहाना-मात्न था, जिससे वे सरलता-पूवंक रावणसे मिल सके । १०१ जैसे ही इन््जीत हनुमान को वहाँ वाँधकर घरजाने के लिए लौटा, उसी समय माग सै नगरवासियों ने बदला चकानेके लिए मुट्ठी (मुक्का) उठाकर (हनुमान पर) प्रहार किया । यह सोच-कोर कि भुनगे बदला ले रहे है, हनुमान चुप-चाप (उनकी) मार खाते १७२ भानुभक्त-रामायण पैले ता ब्रह्यापास्मा परिकन क्षणभर् बाँधिनू काभ थीयो ।ब्रह्माको वाक्य साँचो गरिकन पछि ता पाशले छोडिदीयो ॥बन्धन्देखी त खुस्क्या तरपनि हनुमान् भेट्न सन्सुब्ू धच्याका ।पौँच्या रावण् छ जहाँ खुशिभइ अरुतामान्दछन् कर्पप्याका ।१०३। रावण् वीर् पनि मन्तिवगँ सँग लीपौँच्यो ताहिर इन्द्रजितृति हनुमान्-हात् जोरी विन्ती गच्यो अति हरीपूधेरै नाश गरेछ आज मइ गैजो गर्नू अब पर्छ मन्त्रि सँगकोयस्को आज ठिक्रान् लगाउनु हवस् भारी सभामा थियो।जीलाइ सुम्पीदियो ॥वावर् छ सेना पनि ।ल्यायाँ खुनी हो भनी १०४।सल्लाह बात्चित् गरी ।मन्मा विचार् खुपू गरी ॥ येती बिन्ति सुन्यो र इन्द्रजितको हेच्यो नजर्ले पति।लायो सोधन प्रहस्तलाइ किन यो आयेछलौ सोध् भनी१०५।अस्सल्मा पनि क्या भनूँ अति असल् मेरो बषेँचा पनि।नास्यो वीर् पनि नाश् गरयो मकन ता मानू भुसूना गनी ॥हृक्म् यो मुन्ति त्यो प्रहृस्त हनुमान् जीका अगाडी गई। लाग्यो सोध्न सबै कुरा पनि बहुत् आधार दीन्या भई।१०६। हुए बैठे रहे । १०२ पहले तो ब्रह्मपाश मै वंध जाने और कुछ देरइसीप्रकार बने रहने काकामथा | ब्रह्याके वचनको सत्य करने के वादउन्हैँ पाश से मुक्त कर दिया गया। बन्धन से मुक्त होने पर भी हनुमान -को तो रावण से भेट करना हीथा। अतः वे जहाँ रावण था, वहाँ गये;और लोगो ने यही समझा कि बे विवश करके लाये गये हैं, परन्तुहनुमान स्वेच्छापू्वंक (वहाँ) गये थे। १०३ रावण उस समय अपने वीरमन्त्ियों के साथ अपनो बिराट सभा का संचालन कररहाथा। बहाँपहुँचकर इन्द्रजीत ने हनुमान को रावण के हाथों मैं सौँप दिया। उसनेरावण के सम्मुख हाथ जोडकर विनती की कि यह बड्डा ही नटखट वाचरहै, इसने बडी-बड्डी सेनाओं का नाश किया है, अतः आज भैं स्वयंहीइस हत्यारे को पकड्कर लाया हूँ । १०४ (इन्द्रजीत ने आगे कहा--) जोकुछ भी करना उचित हो, अब सब मन्त्ियों से विचार-विमशे करके, आजही इसको ठिकाने लगाने को क्रपा करेँ। इद्धजीत की विनती सुनकररावण ने मत मैं एक पल विचार किया, फिर एक दृष्टि इन्द्रजीत परडाली और कहा--पूछो, इसीसेकि यह क्यों आया है? १०५ क्याकहुँ ! इसने मेरे अति उत्तम बगीचेको भी नष्ट कर दिया औरसारे वेपाली-हिन्दी यै बीचमा. नडराइ रावण उपर्बोल्या श्री हनुमानले तँ बुझिलेभार्या जसूकि हरिस् उनै जगतनाथूतेरो नष्ट भयो र अति दिनयोआया राम मतङ्ग पर्वेतविषेलाया सुग्रिवले मित्यारि खुशि भैबाली मारि रजाइँ बक्सनुभयोसीता खोज्न हुकम् हुँदा विरहरूएक् बीर् ता मइ हूँ हुकूम् शिर उपरपायाँ देख्न सिताजिलाइ दुत छैवानर् हँ र उखेलि साफ् गरिदियाँआया माने मलाइ जो अगि सरी यो इन्द्राजित् गइ यसै बाँधेर ल्याइकन आज १७३ सामूने नजर् दी तहाँ।कामूले त आयाँ यहाँ ॥राम्को म दास् हुँ, मति ।आयाँ नले यो मति।१०७।लक्ष्मण् सहित् भै जसै।राम्चन्द्रजी थ्यै तसै॥ सुग्रीव राजा भया।फेर् दस् दिशामा गया १००।लीयेर आयाँ यहाँ।रामूको मजान्थ्याँ कहाँ ॥तेरो बेचा पनि।उनूलाइ माथ्याँ पन्ि।१०९।बिचमा मलाई ।॥ दियो तँलाई ॥ बन्धन् परयो भनि नठान् त दियाँ जनाई ।खूला छु अति पनि दिन्छु म सुन् तँलाई ॥११०॥। वीरों को तो भूनगा समझकर सरलता .से मार डाला । ऐसी आज्ञा पाकर एक प्रहरी हनुमान जी के सम्पुख आया और आश्वासन देते हुए सभीबार्ते पुछ्ने लगा । १०६ इसी समय निडरताप्रुवंक रावण की ओर दृष्टिडाल कर .श्रीहनुमान जी बोले--समझ ले कि मैं यहाँ किसी कायंवशहीआया हूँ। जिसकी पत्नी का तुमने हरण किया है, उन्हीं जगन्नाथ रामकामै दासहँ। तेरी मति भ्रष्टहो गयी है और अब तेरे दिन, भीनिकट आ गये हुँ, अतः (यदि कल्याण चाहता है तो) अपनी विचारधाराबदल दे। १०७ जैसे ही लक्ष्मण-सहित श्रीराम मतंगपवेंत पर आये,सुग्रीवजी ने अति प्रसन्न होकर श्रीरामचद्धजी से मित्रता, करली।(श्रीरापचन्द्रजी ने) बालि को मारकर सुग्रीव को राज्य सौंप कर राजाबचाया और अब उनकी आज्ञा से ही सीता को हुँढने के लिए बहुत से वीरदसों दिशाओं मैं गये है। १०८ (हनुमान ने आगे कहा--) उन्ही मैँसेएक वीर मैं (भी) हँ। श्रीराम की आज्ञा शिरोधायं कर (यहाँ) आयाहुँ और सीताजी को देख चुका हुँ। रामका दूत हुँ। इसी लिए तेराबगीचा उजाड कर साफ्न कर दिया है और जो कोई भी मुझे मारने केलिए आया, उसे ही मैँने मार डाला। १०९ उसी समय यह इन्द्रजीतमुझे बाँधकर ले आया और, तुझ्े सौंप दिया है। यह न समझ कि. मैं, १७४ भापुभक्त-रामायँण लोक्को गती सब विचार् गरि आज तैले । यो राक्षसी मति नले हित भन्छ मैले ॥ ब्राह्वाण् तँ होस् त्रषि पुलस्त्यजिको त नाती । राक्षस् कसोगरि तँ होस् बुझिले न भाँती ॥१११॥। आत्मा स्वरूप उ त झन् छ स्वरूप काहाँ। जाती र वर्ण लिइ भन्न सकिन्छ याहाँ ॥ सो आत्मरूप भनि नित्य विचार गर्नू। आनन्दमा रहुँ भन्या मति येहि धने ॥११२॥जो यो लोकविषे प्रपंच छ सबै जान् स्वप्प जस्तो भनी ।सूतुन्ज्याल् सपना छ सत्य उठिता लाग्दैन साँचो पन्ति।तस्तै ज्ञान् त भयो भन्या ब्विभुवनै एक् देख्छ आत्मा फकत् ।अज्ञान्रूपूनिदमा पच्यो पनि भन्या देखिन्छ नाना जगत् । १ १३।आत्मा सत्य म हूँ भनेर बुझिले यस् देहलाई पनि।झूटो जान् पृथिवी र जलूहरु सिली झूटै बच्याको भती॥-तर्लास् यो मनमा लिइस् पत्ति भन्या तार्न्या उनै विष्ण् छन् ।जो हुन् विष्णु उ राम हुन् शरण पर् रिस् उठ्छतेरातझन्। १ १४। बन्धन मैं हुँ। मैं स्पष्ट कर देता छुँ कि मैं मुक्त हँ, तुझे उपदेश भी देताहुँ, सोसुन ! ११० जगत् की गतिको विचार करो और इस राक्षसीमतिका त्याग करो। मैँतेरे हित की वात कहता हुँ। तुम ब्राह्मणहो। श्रीपुलस्त्यजी के पौत्न (हो) । फिर तुम किस प्रकार राक्षस हो ।भलीभाँति विचार करो। १११। वह आत्मास्वरूप तो कहताहै किस्वरूप कहाँ है। जाति एवं वर्ण को लेकर जोकुछ भीयहाँ कहाजासकता है, उसी को आत्मस्वरूप समझकर विचार करो। यदि आनन्द-पुर्वक जीवन व्यतीत करना है तो ऐसी ही (मेरे उपदेश के अनुसार) मतिको धारण करो । ११२ इस जगत् के जितने प्रपंच हँ, उन सब कोस्वप्न-्सदुश समझो । जैसे सपना सोते समय तक ही रहता है, जागनेपर सब कुछ मिथ्या साबित हो जाता है, उसी प्रकार जब मनुष्य कोज्ञान प्राप्त हो जाता है, तव उसे तीनों भुवन एक ही आत्माके समानदिखायी देते हैँ। ११३ यह संमझकर कि सत्य आत्मा मैं हँ, इस शरीरको जो पृथ्वी-जल (आदि तत्वों) के मिश्रण से बना है, झूठ ही समझो ।.इस विचार को यदि मन मैँ रखोगे तो तर जाओगे । तारनेवाला वहीविष्णु है, वही राम है; उसी की शरण में जाओ ॥ क्रोध, जो (तुम्हारे'मन मै) उत्पन्न होता है, उसे त्याग दो। ११४ ऐसी मुखेता को मनसे , नेपाली-हिन्दी ' यस्तो मूखेपता नली अब सिताखुश् हनन् रघुनाथ् शरण् परि गयारास्को भक्ति- गरैन ता कसरियोपर्ला जन्मनु मर्न यै फजितिमायो जानीकन भक्ति गर् शरण पर्आफ्वू आत्म नरक् विषे नलइजासीताराम् सितको विरोध् गरि तँहेर्फेर् उत्तीण हुन् कठिन् छ बुझिलेयस्ता बात हनुमानका जब सुन्योलालु लाल् नेत्र गराइ भन्छ रिसलेमेरो डर् रतिभर् नराखि बहुतैरामू लक्ष्मण् दुइ भाइलाइ सहजैसुग्रीव्लाइ तलाइ मार्छु पछि फेरराम् लक्ष्मण् सित क्या डराउँछुर कीतिनका वानर सैन्यको पनि विनाशबोल्यो रावणले इ बात् सुनि तहाँ ५१७५ सुस्पी शरण्मा तँ पर्।यो दुष्ट चाला नगर् ॥संसार तर्ला उसै।छुट्तैन यो ताप् कसै। ११५।रास्का हजूर्ुमा गई।यस्ती तँ जान्त्या भई।गिर्लास् नरक्मा पनि।अर्ती दियाँयो पनि ।११६।रावण् रिसायो हहाँ।सुनाइ संसद्महाँ ॥क्या बोल्दछस् रे यहाँ।मार्छुम छोड्छ् कहाँ। ११७।माछ् सिताजी पनि।मार्नेन् मलाई भनी ॥गर्न्याछु येती जसै।बोल्या हनूमान् तसै। ११०। निकाल दो और सीता को लेकर प्रभुकी शरण मै जाओ। शरण मेंआया हुआ देखकर प्रभु प्रसन्च होंगे अत: यह दुष्टतापूर्ण व्यवहार न करो ।राम की भक्ति बिना किस प्रकार भव-सागर तरोगे ? इन्ही कष्टो मैं जन्मलेना पडेगा और अन्त में मरना पड्रेगा। यह (जन्म-मरण का) ताप(कभी नहीं छ्टेगा) । ११५ यह सब जानकर अब रामकी सेवा मेँजाकर उत्तकी भक्ति करो। अपनी आत्मा को नक की ओर मत लगाओ ।बुद्धि धारण करो और सीता-राम का विरोध कर तुम नक में ही गिरोगे,फिर उबरना कठिन हो जायगा । अतः मैं तुम्हैँ केवल ऐसा उपदेश दे रहाहँ, ऐसा समझ लो । ११६ हनुमान की यह उपदेश-पूर्ण बातें सुनकररावण को क्रोध आया। उसने लाल-लाल नेत्न कर कहा-मेरा किचित्मात भी ध्यान न रखकर, निडरतापुवंक यहाँ अधिक क्याबकताहै रे!राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को मैं सहज ही मार डालूँगा। मैं भला उन्हेकहाँ छोड् सकता हुँ। ११७ फिर सुग्रीव, और तुझे मारने के पश्चातसीता को सार डालूँंगा। मैंक्यों डरै कि राम-लक्ष्मण कहीं मुझेनमार डाले । उसकी वानरसेना का मैं विनाश कर डालुँगा। रावणनेजैसे ही इतना कहा कि हनुमान बोले--११० इस प्रकार व्यर्थ ही क्योंअहंकार करते हो । प्रभु को तो अलग रक्खो, तुम मेरे ही बराबर नहीं १७६ भानुभक्त-रामायण यसरि किन बहूतै गर्देछस् सेखि धेरै।प्रभुकन त परै राख् जोरि छैनस् तँ मेरै ॥अघि सँ ततै जस्ता कोटि रावण्, सम माछँ ।हुकुम त नभयाको माने पो आज क्यार ॥११९॥।यस्ता बात् हनुमानका सुनि तहाँ रावण् रिसायो अति।साँचा हुन् इ कुरा हुनाकनत हो लिन्थ्यो कहाँ दुर्मति॥यो वानर्कन काटि टुक् गर भनी यस्तो हुकम् पोदियो।हातृमा बेस् हतियार् लिई अगि सच्यो जुन् वीर् वजीकमाथियो२०यस् बीच्मात विभीषणै अगिसरी हात् जोरि बिन्ती गज्या ।दूत् हो यो महाराज् ! कुरा पति वहाँ लैजान्छ को यो मच्या ॥चिन्ह केहि लगाइ छोड् दिनुहुवस् जावस् र विस्तार् गरोस् ।येसै वानरका कुरा सुनि यहाँ आउनत् ति संग्राम् परोस्२१साँचो भन्या भन्ति बुझी कपडा मगायो।तेल् घीउले मुछि पुछर् भरि बेन लायो ॥हुकूम् दियो अब जलायर बाँधिलेङ।सारा शहर पनि घुमायर छाडिदेङ ॥१२२॥जावस् ठुटो पुछर लीकन फर्कि वबाहरीँ।पुच्छर् डढी नसकि छोड्नु छैन काहीँ ॥हो आगे बढ्कर तुम-जैसे कोटि रावणों को मैं मार डालुँगा। मारनेकी आज्ञा मुझे अभी नहीं मिली, क्या कर्खै। ११९ हनुमान की ऐसीओजपूर्ण बात सुनकर रावण को और भी क्रोध आया। हनुमान की कहीहुई बाते यद्यपि सत्य थीं, किन्तु रावण अपनी कुमति के कारण (भलाउन्हैँ) क्यों मान्ने लगा। उसने आज्ञा दी कि इस वाचर के टुकड्रे करदिये जायँ । उसकी आज्ञा पाकर, जो वीर निकट था, हाथ मैँ अतिउत्तम हथियार लेकर आगे वढा । १२० इसी बीच विभीषण ने आगे बढ्-कर करबद्ध विवती की-महाराज, यह तो दूत है, यदि यह मर जायगा तोवहाँ संदेश लेकर कौन जायगा ? कोई निशान लगाकर इसे छोड दे,जिससे कि यह् वहाँ जाकर सब विस्तारपूर्वंक कह् सके। इसी वानरकीबात सुनक्रर वे (राम-लक्ष्मण आदि) संग्राम के लिएँ(सामने) आयेँ । १२१विश्वीषण की बात सत्य मानकर उसने (रावण ने) एक वस्त्, मँगाया औरउसे तेल-घी मै भिगोकर हनुमान की पूँछ'मैं लपेट दिया और आज्चयादेदीकि इसकी पूँछ मै आग लगाकर सारे नगर मैं घुमाओ और छोड दो । १२२(रावण ने आगे,कहा-) अपनी जलती हुई पूँछ लेकर कहीं चलाजाय । जबः्तक नेपाली-हिन्दी १७७ यस्तो ' हुकूम् जव दियो तब बाँधिलीया । आगो पनी पुछ्रतीरबाँध्याका हनुमान् लिएर खुशिभैलाग्या घुम्त शहर् ति राक्षसहरूचुपू लागी हनुमान् पत्ती खुसखुरूढोका पश्चिममा पुगी शहरकोबन्धन्ू देखि त खुश्कि सूक्ष्म रुपलेठूलो स्तम्भ उठाइ राक्षस अनेक्बल्दो लागु पुछ्र्, लियेर, घर-घर्प्रोल्या सब् शह्रै छुटेन कहि घर्लाग्यो बल्न शहर् जल्या र.सब घर्भागी जान नपाउँदा हुँदि अनेक्फालु हालीक्रन अग्तिमा परि मम्यापोल्यानत् घर एक् विभीषणजिकोयेती काम गरी सकी पुछरको लगाइदीया ॥१२३।॥।भेरी अगाडी फुकी।चोर्हो भनी खुप् भुकी॥गम् हेरि हिड्दै गया ।ताही ति साना भया।१२४।पवेत् सरीका भया।माच्या र- कुहै गया ॥कुहै शहर्मा डुली।बाँकी कतै एक् भुली। १२५।बन्द रस्ता भई।राक्षस् अटाली गई ॥, यो चालू शहर्मा भयो।त्यो माब्न बाँकी रह्यो।१२६।आगो निभ्चाँ भनी। कूदी जल्दि समुद्रमा पुगि पुछर् चोभी निभाया पनि ॥ पूँठ जलकर समाप्त न हो जाय, इसे छोड्ना नहीं । ऐसी आज्ञा होने परहनुमान की पुँछ मै आग लगा दी गयी । १२३ बेँधे हुए हनुमान कोलेकर नगाडे बजाते हुए और चोर कहते हुए राक्षसगण सारे नगर मैं घुमनेलगे । इस प्रकार खूब प्रसन्नतापूर्वंक चिल्लाते हुए सब आनन्दपू्वंक घुमनेलगे । हनुमान भी प्रसन्नतापुवंक सीधे-सीधे चलते रहे । अचानकपश्चिम द्वार की ओर जाते समय वे छोटे हो गये। १२४ हनुमान के कसेहुए बन्धन, सूक्ष्म छूप धारण करते ही, सब ढीले पड् गये। अपना सूक्ष्मशरीर लेकर वे बन्धनों से (मुक्त होकर) बाहर निकले और तुरन्त ही एकपर्वत के समान (विशालकाय) हो गये। अब हनुमान एक बड्डा स्तम्भउठा कर अनेक राक्षसों का संहार करते हुए उछ्लते गये। वे जलती हुईपूँछ लिये घर-घर में कृदते हुए वगर मैं घुमने लगे। .इस प्रकार उन्होनेसारे नगर को जला कर भस्म कर दिया, एक भी घर शेष न बचा । १२५सम्पूणे नगर के सभी घर जल गये। सारे मागे अवरुद्ध हो गये। भागने“के लिए मागै न पाकर अनेक राक्षस घवरा कर् आग मैं कद पड्गें। इस्"प्रकार बहुत से राक्षस जल कर मर गये। नगर मैं ऐसी (प्रलयकारी)स्थिति उत्पन्न हो गयी । केवल विभीषण का ही घर शेष रहा, जो अग्निसे सुरक्षित बचा । १२६ इतना काय करके पूँठ की आग बुझाते के लिए १७८ भागुभक्त-रामायण अग्नीले पनि मित्न-पुत्र भनि तापू केही गय्यानन् तहाँ।सीताको पर्नि प्रार्थना हुन गयो डढथ्या हनूमान् कहाँ।१२७।रामृका फकत् स्मरणले पनि दुःख छुटछन् ।अध्यात्मिकादिहरु तापू पनि जल्दि छुट्छन् ॥साक्षात् उने प्रभुजिका दुत भै गयाका।डढ्थ्या कहाँ ति हनुमान् अति हित् भयाका ।।१२5॥। फिर्न्या मन् सब ली विदा हुन सिता जीथ्यै हनूमान् गया ।वीदा खूशि भयेर बक्सनुहवस् जान्छु म भन्दा भया ॥आजअँछ्न् रघुनाथ्ू अवश्य भनि यो विन्ती गरचाथ्या जसै ।साह्घै शोक् मनमा धरीकन सिता क्यै भन्न लागिन् तसै।१२९। तिमिकन नजिकमा देखि खुपू ख्शि हुन्थ्याँ ।घडि घडि रघुनाथूका मिष्ट वार्ता म सुन्थ्याँ ॥अब कसरि म यस्तो दुःखले प्राण धर्छु।तिमी पत्ति फिरि जान्या फेरि ताप्मा म पर्छु ।१३०। सीताका इ बचन् सुनेर झटपट् हात्जोरि बिन्ती गरा ।यस्तो शोक् अब छाडि बक्सनुहवस् आपत्ति साह्लै भया॥ (हनुमान) तुरन्त कूद कर समुद्र मैं पहुँचे और अपनी पूँछ पानी मैं डुबोकर अगिन बुझा दी । अरिनि ने भी मित्न (पकन) का पुत्र जानकर उनकी पूँछ मैप्रभाव न डाला। उनकी रक्षा के लिएसीताने भी विन्ती की, अतनुमान भला कहाँ जलते ! १२७ केवल राम के स्मरण सेहीदुःखों कानाश होता है, आध्यात्मिक तापोंसे भी शीघ्र ही छुटकारा मिलता हैफिर साक्षात् प्रभु के ही द्रूत वन कर (वहाँ) गये हुए हनुमान किस प्रकारजल जाते (जव) प्रभु ही उनके पक्ष मेथे। १२८५ लोट्ने की इच्छा सेहनुमान विदा लेने सीता के पास गये। कहने लगे-प्रसच्च होकर आपमुझे विदा देने की कृपा करें। मैं जाता हुँ, रघुनाथ अवश्य आयेगे ।हनुमान की बिनती सुनकर सीता जी अत्यन्त शोकाकुल मन से कहनेलगी-- १२९ तुम्हैँ अपने निकट पाकर मैं अत्यन्त प्रसच्च होती थी औरबार-बार रघुनाथ की सधुर चर्चा करतीथी। अब कसे इन दुःखो केमध्य रहकर प्राणों को रख पाञँगी । तुम भी लौट जाओगे तो मैं पुनः संकटमैं पड् जाउँगी । १३० सीता के वचन सुनकर हनुमान ने हाथ जोड करविनती की कि आप इस शोक को त्यागने की क्कपा करेँ। यदि आपको हाँ रहने म अधिक कठिनाई है तो आज्ञा दे, मै अभी आपको लेकर नैपाली-हिन्दी ऐले दाखिल गर्छु रासूचरणमाधेरै शोक् किन गर्नुहुन्छ मनमासीताजी पनि भन्दछिन् सत नजाँविस्तार् बिन्ति गरेर जल्दि रघुनाथूराम् आईकन दुष्टलाइ सहजैलेजाचन् रघुनाथ् त कीर्ति रहला सीताको जब यो हुकम् हुन गयोतीन् बेर् जल्दि परिक्रमा गरि प्रणामूपर्वत् माथि चढेर खूप् पनि ठुलोआकाश् मार्ग लिई कुदेर खुशिले सुच्या शब्द ति उञ्गदादिहरुलेशब्दैले बुझियो अवश्य सहजैयस्ता बात् तिरमा बसेर सब वीर्पौंच्या श्रीहनुमान् तहाँ तिरमहाँ वैए९ वोकी हुकूम् लौ हवस् ।यो शोक् दुरैमा रहोस् १३१जाड तिमी समात्न गै।लीयेर आउ सँगै॥मारी मलाई सँगै ॥क्या हुन्छ येसै म गै १३२। बीदा हनुमान् भया।गर्दा छँदा ती गया॥पर्वेत् सरीको घच्या।खुप् शब्द ठूलो गच्या१३३बोल्या परस्पर् पत्ति ।भेटेर आया भनी॥गर्दे थिया खुश् भई।आनन्द खूशी रही ।१३४। भेट् भो अङ्गद वीर्हरूसित तहाँ विस्तार् कुरा सब् गर्या ।अङ्गद् वीर्हरु खुश् भई पुछरमा पक्रेर चुम्बन् गच्या॥ रघुनाथ के चरणों मैं प्रस्तुत कङँगा । मन मैँ अधिक शोक क्यो करती हँ? इस शोक को दूर करने की कृपा करें। १३१ सीताजी कहती हैँनमैंतोनहीं जाउँगी, केवल तुम ही जाकर विस्तारपरुवंक विनती करना और शीघ्र ही रघुनाथ को लेकर यहाँ आना। वे आकर शीत्न ही दुष्टों को मारकर मुझे साथ ले जायें, तभी उनकी कीति रहेगी, अन्यथा केवल मेरे इस प्रकारजाने से क्या होगा) १३२ सीताजी की ऐसी आज्ञा पाकर हनुमानविदा हो गये। तीन बार (उनकी) शीघ्र परिक्रमा कर प्रणाम करतेहुए वे चले गये। पर्वत के झपर चढु् कर उन्होनि विशाल शरीर धारणकिया। आकाशमागं ग्रहण कर कूद पडे और अत्यन्त प्रसन्न होकरगगनभेदी नाद किया । १३३ उस गर्जेना को सुनकर अंगदादि परस्परकहने लगे कि अवश्य ही हनुमान सरलता से भेट कर आया है। समस्तवीर प्रसन्चचित्त हो किनारे वैठ कर इसी प्रकार की वाते कर रहे थे, उसीसमय रघुनाथ भी तिकट पहुँच गये, जिससे वहाँ पूर्णतया प्रसन्नता छागयी । १३४ अंगदादि वीरौं से वहाँ भेंट हुई और विस्तृत वातचीत हुई ।अंगद तथा अन्य वीर प्रसञ्च होकर (अपनी-अपनी) पुँछ पकड कर घुमनेलगे । कोई प्रसन्न होकर नाचने लगा । इसी प्रकार सब लोग मिलकर १८० नाच्या कोहि खुशी भयेर यहि रीत्सुग्रीवूको मधुवन् मिल्यो नजिकमाबिन्ती अङ्गदथ्यै गप्या पनि तहाँअङ्गदूले पनि खाउ जाइ हनुमान्दीया मजिर खाउँ फल फुल् भनीचौकी बानर जो थिया सब तहाँरोक्न्या बानरलाइ लात् दिइ पियायो चुक्ली दधिवक्त्ले लिइ गयासब् बिस्तार् दधिमुखले जव गच्यालूटपीट्को समचार् सुन्या र पत्ति रिस्भेट्याछन् बुझियो सिताकन नताई बात् सुग्रिव गदेथ्या प्रभुजिलेसीताको पनि नाम् लिएर तिमिलेसोधी बक्सनुभो र सुग्रिवजिले हे नाथ् श्रीमधुवन् थियो अति असल्ऐले ता हनुमानूहरू बलजफत् भानुभक्त-रामायंण गर्दै ति राम्थ्यै गया।साह्रै खुशी ती भया१३५।खाउँ इ फल् फूल् भनी।जीका प्रसादू्ले भनी ॥वानर् गयाथ्या जसै।आया र रोक्या तसै।१३६।मीठो मधुर् रस् तहाँ।सुग्रीवजी छन् जहाँ ॥।लूटया सधूवन् भनी।उठेन कत्ती पनि ॥१३७।॥।लुट्थ्या मधूवन् कहाँ।सुन्या र सोध्या तहाँ॥क्या बोल्दछौ बात् भनी ।बिन्ती गच्या बात् पनि१३% भेरी बधैँचा तहाँ।आएर एक् क्षण््महाँ॥ एक साथ राम के पास गये। सुग्रीव को मधुवन के निकट मिले और सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। १३५ (सभीने) अंगद से विनती भीकी कि (वे) फल-फूल आदिखाले। अंगदने भी (उनसे) कहा "लोखा लो--यही हनुमान जी का प्रसादहै। जैसे ही फल-फूल खानेकीसहमति देकर (अंगद के) वानर साथी (वहाँ से) चले गये, वैसे ही (सुग्रीवके मधुवन के) चौकीदार वानरौं ने वहाँ आकर (उन्है) खाने से रोकदिया । १३६ रोक्नेवाले वानर (चौकीदारों) को (हनुमान के संगीवानरौं ने) लात मार कर मीठा मधुरस पान किया । यह शिकायत लेकरदधिवक्त सुग्रीव के पास गया और दधिमुख ने सविस्तार सब कुछ कहसुनाया। उसने कहा कि मधुवन लुट गया।, लूटका समाचार सुनकरभी (सुग्रीव को) किचित-मात्न क्रोध नहीं आया । १३७ उन्होने(सुग्रीव ने), समझा कि (हनुमान की) सीताजी से भेट हो गयी होगी, नहींतो मधुवन मैं क्यो लूट-मार करता ! जव सुग्रीव को इस प्रकार वात करतेप्रभुजी ने सुना तो वे (सुग्रीव से) प्रश्न करने लगे--सीता का नाम लेकरतुम क्या कह रहे थे ? सुग्रीव ने विनती की--१३०५ हे नाथ ] मधुवनमेरा एक अति उत्तम वगीचा था । अभी-अभी हनुमान के लोगो ने बल- नैपाली-हिन्दी ल्ट्याछन् मधुरस् अनेक् तरहकाआया आज फिराद गग मधुवन्सोही बात म गर्दछ रघुपते !भेटयाछन् तब पो लुट्यार मधुवन्यो बिन्ती गरि जल्दि सुग्रिवजिलेदीया हुकुम जल्दि फर्किकन गै आउनू श्रीहनुमानूहरू अब यहींदीया निर्भय दी हुकम् उहि बखत्मामा सुग्रिवका गया र दधिमुख्खूशी भै हनुमानूहरू पनि गया राम् सुग्रीवकन दण्डवत् गरिलियासब् विस्तार् हनुमानले तहि गच्याभेट्याँ आज सिताजिलाइ रघुनाथ्जस्सै देखिलियाँ सितार्कत तसै पात्का अन्तरमा लुकी जननिकाजो वृत्तान्त थियो सबै हजुरको १५१ चौकी कुट्याछन् पनि ।लूटया रकूटया भनी १३९इनूले सिताजी पनि।रोक्ता चुट्याको भनी ॥ती चौकिलाई तहाँ।चाँडै पठाउ यहाँ ॥ १४०॥। चांडो भनी यो जसै।फर्क्या र दौड्या तसै॥ह्कुम् सुनाईदिया ।जाहाँ रघूताथ् थिया१४१साम्ने जमीनमा परी।वृत्तान्त एक् एक् गरी॥लका पुरीमा गई ।सानू स्वरूपूको भई । १४२।साम्ने नजीक्मा रह्याँ।त्यै सुक्ष्म ;छूपूले कह्यां॥ पूर्वेक एक ही क्षण मैं अनेक प्रकार के मधुरस की लूट मचायी है और वहाँके (प्रहरी) मधुरस लुटने और मार-पीट की शिकायत लेकर आयेहैँ। १३९ हे रघुपते ! मैँ वही बात कह रहाहँ। इन्होने सीताजी सेभेंट कर ली है; इसी लिए मधुवन को लूटा है और, सना करने पर मार-पीटभीको है। यह विनती करके सुग्रीव ने शीत्र ही उस (उनमेँसे एक)प्रहरी को आज्ञा, दी कि अभी लौटकर जाओ और. उन्हेँ यहाँ भेज दो । १४०श्रीहनुमान आदि अब शीघ्र ही यहाँ आ,जायें। ऐसी आज्ञा पाते ही(वे प्रहरी) निर्भयतापूर्ण तत्काल लौटकर दौड पड्रे। सुग्रीव के मामादधिमुख गये और आदेश सुना दिया । प्रसन्न होकर हनुमान आदि भीरघुनाथ के पास:चले गये । १४१ सभी ने राम एवं सुग्रीव को साष्टांगदण्डवत की । वहीं हनुमान ने एक-एक बात का सविस्तार वर्णन किया-हेरघुनाथ ! लंकापुरी मै जाकर आज सीताजी से भेंट कर ली। सीताजीको देखते ही मैँने सुक्ष्म रूप धारण कर लिया । १४२ (हनुमान ने आगेकहा--) पत्तो के अन्दर छिप,.कर जननी के सम्मुख हो, निकट रहा।आपके विषय मैं जो कुछ भी समाचार था, मैँने सारा वृत्तान्त कह सुनाया।मैँने उनसे अपने उसी सृक्ष्मरूप मै ही सारी बाते कीं। श्रीमन् से दूर वदर भोकी ढुब्लि हजूर दूर रहँदा. राम्रामू बोल्दि अनाथ् भईकन बहुत्अएशोकूका वनमा सिसौ पनि छ एक् झुनुडीन्या मतलब् लिई खडि भइन् यो वृत्तान्त सुनी हुकम् पत्ति भयोक्या लूकीकन वोल्दछस् अव नलुक् पायाँ येहि हुकम् जसै जननिको को होस् भन् भनि सोधिवक्सनुभयो फेर् वृत्तान्त गरीसक्याँ हजुरकोबरुबर् आँसु खसालनू पनि भयोआफ्नू दुःख हवाल् सवै कहनुभोआउँछन् रघुनाथ भनेर बहुतैआज्ञा भो रघुनाथका हजुरमालङ्कामा प्रभुको सवारि तिमिले मानुभक्त-रामायर्ण संझेर साह्वै ₹एँदी।विह्वल् चिरन्तर् हुँदी १४३त्यै वृक्षका बीचमा।सुनित् उसै बीचमा ॥को होस् तँ बोल्छस् कहाँ।आईज साम्ने महाँ। १४४। वाचर् स्वरूपूले गयाँ।फेर् बिन्ति गर्दो भया ॥औंठी दियाथ्यां जसै।विश्वास लाग्यो तसैँ। १४५।यस्ता विपत् छन् भनी ।मैले बुझायाँ पनि॥सव् : दुःख मेरो कही।चांडो गराञ गई ।१४६। बात्चित् गरी जब यतातिर फिने लाग्याँ ।विश्वास पाने जननी सित चीज माग्याँ ॥ बिरह-पीडित, भूखी-प्यासी क्षीणगात हो सीता रोती रहृती है । वे अनाथ-सी होकर हर समय राम-राम की रट लगाती, विलाप करती रहती हैँ। १४३अशोकवन मैं जो एक शीशम का वृक्ष है, उसी के बीच मेैँ लटक्ने केउद्देश्य से जैसे ही वे उठकर खड्डी हुई उसी समय यह वृत्तान्त सुनकरउन्होनि अज्ञा दी “तुम कौन हो और कहाँ से बोल रहे हो ? अव छिपोमत, सामने आ जाओ" । १४४ जननी का यह आदेश पाकर मैं वानर-स्वरूप मै गया। (वे) पुछ्ने लगी--“कहो कौन हो ?”, तब मैँने विनतीकी और आपफकी मुद्रिका उन्है दी । श्रीमन् की अंगृठी पाते ही उनके नेत्रोंसे अथु प्रवाहित होने लगे और उन्है मेरे झपर विश्वास हुआ । १४५-उन्होने मुझसे अपनी सारी बिरह-कथा कही और अपत्ती विपत्तियो कासविस्तार वन कर डाला। तव मैँने समञ्चाया कि रघुनाथजी चिश्चयही यहाँ आयेंगे । तब उन्होने आज्ञा दी कि .रघुनाथ की सेवा मैं मेरीसारी दुःखकथा सुना देनो और शीघ्र ही जाकर प्रभु की सवारी लंकापुरी“मै लाने का प्रबन्ध करना । १४६ बातचीत करके जव इधर,की ओर आने“लगा तो आपको विश्त्रास दिलाने के लिए जननी की निशानी कोई वस्तुमाँगी तो उन्होने शिर मै धारण किया हुआ चूडामणि विकाल कर दिया नेपाली-हिन्दी चूडामणी दिनुभयो शिरमा रह्याको । कागूको कुरा कहनुभो अघि जो भयाको ॥१४७॥। लक्ष्मण्लाइ अवाच्य बात् भनि बहुत्त्यो, रिस् लक्ष्मणले कदापि नलिउनूहात् जोरीकन विन्ति खुपू गरिदियासव् वृत्तान्त सुनी बिदा, पनि भयाँसमाई सीत बिदा भई जब फिन्याँरावण्लाइ नभेटि जाँ म कसरी भेटी रावणलाइ अति पत्ति दी फर्की ध्वस्त . गचन्याँ अशोक वनकोकान्छो रावण-पुत्न - अक्षय कुमारथीयो ताहि गयाँ भन्याँ हित वर्चन्गर्थ्यो बक्बक बात् अनेक् तरहकारावण्कै अघि खाक् गरी सकिदियाँयेती कमै गरी यहाँ हुजुरमायेती विन्ति गरी खडा, भइ रह्यांश्रीरामूले पति काखमा लिनुभयावात्ले चित्त बुझाइ बक्सनुभयो बोल्याकि_ छु तापनि ।येसो भनीथिन् भनी ॥येती हुकुम् भो जसै।फर्केर आयाँ तसै ।१४०। _ 'सनूमा लहृड् यो गयो । भन्त्या विचार् यो भयो।फिर्नू असल् हो भनी ।माथ्याँ अनेक् वीर् पनि४९ माच्याँ र रावण् जहाँ। टेरेन केही तहाँ॥मैले भुसूनै गनी।पोलेर लङ्का पनि।१५०।आयाँ म ऐले भनी। 'ताहाँ ति सेवक् बनी ॥ सवँस्व' दिन्छु भनी ।सवंस्व यै हो भेनी।१५१। और पहेले की कभी घटी हुई कौए, सम्बन्धी घटना भी सुनायी । १४७लक्ष्मण को अनेक अवाच्य वाक्य मैँने कहा है, इसके लिए उन्होने हाथजोड कर बिनती की है कि वे उनसे क्रोधित न हां। फिर मै आज्ञालेकर विदाःहुआ, और लौट कर आया हुँ। १४५ माता (सीता) सेविदा लेकर चला तो मन मे विचार हुआ कि रावण म्ने भेंट किये बिनाकैसे चलूँ। यह सोच कर कि रावण से भेंट कर.उसे उपदेश देकर लौटनाही उत्तम होगा, मैं लौट गया और अशोक वन को उजाइ डाला ।अनेक वीरों को भी मौत,के घाट उतार दिया । १४९ मैने रावण के कनिष्ठपुत्न अक्षयकुमार को मार डाला और रावण जहाँ था, वहीँ वह पहुँचायागया। बहाँ मैँने उसी के हित की अनेक बाते बतायी, किन्तु उसने किसीबात पर भी ध्यान नहीँ दिया। वह अनेक प्रकार की बाते बकता, किन्तु मैँते सबको भुनगा की तरह समझ कर समाप्त कर दिया। रावणके हीसामने उसकी लंका जलाकर राख की डाली । ११० इन सब कार्योंको समाप्त कर अब आप की सेवा मैं उपस्थित हुआ हुँ। इतनी बिनती १५४ भानुभक्त-रामायण झैले खुश् भइ काख् दियाँ पनि भन्या फेर् दीनु बाँकी रती ।केही चीज् रहँदैन सब् मिलि गयो यी बातू बताउँ कति॥काख्मा राखि हुकम् भयो यति जसै खूशी इनूसान् भया।आनन्दाश्रु गिराइ भक्ति रसले हाजिर् हजूर्मा रह्या५२ धन्य हुन् इ हनुमान् यि सरीको। कोहि छैन अरु भक्त' हरीको॥ भक्ति खुपू गरि त काख् पनि पाया। लोकमा अधिक धन्य कहाया॥१५३।॥। . जस्को पुजा तुलसि-पत्चन चढाइ गर्छन् । उस्ता पती त भवसागर-पार तछँन् । ई ता उनै प्रभुजिका दुत हुन् त काहाँ । ' सक्नू छ वर्णन गरी यिनको त याहाँ ॥१५४।॥। ॥। सुन्दरकाण्ड, समाप्त ॥ क्रके सेवक बन कर हनुमान वहाँ खड्रे हो गये। ' “सवंस्व देता हूँ"--कहते हुए रघुनाथ ने हनुमान को गोद मैं बैठा लिया और समझातेै हुएबोले कि यही सवेस्व है। वे बोले कि प्रसन्न होकर अपनी गोद अपंण करदेने के बाद मेरे पास कुछ नहीं शेष रहता। अत; वुम्है सबप्राप्त हो गया, यह बात कहाँ तंक बताऔँ ? गोद मैं रख कर जैसे ही-(राम चे) यह् आदेश दिया हनुमान, आनन्द से ओतप्रोत हो गये-प्रेमाश्ुबहाते हुएवे (राम की) शरण में पड्के रहे । १५१-१५२ , धन्य हैँ यहहनुमान ! हरि के भक्तो मैं इनके समान कोई नही । ईंसौ भक्ति की शक्तिसे ही उन्है हरि की गोद प्राप्त हुई । इसी लिए वे जगत् मै अधिक धन्यकहलाये। १५३ इनकी (हनुमान की) पूजा केवल तुलसी चढा करकी जातीहै। जो: ऐसा करते हैँ, वे लोग भवसागर पार तर जातैहुँ। येतो उन्ही प्रभु्जी के दूत हँ, अतः इनका पुर्णतया वर्णन करसकना भी अत्यधिक कठिन है । १५४ . " ॥ ॥। सुन्दरकाण्ड समाप्त ॥|
युद्ध काण्ड
. लङ्कापुरी सकल खाक् गरि सैन्य मारी । फेरी समुद्र सहजै चरि आइ वारी॥ सीताजिको : जब सबै समचार् बताया। श्रीरामले ति हनुमानूकन खुप् सहाया॥ १ ॥ भन्छन् श्रीरघुनाथ् अहो इ हनुमान्- ले खुप् ठुलो काम् गच्या ।एक्लै गैकन रावणांदि विरको सेखी इनैले हच्या॥प्यक्वो क्षार. समुद्र कूदिकन फेर् खाक् गर्नु लंका अनि।'को सक्ला: सब डदँछन् इ जति छन् इन्द्रादि दौता प्नि ॥२।॥।सुग्रीव्का सब मन्त्रिमा इ सरिको हीला न काही भय्रा।छोरी रावणको निभाइकन ता सामने उसैका गया॥'सेव्रकले.. जति _गर्नुपछं, तति सब् सेवा इनैले गप्या।सीताको समचार्, बतायर यहाँ हाम्रो ठुलो तापू हच्या ॥३।। _ सम्पूण लंकापुरी को राख करके तथा सेनाओं को समाप्त करके जबहनुमान पुनः समुद्र पार् करके इस. ओर श्रीराम के पास आये और सीता'जी का सब समाचार बताया तो श्रीरामचद्धजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और“उन्होनि हनुमान की भूरि-भ्रुरि सराहना की। १ श्रीरघुनाथ जी कहते: हँ,महर ! इस हनुमान तै अत्यम्त महान् काय किया है। वहाँ जाकररावणादि वीरौं का अहंकार इसने अकेले हो नष्ट कियाहै। इतने महान्और विस्तृत सागरको. छलाँग मार कर पार करना, और फिर लंका कोभस्म करना, दूसरा और कौन कर,.सकता है ।. इसी लिए ये इन्द्रादि जित्नेदेवता हैँ(उससे) सभी डरते हँ। २ सुग्रीव के सब मंत्ली एवं भाइयों मे इ्सक्केसमान न कोइ हुआ है न होगा, जो रावण के पुत्न को मार कर उसी केसमक्ष प्रस्तुत हुआ । सेवक को जो कुछ भी करना चाहिए वह् सभी कुछइसने किया । सीता का समाचार ला कर यहाँ इसने हमारे विषम तापोंका हुरण किया । ३ यह हनुमान महानुवीर है, तभी तो (इतनी सरलता से) १०६ वीर् हुन् ई हनुमान् र कूदिकन गैयो सागर् कसरी तरी म अहिलेगैह्ठो क्षार समुद्र यो छ विचमात्यो सागर् कसरी तरिच्छ भनि खुप् रावण्लाइ कसोरि मारुँ कसरी चिन्ता हुन्छ कसोरि पाउँछु अहो ]! ,. राघवूका इ वचन् सुनीकन तहाँगर्छन् बिन्ति हजूरमा रघुपत्ते ! यो फौज् वानरको ठुलो छ-बलियोअग्तीमा पनि .पस्चु पदछ -भन्यासागर् तने उपाय साब्न त हवसूरावण् मार्न कठिन् छ,क्या सहजमा भागुभक्त-रामायण कृदेर आया यहाँ।पाँचन्छु लंकामहाँ ॥जल्मा अनेक् जन्तु छन् ।आत्तिन्छ मेरो त मन् ॥४।॥ताङ म फौज् यो भनी।मेरी पियारी पनि॥सुग्रीव् , अगाडी सरी। . क्या हुन्छ चिन्ता गरी॥५।॥।-लड्च्या- छ" घूँडा धसी । पस्च्या छ, कस्मर् कसी ॥यो,फौज -जावस् तरीमारिन्छ येसै... घरिँ॥॥६॥। मेरो चित्तमहाँ त यो-छ रघुतताथ् - साम्ने , इज्रमा : परी?लड्न्या वीर् कहि छैन बिन्ति गरियो ; साराः-तिनै लोकृप्भरीप।हाम्रो निश्चय जित् हुन्याछ बृढिया ,देखिच्छ' . लक्षुण् .- -पत्ति । माछौँ राक्षसलाइई आज सहजै - सान भुसूता,. गनी ॥७॥ कृद कर गया और कद कर आयाभीहै।प्रकार लंका पहुचुँगा ।' 'यह सागर अत्यधिक गह्रा है, और जल"के मध्यमैं अनेक जन्तु हुँ। मेरा तो मन अत्यधिक्न घबरा रहा है, यह सागरकसे पार किया जा सकेगा !४ मुम्ने यही चिन्ता हो,रही है कि.सेना कोसमुद्र-पारे केसे ले जीङँ और रावर्ण को कसे मार डालूँ।_-अब मैं अपी'प्राणप्यारी प्रियतमा को पुनः कैसे प्राप्त, कर पाडँगा । राधव_के इन. ढुःख-“भरे बचनो को सुनकर सुग्रीव आगे बढ कर सेवा सै विनती', करते है--हेरघुपते ! चिन्ता करके क्या होगा। ५ ये'वानरोँ की विशाल सेना ।है जी'घुटने धँसा कर युद्ध करने मै भी बलिष्ठ है। इन्हे 'यदि अंग्नि-मे भीकृदना पढ्गा तो कमर कस कर कृद पढ्गे । केवल सागर पार करने काउपाय वताने 'की क्रपा करेँ। ये सेना 'जब सागर पार हो जायेगी ।रावण को मारना क्या कठिन है । : इसी ससय सहज. ही. मैं मारा जासकता है। ६ रघुनाथ ! मेरै विचार मेँ'तो यही है। - श्वीमन् केसम्मुख आकर तो' लड्नेवाला वीर कही तीनौं लोक्-मै नही! मेरी, यहीवितती है, हमारी विजय निश्चय ही होगी।' लक्षण- भी , शुभ.. प्रतीतहोते है । हम राक्षसों को आज सहज ही मैं भुनगों,के' समान.- नष्ट क्र यह सागर पार करके-मै किंस
नेपाली-हिन्दी प्ष्छ सुग्रीवरका इ वेचन् सुनी हुकुम.भो श्रीरामजीको” तहाँ।जुन् पाठ्लेति वरिन्छ 'सो' गरियला कस्तो, छ, लंकामहाँ ॥लङ्घाकोः“अकबालू सुनौं, त पहिले' कस्तो छ तेस्को तखत् ।सब् बुझीकँन पो गया“ जिंतियला यै हो विचार्को बखत्।।क॥ ठाक्नुर्का' '!”वचन् सुनेर 'हनुमान् ताहाँ ' अगाडी सरी।भक्तीले गरि अञ्जली” पनि -बहुत् न्यूहेर शिरमा ' धरी॥.गर्छन्? बिन्ति-। जगतृपतेः !. रघुपते “लका -”“पुरी ' सुन्दरी ।देखिन्छे:।जति :देख्तछन् ति, सबको लिन्छे सबै मन् हरी ।॥९॥ त्वीकुट् पर्वेतका उपर् . छ:-सुचकोः ,पर्खाल् छ चारौं तरफ्। थामै छन् मणिका जउंन्', घरमहाँ देखिन्छ तिन्को - हरफ् ॥ एक् खावा त समुद्र भो अरु नजीक्; अर्को खन्याक्ो, पनि। पर्खाल्का, :नजिके, छः बेस्ःवरिपरी वैरी नआउन् भनी ।॥१०॥घर प्नि सुनकै छन् गल्लि जो छन् सुनैका । . ' मणिजडित हुनाले झन् -असलु छन् कुनेका ॥ ““ घुमि घुमिकन ;हेच्याँ सब् बघेचा तलाञ।,-:; सहज, 2 सित, कसैको केहि लाग्दैन दा ॥११॥ डालेंगे । ७ सुग्रीव के इन वचनो को सुनकर श्रीराम की, आज्ञा हुई किजिस उपाय से'संमुद्र पार हो जाने की सम्भावना है वही किया जाएगा ।पह्ले यह वताओ कि लंका मै क्या दशा है, वहाँ का वर्णन तो सुनें कि वहाँकी. राजगद्दी,कैसी है। सब समंझ-बूंझ कर ही. जाने से तो विजय प्राप्तहोगी । .यही विचार करने का समय है। ०. प्रभु के इन वचनो कोसुनकर,हनुमान आगे बढे और भक्तिपूर्वे्क पर्याप्त अंजली अपित की, तथासस्तक मैं लगाते हुए विनती करने लगे--जगत्पते ! रघुपते ! लंकापुरी-कीसुन्दरी अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती है और जितना देखती, है. सव-के मनको मुग्ध कर लेती है । ९ _ ब्विकूट पवेत के: कपर चारो और सोने कोदीवार है । जिन घरौं मै मणि के-मन्दिर है उन्हीं पर. उनके लेख दिखाईदेतेहैन एक स्तम्भ तो समुद्र और दृसरा समीप ही-मे खडा हुआ है । दीवारके निकट चारो ओर खाई 'है, 'जिससे शत्रुन आ जाय.।,१० बहाँके घरतथा मागे सभी सोने के हैँ।" कहीं-कहीं तो मणिजटिटं होने के. कारण अत्यन्तरमणीक हो गया है । मैन धुम-घृम कर, चारो ..ओर सारे वगीचे तथातोलाव 'देख लिए हँ। सरलता से वहाँ प्रवेश होते.का किसी को अवसरनहीं मिलता ।“११ नगर के चार द्वार हैँ, कहीं वीरों की विशाल सेना तत्पर वृष्द भानुभक्त-रामायँणै ढोका छन् चार् शहरका तहि विरहरुको फौज् छ ठूलो बस्याको ।जो ताहाँ पस्त जाला उ सित तहि लडी मने कम्मर् कस्याको ॥एक् अर्बुद् पूव ढोकातिर अति बलवान् जङ्गि पाले बस्यांको ॥राक्षस् छन् हात्ति घोडा रथ अरु खजना ली खडा भै रह्याका।१२। ढोकैपिच्छे यसै. रीतृसित खडि, पहरा छनू सदा नित्य ताहाँ ।,येती जम्मा छ फौजू सब् भन्तिकन -त खबर् पाइसक्नू छ काहाँ ॥।यस्तो मज्बूतिको फौज् छ.तपन्ति उहि फौज् ध्वस्त चौथाइपारचाँ ।लंका पोलेर सब् खाक् गरिकन सहजै वैरिको सेखि झाच्याँ ॥१३॥ यहि ढिल किन ख्वामित् ! जाउँ सागर् छ जाहाँ। .कछु ढिल तहि होला तर्नुपर्न्यी छ ताहाँ ॥यति वबिनति हनूमानूले गज्याथ्या जसै ता।हुकुम. पत्ति ति सुग्रीवूलाइ भैगो यसै ता ॥ १४ हे सुग्रीव सखे ! असल् विजय यो म्ूहूतै ऐले, पप्यो।यस् सायेतमहाँ मुहूतँ ,नचुकी जस्ले त साइत् गप्यो ॥तेस्ले जित्छ अवश्य यै बखतमा सायेत फौंज्ले' गख्न् ।मेरो दक्षिण नेत्र फुछँ बढ्या लक्षण् छ धीरज् घधखू्न्। १५। हँ, जो भी वहाँ जाएगा उससे लङ्कर मार डालने के लिए कमर कसे हुए.,है। पुर्वे की ओर जो द्वार है वहाँ एक बलवान जंगी द्वारपाल है ।राक्षसगण, हाथी, घोड्डा, रथ एवं खजाने लेकर खडे है। १२ इसी. प्रकारप्रत्येक द्वार पर सदैव पहरेदार खड्डे रहते हँ । वहाँ की सेना के सैनिकोंकी संख्या ज्ञात करना भी सम्भव नहीं है। ऐसी बलिष्ठ सेना है, फिरभी उसका चौथाई भाग का तो ध्वंस कर दिया और समस्त वीरो केघमण्ड को चूर कर आया हँ । १३ स्वामी ! अब यहाँ- विलम्ब क्यो-कर रहेहुँ। सागर की ओर चलिए, भले.ही वहाँ कुछ लोगो को उतारने मैं कुछ-विलम्ब हो जाये.। ' हनुमान के विनती करते ही सुग्रीव को आदेश दे दियागया । १४ है मित्र सुग्रीव ! यही वास्तविक विजय 'के शुभ मुहूत काअवसर है । इस अवसर को व्यर्थ गँवाये बिना जो काय करता है वहअवश्य ही विजय प्राप्त करता है। मेरा तो दक्षिण नेत्र फइक रहा है,यह उत्तम लक्षण है। यदि इस शुभ अवसर को सेनाएँ, हाथ से न- जाने -दे, तो हमेँ,अवश्य ही विजय की प्राप्ति होगी 1१५ वानरसेना लंका भेप्रस्थान करके' लंका पर आक्रमण कर दे तथा रावण को वंश-सहित नष्ट: नैपाली-हिन्दी रावण्लाइ कुलैसमेतृ् क्षय गरीवानर्को जति फौज् छ सब् अब चलोस्लक्ष्मण् अंगदमा . चढ्न् ढुइ जनासुग्रीव्लाइ यती हुक्म दिइ गन्या .राम् सुग्रीव् हनुमानमा चढि चल्य्रावानर्को सब फोज् चल्यो पृथिवि सब्चाहींदैन रसद्ू सबै विरहरूगजेन्छन्, सब वीर्हरू तस बखतूरातृदिन् फौज चल्यो टिकेन बिचमाविन्ध्याचल्कत नाघि फेरि मलया-.पौँच्या क्षार समुद्रका तिरमहाँबानर्को , त्यति , फौजले खेचित भै वानर्को सब फौज् तहाँ हुकुमले पृष्दै ल्याइन्छ, सीता - पनि।ठोकिन्छ लंका भनी॥.हामी : हनूमान् महाँ।प्रस्थात् प्रभुले तहाँ ।॥ १६॥।लक्ष्मणूजि अँंगद्सहाँ। .डग््सग् गराई. तहाँ॥खान्छन् फलैफूल् फकत् ।.सब् काम्व लाग्यो जगत् १७,काहीं कतै एक् घरि।चल् नाघि यस्तै गरी ॥डेरा प्रभूको पन्यो।सारा कितारा भम्यो । १८५।तिर्मा जसै ता बस्यो। सागर् तर्न उपाय केहि नहुँदा मनूमा ठुलो तापू_ पस्यो ॥भन्छन् वीर्हरु यो कसो गरि तरौं साह्लै कठिन भो यहाँ।यो सागर् नतरी त जान नहुन्या हींडेर लंकामहाँ ।॥१९॥ करके महारानी सीता को स्वतन्त्व करे। लक्ष्मण अंगद की. सहायता लैंऔर हम दोनों हनुमान की सहायता लगे । सुग्रीव को यह आज्ञा दे करप्रभुने भी वहाँ से प्रस्थान किया । १६ राम-सुग्रीव, हनुमान के,अपर सवार हुए तथा लक्ष्मण अंगद पर सवार हुए और इस प्रकार 'लंका-विज्ञय के लिए सम्पुण बानरसेना को लेकर चल पड्रे। वानरौं के प्रस्थान :करने पर उनकी भीड से समस्त पृथ्वी ढक गई।. रसद् की कोईआवश्यकता ही न थी, क्योंकि सभी वीर फल-फूलादि खा कर ही “दिनपार कर सकते थे । - सारै वीर गर्जेते हुएजारहे थे। उनके गर्जेन सेसमस्त भ्रू-मण्डल काँप उठा। १७ सेना सारी-रात, सारा-दिन चलतीरही, क्षणभ्र को भी कहीं नहीं रकी । विध्याचल और फिर ,मलयाचलको लाँघते हुए इसी क्रम से सब लोग क्षीरसागर के किनारे पहुँचे औरवहीं प्रभु ने पडाव डालने की आज्ञा दी। वानरों की असंख्य सेना सेसमुद्र-तट खचाखच भर गया । १८ .आज्चा पाकर एक-एक कर सभी लोगकिनारै बैठ,गए और सागर पार करने का उपाय सोचने लगे। कोईउपाय समझ मैं न आया तो वे गह्री चिन्ता तथा ताप सेः भर गए।वीरजन कहते हैँ कि इस सागर को किस प्रकार पार किया 'जाए, यह तोअत्यन्त कठिन समस्या उत्पन्न हो गई है । अस्य कोई ऐसा मागे भी नहीं १९० भानुभक्त-रामायण ' सब राक्षस्कन मादेथ्यौं यहि वखत् सागर् तरी पार् गया॥।आपस्मा यति बात् परस्पर गरी जम्मा प्रभूथ्ये-' श्वया॥सीताजीकन संझि. संझि रघुनाथ् ज्ञान: स्वखू्पी पर्नि।लाग्या गर्ने विलापू अनेक् तरहले सीते! कहाँ छौ भनी 1२०:रामको ताम फगत् 'लिन्याकन पनी सब् ढुःख तापू टंदेछन् ।आफैं श्रीरघुनाथलाइ पनि क्या सन्तापू कतै - पदेछ्न् ।सचिचित् खूपू परिपूण अद्वितिय -एक् ' आत्मा स्वरूपी पनि॥' गछेन् मानुष भै लिल्ला पनि अनेक् सुक्खी र दुक्खी वनी ।२१। 1" कुदि कुदि सब लङ्का 'पोलि फेर् पुत' मारी । बहुत बिरहरूको सैन्य खुप् ध्वस्त पारी ॥ . गरिकन सब भेट्घाट् फेर हनुमान् फिन्याको । १"सुर्तिकन: तहि' रावण् नै गयो नूर् गिज्याको ॥ २२।॥ ' उहि बखतमहाँ द्यो मन्त्रणा गर्नेलाई। ' "””सब विरकन ताहाँ डाक्न जल्दी पठाई॥वरिपरि सब राखी मन्तिथ्यै भन्न लाग्यो ।कसरि सहज उसकी त्यो हन्मान भाग्यो 1! २३ ॥। . अब 'त जसरि मेरो हुन्छ सो हित्_ चिताङ ।- बुझिंकन संवले एक् सन्द्नणा लौ वताञ॥ जिससे पैदल,चलकर ही.लका पहुँच जाए । १९ इसी समय किसी प्रकारसागर पार कर पाते तो-सभी राक्षसों को मार डालते। परस्पर इसीप्रकार का विचार-विमशं करते हुए सव लोग प्रधु के पास एकव्वित हो गए ।सीताजी को बारम्बार स्मरण करके जान-सागर६. ,श्वीरघुनाथजी , भी, 'सीतेकहाँ हो !' कहते हुए विलार्प-करने लगे ।,२० ' सच्चिदानन्द-छूपी होकरभी. मनुष्य के समान अनेक प्रकार से सुखी एवं:दुखी वन कर वे लीलाएँकरते हैं, परन्तु वास्तव में, राम'का'तो केवल नाम लेते सेही सारे दुःख-संकट.टल जाते हँ ।,२१.' रावण को 'समाचार मिला कि हनुमान ने कूद-कुर्द कर, सम्पूणं लंका को जला डाला है ।; ।,उसके पुत्,को मार कर: अनेकवीरों की सेना को ध्वस्त, करके,, सीता, से भेंट करके; पुनः हनुमान लौट,' गया,हैतो वह किकत्तेव्यविमूढ'हो गया॥ २२: उसी समय, विचार-विमश करनेके लिए सव वीरीं को बुलावा भेजा। सव को चारो ओर बैठा कर रावणमंब्वियो से कहुने लगा, कि हनुमान: इतनीसिरलताःसे बच कर किस प्रकार भाग निंक्रला । २३.' अब तो किसी प्रकार , मेरे, हित का कोई, उपाय
». नेपाली-हिन्दी “१९१ तिमि, सबक्रनः वाग्नी क्राम;सिद्ध्याइ भाग्यो ।;, -:" मकन? त. हनुमातूका कामले. लीज : लाग्यो॥। २४ ॥ ' यति, हुकुम-सुती :सब्; घो चिंया:झें ति -'जाग्या?। अगि सरि सरि बिन्ती सेखिको गर्ने, लाग्या ॥ कित बहुत; हजूरुको तेहि रामूदेखि शंका ।4: क्रसुशि सहज ;जित्ला . रासले 'आज लंका ॥ २५ ॥1कतिः,बिनति ; गरौं , धैर्/इन्द्रजित्_पुत्न जस्को |) पी/४ छ..त् कसरि ति जित्छन् पुग्छ जोर् औज्ञ कस्को ॥ , ( प-फकत) हजुरका एक्. , पुनले, , इन्द्र जीत्या 1३ हलाम। हँ ॥ यृहिःबुर्झि अर:दिक्पाल्का समेत् सेखि बीत्या ॥,२६ 1 ..दन 'पाघिप्रतिःमय हुन् सब् दैत्यका, सो डरले?- ;खुँसखुरु तरयहि आई छोरि शुम्प्या करैले ॥।, . !?आरु अङ्गःकहि “छन् क्ग्या वीर हँजुरका सरीका ॥ | ! : || हो हि गी ४» ति »1१11 गिगासब विर बवशमै छन्: ई तिनै लोकभरीका ॥:4२७ी 7: अलिक्रति हनुमानूले जो यहाँ-वीर ' माग्यो । “7कुदिकुदि सब. लङ्का:पोलि जो ध्वस्त पाग्यो 17 हो निकाल्लोज्झौर सब लोग सोचन्समझ् ,कर अपना-अपना विचारः; प्रकट करो:।लुम-सबके ।देखते-देखते ।आगे,निकल)कर. अपना कार्यं- समाप्त “करके भागगया; मुझे तो हनुमान..की:इस,कायं“कुशलता पर बडा “क्षीभ- हो रहाहै। २४.८रावण.के यह वचन तथां: आदेश सुनकर सब के हृदय मै एकचुभन-सी, हुई. बे सब वारीन्बारी से आगेः बढ्-बढ् कर अपते अहंकारक्ो-प्रगट' करते हुए इस प्रकार वोले--श्रीमन् !“उस “राम 'से क््यो, इतनेभसभ्नीत हैँ..? आज, लंका पंरविजय प्राप्त करना राम.के लिये सरले विह्रीहोगा;। २५..-अश्षिक विनती क्र्या' क । :आपका.-तो पुत्न इन्द्रजीतँ। है,जिसनेःअकेलेः ही, इनद्ग पर विजय प्राप्तःकी है।' ऐसे, पराक्रमी केसामने ।अन्नर्य दिग्पालो;का घमण्ड भी चूरुहो गया, तो राम किस प्रकार टिकपायेगा ।/२६. “समस्त देत्यों ने भग्रभीत होकर, सीधे-यहाँ आ कर :विवशहो? आत्मसमर्पण, कर :अपनी पुत्नी 'आपको-सौंँप दी ।. “हे श्रीमन्] वयाअब,:भी आप्रके समान कहीं अन्य कोई वीर:“है,?” तीनो लोक, के: समस्तवीर आपके,वश मैं हो च्नुके हुँ । २७ हनुमान अकेला था। वह अकेलावया ,कर लेगा, यही सोच्न'केर हमःलोगःचूक “गए और, वह कूद-कृद' करसम्पूर्ण लंका को भस्म क्रूर गया । . जो कुछभी तहस-नहस )वहे कर गया १९२ भानुभक्त-रामायण उत फकत यसैले गर्ने क्या सक्छ भन्दा । चुकिदियौं गरिहाल्यो फेरिको क्या छ धन्दा ॥ २० ॥ हुकुम दिनुहवस् लौ दश् दिशा वीर जाऔँ। जति जति अगि सन् मारि तिन्लाइ आउँ ॥ 'सकल पृथिविमाका वानरै छुट्टि गर्छौं। सकल हजुरको तापू एक क्षण्मा त हछौँ ॥ २९ ॥येती ग्वै गरी सबै ति विरले बिन्ती गप्याको सुनी ।मेरो मत् पनि बिन्ति गदेछु भनी आफ्ना मनैले गुनी॥गर्छन् विन्ति ति कुम्भकणे विरले हे नाथ् लियौ क्या मति ।सीता क्यान हप्यौ चुक्यौ तिमि यहाँ कुन् हुन्छ तिम्रो गति ।३०।श्रीरामूचन्द्रजिले अवश्य अघि नै देख्थ्या त एक् वाण् धरी ।तिम्रा प्राण लिच्या थिया ताहि कहाँ बाँच्थ्यौ तिमी एक् घरि ॥सीता चोरि गच्यौ र पो तिमि बच्यौ को टिक्छ साम्ने परी ।तेस्को . फल् सब पाउँछौ अब भन्या मार्छन् कुलै साफ्गरी1३१।राम् जो हुन् प्रभु ई अनन्त अधिनाथ्ू चौधै भुवनूका धनी ।लक्ष्मी हुन् . जगदस्बिका इ यिनकी पत्नी सिताजी पनि ॥ वह् केवल इसी कारण हुआ कि हमें उसकी ऐसी फूर्तीली कार्य-कुशलता काअनुमान नहीं था। अव आगे इस प्रकार के भय की कोई आशंका नहीं ।॥अव हम सब पूर्णतया उसका सामना करने योग्य हैँ। २० जाञ्चादेने कीक्क्पा करें। दशों दिशाओं को सारे वीर चले जायें और जो-जो शत्रुसम्मुख पड्ता जाये उसे मार आएँ । इस प्रकार सम्पुणँ पृथ्वी के समस्तवानरौं का सफ्राया हो जायगा। हम सब मिल कर श्रीमन् के सकलतापों का हरण कर लगे । २९ उन सब वीरों द्वारा की गई गर्वपूणँविनती को सुनकर कुम्भकर्ण मन मै विचार करते हुए कहता है--हे नाथ ! आपने कैसी मति को धारण किया। सीता का अपहरण क्यो किया।आपने ्रहाँ पर बडी चूक कर दी है। .अव पता नहीँ आपकी क्या गतिहोगी । ३० यदि श्रीरामचद्ध जी ने पहले ही देख लिया होता तो अवश्यही उसी समय उनके एक ही वाण के प्रहार से आपके प्राण चले 'जाते; फिर आप कहीं एक क्षण के लिए भी जीवित न दिखाइ देते। आफ्नेसीता का हरण चोरी से किया है, इसी लिए अभी तक जीवित हैँ। उनकेसामने- पड्ने से कौन टिक सकेगा, इसका परिणाम आप अंब भोगोगे । अब तो, श्रीरामचन्द्ठ जी आपको वंश-सहित मार डालेंगे । ३१. राम चौदह नेपाली-हिन्दी : १९३ सब् राक्षसूहरु नाश् गराउन यहाँ सीता तिमीले हन्यौ।साँचा हुन् इ कुरा अवश्य तिमिले आफ्नै बहुत् नाश् गन्यौ ३२जुन् कास् गर्नु उचित् थियेन उहिकाम् ऐले गचप्यौ तापनि।सब् हाम्रा भरले गन्यौ अधिक वीर् छन् भाइ छोरा भनी ॥लड्छौं निश्चय भाइ वग पत्ति सब् हामी जती छौं यहाँ।स्वस्थै भै रहनू हवस् हजुरले शोक् गर्नुपर्ला कहाँ ।३३। तेस् कुम्भकण विरले सब यो भन्याको ।श्री रामलाइ परमेश्वरमा गन्याको ॥सुत्यो र इन्द्रजित भन्छ हुकूम् म पाउँ। - सेना समेत सहज रामृकन मारि आओँ॥ ३४ ॥यस्तै तहाँ विरहरू सब बिन्ति पार्थ्या ।केवल् गफै गरि मुखै तरवार मार्थ्या ॥श्रीरामभक्त ति विभीषण ताहि आई।विन्ती गच्या वहुत हित् मनले चिताई ॥ ३५ ॥श्रीरामजीसित विरोध् किन हो गच्याको ।सीताजिलाइ तिमिले किन हो हन्याको ॥ भुवन के स्वामी हँ, अनन्त अधिनाथ प्रभु है। उनकी पत्नी सीता,जगदम्बिका लक्ष्मी हैँ। सारे राक्षसों का नाश कराने के लिए ही आपनेसीता का हरण किया है। ये बातेँ सत्य हैँ, आफ्ने निश्चय ही अपती वडीभारी हान्ति को स्वयं निमंत्रण दिया है। ३२ जो काय करना उचित नहींथा उसे भी आपने किया, केवल हम लोगोंके भरोसे पर। भाई औरपुत्रादि अत्यन्त वीर हुँ, लङँगे ही। श्रीमन् अब आप शान्त हो जाएँ।शोक क्यो करते हुँ, धैय्यै घारण करने की क्रपा करे। ३३ उस वीरकुम्भकर्ण की सब बातों को तथा श्रीराम को परमेश्वर की श्रेणी मैं गिननेकी बात को सुन कर इन्द्रजीत ने कहा, मुझे आज्ञा हो ! मै राम को उनकीसेना सहित सहज ही मै अभी मार कर चला आओँं। ३४ इसी प्रकारवहाँ पर, समस्त वीर-केवल वाक् प्रहार कर रहे थे । लेकिन श्रीराम के भक्तविश्षीषण ने वहाँ आकर मन में गुभकामनाएँ की और कई प्रकार कीविनती की । ३५ श्रीरामभक्त विभीषण ने रावण से पूछा कि ऐसेमहाबली श्रीराम, जिसने कि खर, त्विशिर और दूषण जैसे बलिष्ट वीरोंको मार डाला-है, उसके सामने कोई विजय नही पा सकता है । अत: ऐसे पराक्रमी से विरोध कैसा) और आपने सीताजी का हरण क्यों किया ? ३६ १९४ भानुभफक्त-रामायण श्रीरामचन्द्रकत सक्तछ जित्न कस्ले । माग्या खर बिशिर दृषणठूला भन्यु इ कुम्भकणे विर हुन्सेखी गर्देछ इद्धजित् नबुझि योसेखी गने जती छ सब् यहि गख्न्सब् राक्षसूहरु नाश् हुनन् जब तहाँसीताजी ग्रहतुल्य भैकन सबैयो प्राणान्त बखत् भयो अझ पनीबाँच्नाको यदि सन् छ पो त महाराज्!सीता सुस्पिदिनू यही बखतमा वीर जस्ले ॥ ३६॥ क्या चल्छ इन्को पनि ।रामूलाइ माछुँ भनी ॥को टिक्छ साम्ने परी ।चेत्नन् चुक्याको घरी ।३७।खाक् गर्ने आँटिन् यहाँ।चेत् छैन चेत् गो कहाँ॥श्वीरामजीथ्येँ गई ।सोझो र साम्ने भई ।३०। श्रीरामूचन्द्रजि फौज् लिइकन यहाँआयो आज शरण् पच्यो भनि बहुत्चाँडै आज सिताजि सुम्पनुहवस्बाँची सक्नु कदापि छैन अस्थ्यैहित् अमृत् सरिको विभीषणजिकोलिन्थ्यो त्यो इ कुरा कहाँ अधिक झन् आई नलड्दै गया।गर्नेन् प्रभूले दया॥सीताजि लंका रही।काहीं शरण्मा गई ॥३२९।।सून्यो वचन् यो जसै।रावण् रिसायो तसै॥ कुम्भकर्ण कैसा ही वहादुर वीर क्यो न हों। श्रीराम के समक्ष उसकीभी कुछ नही चलेगी । इन्द्रजीत भी राम को मारने का व्यर्थ अभिभानकर रहा है। जितनी डींग मारनी हो यहीं मारलो, प्रभु के सामने कोईभी नहीं टिक पायेगा । समस्त राक्षणगण नष्ट हो जाने पर बीते अवसरके लिए पश्चाताप करेँगे । ३७ सीताजी ग्रह-तुल्य हो कर यहाँ पर सवखाक करना चाहती है। अव प्राणान्त का समय हो चुका है। सबकीचेतना कहाँ लुप्त हो गयी है ? अतः किसी को चेतना नहीं है। विभीषणरावण से कहता है कि महाराज, यदि जीवित रहना हैतो यही अवसर हैकि आप श्रीराम के पास जाकर सीता जी को उन्हैँ सौप दै । ३०५ श्रीराम-चन्द्र जी सेना लेकर यहाँ आ पहुँचे, इससे पहले ही यदि आप शीघ्र जाकरआज ही सीता जी को उन्हेँ सौंप दे, तो यह जानकर कि यह शरण मैंआया है, वे अत्यन्त दया प्र्दशत करेंगे । सीताजी के लंका मैं ही रहने सेआप सभी लोगो का जीवित रहा कठिन है । ३९ जैसे ही विभीषण कीअम्रृत-बाणी रावण ने सुनी, बैसे ही उस वात को महत्व देने के वजायउसको क्रोध आ गया । अत्यन्त ही क्रोधित होने पर उसने लोगो से कहाकि आज यह हमारा शत्नु बन गया है तथा इसै रामचन्द्र के प्रति श्रद्धा नेपाली-हिन्दी लाग्यो भन्न रिसाइ आज सुन योमेरा शबु ति रामचन्द्र सित खुपूआफ्नै ज्ञाति बढ्यो भन्या अरु सबैभन्छन् निश्चय भन्दथ्या उहि छ्टाऐले मारिदिन्या थियाँ अरु भयाराक्षस्का कुलमा अधम् यहि भयोमेरी आज नजीकमा रहनकोधिक्कार् हो तँ अधम् भइस् भनि बहुत्धिक्कारको यति बात् सुन्या र झटपट्आकाशूमा झटपट् कुदीकन गयालाग्या रावणलाइ भन्न महराज् ! धिक्कारै तिमिले गण्यौ नबुझि झन्दाज्यू हौ पितृ तुल्य छौ यति सहीखूशी भै तिमि राजू् गच्या म त उनैकाली हुन् जगदस्बिका भगवतीभूभार् हर्नेनिमित्त यो छ अवतार् उत्पन्न हो गयी है । ४० १९५ शब सरीको भयो।प्रीत् बस्न यस्को गयो।४०।ज्ञाती गिरोस् यो भवी।यस्ले जनायो पनि॥भाई भयो क्या गर्छे।धिक्कार दिन्छु बरु ॥४१।।लायक् तै छैनस् भनी ।धिक्कार दीयो पनि॥श्वीराममसा मन् दिई।चार् संबरि साथ्मा लिई ।४२।हीतै भन्याँ तापनि।शलू् त हो यो भनी॥ऐले फरक् लौ थयाँ।रास्का शरणूमा गयाँ।॥४३।।सीताजि राम् काल हुन् ।बाँच्च्या छ पापी कउन् ॥ अपने ज्ञान को देख कर दूसरों के ज्ञान का आभास हो जाता है, ऐसा चिश्चय ही कहा जाता था, ठीक उसी प्रकारलक्षण इसने भी दिखाये। राषक्षप्तवंश में यही एक अधम उत्पन्न हुआहै । यदि मेरे स्थान पर कोई और होता तो इसे अभी समाप्त कर देता ।लेकिन क्या कर सकता हुँ, अपना ही भाई तो है। ४१ अत्यन्त ही क्रोधितहोने के कारण रावण ने विभीषण को धिक्कारते हुए कहा, तुम मेरे साथरहने के योग्य नहीं हो और अधम हो। रावण के मुख से ऐसी बातसुनकर विभीषण ने श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान किया और चार मंखियों कोलेकर वहाँ से चला गया । ४२ विभ्रीषण ने रावण से कहा कि महाराज !हित की बात कहने पर भी आफ्ने मुझ पर व्यथं ही क्रोध किया। आपमेरे भाई है और वडा भाई पिता के तुल्य होता है, यह् ठीक है। लेकिनअव कुछ भी नही हो सकता । अब आप प्रसन्नचित्त होकर अपना राज्य' चलायं, और मैँने तो अब श्रीरामचन्द्रजी की शरण स्वीकार की है । ४३महारानी सीता जी काली, जगदम्बिका तथा भगवती का रूप हैँ औरश्रीराम काल हैँ। वे भू-भार को हरने के लिए ही इस संसार मैं अवतरितहुए हैँ; ऐसे प्रभु से कौन पापी अपती जान बचा सकेगा। श्रीराम ने १९६ श्वीराम्को मतलव् छ मार्ने तब पोकालुखूप् थरीरघुनाथको अरु यहाँसब् राक्षस्कुलको हुन्या छ अव नाशूतिम्रा नाश् कसरी मदेखुँमतलौखूशी भै चिरकाल तक् गर यहाँयेती बिन्ति गरी विभीषण सबैचार् मन्त्रीसँग ली विभीषण गयावाहाँ जान डराइ सम्सुख भयाहेनाथ् ! आज शरण् पन्याँ चरणमाउच्चा शब्द गरी गन्य्रा विनति खूपूहे रास् ! रावण कुम्भकण विरकोरावण् आज अधम् भयो हजुरमासीता क्यान हप्यौ फिराउ भनि खुप्झन् धिक्कार् गरि खङ्ग लीकन उठ्योयस्तो रावणले गन्यो र रघुनाथूसंसार् पार् सहजै उताछं जसले भानुभक्त-रामायण फिर्दैन तिम्रो मति।को बुङ्न सक्छन् गति ।४४।छोड्छन् प्रभूले कहाँ।जान्छ प्रभू छन् जहाँ॥राज्खुपू चिरायू भया ।छाडेर रामृथ्यै गया ।४५।श्रीरामका पासमा ।टाढै ति आकाशमा ॥आयाँ म सेवक् भनी।वृत्तान्त आफ्न पनि ॥1४६।।भाई विभीषण् म हूँ।बिस्तार् कहाँ तक् कह ॥हीत भन्याँ तापनि ।काट्छ तँलाई भनी ॥४७।॥।आयाँ हजूर्मा म ता।सो छोडि जाउँ कता ॥ तुम्हारा नाश करने के लिए ही जन्म लिया है, इसी कारण से तुम्हारी मतिमे कोई परिवतेन नही होता है। अतः काल-कूपी श्रीरघुनाथ की गतिको यहाँ कौन समझ सकता है ? ४४ अव तो वे समस्त राक्षस-वंश कासमूल नाश कर डालेगे। लेकिन तुम्हारा नाश होते हुए मैं कसे देखसकूँगा, इसलिए मैं तो भगवान श्रीरामचन्द्रजी की शरण में जाता हँ।तुम प्रसन्न होकर राज्य सँभालो और चिरायु रहो। ऐसा कह् करविभीषण सब कुछ त्याग कर राम के पास चला गया । ४५ चार मेत्ियोको साथ लेकर विभीषण श्रीरधुनाथ के पास चला गया। बहाँ जाने सेभयभीत होकर आकाश में ही दूर सम्मुख हुआ और अपना वृत्तान्त सुनातेहुए विभीषण ने श्रीराम से विनती की कि हे नाथ ! मैं आपका ही सेवकहँ और आज आपकी शरण मे आ गया हुँ । ४६ विभीषण ने राम सेअपना वृत्तान्त सुनाते हुए कहा कि हे प्रभू ! मैं लंका के राजा रावण काभाई हूँ । वह आज अधम हो गया है, मैं कहाँ तक उसकी सेवा करतारङ्गैँ। सीता को वयो हरण किया? उसे श्रीराम को वापस सौँप दो, जबमैँने उससे ऐसा कह्वा तो वह क्रोधित हो-कर मुझ पर खङ्ग लेकर प्रहारकरने के लिए दौड्डा और मुझे तरह-तरह से घिवकारा । ४७४ जब रावण _नैपाली-हिन्दी १९७ यस्तो बिन्ति सुन्या बिभीषणजिको सुग्रीव्जीले जसै ।रावण्कै छल झैं बुझ्या र झटपट् बिन्ती गज्या यो तसै॥४०।॥। विश्वास् नमान्नु रघुनाथ ! इ त ढुष्ट पो हुन् । गर्नेत् इ औसर पप्या हुँदि जीयमा खुन् ॥ मर्जी हवस् इ सब पक्डि निभाइ ह्वालुम् । भाई म ठूँ पनि भन्यो उ छँदै छ मालुस् ।॥ ४९ ॥विश्वास् कत्ति नमानि बक्सनुहुवस् सब् ढुष्ट पो हुन् इता।रावण् कै यदि भाइ हो त किन ढील् मारौं-न भन्छु म ता॥जैले पढदेँछ छिद्र उस् बखतमा मानेनन् इ दागा गरी।मार्नालाइ हुकूम् हवस् सहजमा मारिन्छ येसै .घरि ॥५०॥मेरो मत् बिनती गग्याँ हजुरको क्या मत् छ ख्वामित् भनी ।सुग्रीवको बितती सुनेर रघुनाथू हाँसेर बोल्या पनि॥'हे सुंग्रीय सखे ! म आटुँ न सबै लोक् ध्वस्त ऐले गरी।फेर् सृष्टी क्षणमा गर्छै सहजमा लाग्वैन एक्काल् घरि।५१। ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया, तो हे रघुनाथ ! मै आपकी शरण में आगया और अब आपकी ही सेवा करने की इच्छाहै। जो प्रभु संसार कोतारनेवाले हैँ उस प्रभु को छोड्कर मैं और किसकी शरण मैं जाऔँ।विभीषण की ऐसी विनती सुनकर सुग्रीव ने भय के कारण श्रीराम सेविनती की । ४८ सुग्रीव श्रीराम से विनती करते हुए कहने लगे, “हैरघुनाथ ! यह तो ढुष्ट है। इस पर आप ज्ञरा भी विश्वास न कर्ँ।कहीँ ऐसा न हो कि अवसर पाते ही आक्रमण करदे। अपते को रावणका भाई वताता है और लगता भी ऐसाहीहै। आज्ञा दै तो मैं अभीझन सब को पकड्ड कर समाप्त कर डानूँ। ४९ हे रघुनाथ, आपकिचित्माल्न भी इसका विश्वास न करेँ। यदि रावणकाहीभाई है तोफिर इसका नाश करने मै विलम्ब कैसा। कोई अवसर मिलने पर उसअवसर का लाभ उठाकर ये हम पर आक्रमण कर दे, इससे पहलले ही आपमारने की आज्ञा दे, जिससे इसका सहज ही नाश कर दिया जाय । ५०मेरा तो यही बिचार है, हे प्रभु ! आपका क्या मत है।” सुग्रीव कीविनती सुनकर श्रीरामचन्द्र जी हँसकर बोले, हे सिब्न सुग्रीव! यदि भैंचाङ तो अभी सारी सृष्टि ध्वस्त कर डालूँ और चाह तो क्षण मैं ही पुनःसृष्टि निर्माण कर लूँ। ऐसा करने मैं तो कुछ भी समय नहीं लगेगा । ५१अपना भक्त समझ कर विभीषण को अन्दर आने की अनुमति दे दो। १९० भानुभक्त-रामायण तस्मात् भक्त बुझेर निर्भय दियाँ आउन् यि ल्याङ यहाँ।उस् माथी पत्ति शबुदल् यदि भया मार्थ्या म छोड्थ्याँ कहाँ ॥शब्रका इत ओरि हुन् तर पती आया शरणमा यहाँ।भेरी आज शरण् पच्या पनि भन्या तिनूलाइ छोड्छ् कहाँ ।५२। एकै बखत् पनि शरण् भनि जो मलाई । संझेर पर्दै श्रण् त म तेसलाई ॥ लिन्छु शरण् यदि उ शत्नु हवस् दयैले । मेरो व्रतै छ यहि छोड्छु कसोरि ऐले ॥ ५३ ॥ श्रीराम्चन्द्रजिको हुकम् यति हुँदा ल्याया विभीषण् पनि।पौँचाया रघुनाथका एइजुरमा ल्याई इनै हुन् भनी ॥श्वीरामूचनद्रजिको विभीषणजिले पाया र दशेन् तहाँ।खुप् साष्टांग गरी प्रणामू पत्ति गच्या पस्रेर पृथ्वीमहाँ ॥५४।।दशैन् श्रीरघुनाथको जव मिल्यो खूशी विभीषण् भया।जो ती दुःख थिया विभीषणजिका ताहीँ तुरन्तै गया॥सर्वात्मा रघुनाथको स्तुती गन्या ईश्वर इनै हुन् भनी।सर्वात्मा रघुनाथ् स्तुती सुनि बहुत् खूशी हुन् भो पनि ॥५५।॥।क्या माग्छौ वर माग दिन्छु म भनी हूकूम् भएथ्यो जसै।भक्ती मात्न थियो वहाँ मनमहाँ त्यो भक्ति माग्या तसै॥ र 0 000000000नललनलपूणिणिलिणाणिणिजिजिजिजिजिजिजिजिजिजिजिजिजिणिजिणिणिणणिणियदि विभीषण के साथ शत्नु दल भी होते तो मैं उन्है अवश्य मार डालता,छोड् क्यो देता। शत्नु के तो ये सम्वन्धी हैँ, तथापि मेरी शरण मेैँ आयेहँ। जव मेरी शरण मैँआ पड्ते हँ तो मैं भी उन्हे छोडँगा कहाँ ? ५२ श्रीराम चे बताया कि मुझे स्मरण करके जो भी एक वार मेरीशरण मैं आ जाता है उसे मैं अपनी शरण मैं ले लेता हँ,चाहे वह शत्रु हीक्यों न हो। यही मेरा सबसे बड्गा व्रत है, इसेञ्ै कैसे त्याग सकता ठुँ। ५३ श्रीरामचन्द्रजी की ऐसी आज्ञा होने पर विभीषण को उनके सम्मुख लाया गया। यही हैं, ले आया हूँ, ऐसा कह.कर रघुनाथ की शरण में पहुँचाया गया । वहाँ पहुँच कर विभीषण नेश्रीराम के दशन प्राप्त किये और पृथ्वी पर लेट कर् रघुनाथ को प्रणामकिया । १४ श्रीरघुनाथजी के दशैन पाकर विभीषण अत्यन्त प्रसन्न हुआतथा विभीषण का सम्पूण दुःख क्षण भर मे समाप्त हो गया। ईश्वरयही हैं, ऐसा सोच कर विभीषण ने श्रीरघुनाथ की स्तुति की। स्तुतिसुनकर सर्वात्मा श्रीरघुनाथ बहुत प्रसन्न हुए। ५५ क्या वरदान साँगते ॥ नेपाली-हिन्दी हे वाथ् ! भक्ति रहोस् सदा हजुरमाछोटै मान्छु म भक्ति देखि अरु चीज्तस्मात् कमें विनाश गर्नेकन एक्येतीले म क्नता्थ छ् विषय सुख्केवल् भक्ती सिल्या प्रसन्न पति छ्होला लौ तिमिलाइ भक्ति पनित्योजस्ले यो तिमिले गच्यौ स्तुति जतीतेस्लाई यति वर् म दिन्छु सहजैयेती भक्त विभीषणै सित हुकूम्राज् दिन्छ अहिले भनीकन लहृड् १९९ कैले नबिग्रोस् मति।यस् सृष्टिमा छन् जति ५६ध्यान् मात्र तिम्रो हवस् ।सम्पूर्ण दूरै रहोस् ॥बिन्ती गप्याथ्या जसै।दीनूभयो वर् तसै ॥५७।।मेरो यती पाठ् गरोस् ।संसार सागर् तरोस् ॥भो फेरि लङ्खामहाँ।आयो र मनूमा तहाँ।॥५०।॥। भाई लक्ष्मणलाइ मर्जि पनि भो हे भाइ ! लंकामहाँ।राज् गर्नेन् पछि तापनी म अभिषेक् दीनेछु दिन्छ यहाँ॥ ल्याड जल् तिमि जाउ सागर भनी हूकूम् भएथ्यो जसै। दौडी सागरमा गई क्षणमहाँ ल्याईदिया जल् तसै ।५९।राजा भै तिमिले रह् अब उपर् लङ्का पुरीको भनी।श्रीरामूचन्द्रजिलि विभीषण-उपर् दीया अभीषेक् पति॥ हो, माँगो । मैं तुम्हैँ दूँगा, कह् कर जैसे ही यह आज्ञा हुयी वैसे ही जोउस.समय उसके मन मैं भक्ति थी वही माँगते हुए उसने कहा, हे नाथ !मेरी भक्ति सदैव आपकी ओर रहे और मेरी मति कभी भी भ्रष्ट न होनेपाये। इस संसार में भक्ति के अतिरिक्त अन्य जो भी वस्तुएँ हैं उन्हे मैंतुच्छ समझता छुँ । १६ कर्मो का विनाश करने के लिए केवल आपकाही ध्यान रहे। बस इतने से ही मैँ आपका कृताथ हुँ, सम्पूण विषय-सुखदूरही रहे। केवल भक्ति-्राप्त से ही मैं प्रसन्न हँ। जेसे ही उसनेऐसा कहा, वैसे ही प्रभु ने यह कह कर कि तूुम्हँ भक्ति प्राप्त हो' वरदानदिया । ५७ तुमने जितनी मेरी स्तुति की है यदि उतनी स्तुति कोई औरभी करता तो उसे भी मैँ इतना ही वरदान देता, जिससे वहृ् सहज हीसंसार-सागर सै तर जाये । भक्त विभीषण से ऐसा कह् कर राम ने पुनःकहा, मेरे मन मैं विचार आया है कि लंका मैं तुम्हारा ही राज्याभिषेककखँगा । ५० हे भाई ! भले ही तुम वाद में लंका पर राज्य करो, परन्तुमैं तो तुम्है अभी ही राज्याभिषेक कङंगा ।। ऐसा कह कर श्रीराम नेलक्ष्मण को सागर से जल लाने की आज्ञा दी । वैसे ही लक्ष्मण ने दीइकरसागर से जल लाक्र दिया । ५९ अब तुम लंका के राजा बनक्र रहो, २०० भानुभक्त-रामायण लंकाका अधिराज् विभीपण हुँदाताहीं सुग्रिवजी विभीषणजिकाखूशी भैकन अङ्कुमाल् पत्ति गरीसेवक् हौं सव रामका तर तिमीयस् रावण्कत मानेलाइ महाराज् !सुग्रीवूले यति वात् गच्या जव तहाँहे सुग्रीव् महाराज् ! सहाय दिनकोतीन् लोक्का अधिवाथ् परात्स रघुनाथूदास् हूँ श्री रघुनाथको म गरुँलायस्तै बात्चित गर्दथ्या दुत तहाँरावण्को शुक दूत त्यो अगि सरीवाहीं जान त डर् भयो र डरलेलाग्यो सुग्रिवलाइ भन्न सहाराज् !राम्लक्ष्मण् सितको मिलापूमसितकोभाई हो मितको जनाउनु असल् सुग्रीवूहरू खुश् भया।साम्ने नजीक्मा गया ।६०।सुग्रीव भन्छन् तहाँ। ,छौ मुख्य सबूमा यहाँ ॥साह्ाय दे भनी।बोल्या विभीषण् पनि।६१।क्या शक्ति मेरो यहाँ।आफैँ खडा छन् जहाँ ॥सेवा त भर्सक् गरी ।आये अगाडी सरी ॥६२॥सुग्रीव सामूने भई।आकाश बीचूमा रही ॥सुग्रीव् खराबी भयो।वरी हुन्या मन् गयो।॥॥६३॥सम्झातँजा लौ भनी। हूकूम् रावणको भयो र अहिले याहाँ म आयाँ पर्नि॥ऐसा कह कर रघुनाथ ने विभीपण का राज्यभिपेक किया। विभीपणकेलंका का अधिराज वन जाने परे, सुग्रीव इत्यादि अत्यन्त प्रसन्न हुए।तत्पश्चात् सुग्रीव विभीषण के सम्मुख गये । ६० अप्यन्त प्रसच्चता सेआलिंगन करते हुए सुग्नीव विभीषण से कहने लगे कि हुम सब राम केसेवक हैँ परन्तु हम सवमेँ से तुम मुख्य हो। हे महाराज ! अब रावणको मारने मैं सहयोग दो । सुग्रीव की यह बात सुनकर विभीषण वोले--। ६१हे सुग्रीव महाराज ! सहयोग देने के लिए मेरे पास शक्तिकहाँ! मैंतोश्रीरघुनाथ का दास छुँ। अतः मुझसे जो कुछ भी सहयोग हो सकेगा मैंअवश्य कङँगा । जहाँ तीनो लोक के अधिनाथ परमात्मा श्रीराम कीशक्ति विराजमान हैं, तो वहाँ उनके सम्मुख किसी अन्य की शक्ति क्याहै? इसी प्रकार की वार्तालाप के बीच ही दुत उनके सम्मुख आ खडाहुआ । ६२ रावण का शुकदूत सुग्रीव के सम्मुख आया, लेकिन भय "केकारण आकाश के वीच में ही रहकर वोला-- हे सुग्रीव महाराज ! बहुतबुरा हुआ जो राम-लक्ष्मण से मित्तता करके 'मुझसे वेर करने का विचार मनमैं आया है । ६३ तेरे भाई(बालि)के मित्न होने के नाते यह कहना उचितसमझकर कहता हँ कि तु यहाँ से चला जा'-ऐसी आज्ञा रावणने दी हैँ।
नेपाली-हिन्दी तस्मात् रावणको हुकम् सुन तिमीसब् लश्कर् लिइ फर्कि जाउ तिमि फेर्लंका यो. जितिसक्नु छैन अहिलेबानर् पो तिमि हौ त क्या गछ कुरासीता जो अहिले हप्याँ त मइलेभाई हौ मितका विरोध् नगरयोमेरै भाइ समान हौ भनि बहुत्जो गछौँ तर फर्कि जाउ म त हित्यस्तो रावणको हुकूम् छ महाराज्पक्र्या वानरले त खैँचिकन खुप्वातर्ले बहुतै फजित् जब गप्या,श्वीराम्चन्द्र सुनूत् भनेर शुकलेदृत् हँ माने उचित् त होइन प्रभू !कुट्न् छैन भनी हुकम् हुन गयोवानर् देखि छुट्यो जसै उहि बखत्क्या उत्तर् दिनु हुन्छ पाउँम जवाफ् २०१ क्या काम आयौ यहाँ।लौ राजधानी महाँ ।६४।॥। इ्खब्रादिलि ता पनि।यो स्थान् जितौला भनी ।श्रीरामकी पो हय्याँ। तिम्रो बिराम् क्या गच्याँ ॥हित् जाति अर्ती दियाँ।गर्दै छु गर्दै थियाँ॥येती भनेथ्यो जसै।हान्या मुठीले तसै ।॥६६॥हे राम् ! मप्याँ लौ भनी ।साह्लै करायो प्नि ॥बिन्ती गरेथ्यो जसै।सुन्यार छोड्यो तसै।।६७।। कूदेर आकाश् गयो ।जान्छू म भन्दो भयो ॥ उसके बाद रावण की आज्ञा पाकर आप, जिस काम से, यहाँ पर आये हुँ(उसे त्याग) समस्त सेना को लेकर आप राजधानी को लौट जाइए। ६४इन्द्रादिके द्वारा भी लंका पर कोई विजय नहीं पा सकेता है । आप तो वानरही हैँ इस लिए में यह कैसे क्र कि यह स्थान आप जीत ही लेगे। रावणने सीताजी का हरण यदि किया है तो राम की पत्नी सीता का ही. हरणकिया । आप उनके मिल्न के भाई हुँ, अत: विरोध न करेँ। आखिर उन्होनेआफका बिगाडा ही क्या है? ६५ मेरे भाई के समान हो, इसलिएतुम्हारे हित की बात कहता हँ। वैसे तुम जैसा चाहो करो, मैं तो तुम्हाराहित चाहता था और चाह रहा हँ और महाराजा रावण की यह आज्ञा हैकि आप लौट जायेँ। जैसे ही दूत के मुख से यह बातेँ सुनी, वानर नेउसको अपनी ओर खींच कर मुष्टि के द्वारा उस पर प्रहार किया । ६६वानर ने जब अधिक परेशाच किया तो शुक ने श्रीराम को सुनाने केउद्देश्य से कुछ तेज आवाज्ञ मैं चिल्लाकर कहा, हे राम] लो अब मरा।'जैसे ही उसने यह विनती कि कि दूत हूँ, अतः दूत को मारना उचित नहीं,-उसी क्षण न मारने की आज्ञा हुई और आज्ञा सुनकर तुरन्त ही छोड दिया गया । ६७, वानरों से ज्यो ही छुटकारा मिला त्यों ही उछल कर वह २०२ भानुभक्त-रामायण यस्को सुग्रिवले जवाफ् तहि दियावाली झैं गरि भासँला अधम होस्श्रीराम्चन्द्रजिकी सिता हरि कहाँयस्तै रावणथ्यैं भन्यास् भनि भन्यायस्तो सुग्रिवले जवाफ् जब दियापक्छन् वानरले नछोड अहिलेश्रीरामूचन्द्रजिको हुकूम् यति हुँदायस् भन्दा अघि आइ शार्दुल फिप्योबिस्तार् शार्ढुलदेखि राम-बलकोचिन्तामा परि गैगयो अति ठुलोयै बीच्मा रघुनाथू रिसाउनुभयोलाल् लाल् नेत्र गराइ लक्ष्मणजिकाहे भाई ! तिमि हामिल्लाइ -यसलेभेटै आज गरेन हेर तिमिलेसागर् शोषण गर्नेलाइ धनु लीकामिन् भूमि पनी भयंकर स्वखूप् मित्दाज्यु होस् तापनि ।भन्दीनँ दाज्यू पत्ति ॥६८।॥।उम्केर जालास् उसै।सुग्रीवजीले तसै ॥राम्को हुकम् भो तहाँ।क्यै दिन् रहोस् यो यहाँ।६९।त्यो शूक बन्धन् पप्यो ।विस्तार् यसैले गुच्यो ॥सुन्यो र रावण् पति।आयेछ लश्कर् भनी।७०॥।आयेन सागर् भनी।साम्ने हुकम् भो प्नि ॥सामान्य मानिस् गनी ।यस्को तमाशा भनी ॥७१।।बाण् खेँचनूभो जसै।राम्लाइ देखी तसै॥ आकाश को गया और कहने लगा, बोलो, क्या उत्तर देना है ? उत्तर मिलजाय तो मैं चला चाञँ । सुग्रीव ने वहीं पर उत्तर दिया । मित्र होया भ्राताहो अर्थात् भ्राता होने का विचार नहीं रखूँगा। बालि की तरह माझँगाफिर चाहे अधम ही क्यों न हो जाये। ६ सुग्रीव ने बताया कि रावणसे कहना कि तुम श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी सीता जी को हर करके बचकरकहाँ जाओगे । सुग्रीव ने जव ऐसा जवाव दिया तब श्रीराम ने आज्ञा दीकि वानरों से कहो कि उसे पकडले और अभी न छोडें तथा कुछ दिन वहयहीं रहले । ६९ श्रीरामचन्द्र जी का यह आदेश होते ही उस शुक कोबन्धन मैं कर लिया गया। इससे पहले ही शार्दूल वापस लौटा औरउसीने रावण को सारा विस्तार बताया। शार्दूल के मुख से राम कीशक्ति के बारे मैं विस्तार से सुना, और अति विशाल सेना आयी हुई है यहसुनकर रावण भी अति गम्भीर चिन्ता मैँ पड गया । ७० इसी बीच मेंश्रीरघुनाथ सागर के न आने पर अत्यन्त क्रोधित हुए। लाल-्लाल नेत्रकरते हुए लक्ष्मण को आदेश दिया और कहा कि हे भाई ! ज्ञरा इसकातमाणा तो देखो ! इसने आज हमेँ और तुम्है एक साधारण मनुष्य समझकर् भेट तक नहीँ की । ७१ जैसे ही सागर का शोषण करने के लिए नेपाली-हिन्दी चार् कोश् तक् त समुद्रको जल पुग्योजो ,जन्त् जलमा थिया ति पतितायस्तो देखि डराइ सागर हतहाँभेटी खातिरलाइ रत्नहरु बेस्श्रीरामूचद्चजिका गया शरणमापाञमा परि दण्डवत् पनि गण्याहात् जोरी स्तुति बिन्ति धीर् गरि गच्यासीतानाथ् प्रभुलाइ जानुँ कसरीचेत् ऐले प्रभुले दिदा हजुरमारस्ता दिन्छु दया रहोस् म छु अनाथ्सागर्का इ वचन् सुनी हुक््मभोवाणूको थानू त खटाउनाकन पप्योमेरो वाण् त अवश्य काम नगरीज्यान् राख्छौ त अवश्य देउ बदलाश्वीरामूचन्द्रजिको हुकम् यति सुनीपापी छन् द्र मकुल्यमा अहिर हुनु २०३ दशू दिक् अँध्यारा भया ।सब् खलूबलाई गया ।७२।सुन्दर् स्वख्पू एक् धरी ।लीयेर झट्पट् गरी ॥भेटी अगाडी धघरी।सब् शेखिशान् दूर् गरी७३।हे नाथ् म हुँ जड् यसै।क्यै चेत् नपाई उसै॥आई शरण््मा पच्याँ।हात् जोरि बिन्ती गच्याँ७४।साँचो भन्यौ ता प्नि।यस्लाइ लौ हान् भनी ॥फिर्दैन ऐले यसै।टर्दैन यो वाण् कसै ।॥७५।॥।हात् जोरि बिन्ती गज्या ।उत्तर् दिशामा परा ॥ श्रीरघुनाथ ने धनुष-बाण खीचा, वैसे ही रामको देख कर भूमि भयंकर खूपधारण करके काँपने लगी । समुद्र का जल चार कोस दुर तक पहुँच गयातथा जो जन्तु जल मे निवास करते थे उन सब मै भी खलबली मचगयी । ७२ यह सब देख कर भयभीत होकर सागर एक सुन्दर स्वरूपधारण करके भेट देने के लिए रत्नादि लेकर श्रीरघुनाथ की शरण मैँ गयाऔर भेंट को रघुनाथ के सामने रखकर उनके चरणों मैं गिरकर प्रणामकिया । ७३ धीरज धर कर तथा हाथ जोड्कर स्तुति की और कहा, हेनाथ ! मैं तो ऐसे ही जइ हँ, मैं सीता-पति प्रभु को केसे जान सकता छू! मुझमें तनिक भी चेतना नही आयी । प्रभु द्वारा चेतना जाग्रत कर देनेसे मैं आपकी शरण मैं आपकी सेवा करने के लिए आया हृँ। अतः सैंआपफको रास्ता देता छुँ, मुझ-पर दया करने की क्रपा करैँ क्योंकि मैं अनाथहुँ। ७४ सागर के इस वचन को सुनकर आज्ञा हुई कि रहने दो, यदितुम सत्य भी कहते हो तब भी बाणका लक्ष्य तो प्राप्त करना ही है।अतः इससे प्रहार करते है । मेरे बाण तो अवश्य ही बिना काय को पूर्णकिये वापस नहीं लौट सकते । यदि प्राण चाहते हो तो बदले मै कोई औरप्राण दो लेकिन यह् बाण किसी भी रूप मैँ टलने वाला नही है। ७५ २०४ भानुभक्त-रामायंण ठाकुर्का यहि वाणले जति ति छ्न् पापी सबै नाश् गरोस् ।यस्काम्ले म अनाथू गरीब् हजुरको दास्को सवै तापू हरोस्।७६। यति वित्ति गस्याको सूनि खुप् हर्ष मानी । सकल हरिदिनूभो तेहि वाण् जल्दि हानी ॥ रिससित गइ वाण््ले पापिको नाश् गराई । सर्किकन फिरि ठोक्रेमा पञ्यो वाण आई ॥७७॥यै बीच्मा ति समुव्रले चरणमा पस्रेर विन्ती गच्या।कीर्ती खुपू रहन्याछ सेतु वलियो हालेर लङ्कर् तम्या ॥सेतू बाँधनमा समर्थ नल छ्न् इनूले त वर्दान् पनि।पायाको छ इ विश्वकमे सुत हुन् वाँबून् इ सेतू भनी ।।७5॥।येती बिन्ति गरेर पाउ परि फेर् सागर् अदृश्यै भया।सागरको विनती सुनी नल पनी राम्का हजुर्मा गया ॥हृकूम् भो नललाइ सेतु तिमिले चाँडै वनाञङ भनी।लश्कर् साथ लिया र जल्दि नलले सेतु बनाया पनि ॥७९॥ खुशि भइ नलले सब् वीरको तेज् जगाई । वरिपरि जति छन् सब् वृक्ष पवेत् मगाई ॥। श्वीरघुनाथ का ऐसा आदेश सुनकर हाथ जोड्कर उसने विनती की किउत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नामक नगर मे अनेक पापी खाले रहते हँ।प्रभु के इसी वाण द्वारा उन सव पापियों को नाश किया जाय। ऐसाकरने के पश्चात् मुझ दीन अनाथ और प्रभु के दास के समस्त संतापों काहरण करेँ। ७६ उसकी ऐसी विनती सुनकर राम अत्यन्त हापत हुएऔर तुरन्त ही उस वाण से प्रहार करके सकल ताप का हरण किया।वाण सीधा जाकर पापियों का नाश करके पुनः लौटकर तरकस में प्रवेशकर् गया । ७७ इ्रसी वीच समुद्र ने चरणों मं लेट कर विन्ती कीकिशक्तिशाली पुल को बाँध कर सेना को पार लाने से अत्यन्त कीति होगी ।पुल वाँधने मैं नल समर्थ है तथा इन्है वरदान भी प्राप्त है । यह विश्वकर्मा-सुत है, अतः यही, पुल को वाँधे । ७5५ इस प्रकार से विन्ती करके सागरपुनः अदृश्य हो गया । सागर की विनती सुनकर नल भी राम के पासगया। चल को शीम्रता से पुल वाँधने की आज्ञा हुई। अतः वह सेनाको साथ लेकर पुल का निर्माण करने लगा । ७९ प्रसन्न होकर नल नेसव वीरों की शक्ति जाग्रतकी । चारो ओर जो कुछ भी वृक्ष और पर्वतथे उनको मंगवा कर आगे आकर पुल बाँधने लगा। उसी क्षण रघुनाथ नेपाली-हिन्दी २०५. अगि सरिकन सेतू बाँच लग्या जसैता ।शिव भनि रघुनाथूले मूति थाप्या तस ता ॥८०॥ रामैश्वर् भनि नाम् चलोस् अब उपर्गङ्गाजल् लिन काशि गैकन उ. जल्फ्याँक्ला कामरु त्यो समुद्र जलमात्यो जन् मुक्त हवस् भनेर रघुनाथबाँध्या सेतु छपन्न कोश पहिलेकोश चौरासि सक्या तृतीय दिनमाकोश् अट्टासि सक्या चतुर्थ दिनमापाँचौं दीनमहाँ सक्या नजर भोतेही मागे गरेर फौज् सब तर्थोटाप ढा्किदियो रहेन बिचमाभाईलाइ चढाइ अङ्गदमहाँ' चढ्नूभो रघुनाथ र जानु पनिभोताहीँ गैकन त्यो विचित्न नगरीत्यो रावण् पनि कौसिमा गइ तमास्यै बिच्मा शुकलाइ छोडिदिनुभोरावण सीत तुरन्त गैकन सबै ने शिवजी का स्मरण करके मूति-स्थापना की । ००प्रसिद्धि हो, ऐसा सोचकर वहाँ पर संकल्प क्रिया । संकल्प याहाँ लिई।ल्याई नुहाई दिई ॥जस्ले बंगोस् यो भनी ।कोयो हुकम् भो पनि।॥॥5 १॥दिन् दोसरा दिन् असी ।कस्मर् सबैले कसी ॥वाँकी बयान्नव्बे कोश्।चिस्क्येन एक् काहिदोष्८२ढाक्यो ल्विकूट् पर्वेतै ।खाली भन्याको कतै॥आफू हनूमानूमहाँ ।थीयो जगा अँच् जहाँ।८३।लंकै नजर् भो जसै।हेर्यो नजर् भो तसै॥दौडेर त्यो शुक् गयो।बिस्तार गर्दो भयो ०४ रामेश्वर के नाम सेकाशी से गंगाजल लाकर स्तान किया। जो यह सोचकर समुद्र मैं कामरू फेंकेगा कि यहबह् जाय तो वह प्राणी मुक्त हो जायगा, यह् कहते हुए रघुनाथ ने आज्ञादी। ०१ पह्ले दिन छप्पन कोस का पुल बाँधा। दूसरे दिन अस्सीकोस तथा तीसरे दिन सबने कमर कस कर चौरासी कोस समाप्त करदिया। चौथे दिन अट्ठासी कोस और बाक्री ब्यानबे कोस, पाँचवे दिनसमाप्त कर दिया । देखने पर कहीं कोई दोष नहीं दिखायी दिया । ८२उसी रास्ते से सारी सेना पार हो गयी । ल्विकूट पर्वत और टापू सव ढकदिया। कहीं पर कोई रिक्त स्थान नहीँ बचा। भाई को अंगद पर चढ्ाकर स्वयं हनुमान पर सवार ह्वोकर चल पडे, यद्यपि स्थान काफ्री झँचाथा।॥-5३ जैसे ही वहाँ जाकर विचित्न नगरी लंका को देखा तो वहाँ पररावण भी तमाशा देखते हुए नजर आया। उसी बीच शुक को छोडदिया । शुक दौड कर गया और वहाँ जाकर रावण को तुरन्त ही सारा २०६ ऐले हे महाराज् ! गयाँ हजुरकोबाँध्या वानरले पप्याँ सकसमाऐले पो रघुनाथका हुकुमलेबाच्याँ बल्ल भतेर हर्षसित खुपूआयो फौज् रघुताथको अति ठुलोजीतीसक्नु कठिन् हुन्याछ वललेसीताजी लगि रामका शरणमालड्नै मन् छ भन्या तुरन्त अव लौराम्को एक् समचार् म भन्दछु हरिस्संग्राम् गर्न अगाडि सर् वखतभोभोली ध्वस्त गराउँछ् अघि खवर्हाँकी भन्छु तँलाइ छोड्दिनँ यसैरावण्लाइ सुनाउन् यति थियोतै जान्छस् त पठाउँ को अरु तहाँयस्तो श्रीरघुनाथको हुकुम भोसाँचो बिन्ति गरीसक्याँ उ समचार् विस्तार सुनाया । ०४गया ।यहाँ न आ पाता । ताकि मैं चला जाऔँ ।से दौडकर यहाँ आ गया हुँ। 5५के साथ समुद्र पार कर यहाँ आ पहुँचे है। भानुभक्त-रामायण हक्म् हुनाले हहाँ।आउँ कसोरी यहाँ॥छोडी दिया जा भनी।दौडेर आयाँ पत्ति ॥०५॥याहीँ समुद्रै तरी।ऐले लडाई गरी॥ की आज पर्नू हवस् ।संग्राम गर्नू हवस् ॥५६॥।सीताजि उन्मत् लिई।साम्ने मुहँडा दिई ॥दीयाँ उचित् हो भनी।मैले नमारी प्नि ॥5७॥हे शुक् ! सुनाई दियास् ।तैँले मनमा लियास् ॥भन्नू समचार भनी।मैले हजुर्मा पनि ॥५०॥ “हे महाराज ! अभी श्रीमन् के आदेशानुसार मैँ वहाँयदि वानर द्वारा बाँध लिया जाता तो संकट मैं पड जाता औरअभी तो रघुनाथ की आज्ञा से छोड दिया गया अब मैं संकट से वच गया इसी कारण से तीव्रगतिश्रीरघुनाथ अपनी विशाल सेता उनसै युद्ध करके भी विजय पाना कठिन ही है, अत: आज ही सीताजी को श्रीराम की शरण मेँलेजाकर सौँप देने की कृपा करेँ। यायुद्ध ही करना हैतो शीघ्र ही संग्रामप्रारम्भ करने की कुपा करे । ५६ रामचद्जी ने एक संदेश भेजा है उसेमैँ बताता हँ । “कौन सी मति को अपनाकर आपने सीता का हरण किया है।अब समय हो चुका है अतः मुँह समक्ष रख कर संग्राम करने के लिए आगेआओ । कल तुझ्षे मैं घ्वस्त कर डालुँगा, अत; मैं तुझे पहले से सूचनादेता हँ मैं तुझे ललकार कर कहता हँ कि यदि तुझको नभी मारा तोऐसे नहीं छोडु्ंगा । ५७ है शुक ! केवल इतना ही तुम रावण को जाकरसुना देना। जब तुमही जा रहे हो तो और किसको भेजूँ ? अतः तुमअपने मन मै समझ लेना। ऐसा समाचार कहने के लिए श्रीरघुनाथका 'आदेश हुआ है । अतः वह समाचार मैँने श्रीमन् के सम्मुख सत्य वर्णन नेपाली-हिन्दी मेरो बुद्धि मं बिन्ति गर्छु अहिलेजीती सक्नु कदापि छैन अरुलेसीता _ आज लगेर: सुम्पनु हवस्बाँच्च्या येति उपाय देख्छुनहितायो बिन्ती शुकले गच्यो र सुनि खुप्लाग्यो भन्न मलाइ पाजि गुकयो- औरै कोहि भया त निश्चय यहाँयस्का गुण् अघिका थिया र गुणले रावण््ले शुकलाइ जा भनि तहाँ त्यो शुक् ब्राह्मण हो अघी पछि सरापूराक्षस् हुनु सराप् पत्ती तहि छुट्योरावण्देखि बिदा भयो रपछि ताब्राह्वाण् हुन् घरमा थिया णुकक्रषीभोजन् दिन्छु अगस्तिलाइ म भनीस्तान् सन्ध्या गरि आउँछ् तब भनीआयो राक्षस वञ्रदंष्ट्र रिसले किया है। दद बुद्धि को क्या हो गया है। २०७ राम् हुन् जगत्का पति । क्या भो हजुरको मति ॥रामूका चरण्मा परी ।आयो सरण्को घरि॥॥८९।॥।रावण् रिसायो तहाँ।अर्ती दीन्या भो यहाँ ॥मारीदिन्याँ पो थियाँ।बाँचिस् बिदा जा दियाँ।९०। बीदा जसै ता दियो।पर्दा तहाँ त्यो थियो॥बीदा तुरन्तै भयो।शुक् ब्राह्मण भै गयो ।॥९१॥।एक् दिन् अगस्ती गया ।निस्ता ति गर्दा भया ॥हींडया अगस्ती जसै।पायो र अन्तर् तसै ॥९२॥ मैं अभी यही विनती करता हुँ कि मेरे विचार से श्रीरामसंसार के स्वामी हैं, अत: उनसे कोई भी नहीं जीत सकता । श्रीमन् की अब तो बचने का एक ही उपाय दीखता है कि राम की शरण में पड्कर सीताजी को सौँपने की कृपा करे, नहीं तोम्रृत्यु की घडी नजदीक आ गयी है।” 5९ गशुक की इस विन्ती कोसुनकर रावण को बहुत क्रोध आया और कहने लगा--पाजी गुक ! आजतू ही मुझे शिक्षा देरहाहै। तेरी जगह यदि कोई और होता तोअवश्य ही उसे मार डालता । लेकिन पह्ले के तेरे कुछ गुण (सेवाएँ) हैँउसी कारण बच गया है; जा तुझे छोड दिया । ९० रावण ने शुको विदा किया। वैसे ही उस शुक ने जो पहले शाप के फलस्वरूप वहाँ,ब्राह्मण से राक्षस की योनि मैं उत्पन्न हुआ था, शाप से तुरन्त मुक्ति पाईऔर रावण से विदा लेने के पश्चात् वह पुनः ब्राह्माण हो गया । ९१ब्राह्मण होने के समय, शुकके घर मैं एक दिन क्रषि अगस्ति पधारे ।उसने अगस्ति को भोजन के लिए निर्मत्वित किया। जैसे ही अगस्ति जीस्वानादि करके आअँगा' कहकर चले गये, बैसे ही ब्रजदंष्ट्र नामक राक्षसक्रुद्ध होकर आ गया । ९२ जैसा रूप मुनि अगस्ति का है, ठीक वैसा ही २०० भानुभक्त-रामायण जस्तो रूप् छ अगस्तिको उहिस्वरूप घाण्यो र बोल्यो पनि।मासू खान मलाइ देउ तिमिले इच्छा छ मेरो भनी ॥यस्तो छल् पहिले गम्यो र पछि फेर् खान्या बखत्मा पनि।मासु मानिसको लगी मिसिदियो टीक् शुक्कि पत्नी वनी ।९३।भागु देख्ता ति अगस्तिकारिसउठ्यो दीया सरापै पनि।मासू मानिसको दिइस् त तँ भयास् राक्षस् अवश्यै भनी॥शुक्ले बिन्ति गर्या खबर् हुन गयो यो छल् परयाको जसै।चाँडै छुट्ट हुन्या अगस्ति क्रषिले वेला बताया तसै ॥९४।॥हेशुक् ! राम् अवतार् हुन्याछबसलौ रावण् कहाँ गै तहीँ।रामको दशेन पाउला तहि सरापू छुट्ला नजाक कहीँ॥यस्तो अति अगस्तिको सुनि उसै माफिक् गरयाका थिया ।रामको दशैनले सरापू छुटिगयो फेर् वृत्तिआफ्नैलिया॥९५॥।रावण््की महतारिको प्नि पिता ठँ हित् म भन्छ भनी।रावण्का नजिकै गईकन भन्यो हित् माल्यवानूले पनि ॥राम् नारायण हुन् सिता प्रि उनै लक्ष्मी भनी ज्ञानले।सीता सुम्पिदिहाल राख मनमा पूजा गरी ध्यानले ॥९६॥। स्वरूप धारण किया और वीला, कि मुझे मांस दो, मेरी मांस खानेकीझ्च्छाहै। इस प्रक्कार का छल पहले भी किया और भोजन के समयभी क्रिया। ठीक गुक की पत्नी वनकर मनुप्य का मांस लै जाकर मिलादिया । ९३ सांस देखते ही अगस्ति क्रपिको क्रोध आगया। उन्होँनेउसी समय शाप दे दिया कि तुमने मनुष्य का मांस दिया है, तुम अवश्यही राक्षस होजाओ। इस छल किये जानेकी वात सुनकर गुकनेविनती की। तव अगस्त,त्रहषि ने शीत्र ही छुटकारा पानेका समयबताया । ९४ हेश्ुक ! रामका अवतार होगा । अतः रावण के यहाँजाकर राम के दशैन पाने पर् ही तुम्हारा शाप समाप्त होगा; अबअन्यत्न कहीं न जाओ । अगस्ति का ऐसा उपदेश सुनकर शुक ने उसीके कहे अनुसार किया । फिर राम के दश पाकर शाप से मुक्ति पायीऔर पुनः अपनी (ब्वाह्माण-) वृत्ति को अपनाया । ९४ (“हे रावण ! मैंतेरी माता का भी पिता हुँ अतः हितके लिए ही कहता हँ कि रामनारायण हँ और सीता जी साक्षात् लक्ष्मी हैँ। अतः तुम तो स्वयं ज्ञान-वानूहो। सीताको विनादेर कियेही श्रीरघुनाथ को सौंपदो।”रावण के पास जाकर, मल्यावान ने इस प्रकार कहा और समझायाकि मन मैं ध्यान देकर राम का पूजन करो। ९६ नगर में उत्सवका
- नेपाली-हिन्दी २०९
उह्का हुन्छ: अनेक् अनेक् शहरमा उत्सवू भन्याको रती ।काहीं छैन बताउँ यो म सहाराज् ! याहाँ 'हजूरुमा कति ॥तस्मात् बिन्ति छ यो बहुत् हजुरमा हित् जानि लीनू हवस् । ्सीतानाथूकव ईश्वरै बुझि सिता सुम्पेर दीन हवस् ॥९७॥।" यो,बिन्ती सुन्ति माल्यवान् सित बहुत् रावण् रिसायो तहाँ।लाग्यो भन्न रिसाइ आज तिमि क्या बोल्छौ बुढा भै यहाँ ॥क्याले राम्' परमेश्वरै भनि भन्यौ मानिस् त हुन् ती. पनि ।लिन्छन् .. वानरको सहाय कसरी जानूँ म ईश्वर् भनी ।।९०८॥तिम्रा बात् सुन्ति चित्त पोल्छ तिसिता जाकञ घरैमा भ॑नी।मन्त्ती , वग लगाइ साथ घरमा जल्दी पठायो पति ॥रावण् उच्च अटालिंमा बसि कती आया बड्डा वीर् भनी।हेर्दै, लड्न त मन् गरीकन हुक्म् दिन्थ्यो लड्त् वीर भती।॥९९॥।देख्न्भो रघुनाथले र तह्षि वाण् छोडीदिवूभो जसै ।तेस् बाण्ले दश छत्वदश् मुकुट सब् काटी खसाल्यो तसै॥“आफ्ना छ्न र दश् मुकुट जब गिप्या लाज् मानि रावण् पत्ति ।ओर्ल्यो जल्दि अटालिदेखि र गयो हान्नन् इ फेरी भनी।।१००॥। कहीं नामोविशान नहीं है। उधम ही मात्र है। हे महाराज ! यहाँकुछ भी नहीं जो आपको बताऔँ। इसीलिए श्रीमन् से मेरी यह वि्ततीहै कि इसे: हित की बात समझ और सीतापति को ईश्वर जानकर सीताको उन्है सौँपने . की कुपा करेँ। ९७ इस विनती को सुनकर रावण कोमाल्यवान, पर अत्यधिक क्रोध आया और क्रोधावस्था मै ही कहने लगाकि वृद्ध, होकर भी तुम आज यह क्या कह रहे हो, राम को कैसे परमेश्वरकहा, वह भी तो मनुष्य ही है । ' वह तो वानरौों की सह्भायता लेता है,उसे मैँ किस प्रकार ईश्वर मानूँ। ९८ तुम्हारी बातेँ सुनकर तो मेरा चित्तही जलने लगता है। अतः तुम घर लौट जाओ । तुरन्त ही माल्यवानको मत्तियों के साथ करके उसै घर भेज दिया। वहाँ उच्च अट्टालिकामै बैठ, कितना बडा वीर आया है, देखते हुए लडना समाप्त करके, वीरोंको लड्ने की आज्ञा दे रहा था। ९९ रघुनाथ ने जैसे ही देखावेसेहीअप्ने बाण से प्रहार किया। उस बाण के प्रहार से ही दस छत्न औरदसों मुकुट ट्ट कर गिर गये। अपत्ने दंस छत्न तथा “मुकुटों को गिरादेखकर रावण अत्यन्त ही लज्जित हुआ और अट्टालिका से उतर करचला गया, इस भय से राम फिर से प्रहार न कर दें। १०० दरबारके २१० दर्बार् भित्र पसी हुकम् पनि दियोतिस्क्या लड्न भनी प्रहस्तहरु वीर्राँगा अँट् गदहा र सिंहहरुमानाना शस्त्न र अस्त्र लीकन अनेक्चार् ढोकातिरबाट निस्किकन फौज्वानर्ले नजिकै गईकत जगारावणको सब फौज निस्कन तहाँगरजेन्छन् सब वीर वानरहरूयस्तै रीत्सित घेरि हान्न पनि जब्राक्षसूको पनि फौज् हटेन डरलेसंग्राम् यस् रितले जसै हुन गयोश्रीरामको करुणा कटाक्ष हुनगैराक्षसूत्फ भन्या घट्यो बल सबैमाच्या वानरले ति राक्षस सबैआफ्नू फौज् सब नष्ट देखिकन वीर्आयो इख्रजितै म लड्दछु भनी भानुभक्त-रामायण लौ लड्न जाड भनी।छोपेर भुमी पनि॥वीर् वीर् सवारी भया।वीर् लड्न जल्दी गया॥१०१॥।सासूने भेयेथ्यो जसै।घेरी लिया सब् तसै॥पागेत ठाऔँ पत्ति ।राम्चन्द्र जित्छन् भनी।। १०२॥।लाग्या यि बानर्हरु।प्राण् त्यज्न लाग्या बरु॥ताहाँ ति बानर् भन्या ।अत्यन्त योद्धा बन्या ॥ १०३।।ठूला ठुला वीर् सम्या।चौथाइ बाँकी गन्या॥साह्ै लडाकी गशुरो।सर्वास्बमाको पुरो ॥१०४।॥ अन्दर प्रवेश करते ही रावण ने वीरौं को लड्ने के लिए जाने की आज्ञादी। समस्त वीर नाना प्रकार के अस्त्न शस्त्र लेकर, भैँस, अँट, गर्देभ,और सिंह पर सवार होकर युद्ध के लिए शीघ्रही चल दिये । १०१जैसे ही चारौं ओर के द्वारौं से रावण की सेना निकली, वैसे ही वानर-सेना ने आकर उन सबको घेर लिया। रावण की, सेनाको वहाँसेतिकलने का कोई स्थान नहीं रहा। समस्त वीर वानर गर्जेना करतेहुएकह रहेथेकि श्रीराम ही विजयी होँंगे। १०२ इसी क्रम से घेरतेहुए वाचर-सेना रावण की सेना पर प्रहार करने लगी। राक्षसोकीफौज वहाँ से भागी नहीं, बल्कि राक्षसगण भयभीत होकर अपने प्राणत्यागने लगे। जब संग्राम इस प्रकार होने लगा तब वानर कहने लगे,“यह सब श्रीराम की महिमा है । उन्हींकी क्रपा है कि हृम सब अत्यन्तयोद्धा वन गये है” । १०३ राक्षसोंकी सारी शक्ति जाती रही औरसब बडे-बडे वीर मारेगये। वानरौं ने सभी राक्षसों को मार डाला,जिनमेँ से अब केवल चौथाई हीवाकीथे। अपनी सेनाको इस प्रकारसमाप्त होते देख वीर सुरमा इन्द्रजीत, जो सब अस्ल्लों मै प्रवीण था,युद्ध करने के लिए आगे बढ्ठा । १०४--वानर और सेना पर हृथियारों से वेपाली-हिन्दी २११ वानर्को सब फौजलाइ हतियार छाड्रेर मदैन् गप्यो।श्रीराम्ले पनि व्रह्मपाश अति ठुलो जान्नै र मान्नै पन्यो ॥एक् छिन् चुप् रहनू थयो र रघुनाथ् - फेरी तयारी भई।ऐले मादेँछु् मेघनादूकन भनी साम्ने उसका गई॥१०५।॥माग्नूभो धनु देउ लक्ष्मण ! भनी श्रीरामजीले जसै ।माछ्न्,. की भनि, मेघनाद डरले फर्कर भाग्यो यसै॥भाग्दामा प्रभुजी मुसुक्क , मनले हाँसेर भन्छन् अनि ।,यो बच्चा पनि जोरि खोज्न मकनै चाहन्छ कच्चा बनी॥१०६।॥।पृथिवितल गिप्याका वीर् . बचाञनलाई ।हुकुम प्रभुजिको भो वीर् हनूमानलाई ॥ढिल नगर हनूमान् ! क्षीर सागर् छ जाड ।तहि छ अगम पर्वेत् द्रोण. लीयेर आउ ॥१०७॥वरखति तहि छ तेही ख्वाइ यो फौज् बचाड।यति गरि शुभ्न कीति दश्ू दिशामा चलाड ॥- हुकुम सुन्ति तुरन्तै द्रोण लीयेर आया ।, पृथिवितल गिच्याका वीरलाई बचाया ॥१०८॥यति गरि हनुमानूले कीतिले लोक छाया ।फिरि लगि उहि पर्वेत् द्रोण राखेर आया ॥ प्रहार करने लगा। श्रीरामचन्द्र को अत्यधिक विराट ब्नह्मपाश काज्ञान प्राप्त करने के लिए बाध्य होना ही पड्डा। श्रीराम एक दिनतोचुप रहे, किन्तु पुनः तैयार होकर, यह कहते हुए कि मेघनाद को अभीमारता हुँ, उसी के सामने जा डटे । १०५ जैसेही श्रीरामने मेघनादको मारने के लिए लक्ष्मण से धनुष-बाण माँगा, वैसे ही भयभीत होकरमेघनाद वहाँ से भाग खडा हुआ। उसको .भागते देख कर प्रभु मन हीमन मुस्कराते हुए कहते हँ कि यह बच्चा इतना कमजोर होते हुए भी मुझसेलड्ने की अभिलाषा रखता है। १०६ भूमि पर गिरे हुए वीरौं कोबचाने का आदेश वीर हनुमान को देते हुए प्रभु राम ने कहा, हे हनुमान !अब विलम्ब न करो। तुम क्षीरसागर चले जाओ और वहाँ पर एकअगम ठ्रोणपर्वेत है, उसे उठा लाओ । १०७ उसी औषधि के द्वारा इससेना को बचाओ और ऐसा करके दसों दिशाओं मै अपती कीति फैलाओ ।श्रीराम की ऐसी आज्ञा सुनकर हनुमान तुरन्त ही जाकर द्रोणप्वेत उठालागे और उस औषधि को खिलाकर धराशायी वीरों को बचाया । १०८ २१२ भावुभक्त-रामायण जब त वखति पाई होश भो वानरैता। -तव त भइ खुसालू नाच्न लाग्या सवै ता ॥१०९॥ लाग्यो वातर-सैन्य गर्जेन यसैलाग्यो भन्न सलाइ माने बलवान्जाक लौ अतिकाय वीर्हरु तहाँमार्न्याछ् तिमिलाइ चिश्चय नगैहुकुम् यो अतिकाय वीरहरुलेपौँच्या वानर सैच्य माने हतियार्वानर््ले पनि वृक्ष पेत मुठीरावणूका वलको विनाश् गरिदियामार्नु भो रघुताथले कति तहाँअङ्गद् श्री हनुमान नक्ष्मण इनश्रीरामूको करणा कटाक्ष हुन गै वीच्मा र रावण् तहाँ।.यो शब्नु आयो यहाँ॥खुप्लड्न कम्मर् कस्या ।याही घरैमा बस्या॥ ११०॥सून्या र कस्मर् कसी ।छोड्या अगाडी पंसी॥ दाह्वा नखैले गरी।ताहाँ अगाडी सरी॥१११॥।सुग्रीवजीले कृति । वीर्ले गिराया कति ॥वातर् वलीया भया। राक्षसू्सा करुणा भयेन र तहाँ राक्षस् सरी गै गञ्या॥१ १२।! सर्वेश्वर् सर्वरूपी प्रभुकन यसरी लड्न पो क्यान पर्थ्यो।वाक्वाण्एक््छोडि दींदा पत्ति तति रिपुको नाश्ू उसैले त गर्थ्यो ॥ ऐसा करने से हनुमान का यश सम्पूणँ लोक में व्याप्त हो गया। फिरसे जाकर हनुमान उस द्रोणपर्वेत को बहीँ पर रख आये। औषधि खाकरजब उन वाचरों को चेतना आयी, तोबे सब प्रसन्नता के वशीभूत होनाचने लगे । १०९ इसी वीच वानर-सेना की गजेना हुई । इस गर्जेचाको सुनकर रावण ने कहा कि मुझ्े मारने के लिए शक्तिशाली शब यहाँआये हैँ। हे विशाल शरीर वाले वीरो ! कमर कस कर शत्रु से लड्नेके लिए जाओ और यदि वहाँ न जाकर घर परहीबैठे रहेतो मैं तुमसबको निश्चय ही मार डालूँगा । ११० रावण की विशाल सेना नेआज्ञा पाते ही कमर कस कर बानरन्सेना को नष्ट करने के लिए आगेवढ् कर प्रहार किया। वानरन्सेना ने भी रावण की विशाल सेना परपर्वत, गदा, मुष्टिक, एव नाखूनों से प्रहार किया। उनके इस प्रहारने रावण की शक्ति को नष्टप्राय कर डाला । १११ कितनौं को रघुनाथने स्वयं मारा और कितरनो को सुग्रीव ने मारा । अंगद, हनुमान औरलक्ष्मण जैसे वीरोंने न जाने कितनों को समाप्त कर डाला। श्रीरामकी कृपा से समस्त वानर् बलवान हो गये और राक्षसों पर कोई क्नपानही की; अतः अनेक राक्षस मारे गये। ११२ सबके ईश्वर प्रभु राम
नेपाली-हिन्दी २१३ मायाले सच्चिदात्मा नर भइ नरका युद्ध लीलादि गर्छन् ।जुच् लीलाले त पापी अधस पतितको पाप सन्ताप हरछँन् ॥११३॥।रावण्ले अतिकाय वीरहरुको फौज् मारिएको जसै।सून्यो ढुःखि भएर पूर्ण रिसले खुपू लड्न आँट्यो तसै॥सुन्दर् एक् रथमा चढ्यो र हृतियार् शस्त्वास्त फेर् सब् लियो।लङ्का रक्षण गर्नु इन्द्रजितले भन्या हुक्मूयो दियो।॥ १ १४।।केही फौज् पनि साथमा लिइ गयो श्रीरामजी छन् जहाँ।रोक्या वातर सैन्यले र रिसले माथ्यो अनेक् वीर् तहाँ॥सुग्रीवादि बडा वड्डा जति थिया वीर् वीर् तिनैले पनि।जीतीसक्नु . भयेन सब्कत जित्यो माख्यो जसीन्मा गनि १ १५।॥। देख्यो विभीषणजिल्लाइ गदा ' लियाका । श्वीरामका चरणमा दृढ सन् दियाका ॥ झन् मुख्य शबु त यही छ भनेर ठान्यो। - साह्लै रिसाइकन शक्ति, उठाइ हान्यो ॥११६।॥।आयो शक्ति तहाँ विभीषणजिको प्राण् खैँचन्या सुर् गरी ।लक्ष्मणले तहि झट्' बचाउनु भयो आफू अगाडी सरी॥ के साथ युद्ध करनेकीक्या पडीथी। एक ही वाकृप्रहार सेतो बेशढब्नुओं को वहीं नष्ट कर सकते थे। माया-मोह से रहित सच्चिदानन्द,मानव-जन्म लेकर, मानव ही की भाँति लीला करते हैँ, जिस लीला केद्वारा अनेक पापियों, अधम लोगो और पतितो के पाप और संताप काहरण होता है। ११३ रावण ने जैसे ही यह सुना कि उसकी विशालसेना मार डाली गयी है, तो उसे बहुत दुःख हुआ और क्रुद्ध होकर वह स्वयंही युद्ध करने के लिए तत्पर हो गया। तत्पश्चात् एक सुन्दर रथ परसवार हुआ, और शस्ल्वास्त सब कुछ लेकर आदेश दिया कि इन्द्रजीत अबलंका की रक्षा करैगा। ११४: कुछ फौज लेकर श्रीराम जहाँथे वहींजा पहुँचा । वानर-सेना ने उसे रोककर अनेक वीरौं को मार डाला ।सुग्रीव आदि बड्-बडे जितने भी वीर थे उनको कोई भी नहीं जीत सका;बल्कि रावण के वीरों को ही जमीन पर गिरा-गिराकर मार डाला । ११५श्रीराम के चरणों मैं ध्यान करता हुआ और हाथों मैं. गदा लिए विभीषणको देख कर सोचा कि असली . शत तो यही है, और क्रोधित होकर उसीपर अपनी शक्ति से प्रहार किया। ११६ शक्ति विभ्वीषण के प्राणों कोसमाप्त करने के उद्देश्य से मारी थी, लेकिन लक्ष्मण ने आगे बढ्कर उन्हैँ २१४ भागुभक्त-रामायण शक्ती लक्ष्मणलाइ बज्न गयो लक्ष्मण्जि मुर्छा पन्या।मुर्छा पर्नु कहाँ थियो प्रभुजिले चेष्टा नरेको गच्या॥ ११७॥लक्ष्मणलाइ उठाउनाकन तहाँ दौडेर रावण् गयो।सक्थ्यो रावणले उठाउन कहाँ आश्चयं मान्दो भयो॥लक्ष्मणलाइ उठाउन्या बखतमा देख्या उठ्यो रिस् पत्ति ।यै' बीच्मा हनुमान् गया नजिकमा रावण् गिराअं भनी॥ १ १८॥हान्या बञ्ज समान् कठोर मुठिले बज्च्यो मुठी त्यो जसै ।रावण् हो बलवान् तथापि रगतै छाद्दै गिन्यो पो तसै॥लक्ष्मण् श्रीहनुमानदेखि खुशि भै साह्लै हलूका भया।लक्ष्मण् लाइ उठाइ जल्दि हनुमान् रामूचन्द्रजीथ्यं गया॥। १ १९।।लक्ष्ण् नारायणै हुन् भनि बुझि डर भै शक्तिले छाडिदीयो ।रावण् मुर्छा पन्याको पति उठि उ बखत् फेर् धनुर्बाण लीयो ॥सीतानाथ् श्रीजगञ्चाथ् प्रभु पनि हनुमानू वीरका पीठमाहाँ ।चढ्नूभो लड्न मन्सुब् गरिकन लिनु भो फेर् धनुर्बाणताहाँ ॥१२०॥टङ्कार् खुप् धनुको गरी हुकुम भो उम्केर जालास् कहाँ।तेरा बन्धु निभाइ यो रणमहाँ मार्छु तँलाई यहाँ॥ बचा लिया। शक्ति लक्ष्मण के जाक्र लगने से, वे मुछ्ति हो गये।लक्ष्मण का मुूछित होनाथा कि श्रीराम मनुष्य की ही भाँति प्रयत्नकरते रहे । ११७ टकक्ष्मण को उठानेके लिए रावण दौडकर वहाँगया, लेकिन रावण कहाँ उठा सकता था । यह देखकर आश्चयं हुआ ।लक्ष्मण को उठाते देख (हनुमान को) क्रोध आया। इसी वीच हनुमानरावण को मार गिरानेके उद्देश्य से उसके नजदीक जा पहुँचे । ११८उन्होंने आकर वज्र के समान दृढ मुठ्ठी से रावण पर ऐसा प्रहारकिया कि रावण इतना बलिष्ठ होते हुए भी रक्त वमन करते हुए उसीक्षण गिर पड्डा । लक्ष्मण ने हनुमान से प्रसन्न होकर अपने को भारोंसेविमुक्त अनुभव किया। तत्काल ही हनुमान लक्ष्मण को उठाकरश्रीराम के पासले गये। ११९ लक्ष्मण को नारायण जानकर शक्ति नेमरूछिति मात्न करके छोड् दिया। उसी समय रावण ने भी मूर्छावस्थासे उठकर अपना घनुष-बाण सँधाला ।” सीतापति श्रीजगन्नाथ प्रभु नेभी वीर हनुमान की पीठ पर सवार होकर युद्ध करने की इच्छा सेधनुष-बाण सँभाल लिया । १२० धनुष-ब्ाण को ठीक करते हुए आज्ञादी, “वचकर कहाँ जाओगे। तुम्हारे सभी बन्धुओ को समाप्त कर नेपाली-हिन्दी रावण््ले इवचन् सुन्यो र विजवाफ्हान्यो श्रीहनुमानलाइ शणरलेघाक श्रीहनुमानका शरिरमासाह्ले रिस् उठि कालरुद्वर सरिकाघोडा रथू ध्वज सूत शस्त् धनु सब् २१५ भै रिस् सनैमा लियो ।घाञड लगाई दियो॥१२१॥।देख्त् भयेथ्यो जसै।ठाकुर् हुन् भो तसै॥छल्ने पताकै पनि। “काटी रावणलाइ हान्नु पत्ति भो मूर्छा परोस् योभती॥ १२२॥ काटी रावणलाइ हान्नु पनि भोहातैमा धनु थाम्न शक्ति नहुँदायै बीच्मा शिरका 'किरीट शरलेरावण््का सब सेखि सान् प्रभुजिलेबाधा रावणलाइ खुपू सित भयोऐले जा घरमा भनी दिनुभयोसेखी सान् रतिभर् तहाँ नरहँदालाज् मानीकन लड्न शक्ति नहुँदालक्ष्मण् मुछ्ति झैं भया र रघुनाथ् मुर्छा तुरन्तै पच्यो।हातृदेखि भैंमा झच्या ॥काटी खसाली दिया।खेचेर ताहीँ लिया।॥। १२३।॥।बीदा प्रभूले पनि।भोली लडौंला भनी ॥रावण् मच्या झैं भयो।फर्केर घर्मा गयो ॥ १२४।।शोक् गने लाग्या हरि । जस्तो मानिस गर्छे सोहि रितका चेष्टा अनेकौं गरी॥तुमको भी इसी रणभूमि मैं मार डालुँगा। रावणने इन बातो कोसुना तो अत्यन्त क्रोधित हुआ और क्रृद्धावस्था मैं ही हनुमान को सरसे टक्कर लगाकर आहत किया । १२१ जैसे ही श्रीराम ने हनुमान केशरीर मैं लगी चोट देखी, वैसे ही अत्यन्त क्रोधित होकर उन्होने कालखूपके समान देवता का रूप धारण कर लिया, और घोडा, रथ, ध्वज, सूत,शस्त्र धनुष तथा पताकाओ को काटकर अंत मैं रावण पर भी प्रहारकिया, जिससे वह मूछित हो जाये। १२२ ज्यो ही श्रीराम का बाणलगा वैसे ही रावण मूछ्ति होकर गिरपड्डा। शक्तिक्षीण होजाने केकारण धनुष हाथ से भूमि पर गिर पड्गा। इसी बीच उन्होने रावण केसिर का मुकुट भीं काट कर' गिरा दिया और उसके सारे अभिमान कोखीचं लिया। १२३ रावणको भी अत्यन्त बाधा हुई। प्रभुभी विदाहोते हुए बोले कि अभी घर जाओ, कल फिर युद्ध करंगे । अभिमानइस तरह टूट जाने पर रावण मृत के समान हो गया और शक्ति नहोने के कारण लज्जित होकर वापस लंका लौट गया । १२४ लक्ष्मणके मूछित होने पर प्रभुजी शोक करने लगे। और जिस प्रकार मनुष्यप्रयत्न करते हैँ उसी प्रकार प्रभुभी चेष्टा करने लगे। लक्ष्मण को २१६ भानुभक्त-रामायण लक्ष्मण् लाइ बचाउ फेरि हुनुमान् ! ली आउ औषध् भनी। हृकूम् यो रघुवाथको तह हुँदा दौड्याहनूमानू पनि १२५॥ औषध् लीत गया जसै त हनुमान्रात्लीमा उठि कालनेमि सित गौराजा रावणलाइ राब्चि बिचमासन्मान खुपू गरि ताहि हाजिर रह्योमैले क्या गर कीन आउनु भयोयो बिन्ती सुन्ति कालनेमि सित सब्यस्तो भो सुन कालनेमि अहिले चाल् पाइ रावण् पत्ति ।क्यै विघ्न पाउँ भनी॥देख्यो अकस्मात् जसै।त्यो कालनेमी तसै॥ १२६॥।यो राति एक्लै यहाँ।विस्तार् बतायो तहाँ॥लक्ष्मण् गिन्याका थिया । तिनूलाई पनि फेर् बचाउन ठुलो राम्चन्द्रले सुर् लिया॥ १२७।॥ औषध् लीन भनेर आज हनुमानऔषध् ल्याउन विघ्न पार तिमिलेमायाले मुन्ति वेष् धरेर हनुमान्-सक्त्या छौ तिमिले भुलाउन ठुलोयस्तो रावणले हुकम् जब दियोरामू ईश्वर् बुझि कालनेमि विरले द्रोणाचलैमा गयो ।लौ जाउ बेला भयो॥लाई भुलाञ गई। योगी सरीका भई॥ १२८लौ विघ्न गर् जा भनी ।क्यै बिन्ति पाच्यो प्नि ॥ बचाओ हनुमान ! णीप्रही औषधि ले आओ। रघुनाथ की इसआज्ञा को सुनकर हनुमान भी दौड पड्गे। १२५ औपधघि लाने के लिएहनुमान का चले जाना जैसे ही रावण को बात हुआ उसी क्षण रावण कोईविघ्न डालने के उद्देश्य से रात्रि को ही उठकर कालनेमि के पास गया ।रात्रि मै अचानक राजा रावण को जैसै ही देखा कालनेमिने वहाँउपस्थित रहकर अतिथि-सत्कार किया । १२६ मैँ क्या सेवा कर सकताहँ? इतनी राखि गये अकेले कैसे पधारने की क्रपा करी ? यह बिनतीसुनकर रावण ने कालनेमि से सारा बिस्तार कह सुनाया। रावणनेकहा ऐसा हुआ हुँ, सुनो कालनेमि ! अभी लक्ष्मण मूछित हो कर गिराहै और उसै वचाने के लिए श्रीराम ने एक बडा उपाय किया है । १२७आज हनुमान औषधि लाने के लिए द्रोणाचल को गयाहै। औषधिलाने मैँ तुम विघ्न उत्पच्च कर दो। समय हो गया है और तुम अभीजाओ। मायारूपी मुनि का भेष धरकर हनुमान को भुलावा, दो।एक महान् योगी वनकर तुम अवश्य ही उसको भुलावा दे सकोगे । १२०जैसे ही रावणने विघ्न उत्पन्न करने की आज्ञा दी कालनेमिने भीश्रीराम को ईश्वर जानकर रावण से विनती की कि है अधिराज मैं आप्कै चेपाली-हिन्दी २१७ येती हित् बुझि बिन्ति गर्छु अधिराज् ! हीत भन्यो यो भनी।मेरो बिन्ति सघाइ वक्सनु हबस् होला ठुलो हित् पनि॥१२९॥ज्यान्को आश् पत्ति कत्ति छैन अधिराज्ू दीन्यैछु यो ज्यान् पनि ।जीतीन्या तर छैन जान इत हुन् चौधै भुवन्का धनी ॥भाई बन्धु सराइ बाँचिकन पो क्या सोख एक्लो भई।ईश्वर हुन् पर रामका शरणमा ऐले तुरन्तै गई ॥१३०॥सीता सुस्पिदिहाल राज्य पनि यो दे विभीषण् गख्न्।खूशी भैकन आजदेखि रघुताथ्ू तिम्रा विपत्ती हरून् ॥जाड लौ वनमा र लेउ मनमा आत्मै बिचारको मति।मायाले त भुलाउँछिन् जगतमा यस्तै छ तिनूको गति॥ १३ १॥ आत्मा चिन्न अवश्य पछेँ सहाराज् एकाग्न भै ध्यानू गरी।आत्मा चिन्न समर्थ होइ नसक्या राम् भज्नु एक्सन् गरी ॥कौस्तुभू् हार किरीट केयुर अनेक् भ्रुषण् शरीर्मा धरी।आफ्ना यै हृदयारविन्द बिचमा राखेर खुप् ध्यान् गरी १३२॥। सीतारामूकन अज्नुपर्छ अधिराज् ! राम् हुन् जगत्का पति ।ईश्वर् जानि अश्य छोड तिमिले यस्तो विरोधको मति ॥ हितके लिएही यह कहता हँ। मेरी विनती को स्वीकार करने कीकृपा करे, बड्डा ही हित होगा । १२९ प्राण की तो मुझ्ले ततिक भीचिता नहीं है अधिराज ! ये प्राण भी दे दूँगा, तब भी आप जीतनहींपायेँगे । स्वयं ही सोचिए कि वे तो चौदह भुवन के स्वामी हैँ। भाई-बन्धु को मरवाकर राजा के बचे रहने मैं क्या सुख है। राम ईश्वरही हँ, अतः तुरन्त रामकी शरण मैं जाये। १३० आज ही सीताकोभी सौँप दै और राज भी विश्वीषणको देदे। तत्पश्चात् प्रसन्नचित्तसे रघुनाथ आपकी विपत्ति का हरण करँगे। वन मैं जाकर मन मेंआत्मतत्व का चिन्तन करें। उनकी गति ही ऐसी है कि इस संसार मैंमाया द्वारा भुलाया जाता है। १३१ एकाग्रचित्त से ध्यान करकेआत्मा को अवश्य पहचानना पड्ता है। और यदि पहचानने मै असमर्थहाँ, तोएक मनसे रामका भजन करेँ। कौस्तुभ, हार, मुकुट औरकेयूर, अनेक प्रकारके आभ्रुषणों से युक्त राम को अपने इसी हृदय-अरविन्द मैं ग्रहृण कर ध्याच करेँ। १३२ सीता तथा रामकोतोअवश्य ही भजना चाहिए । श्रीराम तो जगत् के स्वामी हैँ। उनकोईश्वर समझकर इस विरोधपूणँ मतिको अवश्य ही त्यागर्दे। इतनी २१० भात्नुभक्त-रामायण येती बिन्ति गरेर चुप् भइरह्यो त्यो कालनेमी तहाँ।अम्मृतृतुल्य वचन् सुन्यो तपनि त्यो लिन्थ्यो अधमूले कहाँ॥ १३३॥ रावणले त रिसाइ तेस्कन तहाँमान्य मन् बुझि कालनेमि विरलेयस्तो क्यान रिसानि हुन्छ अधिराज्!सर्कारुको सब कास बन्दछ भन्यायेती बिन्ति गरेर तेहि बिचमालाग्यो गन उपाय फेरि हुनुमान् झन् मार्न मनृसुब् गच्यो ।फेर् बिन्ति ताहाँ गच्यो ॥ऐले तहाँ मै गई।जान्छू तयारी भई॥ १३४उठेर दौड्यो पनि।फिनेन् नपाउन् भनी ॥ तेस्ले तयारी गरयो।वृक्षादि ले वन् भप्यो। १३५आफू मुनीश्वर् बनी।लाई छलुँला भनी॥ताहीं हनूमानू गया ।थीयेतत भन्दा भया॥१३६।।जाँलाँ म जल्दी भनी ।पौँच्या हनुमान् पनि ॥ रस्तामा गइ एक् तपोवन असल्मायाले फुलका र फल् सहितका एक् आश्रम् पत्ति कल्पना तहि गन्यरोतेसै आश्रममा बस्यो म हनुमान्-तेस्का शिष्य अनेक् थिया वरिपरीक्या देख्याँ अघि आश्रमै पत्ति यहाँ कस्को आश्रम हो बुझी जल पिईबुझ्नै खातिर तेहि आश्रम विषे विनती करके कालनेमि शान्त हो गया। लेकिन वहृ् अधम रावणइन अमृत तुल्य वातोको क्यो मानने लगा । १३३ क्रोधित होकररावण ने उसे मार डालने की सोची। अपने मारे जाने केचिश्चय को जानकर कालनेसि ने फिर से विनती की, हे अधिराज !आप बृथा क्रोधित क्यो होते हँ। यदि मेरे वहाँ जाने से आपकाकाम बनता है, तो मैं अवश्य ही जाऔँगा। १३४ इतना कहकरउसी समय वह उठकर चला गया। वह् ऐसा उपाय करे लगाकि हनुमान पुनः लौट ही न सर्के। रास्ते मै उसने एक उत्तमतपोवन की रचनाकी जो मायारूपी फूल तथा फलों के वृक्षोंसे भरगया । १३५ मुनीश्वर.बन कर वहाँ पर उसने एक आश्रम की कल्पनाकी और उसी आश्रम मैं हनुमान से छल करनेके उद्देश्य से बैठ गया ।उसमेँ चारों ओर अनेक शिष्य बैठे थे। हनुमान वहाँ गये और कहायह मैं क्या देख रहा हुँ? पहले तो यहाँ पर कोई उपवन नहीं था । १३६आश्रम किसका है,, यह पता लगानेके लिए तथा जल पीने के लिएहनुमान उस आश्रम मैं पहुँचे। योगीके रूप मै कालनेमि शिव कापूजन करके हनुमान के काय मै बाधा डालने का उपाय सोचने नेपाली-हिन्दी योगी भै भइ कालनेमि शिवकोकुन् रीत्ले हनुमानलाइ ठगुँलाथीयो आश्रममा र दर्शन गर्छेयोगेश्वर् बुझि भक्ति राखि हनुमानूदू तहकै श्रीरघुनाथको सम हनुमान्औषध् - ल्याउन जो हुकूम् प्रभुजिकोसब्, वृत्तान्त गच्या र जलूपिउनकोखोज्या जलु हनुमानले र खुशि भैआउ फल् फुल खाउ पीउ हनुमान्साह्लै हत्पत गर्नु छैव तिमिलेयोगी हुँ सब जान्दछू म अहिलेलक्ष्मण्लाइ बचाइ बक्सनु भयोबानर् को पनि फौजू खडा सब भयोतिर्खा मेटिइन्या नदेखि जललेतिर्खा ज्यादि छ जल् कमी छ यतिलेधेरै जल् छ कहाँ बताउनु दृवस्सुन्यो श्रीहनुमानका र इ बचन्त्यो देखाउनलाइ एक अगुवा लगा । १३७ आश्रम के अन्दर दशैन कर कालनेमि को मुनी समझ कर हनुमान ने उसे प्रणाम किया । २१९ पूजा विधानले गरी।भन्न्या इरादा धरी॥ १३७।।भन्त्या इरादा घच्या।ज्युले नमस्कार गच्या ॥भन्छन् मलाई पनि।हुँदा म आयाँ भनी १३०॥झ्च्छा बहूतै थियो।तेस्ले तहाँ जल् दियो ॥ठण्डा छ यो जल् पनि।कैले म जालाँ भनी।॥ १३९।॥।रामूले नजर् खुप् गरी ।सम्पुणँ बाधा ह्री॥येती भनेथ्यो जसै।बोल्या हनुमान् तसै॥ १४०॥।मेट्तैन तिर्खा पनि।वाहाँ म खाँलाँ भनी ॥क्वै एक् तलाञ थियो ।शिष्यै पठाई दियो॥ १४१॥। नेके विचार से जाकर औरवे बोले मैं श्रीरघुनाथ का दूत हँ, हि मुझे हनुमान कहते हैँ। प्रभुजी द्वारा औषधि लाने की आज्ञा पाकर मैं यहाँ आया हुँ । १३० पिपासा-शान्ति के लिए हनुमान ने जलहोकर जलदे दिया।पाती पियो। की आवश्यकता नहीं है। १३९ मैंयोगी | सब वृतान्त सुनाकर,माँगा, और उसने भी प्रसन्न आओ हुनुमा, फल फूल आदि खाकर ठण्डाउसने पुनः कहा कि तुम्है लौटने के लिए शीघ्रता करने हँ और सब कुछ जानता छूँ। अभी श्रीराम ने कृपादृष्टि करके सब बाधाओं को दूर करके लक्ष्मण को बचानेकी कुपाकी। वाचरों की फौज भी पुनः खडी होगयी है। जैसे ही यह बात कही वैसे ही, प्यास न बुझते देख कर, हनुमानबोले । १४० प्यास अधिक लगी है और जल इतना कस हैकि प्यासबुझेगी भी चहीँ। अधिक जल कहाँ है मैँ वहीँ जाकर पी लूँगा; बतानेकी कुपा करेँ। हनुमान की बात सुनकर' एक शिष्य को अगुवा बनाकर २२० भानुभक्त-रामायण ऐले जाउ र जल् पियगेर हनुमान्ू फर्कर आञ यहाँ।केही मन्त्र म दिन्छु त्यो सुनि गया मिल्त्या छ औषध् तहाँ ॥सून्या श्रीहनुमानले र इ वचन् बेस् हो हवस् लौ भती।पौँच्या जलह्दि तलाउमा र हनुमान् वीर्ले पिया जलूपनि॥ १४२।॥।ताहाँ तेहि तलाउ-भित्च सकरी क्वै एक् बस्याकी थिई।खैंची श्रीहनुमानलाइ निलुँला भन्न्या ठुलो सुर् लिई ॥च्यापू च्याति पछारि ताहि मकरी- लाई निभाया जसै।स्त्रीको सुन्दर रूपू बन्यो र विनती त्यो गर्ने लागी तसै॥ १४३।॥। स्वगैमा म त अप्सरा अघि थियाँ नास् धान्यमाली थियो।ब्राह्माणका त सरापले मकरिको रूपू यो बनाईदिया॥तेसै रूपूकन मारि बक्सनु हुँदा आपत्ति मेरा गई।जान्छू स्वगेंविषे म फेरि हनुमान्ू जस्ता कि तस्ती भई॥ १४४।अर्को बिन्ति म गर्छु अति सरिको त्यो हो हजूर्को खुनी ।जस्लाई मुनि भन्नु हुन्छ हनुमान् ! थीयो कहाँ त्यो मुनि ॥औषध लीन गयेछ आज हनुमान् लौ विघ्न गर् जा भनी ।रावणले उपदेश् दियो र बलवान् त्यो कालनेमी पनि॥ १४५।॥। जहाँ पर एक तालाव था, उसे दिखाने के लिए भेज दिया । १४१ भभीजाओ हनुमान ! और जल पीकर यहीँ लौट आना। मैँतुम्हैँ कुछरहस्य बताउँगा । उसे सुनकर जाने से औषधि मिलेगी । हनुमान नेइन वचनों को सुना और तालाव में पहुँच कर शीघ्र ही जल पिया । १४२उसी तालाब मैं एक मगरमच्छिनी रहती थी। हनुमान को निंगलजानेके इरादेसे उसने उन्हे खींच लिया। तत्काल ज्योही जबड्ाफाइकर उस घडि्यालिच को पछाड् कर् मार डाला त्योही एक सुन्दरस्त्ीका रूप धारण कर विनती करती हुई बोली । १४३ मैंस्वगकीअप्सरा थी। मेरा नाम धान्यमाली था। त्राह्माणके शाप से मैँ .मगरमच्छ बनगयी। उसीरूप को नष्ट कर देने से मेरी विपत्तिसमाप्त होगयी है। हे हनुमान ! मैँजैसी की तैसी ही होकर पुनः.स्वगे को जाती छुँ । १४४ एक विनती मैँ करती छुँ किवह् आपकावधकरने वाला है, जिसे आप मुनि समझते हैँ। हनुमान ! वह मुनि कहाँ .है? आज हनुमान औषधि लेने गये हँ, ऐसा जानकर रावण ने उसबलिष्ठ कालनेमि को विघ्न उत्पन्न करते के लिए यहाँ आनेकी आज्ञादी। १४५ तभी उसने विघ्न उत्पन्न करने के लिए एक चाल यह
नैपाली-हिन्दी २२१ विघ्नै गने भनेर आइ अहिले त्या चाल तेस्ले गच्यो ।तेस्लाई तहि मार औषधि पनी ली जाउ बेला पच्यो॥यो बिन्ती गरि इन्द्रका हजुरमा त्यो धान्यमाली गई।आश्रमूमा हनुमान फिच्या उहि बखत् केही नजान्त्या भई॥ १४६॥।देख्यो शथरीहनुमानलाइ नजिकै आई पुग्याको जसै।भेरो काम् अब सिद्ध ग्देखु भनी त्यो बोल्न लाग्यो तसै॥ऐले दिन्छु म सिद्ध मन्त हनुमान् ! यो मन्त्च लेक पनि!देक लौ गुरु-दक्षिणा पनि ठुल्ला मेरा गुरू हौ भनी॥। १४७॥।छ्लुछाम्का इ वचन् सुन्या र हनुमान् वीर्को उठ्यो रीस् पत्ति!हान्या मुइकि उठाइ तेहि बिचमा लौ दक्षिणा ले भनी ॥पायो चोट् तहि मुइकिको र मुनि वेष् तेस्को तुरुन्तै गयो।जस्तो राक्षसको स्वरूपू अघि थियो सोही स्वरूपूको भयो।॥ १४०८।॥।माया राक्षसको अनेक् तरहका त्यो गर्ने लाग्यो जसै।हान्या मुडुकि उठाइ फेरि शिरमा ताहीँ मग्यो त्यो तसै॥येती कर्म गरेर जल्दि हनुमान् द्रोणाचलैमा गया ।पर्वेत् बोकि तुरन्त फर्कि सहजै दाखिल प्रभूथ्यै भ्रया॥ १४९॥।खूशी खुप् रघुनाथ् तहाँ हुनुभयो औषध् सुषेण्ले गथ्या ।बाधा लक्ष्मणमा सबै जति थिया त्यै औपधिले हप्या॥चली कि उसे व्ही मारकर औषधि लेकर चला जागे। इन्द्रजीकीसेवा मैं वह् धाच्यमाली भी गयी और उसी समय आश्चम मे श्रीहनुमानभी अनजान बनकर आये। १४६ हनुमान को तिकट आते देख करउसने सोचते हुए कि अब मैं अपना काय सिद्ध करता छूँ, कहने लगा--«दे हनुमान ! अमी मैं तुमको एक सिद्धमंत्च देता हुँ। इस मंत्चकोस्वीकार करो तथा मुझे अपना गुरु जानकर दक्षिणा दो । १४७ उसकेमुखसे इस प्रकार के कपट के वचन सुनकर हनुमान अत्यन्त क्रोधितहुए। तुरन्त ही मुठ्ठी बाँध कर उस पर प्रहार करते हुए कहा-लोदक्षिणा ! प्रहार होते ही उसका मुचि का ख६्प भंग हो गया। तत्कालही वह राक्षस-ञुूप बन गया । १४० जब वह राक्षस अनेक प्रकारसे छल करने लगा तो कुद्ध हनुमान ने फिर से उस पर अपनी मुष्ठिसेसिर पर प्रहार किया, ऐसा करने से वह राक्षस तुरन्त ही मृत्यु कोप्राप्त हुआ । इस कायं को समाप्त करके हनुमान तुरन्त ही द्रोणाचल कीशरण मैँ गये और (उस) पर्वत को ,उठाकर बडी ही सरलता सेश्रीरधुनाथ के समक्ष आ उपस्थित हुए। १४९ यह सब देख कर १२२ भानुभक्त-रामायण रावण्माथि दगा धरेर सहजै लक्ष्मण् उठ्याथ्या जसै।बाँच्या भाइ दया गच्यौ र हनुमान्! भन्त्या हुकम् भो तसै॥१५०॥।संग्राम्को मतलब् गरेर प्रभुजी सामूते हुनूभो तहाँ।बानर्को पत्ति फौज् सबै अघि सञ्यो उ झन् रहन्थ्यो कहाँ ॥जस्तै सर्प गिराउँछन् गण्डले सोही तमासा गरी।रावण्लाइ गिराइ बक्सनु हुँदा गीरेर मुर्छा परी॥१५१॥ञढी दुःख बहूत पाइ सतले हारी गयाको थियो।श्वीराम्चन्द्रजिको प्रचण्ड बल त्यो बूझी लहृड् खुप् लियो॥बेस् सिंहासनमा बसी सकल वीर् राखी सभा खप् गरी।लाग्यो भन्चम- मर्छु हेर विर हो ! रास्का अगाडी परी॥१५२।॥।रास् नारायण हुन् अवश्य बुझियो चौधैँ भुवनूका धनी।मानिस्को अवतार् लिया प्रभुजिले मार्छन् मलाई पति ॥मानिसूदेखि त सर्नुप्छै सझले ब्रह्याजिको वर् छयो।मानिस् भै रघुनाथ् सन्या अघि भन्या काल् टान सक्त्याछ को।॥ १५३॥राजा वीर् अचरण्य सुर्य कुलमा क्वै एक महात्मा थियो ।मैले व्यथै विरोध् गप्याँ र उ बखत् तिनले सरापू पो दिया ॥ रघुनाथ अत्यन्त प्रसन्न हुए और औषधि लेकर लक्ष्मण का उपचारकरने लगे। लक्ष्मण के शरीर मैँ जितनी पीड्ञा थी, समस्त पीड्रा उसीऔषधि से शान्त हुई । रावण से प्रतिशोध लेने की भावना के उत्पन्नहोते ही लक्ष्मण उठ खड्डा हुआ। भाई को तुरन्त ही स्वस्थ हुआ:देखते ही श्रीरघुनाथ ने प्रसन्न होते हुए हनुमान को धन्यवाददिया । ११० संग्राम करने के विचार से श्रीरधृताथ सामने आये तथासमस्त वानरसेना भी वहाँ उपस्थित हो गयी। जिस प्रकार गरुडनेसपै को गिराने कै लिए तमाशा किया था, उसी प्रकार रघुनाथ नेरावण को भी गिराकर मुछित कर दिया। १५१ बड्रे कष्ट के साथ(वह) उठ कर मन-ही-मन अपनी हार पर पश्चाताप करने लगा।अत; श्रीरामचन्द्र की प्रचण्ड शक्ति को रावण समझ गया। तत्पश्चात्समस्त वीरों को बुलाकर एक सभा की और कहने लगा, वीरो! मैंरास के आगे जाकर ही मृत्यु को प्राप्त होजँगा। १९२ श्रीराम'नारायण हैँ तथा चौदह भुवनों के मालिक हैँ--यह बात रावण की समझसँआ गयी। मुझे मारनेके लिए ही राम ने मनुष्य का अवतारलिया है। सतवुष्य के हाथों ही सुझे मरना है-यही वर ब्रह्मा ने दिया नैपाली-हिन्दी मेरा बंशमहाँ तेरो राक्षसवंशदीया येति सरापू र तेस् बखतमासोही पूर्ण गराउनाकन यहाँआया श्रीरघुनाथ्ू मलाइ अहिलेमाछँन् निश्चय आज सर्छु सहजैभाई मुखे छ कुम्भकणेँ अझतक्सुतेको छ ' उठाइ ल्याउ अहिलेहुकम् पाइ बडा बड्डा विर गयापौंची जल्दि उठाइ झट् हजुरमापाञमा परि कुम्भकर्ण बलवान्रावण् ले पनि दीन् वचन् गरि सबैहे भाई ! सुन कुम्भकर्ण ! अहिलेछोरा नाति समेत् बड्डा विरहरूप्राणको अन्त्य हुने बखत् भइ गयोराम् शल्नू बलवान् बुझिन्छ तिमिलौ अवए्य अवतार् हैँ। १५३अरण्य थे। मारि सहजै. २२३ नारायणैले लिनन् ।तलाइ सारीदिनन्॥। १५४।।राजा बिती पो गया।श्रीराम् तयारी भया ॥मार्नै इरादा धरी।राम्का अगाडी परी। १५५॥।यस्तो पच्यो तापनि ।चाँडो हुकूम् भो भनी ॥ल्याऔं उठाई भनी ।ल्याई पुच्याया पनि॥ १५६।।साम्ने बसेथ्यो जसै।विस्तार् सुनायो तसै॥आपतू मलाई पपच्या।ऐल्हे बहूतै मच्या॥ १५७।॥।बाँच्न्या उपायै कह्र।साह्ै चनाखा रहू॥ ' (रावण ने आगे कहा--) सूयं-कुल मै एक सहात्मा राजाउनका विरोध करने पर उन्होने मुझे शापदे दिया था कि नारायण मेरे वंश मै अवश्य ही अवतार लेगे और तेरै राक्षस वंशके साथ तुझे भी सहज ही समाप्त कर डालेंगे । १५४ ऐसा शाप देकरउस समय उस राजाका प्राणान्त हो गया। उनका कार्य पूण करनेके लिए, श्रीरधुनाथ ने यहाँ अवतार लिया, वे मुझे ही समाप्त करनेके लिए अवतरित हुए हँ। आज वे निश्चय ही मुझे मार डालेगे । ११५रावण कहने लगा कि कुम्भकरणे महामूखँ है, जो इतना सब होने परभी अभी तक सो रहा है, अतः (उसने) उसेजगा लाने के लिए(प्रहरियों को) आज्ञादी। आज्ञा पाते ही बड्े-बड्े सैनिक उसे उठानेके लिए गये और लाकर रावण के सम्मुख उपस्थित किया । १५६जैसे ही कुम्भकणे रावण के पाँव में पड्रकर सम्मुख बैठा, तभी रावणने दीन वचनों मैं उसे सारा विस्तार कह् सुनाया और वोला--देखो भाईकुम्भकर्ण ! इस समय मुझ पर भारी विपत्ति आयीहै। पुत्न-पौत्सहित अनेक वीर मारेजा चुके है। ११७ अब तो प्राणोँ के अन्तहोनेकी घड्डीआ गयी है। अव बचने का क्या उपाय किया जाय ? २२४ भागुभक्त-रामायण गम्भीर येहि समुव्रमा पत्ति सहज् साँघु लगाई तग्यो।बानरको सब फौज् समेत् तरि यहाँ धेर् वीरको नाश् गच्यो॥५५॥ बातर् देख्छु म वीर् अनेक् तरहका सूरा लडाकी बडा। हाम्रा लश्करमा अनेक् विर मच्या बातर् सबै छ्न् खडा॥ ' तिन्को नाश् गरिसक्नु देख्तिनँ यहाँ कौनै उपायै गरी।नाश तिन्की तिमिले गराउ अहिले चाँडो अगाडीसरी॥ १५१९॥ रावणले इ वचन् विलाप सरिका बोली सकेथ्यो जसै।हाँस्यो खुप् सित कुम्भकर्ण र तहाँ बिन्ती गन्यो साफ् तसै ॥मैले क्यागरँ बिन्ति आज अधिराज् पले गय्याथ्याँ पनि।रामूतारायण हुन् सिता प्रभुजिकी हुन् योगमाया भनी॥ १६०॥ मेरो बिन्ति सधेन उस् बखतमा झन् खुप् रिसानी भयो।तेसैको फल हो अवश्य अधिराज जो वीरको ज्यान् गयो ॥एक् दिन् पर्वेतका उपर् शिखरमा थीयाँ म रात्वी महाँ।नारद्जीकन मध्यराति बिचमा देख्याँ अकस्मात् तहाँ॥ १६१ सोध्याँ आउनुभो हजुर् किन यहाँ जानू छ काहाँ भनी।मेरो बिन्ति सुनेर सब् ति क्रषिले बिस्तार् बताया पनि ॥ हमारा शत्नु राम काफी बलिष्ठ मालूम देता है, अतः तुम लोग अप्यन्तसतक रहो। इतने गह्रे समुद्र मै भरी वह सेतु बाँधकर सरलता से इसपार आ गया है (और उसने) वाचर-सेवा-सहित (आकर) यहाँ के अनेकवीरोंका नाश किया है। ११० रावण कहरहाहै किमैँ देखरहा हुँकि वानरौं मैं प्रत्येक शुर, वीर और कुशल. योद्धा है; उनको नष्ट करनेका मुझे कोई उपाय नहीं दीख रहा है। अब तुम ही इन सबका नाशकरो । ११९ जैसे ही रावण ने ऐसा कहा, वँसे ही कुम्भकणे ठहाकेलगाकर हँसा और विनती करते हुए बोला, हे अधिराज | आज मैंक्याविवेदन कर्खैं ? मैँने तो आपसे पह्ले ही कहा था कि रामचन्द्र नारायणहँ और सीताजी उन्हीं प्रभु की योग-माया 'हुँ। १६० उस समयआपने भेरी विनती स्वीकार नहीं की और मेरे अपर अत्यन्त क्रोधित हुएथे। हे अधिराज ! यह उसी अस्वीक्कति का फल है, जिससे अनेकसैनिको का प्राणान्त हो गया। एकदिन राल्लिके समय मैं पर्वत केशिखर पर था कि अचानक बीच वन मैं नारद जी दिखायी दिये । १६१मैँने नारदजी सेपूछा थाकि श्रीमन् आप यहाँ कैसे ,पधार पड्रे औरइस सृमय कहाँ जायँगे ? मेरे बिनती करने पर उन्होने सब विस्तारपुर्वंक नेपाली-हिन्दी २२५ बिस्तार् लौ सुन कुम्भकणे ! अहिले जीतेर सब् लोक् लियौ ।इन्द्रादीहरुलाइ ढुःख तिमिले अत्यन्त साह्रै दियौ।॥ १६२॥ सब् इन्द्रादि ति विष्णुका हजुरमा - पौँची शरणमा पप्या ।यस् रावणूकन मारिदेउ भगवनू भन्न्या त बिन्ती गच्या ॥ब्रह्माको वरदान् छ मर्नु तइँले मानीसदेखी भनी ।माचिस् भैकन मारि बक्सनु हवस् मर्न्याछ रावण् पनि।। १६३॥। येती बिन्ति गरेर देवगण सब् पाङ पप्याथ्या जसैँ।सोही रीत्सित माइँला भनि हुकूम् श्रीविष्णुको भो तसै।सोही बात् परिपूर्ण गन रधघुनाथ् ऐले तयारी भया।मार्न्येछन् तिमीलाइ निश्चय भनी उठेर नारद् गया॥१६४।॥। तस्मात् अवश्य रघुनाथू्कन देव जानी । , ई वैरि हुन् भनि यहाँ रति भर् नमानी ॥ यो वैरभाव तिमिले अब छाडिदेञ। . भक्ती गरीकन भजन् गरि आज ले ॥१६५।। भक्ती मुख्य छ सबै साधनमहाँ भक्ती छ सब् ज्ञान् दिन्या ।भक्तीले सब मसुक्त हुन्छ दुनियाँ हो नित्य जानी लिन्या ॥भक्ती .हीन् भइ कर्मे गर्देछ भन्या यो निष्फलै हो भनी।जानी श्रीरघुनाथका चरणमा भक्ती लगाञड पनि॥ १६६॥। वताया और कहने लगे--हे कुम्भकण ! तुमने इन्द्रादि देवोकोअधिकाधिक कष्ट दिया है। १६२ वे सब विष्णु भगवान के पास गयेऔर विनती करनेलगे किइस रावणका वध करने कीक्कपा करें।उसे मनुष्य के हाथो मरना है--यही ब्रह्मा का वरदान है। अत: आपमानव-छप धारण करके उसका वध करने की क्रपा करे। १६३ जैसेहीदेवगरणों ने इस प्रकार विनती की, वैसे ही विष्णु देवता ने कहाकि मै उसेमार डालुँगा। वही काय पुरा करने के लिए रघुनाथ तैयार हुए हैं, वेतुम्है निश्चय ही मार डालेंगे-इतना वता कर नारद उठ खड्डे हुए । १६४अतः हे अधिराज ! रघुनाथ को देव जानकर इस आपसी बैरभाव कोसमाप्त कर दैं तथा भक्तिपुवंक भजन (राम-ताम-जप) आदि करे । १६५इन सभी साधनों मै भक्ति ही महान है, भक्ति ही ज्ञानको वढाती है।भक्ति के अभाव में व्यक्ति जो भी कार्य करता है, उसे निष्फल जानकर आपश्वीरघुनाथ की भक्ति मै लीन होने की कृपा करे। १६६ श्रीरघुनाथ जी २२६ भाबुभक्त-रामायण हज्जारन् अवतार छन् प्रभुजिका रामावतार्ले सरी ।अर्को छैन भजन् गन्यो पनि भन्या जस्का भजनूले गरी।जाला दुःख कतै नपाइ सहजै संसार-सागर् तरी।सोही ठामू पुगिजान्छ पुर्णएपले जहाँ रहन्छन् हरि।। १६७॥ जो रामचन्द्रतिर रात् दिन चित्त घर्छन् । राम्कै चरित्न पढि खुप् सित मग्न पर्छन् ॥ तिन्का ति कसमेँवशका सब पाप छुट्छन् ।: बैकुण्ठका सकल सौख्य तिनै त लुट्छन् ॥ १६०सुच्यो बिन्ति र कुम्भकण विरको साह्रै रिसायो पनि।लाग्यो भन्न तेलाइ डाकिनेँ यहाँ ज्ञान् सुन्न देलास् भनी ॥जस्तो भन्छु म सोहि मान्नु छ भन्या गर् युद्ध साम्ने सरी।सुत्नाको मतलब् छ पोपनि भन्या जा सुत् पलङ्मा परी।॥६९॥।रावण्का इ वचन् सुनेर अहिले साह्ल रिसाया भनी।क्वै उत्तर नगरी उठीकन गयो खुपू लड्न आँट्थयो पनि ॥पर्खाल् नाघि गयो र लड्नकन सुर् बाँधी करायो जसै।कालै तुल्य बुझेर वातरहरू साह्रै डराया तसै।।१७०॥वीर् वीर् वानरलाइ पक्रि मुखमा हाल्दै र तिल्दै गयो।प्वाँख् लागीकन पर्वेतै उडि तहाँ आई गया झैं. भयो॥ के हजारौं अवतार हुए है, उनमेँ श्रीराम के बराबर कोई अन्य नहींहै। उनका भजन किया जाना चाहिए, जिससे कि मनुष्य समस्त : संसार-सागर तर जायेगा तथा उसी स्थान का आनन्द प्राप्त कर सकेगा, जहाँ प्रभु विराजमान हँ । १६७ जो मनुष्य श्रीराम की ओर अपनी भक्ति ; लगाये रखते है और राम के चरित्न को पढ्ते रहते हँ, उतके पाप स्वयंहीनष्ट हो जातै है। अतः वे “ही स्वगै का आनन्द प्राप्त कर पातेहुँ। १६५ इस प्रकार कुम्भकर्ण की ऐसी विनती सुनकर रावण अत्यन्तक्रोधित हुआ और कहने लगा यहाँ तुम्हँ ज्ञान का उपदेश देने के लिएनहीं बुलाया गया है। अतः जो मैं कहता हूँ, वह तुम्है मानना ही पड्डेगा । तुम राम के सामने जाकर युद्ध करो और यदि सोनेकी इच्छा , है तो जाकर पलंग पर लेट सकते हो । १६९ रावणके इन शब्दो कोसुनकर वह (कुम्भक्रण) समझ गया कि यह अप्यन्त क्रोधित है, वह् उठ कर खडा हो गया और युद्ध के लिए चल पड्रा। वह् दीवार लाँघ कर !'जैसे ही लड्ने के लिए गया, वैसे ही वानर-सेना (उसे साक्षात्) कालसमझ कर भयभीत ह्वो गयी । १७० युद्ध-स्थल मै आये हुए वीर ही तेपाली-हिन्दी २२७ सक्थ्या कुन् अघि टिक्न तेस् बखतमा तेस्का अगाडी परी।वानर्को सब फौज् तहाँ हटिगयो साह्रै सकस्मा परी॥ १७१॥।दाज्यू भनी तहि विभीषण भेट्न आया ।पाङ परीकन बहुत् गरि बिन्ति लाया ॥कान्छो विभीषण म छूँ करुणा म पाजँ।लङ्कामहाीँ मकन बस्न मिलेन ठाउँ ॥१७२।। सीता वराख घरमा तिमि सुस्पिदेङ ।रामचन्द्रलाई परमेश्वर जानिलेक ॥बिन्ती गज्याँ यति र लात् पनि मारिलीया ।निक्लेर जा भनि मलाइ निकालिदीया ॥१७३।॥। चार् मन्त्रि साथ लिइ निक्लि म याहि आयाँ । श्रीरामका शरणमा परि बिन्ति लायाँ ॥ ठूलो दया गरिलिया प्रभुले मलाई। आज्काल् खुशी छु रघुनाथ् सित बस्न पाई ॥ १७४॥। बिन्ती विभीषणजिको जब सूनिलीया । भाई चिन्हीकन खुशी भइ काख लीया ॥वातरों को (उसने अपने) मुख मै रखकर निगलना आरम्भ कर दिया ।उसी समय एक पर्वत उड्कर वहाँ आया, फिर भला उस विशाल पर्वतके'सामने कौन व्यक्ति टिक सकता था ! सभी वात्तर संकट मैं पड् गयेऔर भय के कारण वहाँ से दूर भाग गये। १७१ विभीषण अपने भाईरावण से भेंट करने वहाँ आया तथा पाँव पकड कर विनती करने लगामैं आपका भाई विभीषण हूँ। मुझे लंका मैं रहने की कोई जगहनहीं मिली, अतः मुझ पर क्कृपा करेँ। १७२ विभीषण ने रावण से जैसेही यह कहाकि आप सीता को अपने महल मैं न खरखें तथा श्रीरामको परमेश्वर जानकर सीताको उन्हे सौँप दे, वैसेही रावणने उसेलात मारते हुए, महल से निकल जाने की आज्ञा दी । १७३ रावण केद्वारा निकाल देने पर विभीषण श्रीराम की शरण मे गये तथा चार मंव्ियोंको (अपने) साथ (भी) ले लिया। साथही यह विनती भीकीकि आज मैं श्रीरधुनाथ के चरणों मै रहकर अत्यन्त प्रसच्च हँ, क्योकिप्रभुने मेरे ञपर महान कृपा की । १७४ विभीषण की ऐसी विनतीसुनकर श्रीरधुनाथ ने विभीषण को अपनी गोद मेँ बैठा लिया औरआशीर्वाद दिया--भाई ! तुम चिरंजीव रहो और श्रीराम को देव २२० भौानुभक्त-रामायण भाई ! चिरञ्जिवि रबह्या तिमि देव जानी ।रामचन्द्रको गर भजन् अति हर्ष मानी ॥१७५।॥ खुपू भक्त छौ बुझिलियाँ तिमि भाइलाई ।भन्थ्या चिन्हेर अघि तारदले मलाई ॥साँच्चै भयो ति क्रषिले जति हो भन्याको ।प्रत्यक्ष देख्छु तिसि भक्त बडा बन्याको ॥१७६।। भाई विभीषण ! परै रहु जल्दि जाङ।संग्राममा बखतमा नजिकै नआञड॥यस्ता वचन् सुनि बिदा भई फर्कि आया ।थामी नसक्नु भइ आँसु पनी सखाया ॥१७७॥ बीदा भै जव ता विभ्ीषण फिच्या यो फोज् गिराउँ भनी ।लाग्यो घुम्त र कुम्भकणे विरले धेर् फौज् गिरायो पत्ति ।बानरको सब फौजलाइ बलले थिच्तै र मिच्तै गयो ।कुन् सक्थ्यो अघि टिक्न तेस् बखतमा खुप् ध्वस्त गर्दो भयो॥ १७० मुद्गर् हात लियेर येहि रितले त्यो घुम्न लाग्यो जसै।फोज्को ताश् बहुतँ गच्यो र रघुनाथ् साह्लै रिसाया तसै॥वायव्यास्त उठाइ मुद्गर समेतृ् हातै खसाल्छ् भनी।हान्या श्रीरघुनाथले र सहजै काटी खसाल्या पनि॥१७९।॥। जातकर हषत मन से (उनका) भजन करो । १७५ पहलेही किसीसमय मुझे नारदजी ने वताया थाकि तुम मेरे बड्डे भक्त हो।उन्होने जो कुछ भी वताया, वह् सब कुछ सत्य निकला । अतः मैं तुम्हँएक महान भक्त के रूप में प्रत्यक्ष देख रहा हुँ। १७६ भाई विभीषण !दूर ही रहो, युद्ध के समय सामने मत आओ । ऐसे वचनों को सुनकरबिभीपण लौट पड्गे (उस समय) उनकी आँखों मैं जो आँसू मचल रहेथे और बाहर चिंकल पड्ना-चाहते थे, उन्है वे रोक न सके । १७७विभीपण वहाँ से विदा लेकर लौट पड्े। वीर कुम्भकणे सेना को मार-गिराने मै लीन था और अनेक (वानर-) सैनिको को धराशायी भी करदिया। वह बानरौं के अनेक सैनिको को अपनी शक्ति से रौँदतारहा । १७५ हाथो मैं गदा लेकर जब उसते (वानर-) सेना कोक्षति पहुँचायी तो रघुनाथ अत्यन्त ही क्रोधित हुए गदा-सहित हायौंको गिरानेके लिए वायव्यास्त्र से श्रीरघुनाथ ने प्रहार किया औरबड्डो ही सरलता से (उसके हाथों को) काटकर गिरा दिया । १७९ नेपाली-हिन्दी २२९ गीप्यो हात् जब कुम्भकर्ण विरको मुद्गर् सहित्को तहाँ ।ठूलो शब्द गरेर फेरि रिसले धाया प्रभू छन् जहाँ ॥साल्को वृक्ष उखेलि हान्न भनि त्यो आयो नजीक्मा जसै।तेही हात् पनि काटिबक्सनुभयो वानर् भया खुशू तसै।। १८५०।॥। हातै गिच्या जब दुवै तब खुपू करायो। साह्वै रिसाइ रघुनाथूतिर दौडि आयो।॥ फेर अधंचन्द्र सरिका दुइ वाण लीया। गोडे पनी सहज काटि खसालिदीया ॥१०५१॥ हात् पाउ केहि नहुँदा अति दुःख पायो । मुख् बाइ राम्कत निलुँ भनि घस्लि आयो ॥ रामूचन्द्रले पनि मुखभरि वाण हान्या। त्यो देखि फौजहरुले, अति हर्ष मान्या ॥१०५२॥ यै रीत् गरेर अघिबाट थला बसाया। फेर् हानि इन्द्रशरले शिर नै खसाया ॥ ढोका थुन्यो शहरको शिरले त ताहाँ। फेर उफ्र गैंकन पच्यो र समुद्रमाहाँ ॥१५३।।जब कुम्भकर्ण का (एक) हाथ गदा-सहित (कटकर) नौीचे गिर पडातो श्रीरघुनाथ भयंकर गजेना के साथ वहाँ गये। (परन्तु दुसरे हाथसे एक) विशाल वृक्ष को उखाइकर जब वह पुनः प्रहार करने के लिएआगे बढा तो वह हाथ (भी) श्रीरघुनाथ ने फिरसे (बाण मारकर)नीचे गिरा दिये । ऐसा होते देखकर वानर-सेना अत्यन्त खुश हुई। १५०जब उसके दोनों हाथ कट कर गिर गये तब वह् पीडित होकरचिल्लाने लगा तथा अत्यन्त क्रोधित होकर वह रघुनाथ की ओर दौड्रा ।फिर (रामचन्द्र ने) अधं-चन्द्र के समान दो बाण चला कर उसके पाँवभी काट कर गिरा दिये । १5१ (जब उसके) हाथ-पाँव सभी समाप्तहोगये तो (वह) मुख खोलकर (उन्हेँ) विगलने के लिए खिसकताहुआ आगे आया। श्रीरामने भी चिरन्तर बाणों से (उस पर) प्रहारकिया। यह दृश्य देखकर (वानर-) सेना मैं अत्यधिक हर्ष फैलगया । १५२ इस प्रकार श्री राम ने प्रारम्भ से लेकर अन्त तक उसेधराशायी किया । बाद मै (रामचन्द्र ने) इन्द्रशर के प्रहार ने उसकासिर भी काट गिराया, जिससे उसका समस्त चेतन (होश) समाप्तहो गया। उसके पश्चात् जैसे,ही (शेषधड् के बल) वह (अचानक)उछ्ला, वैसे ही वह समुद्र मै (जाकर) गिर पड्डा । १०३ (श्रीरघुनाथ २३० भानुभक्त-रामायण आ्हादि जन्तु मिचि नाश् बहुतै गरायो । इ्न्द्वादि देवगणको पनि ताप् हरायो ॥ खुपू पुष्प-वृष्टि रघुनाथ-उपर् खसाया। राम्लाइ भेट्न भनि नारद ताहि आया ।॥॥१०४।।नारद्ले स्तुति खुप् गच्या प्रधुजिको नारायणै हुन् अनी ।भोलीदेखि हुन्या कुरा जति थिया सो सब् बताया पनि ॥हे नाथ् ! वीर् यहि कुम्भकरणे विर हो यो ता सहजूमा गयो ।खूपै वीर् अब इन्द्रजित् छ उसको लौ भोलि वेला भयो॥११८।। भोली मर्देछ इन्द्रजितृ पनि यहाँ लक्ष्मण्जिका हात् परा ।आफैं मार्नुहुन्याछ रावण भन्या पर्सी लडाई गरां॥देख्नै छन् मुन्ति देव सिद्धगणले त्यो सब् तमाशा भनी ।नारद्ू ताहि बिदा भईकन गया प्योब्रह्यलोक्मा पन्ि॥ १५६॥। रावण््ले प्नि कुम्भकण त मप्यो भन्न्या सुनेथ्यो जसै।साह्रै दुःख परी विलाप् पनि गरी मूर्छा पच्यो खुप् तसै॥रावणूलाइ बुझाउनाकन अघी त्यो इन्द्रजित् वीर् सच्यो ।जल्दी बिन्ति गच्यो खडै छु म छँदै कुन् ताप् हजूर्मा परयो॥ १०७॥। ने) ग्राह आदि जल-जन्तुओ का भी दमन कर कितनो (ही अनाचारियों)को नष्ट किया। इन्द्रादि देवगणों के अन्दर जो ताप था, वह शीतलतामैं बदल गया और उन्होने श्रीरधुनाथ के अपर पुष्पों की वृष्टि करकेउनका स्वागत किया। इस अवसर पर नारद जी भी रामचन्द्रजी सेमिलने आये। १५४ नारदजी ने प्रभुजी के समक्ष दोनों हार्थोंकोजोड्कर स्तुति की और आगे जो कुछ बातै घट्ने वाली थीं, उन सबकीसूचनादी। हेनाथ ! यही (वह) वीर कुम्भकर्ण था, जो परलोकसिधार गया। इसके बाद (लंका) का वीर इन्द्रजीत है, जिसको कलही सामना करके समाप्त करना होगा। १5५ नारदजीने बतायाकि कल यही इन्द्रजीत लक्ष्मण के हाथों मारा जायेगा तथा परसौं के युद्धमैँ आप स्वयं ही रावण का वध करँगे और यह सारा तमाशा मुनिगणतथा सिद्ध लोग देखेगे--ऐसा कह कर नारद जी वहाँ से विदा होगये । १५६ रावणके कानो में जैसे ही कुम्भकण की मृत्यु की खबरपड्डी, वह् विलाप करता हुआ मूछित होकर गिरपड्गा। रावण कोसान्त्ववा देते हुए वीर इन्द्रजीत आगे बढा और कहने लगा--अभी मैंआपके सामने जीवित खड्डा हूँ। मेरे होते हुए आपके कपर कौन-सा संकट त्तेपाली-हिन्दी २३१ बात्रुको भय आज कत्ति नरहोस् ई शत मै मारँला।सब् गशब्ृहर मारि तापू हजुरको चाँडै सहज् टासँला ॥होम् गर्छ म निकुस्भिलास्थल महाँ ऐले तुरन्तै गई।होस् सम्पूर्ण गग्या मलाइ अहिले अग्नी प्रसन्ते भई॥ १८५०॥दीन्याछन् हतियार् तिनै लिइ गई संग्राम गर्छु जसै।कुन् साम्ने भइ टिक्छ तेस् बखतमा सब् ध्वस्त हुन्छन् तसै ।|येतीः बिन्ति गप्यो र होम् गरँ भनी उठेर जल्दी गयो।भक्ती राखि तिकुम्भिलास्थल महाँ होमूगने लाग्दो भयो।। १५९॥।सुन्या त्यो समचार् विभीषणजिले होम् गर्ने लाग्यो भनी ।सो विस्तार् रघुनाथका हजुरमा गै बिन्ति पाच्या पति ॥ऐले हे रघुनाथ] इद्धजितले होम् गर्ने लाग्यो भनी ।सून्याँ यो सुनि बिन्ति गर्नु अहिले आयाँ हजूर्सा पनि॥ १९०॥होम्को बिध्न त गर्नु पर्छ अधिराज् ! होस् सिद्ध पाच्यो भन्या ।राक्षसगण् जितिसक्नु छैन अहिले ई सब् अजेयै वन्या ॥लक्ष्मण्लाइ मलाइ बक्सनुहवस् ठूक्म् म जान्छ् तहाँ।माछैन् लक्ष्मणले अवश्य अहिले त्यो बाँच्न सक्ला कहाँ १९ १॥ आ पड्डा.। १5७ (इन्द्रजीत ने आगे कहा-) आप शत्ुओं से बिल्कुलभी भयभीत मत होइ्ये। मैं समस्त शलुओं का नाश करके आपके तापकोःहर लुँगा। बह हवन करनेके लिए कुम्भिला चासक स्थल परचला गया, हवन के सम्पूर्ण होने पर अग्नि देवता प्रसञ्च हो गये । १८८हवन करने से पह्ले इन्द्रजीत ने सोचा, अग्निदेव प्रसन्न होकर मुझे हृथियारप्रदात करंगे और जिस समय मैं संग्राम कखँगा सबको ध्वस्त कर डालँगा;कोई नहीं टिक्र सकेगा मेरै सामने । ऐसा सोचकर (वह) तुरन्त हवनकरने के लिए चल पड्रा। १०९ हवन करने की बात जैसे हीविभीषण ने सुनी, वैसे ही श्री रघुनाथ के पास जाकर (उसने) विनतीकी हे रघुनाथ ! इन्द्रजीत हवन कर रहे है, यही कहने के लिए मैं यहाँउपस्थित हुआ ह्रँ। १९० (विभीषणने आगे कहा-) हे अधिराज |!इस हवन में. तो विध्न उत्पञ्च करना ही होगा। यदि यह् हवन सिद्धहो गया तो राक्षसगणों को पराजित कर सकना असम्भव होगा तथावेसव विजयी हो जायंगे। लक्ष्मणको मेरे साथ भेजदे। मैउनकेसाथ जाकर उस हृवन को भंग कर दूँगा । अतः मुझे आज्ञा दे; मैं वहाँजाउँगा .और लक्ष्मण तो उसे निश्चय ही मार डालेंगे । १,१ उसकी २३२ भानुभक्त-रामायण येती बिन्ति सुनी हुकूम् हुन गयो जान्छू म मार्छुभनी ॥फेरी बिन्ति विभीषणे सरि गन्या यस्तो छ यो वीर् भनी ।खाँदै कत्ति नखाइ कत्ति नसुती रात् दिन् नियम् खुपृ गरी।जस्को वत छ वाहन वर्ष उ पुरुष् तेरा अगाडी सरी॥१९२॥।तेरो प्राण लिच्याछ यो छ वरदान् यस्तो हुनाले गरी।मारीसक्नु कदापि छैन अहिले कोही अगाडी सरी ॥रात् दिन् कत्ति नखाइ कत्ति नसुती तेस्तो रह्याको यहाँ!लक्ष्मण् छन् अब लौ हुकम् दितुहवस् तेस्लाइ मारख्न् तहाँ।। १९३।। ईशवर् तिमी हौ रघुनाथ् इ भाई। लक्ष्मण् त शेष हुन् करुणा जनाई ॥ भूभार हर्नाकक जन्म लीयौ । यो रखूपू भजन् गर्ने बनाइदीयौ ॥ १९४]साँचो विन्ति गच्यौ म जान्दछु सवै यो वीर् छ यस्तो भनी ।हिड्दैदेखि नखाइ कत्ति नसुती लक्ष्मण् रह्याको पति ॥जानीजानि म चूप् रह्याँ किन भन्या लाग्यँछ यो कास् भनी ।उत्तर् येति तहाँ विभीषणजिका साम्ते हुकम् भो पत्ति॥ १९५॥ ऐसी विनती सुनकर श्रीरधुनाथ ते कहाकि मैं स्वयं उसे मारने के लिएजाता हुँ। पुनः विभीषण (ने रामका) मार्ग रोककर कहा किक्ष्मषण ऐसा महान वीर है कि जिसते विना खाये-पिये-सोये निरन्तरबारह वर्ष तक व्रत कियाहै। १९२ इन्द्रजीत लक्ष्मण के हाथों माराजायेगा--ऐसा बरदान हैँ। इस कारण अब कोई भी (अन्य व्यक्ति)अग्रसर होकर उसे नहीँ मार सकता। दिननरात न सोकर विनाखाये-पिये, सचेत होकर, रहने वाले (वह) लक्ष्मण (ही) है (जोउसैमार सकते हँ) अत. अब उन्हेँ (लक्ष्मण को) इन्द्रजीत का वध करनेकी आज्चादे। १९३ हे रघृनाथ ! आप ईश्वरहै। ये आपके भाईहँ अर्थात् लक्ष्मण तो (आपके ही) शेप भाग (अंश) है। भौरभु-भार हरनेके लिएही (आप दोनों ने मानव रूप में मृत्यु लोक मै)जन्म लिया है और इस खूपका निर्माण भजन करतेके लिए (ही)किया गया है। १९४ मैं यह जानता हुँ किइन सब वीरौंके बारे मेजो कुछ भी कहा गया है तरह सव सत्य कहा गया हैँ। चलते समयभीविना खाये और बिना सोये ही लक्ष्मण रहै हँ, लेकिन फिर भी मैँ चुपही रहा, क्योकि मैं जानताथा किकिसी न किसी समय यह भी कामआयेगा । १९५ और उसी क्षण लक्ष्षणको (राम की) आज्ञा हुई नेपाली-हिन्दी . लक्ष्मण्लाइ पनी हुकूम् तहि भयोकेही फौज् पनि साथमा लिइ तहाँचाँडै प्राण् लिइहाल इन्द्रजितकोसबूको छिद्र बताउनन् बखतमाहकृम् यो रघुनाथको सुति धन् राम्का पाउ -समाइ लक्ष्मण तहाँमेरा बाण् अब इच््रजीत विरकोपाताल् भोगवतीमहाँ पुगि तहाँ येती बिन्ति गरी घुमी वरिपरीबीदा भै रघुनाथका हुकुमलेकेही फौज् लिइ जाम्बवान् र हनुमान्पौँच्या जल्दि र इन्द्रजीत विरका २२३३ भाई ! तयारी भया।ऐले तुरन्तै गया॥जान्छन् विभीषण् प्नि।यस्तो छ याहाँ भनी ॥१९६॥। लीई तयारी भया।क्यै बोल्न लागी गया॥प्राणलाइ जल्दी ह्री। तिमेलू हुनन् स्तान् गरी १९७।॥। लक्ष्मण् चरणूमा प्या।साइतृ् तुरुन्तै गन्या॥गया । अङ्गदू इ साथ्माफौजूलाइ देख्ता भया।। १९०॥ हृकृ्म् सिरोपर धरीकन जल्दि पौँची। लक्ष्मण् अघी जब ससप्या धनुलाई खेँची ॥ लश्कर्हरू पनि अगाडि सरेर धाया। ताहाँ विभीषण अगी सरि बिन्ति लाया ॥१९९॥।कालो सण्डल देखिइन्छ अघि जो त्यो फौज हो वीरको।टुक् टुक् पारि गिराइबक्सनु हवस् सब् वीरका शीरको ॥ कि हे भाई ! कुछ सेना साथ लेकर, तुरन्त जाकर, तुम इन्द्रजीत कानाश करो। तुम्हारे पीछे विभीषण भी जायेगा। (इन सबका)रहस्योद्घाटन यथा समय होगा । १९६ श्रीरघुनाथ की ऐसी आज्ञासुचते ही लक्ष्मण धनुष लेकर तैयार हो गये तथा श्रीराम के चरणों मेंपड्कर कुछ विनती कर बोले कि मेरा वाण अब वीर इन््रजीत काप्राणान्त करके पातालभोगवती मैं जाकर निमंल जल में स्नानकरेगा ॥ १९७ चारों ओर परिक्रमा करके लक्ष्मण श्रीरामके चरणोंमैं पडै; फिर विदा लेकर रघुनाथ की आज्ञानुसार तुरन्त मुहूर्त तिकाला ।फौज के साथ जासवन्त, हनुमान, अंगद आदि भी गये (और) वहाँपहुँचकर वीर इन्द्रजीत की फौज को तिहारने लगे । १९८५ आज्ञा पाकरलक्ष्मण शीघ्र ही वहाँ पहुँचे और तुरन्त जब धनुष-बाण खींच आगे बढेतो विभ्नीषण ने विनती की । १९९ हे लक्ष्मण] आगे जो काला दलदीख रहा है वह सब इस फौज के वीरहै। इनके सिरों के टुकडे-दुकडेकर डालिए और इनको धराशायी करनेकी क्रपाकरे। यदि आप २३४ ऐले जल्दि नहान्तिबक्सनु भयाहोम्को सिद्ध गच्यो भन्या हुँदि कसैतेस् फौजूलाइ गिराइवक्सनुभयाहोम् छोडीकन बड्त आउँछ यहाँयेही युक्ति तहाँ विभीषणजिलेलक्ष्मण्ले पनि सैन्यमाथि शरकोवातर्ले पत्ति बृक्ष प्॒वेत शिलाराक्षस्को पत्ति फौज् अघी सरि सरीलक्ष्मणले शरले अनेक् तरहलेसाह्रै क्रोध गरेर इन्द्रजित वीर्पक्का बेस् रथमा चढी धनु लिइलाग्यो लक्ष्मणलाई भन्न अव हेर्औँ टिस् मर्ने भन्या र ताहि नजिकैतिन्लाई पनि खुप् भन्यो तँ कुलको येती भन्यो र रिसले भावुभक्त-रामायण होम् सिद्ध गर्न्याछ यो।जीती नसक्नू छ यो।॥॥२००॥।त्यो इन्द्रजित् वीर पनि ।त्यो फौज् गिरायो भनी ।विन्ती गच्याथ्या जसै।वर्षा गराया तसै ॥२०१॥फौज््माथि फेक्या जसै।खुपू लड्न लाग्यो तसै ॥ माग्यो र नाश्यो भनी।होस् छोडि आयो अनि॥२०२॥।साम्ते अगाडी सरी।मेरा अगाडी परी।थीया विभीषण् पनि।शल्नू अधस् होस् भनी ॥२०३।।रथमा बस्याको । सबूलाइ जित्न भनि कम्मर खुप् कस्याको ॥ इसी समय शीघ्रता से प्रहार नहीं करँगे तो वह हवन सिद्ध कर लेगाऔर यदि हृवन सिद्ध हो गया तो फिर इस पर विजय पाना असम्भवहो जायेगा । २०० उस सेना को यदि आप धराशायी कर देतो वीरइन्द्रजीत अपनी सेना को धराशायी होते जानकर, हवन को त्याग देगाऔर युद्ध करने के लिए पहुँच जायेगा । विभ्ीषण की ऐसी युक्तिपू्णविनती लक्ष्मण ने सुनी और उसी समय विपक्षी सेनाओं पर वाण-वर्षाआरम्भ कर दी। २०१ जैसे ही वानरों ने वृक्ष तथा पर्वेत-शिलाओं से उन सेनाओं पर प्रहार किया, राक्षसी सेना भीआगे बढी और उसने यृद्ध आरम्भ कर दिया । इन्द्रजीत को जैसेही लक्ष्मण द्वारा चलाये गए वाणों तथा अनेक प्रकार से सैनिकोंके मारे जाने की सूचना मिली, वह अत्यधिक क्रोधित होकर हवनको त्याग कर लड्ने के लिये आ पहुँचा। २०२ वह एक उत्तमरथ पर सवार तथा हाथ में धनुष लिये हुए अग्रसर हुआ और लक्ष्मणसे कहने लगा, अरे मेरे सम्मुख आकर अपनी मृत्यु को क्यों आमंत्वितकरने लगेहो। वहीं निकट से विभीषण भीआ गया अतः उसेभीतुम कुल के अधम शत्नु हो आदि कह् कर कटु-बचनो से प्रहार करनेलगा । २०३ इतना कहकर क्रोधित मन से वह् रथ पर सवार हो नैपाली-हिन्दी २३५ केही नटेरि अरु वानरलाइ हेला।साह्लै गराइकन भन्छ परे इ फेला ॥२०४।॥।,बाण् हानि प्राण सबको म हरेर लिन्छु।तिम्रो शरीर् पृथिविमा म गिराइदिन्छु ॥यस्ता बचन् सुनि ति लक्ष्मणजी रिसाया ।.हान्या र वाण् तहि तुरन्त थला बसाया ॥२०५।॥मुर्छा पच्यो दुइ घरी र जुरुक्क उठ्यो ।लालु लालु नजर् गरि रिसाइ अगाडि छूट्यो।मेरो पराक्रम रती नबुझेर पैले।हानिस् पराक्रम तँ लौ बुझिले न ऐले ॥२०६॥। थेती भन्यो र मनले अति वीर मानी । लक्ष्मणृजिलाइ तहि सात् शर जल्दि हानी ॥ दस् वाणले त हनुमान् विरलाइ हान्यो । झन् मुख्य शत्नु त विभीषणलाइ मान्यो ।।२०७॥हान्यो फेर् सय शर् विभीषण उपर येती गरेथ्यो जसै।हान्या लक्ष्मणले कवच् शरिरको काटीदिया पो तसै॥ गया। सब ओर से मन हृटाकर केवल विजय प्राप्ति हेतु समस्तवानरौं को तिरस्क्कत करके वह कहने लगा कि अब ये सब अपने पंजेमैआ गये हैँ। २०४ प्राण लेने वाला बाण चला कर मैं सबको मारडालूँगा तथा उनके . शरीर को धराशायी कर दूँगा। उसके ये वचनसुनकर लक्ष्मण जी क्रोधित हुए और तुरन्त ही बाण से प्रहार करकेउसे बहीं धराशायी कर दिया। २०५ वहदो घडी मूछ्तिहो करपड्डा रहा। पुनः चेतन हो कर उठा और लाल नेत्न करके क्रोध सेआगे बढा और कहने लगा कि तुमने मेरे पराक्रम को किचित मात्न भीनहीँ समझा और पहले ही प्रहार कर दिया। अतः अब समझलेना । २०६ इतना कह कर उसने मनमेँ अपनेको एक बडा वीरसमझ कर लक्ष्मण पर सात बाणों से प्रहार किया और दस बाण वीरहनुमान पर फंके। विभीषण को तो उसने विशेष शब्ग ही, समझा । २०७ , पुनः सौ बाणों का प्रहार विभीषण पर जैसे ही उसनेकिया लक्ष्मण ने अपने बाण से उसके शरीर के कवच को काट दिया ।अपने शरीरके कवच को कटे हुए देख कर उसनेभी हजार शरों केप्रहार से लक्ष्मण के कवच के टुकडे-टुकङे कर दिए । २०० नक्ष्मणने २३६“ हज्जार् शर्कन हानि लक्ष्मणजिकाटुक् पारेर गिराउँ दो तहिँ भयोलक्ष्मणले पति फेरि पाँच शरलेकाटी वक्सनुभो उसै बखतमाफेर् तेसै घनुलाइ काटिदिनुभोलीयो लक्ष्मणलाइ धेर शरलेबाणैले गरि सब् भन्यो दश दिशालक्ष्मले पनि इन्द्रजीत विरकोजुन् इन्द्रास्त थियो उही धनुमहाँचिन्तन् श्रीरघुनाथको गरि तहाँधर्मात्मा यदि सत्य दाशरथि छन्साँचै ता अब इन्द्रजित् यहि सरोस्छोड्या बाण र इन्द्रजीत विरकोइन्द्रादीहरु पुष्प वृष्टि खुशि भैहर्षेले नगरा बज्या पृथिविकोहर्षेले जय शब्दको ध्वनि पनीलक्ष्मण् लेपनि शङ्खको ध्वनि र खुपूवानर्ले गहुतै गच्या स्तुति तहाँ भानुभक्त-रामायण गाथूका कवचूको पनि।मेरो गिरायो भनी ॥२००।॥।घोडा र रथ् सूत् घनु।अर्को उठायो धघनु॥तीन् वाणले फेर् धनु।हान्यो छिटो क्या भनूँ।॥२० ९॥वानर् सक्स्मा पप्या।प्राण् लीन मन्सुब् ध्या ।लाई अगाडी सप्या।जह्दी प्रतिज्ञा गच्या॥२ १०|।हुन् नाथ् जगत््काधती ।येस शरैले भनी॥शीरै खसाया जसै।खुप् गर्ने लाग्या तसै॥२ ११।॥।जुन् भारि हो त्यो गयो।ताहाँ बहूतै भयो॥टङ्कार् धनूको गच्या।आनन्दमा सब् पच्या॥२ १२॥ भी पुनः पाँच शरौं से प्रहार करके उसके घोड्र, रथ, सारथी तथा धनुषकाट दिये और उसने उसी क्षण दूसरा धनुष धारण कर लिया। उसधनुष को भी लक्ष्मण ने तीन वाणों के प्रहार से पुनः काट दिया। उसनेफिर धनुप धारण किया और बडी ही तीव्रतासे लक्ष्मण को अनेकशरौं से पुनः प्रहार किया । २०९ वाणों के प्रहार से वानर-सेना दसोंदिशाओ से संकट मै घिर् गई। लक्ष्मण ने भी वीर इन्द्रजीत केप्राण लेने कीठानली। जो इन्द्रास्त थे उन्है वह धनुष पर चढा करआगे वढे और श्रीरघुनाथ जी का चिन्तन कर तुरन्त यह प्रतिज्ञा कीकि-- २१० यदि सत्यावादी दशरथ वास्तव मैं धर्मात्मा है औरश्रीरघुनाथ जगतपति हँ तो अब इन्द्धजीत इसी बाणसे यहीं पर मरजायेगा। इतना कहकर उन्हाँने वाण से प्रहार किया और वीरइन्द्रजीत के सिर को जैसे ही गिराया, इन्द्रादि देवगण अत्यन्त प्रसन्नहो कर पुप्प-वर्पा करने लगे । २११ पृथ्वी पर वडे-वङे नगाङ्रे वजउठे और जयन्जयकार की ध्वनि गूँजने लगी। लक्ष्मण ने भी शंख नेपाली-हिन्दी लक्ष्मण्जी सब फौज् लियेर रघुनाथपाञमा परि दण्वत् गरि तहाँखुशी खुप् हुनुभो सुनेर रघुनाथ्माग्यौ इन्दजित त आज तिमिलेमेरो शब्नु अवश्य छैन अब वीर्यस् रावण्कन मार्नलाइ सजिलोऐले युद्ध हुँदा म मार्छु सहजैरावण् वीर् पनि सब् सुन्यो र समाचारमूर्छादेखि उठी विलापू अति गरीहात्मा एक् तरवार् लिएर रिसलेदौड्यो त्यो र सुपाश्वे मन्त्रि नजिकै -२३७ ज्युका हजूरुमा गया।सब् बिन्ति गर्दा भया ॥हकूम् भयो बेस् गय्यौ।सब् शलनुको मुलु हप्यौ।॥२ १३॥।जुन् वीर हो सो गयो।यै वीर जाँदा भयो ॥भन्न्या हुकम् यो भयो।मुर्छा परी गै गयो ॥२१४॥।फोज् लड्न पेल्यो पनि।सीता म काट्छ भनी ॥थीयो अगाडी सप्यो। स्क्वी घात् गर्नु अवश्य छैन महाराज्! यो जल्दि विन्ती गन्यो॥२ १५॥। सुपाश्वेको बिन्ति सुन्यो र ताहाँ।फर्क्यो फरक्कै दरबारमाहाँ ॥शोक्ले बहुत् मुखे समान भैगो।फेरी सभा गर्छु भनेर गैगो॥२१६॥ की ध्वनि की और धनुष को बड्डी जोर-जोरसे टंकारा ] आनन्दित होकर सभी वानरोंने भी खूव स्तुतिकी। २१२ ल्क्ष्मणजी समस्तसेना को लेकर रघुनाथ जी के पास गए और उनके चरणों मैं गिरकर दण्डवत की और सविस्तार सब हाल कह सुनाया। सारासमाचार जानकर रघुनाथ जी अत्यन्त प्रसच्च हुए। उन्होने प्रशंसाकरते हुए कहा कि आज इन्द्रजीत को मारकर तुमने शत्नुओ की जडनष्ट कर दी। २१३ अवश्य ही अब मेरा कोई शल्नु नहौंँ, जो वीरशत्न थावह सो गया। इस वीर केचले जानेसे अब रावण कामारना सरल हो गया। युद्ध होने पर मैं सरलता से उसै मारडालँगा। ऐसा श्रीरधुनाथ ने कहा। उधर रावण ने जब यहसमाचार सुना तो वह मूछ्ति होकर गिर पड्रा। २१४ जब मर्छासेउठा तो विलाप करने लगा, फिर मन स्थिर करके अधिकाधिक सैनिकोको लड्ने के लिए भेजा। स्वयं हाथ मेैँ तलवार ले क्रोध मै भरा हुआऔर यह कहता हुआ कि सीता को मैं अभी मार डालुँगा दौडा किन्तुमंत्वी ने रोक लिया और विनती की कि स्ल्ीघात करना उचितनहीं । २१५ सुपाश्वँ की विनती सुनकर वह तदक्षण दरबार को लौटगया। , शोक मैं ड्वा हुआ वह किकत्तंव्य-विमूढ् सा पुनः दरबार "भे २३५ भानुभक्त-रामायण सब् मन्त्रिलि सँग बसेर विचार गर्दा। हीत हुन्या ठहरियो र अगाडि सर्दा॥ जो बाँकि राक्षस थिया सब साथ लीयो। खुपू लड्नलाइ रघुनाथू तिर चित्त दीयो ॥२१७।) त्यो अग्तिमा सलह झैँ जब पर्ने आयो। सक्थ्यो कहाँ अधिक ठक्कर फेरि पायो ॥ धेर् वीर् मप्या हृदयमा पनि वाण लाग्यो । टिक्नै तहाँ नसकि जल्दि फिरेर भाग्यो ॥२१५॥ सम्झ्यो गुरूकन विपत्ति पच्यो र ताहाँ। चाँडै गुरुसित गई शिर पाउमाहाँ॥ राखी गच्यो विनति दुःख वहूत पायाँ। यै दुःखको विनति गर्ने त आज आयाँ ॥२१९॥ हे नाथ् ! हजूर गुरु भई पनि दुःख पर्न्यी । क्या भो मलाइ कसरी अब चित्त धर्न्या ॥ यस् रामले सकल बन्धु र पुत्न मान्यो। शुरा अनेक् विरहरू पनि छुट्टि पाग्यो ॥२२०॥रावणको विनती सुन्या र गुरुले पाएछ आपत् भन्ती।“ गर्नुसस्म गरोस् भनेर उपदेश् दीया गुरूले पनि॥! सभा करे के बिचार से प्रबिष्ट हुआ । २१६ सव मंत्रियो ने बैठकर“रावण के हिता्थ विचार-विमणे किया। शेष बच्ने हुए राक्षसों कोलेकर आगे बढ्कर रघुनाथ जी से युद्ध करना ही उत्तम ठह्रायागया । २१७ रणभूमि मे पहुँच कर राक्षसो की वही दशा हुई जो आगमैं कूदने पर होतीहै। वे अधिक क्या कर सक्ते थे। पुनः पराजितहुए।॥ अनेक वीर मारे गए। उनके हृदय मै वाण लगा। वे टिकन सके और भाग खड्क हुए। २१८ विपत्ति पड्ते पर रावण"ने गुरु का स्मरण किया और उनकी शरण मैं जाकर चरणों मैं गिरकर' अत्यधिक शोक ग्रस्त होकर विनती की कि दुःख के कारण ही मैं आजआपके पास प्रार्थना करने आया हूँ। २१९ हेनाथ ! आप जैसे गुरुको पाकर भी 'मैँ इतना ढुःखपा रहाइ्रँ। अब मेरै चित्तको कसेशान्ति मिलेगी । मुझे आखिर ये क्या हो गया, इस राम ने मेरे सभीबन्धु-बान्धवों को मार डाला और मेरे अनेक शुर-वीरों को वीर गति'देदी। २२० रावण की दुःख भरी विनती सुनकर गुरु ने उसे सांत्ववा नेपाली-हिन्दी हे रावण् ! सुन मंत्र दिन्छु अब गैहोम् सम्पुर्ण गन्यौ भन्या त हतियार्जितृन्याछौ सब वीरलाइ भनियोपाएथ्यो खुशि भै उठी घर गईपाताल् तुल्य गुफा खनी ताहि बस्योढोका बन्द गग्यो सबै शहरकोलुक्यो रावण येहि रीत्सित र खुपूलुक्यो रावण तापनी तर घुवाँदेख्या तेहि धुवाँ विभ्ीषणजिलेपायाँ भेद् भनि रामका हजुरमालाग्यो रावण होम गर्ने महाराज् !साँचो बिन्ति म गदेछू हजुरमाहृकुम् वानरलाइ बक्सनुहृवस्जल्दी गैकन यज्ञ नाश् गरिदिउन्बिन्ती येति गच्या विभीषणजिलेअङ्गद वीर् हनुमान् दुवै इ खटिया , २३९ होम् गर्नु खुप् ध्यान् धरी।मिल्नन् तिनले गरी ॥२१॥-आज्ञा गुरूको . जसै।होम् गर्ने आँट्यो , तसै॥।'होम् गर्नेलाई: पनि:कोही नआउन् भनी।।२२२॥।.होम् गर्ने लाग्यो तहाँ।:लूकी रहन्थ्यो कहाँ॥.होम् गर्ने लाग्यो भनी ।गै बिन्ति पाग्या पनि॥२२३।।होम् सिद्ध पाच्यो' भन्या ।ई सब् अजेयै बन्या॥बीर् वीर् अगाडी सरी ।'हक्म् शिरोपर् धरी॥२२।'हृकुम् प्रभूको ' भयो।दशू कोटिको फौज् गयो ॥ के लिए उपदेश दिया । हे रावण ! सुनो, मैं मंत्न देता हँ । ध्यान-पु्वेंक हवन करना। यदि हृवनादि सम्पूणे छ्पसे करोगे तो उसर्के प्रभाव से तुम्है शस्त प्राप्त होंगे । २२१ जसे ही गुरु का यह आशीर्वाद मिला कि सब शब्नुओं पर विजय प्राप्त होगी, वह अत्यन्त प्रसन्न होकरउठा और हवन की तैयारी मै लग गया। पाताल के समान गुफा बनाई। नगरके सारै द्वार बन्द करप्रवेशन कर सके। इस प्रकार पूर्ण दिये जिससे कोई भी अन्दर-प्रबन्ध करके वह् अन्दर: बैठ गया । २२२ इस प्रकार रावण ध्यान-मग्न हो कर हवन करने के लिये छिप कर बैठगया। परन्तु घुवां कैसे छिप सकता था। उस घुवें को देखकर विभीषण ने भेद को जान लिया। उसने रामक्कीसेवा मै जाकर यह सारा समाचार सविस्तार बणँन. कर दिया । २२३ महाराज ! रावण हवन करने लगा है। यदि उसने हवन सिद्ध कर लिया तो मैं सत्य कहता हूँ कि वह अजेय हो जायेगा। आप वारीको आज्ञादे किवे वीर उसको शिरोधार्य कर शीघ्र ही जा.कर उसकेयज्ञको नष्ट कर दे। २२४ विभीषण की विनती सुनकर प्रभु नेआज्ञा दी कि अंगद, वीर हनुमान तथा दस कोटि सेना दीवार लांघ कर २४० भानुभक्त-रामायण पर्खाल् नाघि गया र तेस् शहरमा दर्वार् पुग्याथ्या जसै।चौकी रावणका थिया जति तहाँ तिनूलाइ माच्या तसै॥२२५।।रानी हुन् सरभी विभीषणजिकी लंकै शहर्मा थिइन् ।रावण् लूर्किरहेछ ताहि छ भनी तिनूले इशारा दिइन् ॥गुफाका मुखमा त पत्थर ठुखो लाएर पक्का गरी।होम् गर्थ्यो तहि भित्न रावण उही पौँच्या ठुलो वेग् गरी।।२२६॥त्यो पत्थर्कन लात्ति अङ्गदजिले दीया धुले भै खस्यो। क्यै फौज भित्लै पस्यो ॥ध्यान् गर्ने लाग्यो जसै।त्यो यज्ञ चाश्या तसै॥२२७।॥। होमूको विघ्न गराउनाकन तहाँरावण् येति हुँदा पनी दृढ भईवीर् वीर् वानरले अनेक् तरहले रावण्ले तहि होम गर्ने भनि एक् सुरो लियाको पनि।खोस्या श्रीहनुमानले र रिसले हान्या उठोस् यो भनी ॥ध्यानैमा दृढ मन् गरी अचल भै रावण् बसेथ्यो जसै।ल्याया अङ्गदले त खेँचि नजिकै मन्दोदरी पो तसै ॥२२८॥ती मन्दोदरिलाइ रावण नजीक् पौँचाइ हुनमेत् लिया।चोलो खोलि अफालि फेरि कटिको सारी खसाली दिया॥लायाका गह्ना समेत् शरिरका वस्तै अफाल्या जसै। खँदै रावणका नजीक रहँदी बिन्ती गरिन् यो तसै॥२२९॥ नगर के द्वार में पहुँच कर, रावण के सभी रक्षको को मार डाले । २२५विभीषण की रानी उसी नगर मै थी और उन्होने ही यह सकेत कियाथा कि रावण वहाँ छिपा हुआ है । गुफा के द्वार पर दृढ पत्थर लगाकर रावण छिपा हुआ हवन कर रहाथा। बहीं सारै वानर आँधीकेसमान पहुँच गए । २२६ उस पत्थर को लात मार कर अंगदने धूलके समान बिखेर दिया। हवन मैँ विघ्न डालनेके लिए समस्त सेनाअन्दर प्रवेश कर गई । इतना होने पर भी रावण दृढतापूर्वक ध्यानमग्नबैठा हवन करता रहा । वीर वानरौं ने यज्ञ को विध्वंस कर दिया । २२७रावण ने हवन करते समय एक शूर को भी अपने साथ रक्खाथा। उसेभी श्री हनुमान ने प्रहार करके भगा दिया । रावण अभी भी ध्यान-मग्नअटल बैठा था । अंगद मन्दोदरी को भी वहाँ खींचकर ले आया । २२०वह मन्दोदरी को रावण के सामने लाकर सताने लगा। चोली उतारक्र फेंक दी और साडी भी कमर से नीचे गिरादी। उसके शरीर परधारण किए' हुए समस्त वस्त्वाभूषण जव उसने उतार कर फक दियेतो नैपाली-हिन्दी हे नाथ्ू ! आज कता गयो हजुरकोपत्नीका इ विलाप सुती जिउनु धिक्येती बिन्ति गरिन् र पुत्चकन खुप्अर्को कोहि थिएन ताहि तिनकोभर्ताले पति बाँचुला भनि यहाँतेरो ज्यान् अधि गै गयो गरेँ कसोती मन्दोदरि रातिको अति विलापझठ्यो खड्ग लिएर अंगदजिकाहोभूको नाश गराइ अंगदहरूती सन्दोदरि रानि रावण यिनैलाग्यो रावण भन्न रानि ! अहिलेबाँच्नै खातिर ता म चूप् भइरह्याँबाँ चेदेखि त देखिइन्छ सब थोक्यो शोकदूर् गरिहाल हुन्छ अब क्याअज्ञानै छ भुलाउन्या शरिरमात्यै अज्ञान् बलवान् भयो पनि भन्या २४१ लज्जा अनाथ् क्या गर्छँ।मर्तू तिको हो बरु॥संझेर लागिन् रुनै।साहाय हून्या कुन॥२३०॥।लज्जै समेत् त्याग् गण्या ।ऐल्हे विपत्ती पच्या ॥सास्ने सुनेथ्यो जसै ॥हान्यो कटीमा तसै॥२३ १।॥दौडेर रामृध्यै गया।का बात् तहाँ खुपू भया ॥बाँच्न् असल् हो भनी ।येती हुँदामा पनि ॥२३२।॥।यस्तो बुझी ज्ञानले ।यस्ता असत् ध्यानले ॥यो देह् मै हँ भनी।फैलिन्छ संसार् पत्त॥२३३।॥। दुःखी होकर मन्दीदरी रावण कै निकट जा कर विलाप करती हुई कहने लगी । २२९अनाथा क्या कछ ।हुआ । हे नाथ ! आज आपक्की लाज कहाँ चली गई। मैंपत्नी का विलाप सुन कर रावण का ध्यान भंगवह् सोचने लगा, इस प्रकार जीवित रहने सेतो मर जाना श्रेयस्कर है। मन्दीदरी ऐसी बिनती कर पुत्न को सोच-सोच कर रोनेलगी । २३० स्वामी द्वारा बचाये जाने की आशा से उसने लज्जा काभी त्याग किया और बोली कि यदि पहले ही आपके प्राण चले गएतोइस विपत्ति मै मैं क्या कङँगी । मन्दोदरी का ऐसा विलाप सुनकर वहखड्ग ले कर उठा और अंगद की कमर में प्रहार किया। २३१ हवनका विध्वंस कर अंगदादि राम के पास दौड गये। रानी मन्दोदरी औररावण केही विषय मै चर्चा हुई। रावणने कहाकि राती! अभीबच के रहना ही उत्तम है, यही सोच कर इतना सब कुछ होने पर भी मैंचुपचाप बैंठा रहा। २३२ बच जायेंगे तो सब कुछ देख सकेंगे, यहीसोँच कर अपने मनसै शोकको दूरकरो। अब ध्यान से अज्ञानकोहटा कर रखना है। यह धारणा भौ व्यथ है कि शरीर में जो प्राण हैंबह् मैं हीहुँ। ऐसी अज्ञान की भावना यदि प्रबल होगयी तो यहसंसार भर मैं फल जायगी । २३३ हे मन्दोदरी ! आत्मा को ज्ञान २४२ भानुभक्त-रामायण आत्मज्चान स्वरूप् बुझेर मनले अज्ञचानको नाश् गरी।स्वस्थै भै रहु शोक् नमानि तिमिले क्या हुन्छ यो शोक् गरी ॥हे मन्दोदरि ! मार्छु रामुकन सहज् संग्राम ठूलो गरी।रामैले यदि मादँछन् त पत्ति बेस् जान्याछु संसार् तरी।॥२३४।॥।संग्राम्मा मरिगै गयाँ पनि भन्या मा्वूँ र सीता यहाँ।अस्तीमा तिमिले प्रवेश् तब गरी आयाम जान्छ् जहाँ॥रावण्का इ वचन् सुनेर अति ताप् मान्दी ति मन्दोदरी।साँचो बिन्ति म गर्छु आज महाराज् ! भन्दै अगाडी सरी॥२३५।॥।बिन्ती रावणथ्यै गरिन् पर्ति तहाँ राम् हुन् जगन्नाथ् हरि ।जीती सक्नु कदापि छैन अरुले कस्तै लडाई गरी॥वैवस्वतृ् मनुलाइ सत्स्यरुपले जस्ले र रक्षा गण्या।फेरी कूमे भएर मन्दर पनी जस्ले पिठैमा धन्या॥२३६॥।प्राण खँचेर लिया वराह रुपले जस्ले हिरण्याक्षको ।बाँची कोहि फिरेन लड्दछु भनी सामूने गयाको छ जो॥।ठ्लो दैत्य थियो हिरण्यकशिपू माच्या नृसिंहै भई।राज्यै खैंँचिलिया छलेर बलिको वासन् स्वरूपूले गई॥२३७।॥ स्वरूप समझ कर मन से अज्ञान का नाश कर दो और स्वस्थ मन सेरहो। शोकनकरो। शोक करने से होगा भीक्या ? मैं राम से घोरयुद्ध कङँगा और उन्हे मार डालुँगा। यदि मैँ रामके हाथों माराभीगया तो भी उत्तम होगा। मुझे मोक्ष मिलेगी और मैं संसार सागर सेतर जाउँगा । २३४ यदि संग्राम मै मैमरभी जाँतो सीताजी यहाँहँ उन्है मार डालना और तुम अग्नि मैं प्रवेश कर वहीँ आ जाना जहाँमैं जा रहा हुँ अर्थात् स्वगै को। रावण के वचन सुनकर मन्दोदरी कोअत्यन्त ताप हुआ । वह विनती करते हुए आगे बढी ओर बोली महाराज !मैं सत्य कहती हँ। २३५ राम जगन्नाथ हरि हैँ। अतः संग्राम मै किसीप्रकार उन्है कोई भी पराजित वहीँ कर सकता। जिसने मत्स्यहूप धारणकर वैवस्वल्मनुकी रक्षाकी और पुनः कम होकर मन्दर को अपनीपीठ पर धारण किया । २३६ वाराहरूप धारण कर जिसने हिरण्याक्षकाबध किया। जो भी युद्ध करनेके लिए सामने आया कोईभीबचकर नहीँ निकला । हिरण्यकश्यपु एक बहुत ही बड्डा बलवाव राक्षसथा उसे भी उन्होने नरसिंह छप धारण कर मार डाला । बावन रूप धारणकर छ्ले सेबलि के' राज्य को छीन लिया।॥ २३७ पृथ्वी मै परशुराम नैपाली-हिन्दी थीया क्षत्रिय पृथ्विमा परशुराम्तिम्रो प्राण लिनलाइ आज पत्ति नाथ्सीता हनु थिएन हेलन गरीयै काम्ले इ विपत् पच्या हजुरमासीता : सुम्पनुपर्छ आज अधिराज्लङ्कामा पनि राज् विभीषण गरून्सब् छोडीकत आज जाउ वनमारावण्ले पनि ई वचन् सुति जवाफू हे मन्दोदरि! इन्द्रजित् पनि मच्योकुस्मैकणे मप्यो अनेक् अरु पनीयेतीसम्म भएपछी कसरि फेर्शबुथ्यौँ गइ लल्ति बाँच्नु तचिकोविष्णू हुन् रघुनाथ् सिता पनि यिनैजानी जानि सिता हच्याँ त म उसैराम्का हात परी मै भनि त हेर्राम्का हात परी मच्याँ पनि भन्या २४३ भै बाश् सबैको गन्या।राम् भै अगाडी सम्या॥सीताजि हर्नूभयो ।ज्यान् इन्द्रजितृको गयो॥२३८।॥। रास्चद्धजीथ्यैँ ग्ई॥रामूका पियारा भई ॥येती भत्तीथिन् जसै। खुपू दीन लाग्यो तसैँ।।२३९॥ठूला ठूला वीर् मच्या।संग्राममा वीर् पप्या॥लब्नेर पाञ : पछेँ।प्राण् आज जावस् बरु॥२४०॥लक्ष्मी भनी जान्दछु।क्या आज डर् मान्दछ्॥सीताजिलाई हप्याँ।संसार् सहज्मा तप्याँ॥२४१॥। का खूप धारण कर सबका विनाश किया ।आफके प्राण लेने के लिए सम्मुख आये है।आपने बिना किसी विचारके सीताजी को हरने करना चाहियेथा। आज रास के रूप में नाथआपको सीता का हरण नहीं की धृष्टता की, इसी कारण आपके अपर विपत्ति आईहै। इन्द्रजीतकाभी प्राणान्त इसी कारण हो गया । २३८ हे अधिराज ! आज राम-चन्द्रजी के पास जाकर आप सीता जी को सौंपदे। यही उचित औरउत्तम होगा। लंका मै विभीषण ही रामका प्रिय होकर राज्य करे ।सब छोड्कर आप वनको चलें। मन्दोदरी के वचन सुन कर रावणबोला-- २३९ हे मन्दोदरी ! इन्द्रजीत भी मर गया तथा बड्-बङ्के वीरमारेगये। कुम्भकणे भी मर गया तथा अनेक वीर संग्राम मैं मारेगये। इतना सब कुछ हो जाने पर भी अब मैँ किस प्रकार ज्ुक करपाँच पडुँ। शत्नुके सामने इस प्रकार झुकने सेतो अच्छायही हैकिमेरा प्राण ही चला जाये। २४० रखुनाथ विष्णु है और सीता लक्ष्मीहुँ, यह मैं भली प्रकार जाततता हुँ, यह् सब जानबूञ्ञ कर भी मैँने सीता जीका हरण कियातो फिर मैँ अब भयभीत क्यो होजं। राम के हाथोंमरने की इच्छासे ही मँने सीताजी का हरण किया। रामके हाथों २४४ भानुभक्त-रामायण , । फेरी तुरन्त रघुनाथ्ू सित लड्न जान्छु।मानैन् मलाइ रघुनाथ् तब खूशि मान्छु ॥संसारका सकल तापूहरुलाइ तोडी।जान्याछु पारि तिमिलाइ त वारि छोडी ॥२४२॥।राग् द्वेष्का भेल चल्छन् भैँवरि सरि यि युग् घुम्दछ्न् बीचमाहाँ ।पुब्रादी मत्स्य झैं छन् रिस पनि वडबानल् सरीको छ ताहाँ॥कामैको जालु छ ठ्लो तर पनि बलियो ताहि जालूलाइ फारी ।संसार्-सागर् सहज्मा तरिकन हय्थ्यैं बस्न जान्याछु परि ॥२४३॥मन्दोदरी सित यती भनि लड्तलाई।कम्मर् कसेर बलियो रथ एक् मगाई॥रथ्मा चढेर रधुनाथ् सित जान आयो।रामूचन्द्रको सकल वानर फौज् डरायो ॥२४४।। त्यो रावण् रणभूमिमा जव पुग्यो सास्ने हनूमान्ू गया।मुर्छा पारि गिराउँ यस्कन भनी एक् मुड्कि हान्दा भया ॥छातीमा जब मुड्कि बज्न गयो खुपू वज्न तुल्यै गरी।घुँडा टेकि गिच्यो पनी दुइ घडी मुर्छा तुरुन्तै परी ॥२४५।॥। यदि मैं मरा तो सहज ही मैं संसार सागर से तर जाउँगा । २४१ पुनःशीघ्र ही रघुनाथ जी से युद्ध करने जाता हँ। रघुनाथ मुझे मार डालेतब भी मैं प्रसच्च हँ। संसार के समस्त तापों से दूर, तुम्है इस ओरछोड कर मैँ उस पार चला जाऔँगा । २४२ रागद्वेष कीनदी बहेगीऔर इस के मध्य जीव भंवर के समान चक्कर लगायेगा । पुत्रादि मछलीके समान हँ। क्रोध भी बड्वानल के समान है, काम से युक्त महाजालबिछा हुआ है तथापि इस देह को जलाकर चला जाउँगा और सहजहीइस संसार सागर से तर कर हरि के पास सदा के लिए उस पार चलाजाउँगा । २४३ मन्दोदरी से इतना कह कर, उसने युद्ध के लिए कसर,कसी और एक शक्तिशाली रथ मंगवाया और उस पर सवार ह्ोकर रामसे लड्नेके लिए आया । रामचन्द्र की समस्त वानर सेना एक बार.भयभीत हो गई । २४४ रणभूमि भैँ पहुँचते ही रावण के सामने हनुमान गया । उसे मूछ्ति कर धराशायी करने के उद्देश्य से उसने रावण परएक मुक्के से प्रहार किया। वक्षस्थल पर मुक्का पड्ते हीबच्ज केसमान आघात हुआ और वह दो घडी तक मुछित पड्डा रहा । २४५मुर्छा से उठ कर रावण ने हनुमान को (शावाशी) देतै हुए कहा कितू नेपाली-हिन्दी २४५ मुर्छादेखि . उठ्यो र रावण तहाँ स्याबास् तँ होस् वीर्भनी ।ठूलो वीर् हनुमानलाइ बुझि खुप् साह्रै सह्वायो पनि ॥रावणले हनुमानको सह्घनि खुप्ू ताहाँ गरेथ्यो जसै।रावण्का सब सेखि तोड्न हनुमान् वीर् बोल्त लाग्या तसै॥।४६॥हे रावण् | किन गढदेछस् सहृनियो धिक्कार् म मान्छू बरु।मेरो मुड्कि पच्यापछी पनि बचिस् बोल्छस् यहाँ क्या गछ ॥एक् चोट् हान् तँ पनी तँलाई म पनी फेर् हान्छु छातीमहाँ ।एक् मुड्की अब हानुँला त नमरी उम्केर जालास् कहाँ।॥२४७॥ई बात् श्री हनुमानले जब गच्या बेसै भन्यो यो भनती।एक् चोट् श्री हनुमानका हृदयमा ताकेर हान्यो पनि॥फेरी श्रीहनुमान् सप्या अघि तहाँ मुड्की उठाई जसै।रावण् टिक्न सकेन एक् क्षण पनी अन्यल्न भाग्यो तसै॥२४८॥रावण्का सँग चार् जना विर थिया मन्त्री लडाका पनि।ई चार् वीर्कन चार् जना अघि सच्या ऐले निभाँ भनी ॥अङ्गद्ू श्रीहनुमान नील नल यी चार् वीर कूदी गया।रावण्का सँगका ति चार् विर सहज् मारेर फिर्दा भया ॥२४९॥ ती चार् जना जब मच्या तब झन् रिसायो । राम्का उपर् अघि सरीकन वाग् खसायो ॥ ही एक वीर है । हनुमान को महावीर समझ कर उनकी सराहना की ।रावण की प्रशंसा युक्त वात सुनकर हनुमाच ने कहा, “हे रावण ! तुम क्योंइस प्रकार प्रशंसा कर रहे हो मै तो इसे धिक्कारता हँ और तुच्छ समझताहँ” २४६ सेरे मुक्के के प्रहार से भी तुम बच गए और कहते होक्याकर्खैँ। एक बार तुम भी मुझ पर प्रहार करो तब पुनः मैं तुम्हारे वक्षस्थलपर प्रहार कङँगा । अब एक मुक्की और मार लूँ तो फिर देखें तुम बंचकर कहाँ जाते हो। इतना कह् कर हनुमान चुप हो गए। तुमने ठीककहा है, यह कहते हुए-- २४७ (रावण ने भी उसी समय) हनुमान केहृदयको लक्ष्य बना कर एक चोट कसकर प्रहार किया। पुनः एकमुठ्ठी बाँध कर जब श्री हनुमान अग्रसर हुए तो रावण एक क्षण भी वहाँटिक नहीं सका, वह अन्यत्त भाग गया। रावण के संग चार लड्डाक् वीरभीथे। २४८५ इन चार वीरोंको हम चार वीर अग्रसर होकर अभीसमाप्त कर दे, ऐसा सोचकर, अंगद, श्री हनुमान, नील तथा नल चारोवीर कूद पड्गे। रावणके साथ जो चार वीरधे वे उनको सहज ही मै २४६ भानुभक्त-रामायण बाक्ला बुँदै सरि ति शर् जव खस्न आया। खुपू वानरादि विरले पनि दुःख पाया ॥२५०॥।यो चालु बानरको बुझी रघुपती सामूने अगाडी सरी।लाग्या लड्न तहाँ अनेक् तरहले तैलोक्यका नाथ् हरी ॥त्यो रावण् रथमा थियो रघुपति खाली जमीनमा थिया ।रामूका खातिर इन्द्रले अति असल् एक् रथ् पठाई दिया॥२५१॥जल्दी मातलि सारथी रथ लिई रामूका हजूरमा गया।हातृ् जोरीकन रासका हजुरमा यो बिन्ति गर्दा भया॥हे नाथ् ! रथ्ू लिइ इन्द्रका हुकुमले आयाँ खडा छ् पनि।यै रथ्मा चढिबक्सियोस् हजुरले बेस् बिन्ति पाञ्यो भनी॥५२॥यो बिन्ती गरि मातली अघि सप्या ख्वामित् सितानाथ्ू पनि।तेस् रथ्ूलाइ परिक्रमा गरि चढ्या चढ्नै उचित् हो भनी ॥ताहाँ देखि त मच्चियो अधिक झन् संग्राम् निरंतर् गरी।जुन् बाण् रावणले त छोड्छउहिवाण् काट्छन् रमानाथ् हरि॥५३।॥ यस्ता रीतृसित शस्ब्च अस्त सब थोक् काट्या प्रभूले जसै।रावण्ले पनि राक्षसास्त लिइ खुपू फेर् हान्न लाग्यो तसै॥ मारकर लौट आये । २४९ जब उत चारौंवीरोंको उन्होने मार डालातो रावण क्रोधित होकर आगे बढा और राम के ञपर बाण फँका।मुसलाधार पानी के समान जब बाण-वर्षी होने लगी तब वानर सेनाघोर संकट मैं फंस गई । २१० वानरौं की ऐसी अवस्था देखकर श्रीरघुनाथआगे बढे और युद्ध करने मै लीन हो गयें। रावण रथ परथा तथारघुपति नाथ भूमि पर विराजमान थे। इसलिए उनकी सुविधा के लिएएक अत्यन्त सुन्दर रथ इन्द्र ने भेज दिया। २५१ मातली सारथी रथलेकर श्रीरघुनाथ के पास पहुँचे और, विन्ती की किहे ! रघुनाथ !इन्द्रदेव की आज्ञानुसार रथ लेकर आया हुँ, अतः इस रथ पर आपबिराजने की क्रपा कीजिए । २५२ मातली के विनती करने पर सीताजीआगे वढी और स्थ की परिक्रमा करके उस पर सवार हो गयी । तत्पश्चातसंग्राम और अधिक भयावह रूप धारण करने लगा तथा जिस बाणकोरावण छोड्ता है उसे श्रीरघुनाथ अपत्ती शक्ति से नष्ट कर डालते हैँ। २५३जब श्रीरधुनाथ ने रावण के सारे अस्त्वशस्त काट डाले तो रावण नेराक्षसशस्त् का उपयोग करता गुरू कर दिया। रावण जितने भी बारणोंका प्रहार कर रहा था उसके सारे बाण सर्पखुप ह्ोकर धरती पर गिर नेपाली-हिन्दी है रावण् हान्दछ बाण् जती जति तहाँहाच्या वाण् रघुनाथले पनिर तीकाट्या सपैं पनी सबै गरुडलेतेस् बीच्मा शरवृष्टि खुप् सित गच्योधक्का केहि दियो प्रभुूकन तहाँहाच्यो मातलिलाइ वाण् र पछि फेर्घोडैलाइ पनी अनेक शरलेआएचयैं भइ देव पितृ क्रषिगण्लीलाले रघुनाथ्ू पनी जब तहाँवानर्को सब फौज् विभीषण समेत्बीस बाहृू दश शिर् भयङ्कर स्वरूप्लड्थ्यो रावण रामका हजुरमाउठ्थ्यो रिस् प्रभुको र तेहि बिचमारावण््का दश शिर् गिराउन लियाकालाग्ती सरिको भयङ्कर स्वखूपूकामिन् पृथ्वि पनी भयङ्कर स्वरूपूरावण् को पत्ति चित्तमा भय पच्या २४७ सब् सपैं रूपू भै खस्या ।बाग् ता गरुड्भैखस्या।॥॥ ५४।।पक्रेर टुक् टुक् गरी।राम्का अगाडी सरी॥फेरी गिराजँ भनी।केत् खसाल्यो पनि॥२५५।॥।खुपू हान्न लाग्यो जसै।खेद् मान्न लाग्या तसै॥दुःखी सरीका भया।साह्ल डराई गया।॥२५६।।सैनाक् सरीको भई।सामूने नजीकै गई॥कालाग्नि जस्ता बनी।जल्दी धनुर्वाण् पनि॥२५७।।रामको बनेथ्यो जसै।देखिन् र रामूको तसै ॥उल्का बहूतै भया। क्या गछन् प्रभुले यहाँ भनि तहाँ सब् लोक् डराई गया॥२५८॥। पड्ते थे। परन्तु जो बाण रघुनाथ ने छोड्रा था वह बाण गरुड ख्पमेँनीचे आ गिरा । २५४ सम्पूण सर्पो को पकड कर गरुड ने ट्कडेन्टुकड्कर डाला। और श्रीरामचन््र जी पर बा्णोकी वर्षाकी । श्रीरघुनाथको इससे धक्का तो लगा पर उन्होने आगे बढकर मातली पर बाण प्रहारकिया और केतु को भी मार गिराया। २५५१ जब घोडोंके ञपरभीबाण प्रहार होने लगा तो देवपितृ क्रषिगण भी आश्चयं-चर्कित औरअत्यन्त ही दुखित हुए। साथ ही साथ श्रीरघुनाथ को भी अत्यन्त हीखेद हुआ और विभीषण सहित वानरौं की सेना भी अत्यधिक भयभीत होगयी । २५६ बीस हाथ और दस सिर वाला रावण भयंकर स्वरूप धारणकरके श्रीरघुनाथ के सामने युद्ध करने मै मस्त था। यह देखकरश्रीरधुनाथ को अत्यन्त ही क्रोध आया और उन्होनि भी रावण की भूजाओंऔर सिरौं को काट गिराने के लिए धनुष बाण सम्भाल लिया । २९७श्रीरघुनाथ के कालाग्नि जैसे भयंकर स्वरूप को देख कर पृथ्वी भी कांपनेलगी। उतके इस भयंकर रूप को देखकर रावण भी बहुत भयभीत २४५ आकाशूमा बसि हेदँथ्या जति थियाकस्ता रौत्सित मछँ रावण तहाँरामूको रावणको परस्पर तहाँरात्वीको दिनको प्रकाश नभइ कालूरावण् को शिर काट्नलाइ जब बाण्तालैका फल झैंगिच्या तपनि शिर्एकोत्तर शय शिर् गिच्या जति गिरुन्क्या भो आज भनी प्रभूकन पनीठ्ला दैत्य बडा बडा विर पतीसोही वाण् प्नि आज रावण्-उपर्काट्छन् शिर् पनि वाणले र दशशिर्फेर् ज्यूँकातिउँ शिर् हुन्या गरेँ कसोयो चिन्ता रघुनाथमा जब पप्योयो हेत् छ भनेर हेतु जति होब्रह्माको वरदान् छ शिर् खसिगया भानुभफक्त-रामायण सब् देवतागण् पति।हेरौं, तमाशा भनी॥खुप् युद्ध ठूलो भयो।धेर् युद्ध हँदा गयो ॥२५९॥।फंक्या प्रभूले तहाँ।गीरेन पृथ्वीमहाँ ॥सब् बन्न लाग्या जसै।आश्चयं लाग्यो तसै।।२६०॥।जुन् बाणले सारिया।ताकेर खुप्ू हानिया॥भैंमा खसाल्छ्न् पनि।क्या भो यहाँको जनी।।६ १॥साम्ने विभीषण् गया।सब् बिन्ति गर्दा भया ॥फेर् उम्ननन् शिर् भनी । फेर् अमृत् पनि नाभिमा छ तव यो मर्दैन काट्या पनि ॥२६२॥। हुआ और साथ ही यह सोंचकर कि क्रोध में प्रभु न जाने क्या कर डालेसभी लोग अत्यन्त भयभीत हुए और चारौं ओर कोलाहल मच गया । २५८समस्त देवगण आकाश से यह तमाशा देखने लगे कि रावण किस प्रकारमारा जाता है। राम और रावण में परस्पर युद्ध छिड्डा हुआ था, गत दिनउसमेँ ही वीत गया । २१९ जव प्रभुने रावणके सिरको काटने केलिए प्रहार किया तो जितने सिर वह गिराते जाते उतने ही फिर से वहाँवन जाते । यह देखकर राम अत्यन्त ही आश्चयं मै डब गये और दूसराउपाय सोचने लगे । २६० जिन वाणों से वलशाली दैत्यों को मार गिरायागया था उन्ही वाणोंसे तो रावण के सिरौं पर प्रहार किया जारहाहैलेकिन वे सिर तो ज्यो के त्यों फिर अपनी जगह आ जाते हैँ; यह सोचकरश्रीरघुनाथ अत्यन्त ही चिन्तित हुए। २६१ जब विभीषणने देखाकिश्रीरघुनाथ अत्यन्त ही चिन्तित हुँ तो उसने श्रीरधुनाथ को बताया किउसे ब्रह्मा का वरदान प्राप्त है, इसलिए उसका सिर कटकर फिर से उत्पन्नहो जाता है। उसकी नाभि में अम्रृत है, अतः सिर कटने पर भी वह नहींमरता है । २६२ विभीषण ने श्री राम से विनती की कि हे रघुनाथ !आप उस अमृत का शोषण कीजिए। जब सारा अमृत सुख जायेगा तो नेपाली-हिन्दी त्यो अमरृत् सब शोषि बक्सनुहवस्चाँडैत्यो मरिजान्छ तेस् बखतमाहात् जोरेर जसै विभ्ीषणजिलेठाकुरले पति अग्निवाण झटपट्त्यो अमूत्ूकत शोषिबक्सनु भयोरिस्ले शक्ति लिई विभीषण उपर्राम्ले शक्ति र शिर् दशै छिनिदियानाना शस्ब्न लिएर खुप् सित लड्योतेस् बीच्मा पनि मातली अघि सरीहे चाथ् ! रावण लड्छ यो अझ भन्याब्रह्मास्लै अब छोडि बक्सनुहवस् २४९ सब् सुक्छ अमृत् जसै ।उठ्तैन फेरी कसै॥यो गुल्म खोलीदिया ।हानेर शोषीलि या॥२६३॥यो दिन्छ अर्ती भनी।ताकेर हान्यो पनि॥फेर् एक शिर्को भई।रास्का अगाडी गई॥२६%।।हात् जोरि बिन्ती गण्या ।फेर् शस्त्न हान्नै पप्या ॥खुप् मम तोड्न्या गरी । मदन काट्या पनि॥२६५।॥। सार्व्या युक्ति त एक् यही छनहिताएक् बाण् तुरुन्तै लिया । बिन्ती मातलिको सुनी प्रभुजिलेजस्मा अग्नि र बाग्रु, सूय्यै इ समेत् लोकृपाल् बस्याका थिया॥मन्त्री वेदविधानले र धनुमा त्यो वाण लगाया जसै ।प्राणीलाइ पनी बहुत् भय भयो खुप् भूमि कामिन् तसै।।६६।। वह तुरन्त ही मर जायेगा तथा फिर वह उठ नहींसकेगा। इस रहस्यको सुनकर श्रीरधुनाथ अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और उन्होने अग्निबाण काप्रहार करके तुरन्त ही उसके नाभिके अम्रृत को सुखा डाला। २६३श्रीराम ने जब उसके नाभि का अमृत सुखा डाला तब रावण ने क्रोधितहोकर विभीषण के अपर शक्ति बाण से प्रहार किया। इतने मैं रामनेभी शक्ति बाण से प्रहार किया तथा उसके दसों सिरों को छिम्न-भिञ्च करदिया तथा रावण पुनः एक ही सिर वाला रह गया। रावण भी रामके सम्मुख आगे बढ्कर भाँति-भाँति के हृथियारौं द्वारा रामचख्नजी सेखूब लड्डा । २६४ इसी बीच मातली ने हाथ जोइकर श्रीरघुनाथ सेविन्ती की कि हे नाथ ! रावण तो अभी तक लड ही रहा है .और इसकेअपर फिर से प्रहार करना ही पड्डेगा, अतः इस बार आप ब्रह्यास्त् छोड्यैेजो अत्यन्त ही ममँभेदी हो तभीये मरेगा । इसके मारने की यही एकयुक्ति है अन्यया यह किसी प्रकार नहीँ मर सकता है। २६५ मातलीकी विनती को सुनते ही प्रभु ने एक ऐसा बाण लिया जिसमेँ अग्नि, वायुतथा सूयै इन तीनो से युक्त स्वयं लोक पाल प्रविष्टथे। सम्पूणँ बेदविधान के साथ उन्होनि जैसे ही उस बाण को धनुष पर रखा रावणके २५४२ दाज्यूको किरिया गर्नू सब हखून्हूक्म् येति सिल्यो र लक्ष्मण गयालाग्या भन्न अहो विभीषण ! तिमीलाग्यौ गर्ने विलापू अनेक् तरहलेतिम्रो यो अघि जन्ममा कउन होफेरी क्या हुनलाइ रावण यहाँजस्मा भैकन बालुवा जसरि फेर्यस्तै रीत्सित फिदेछन् इ दुनियाँअज्ञानूको मति यो नलेउ तिमिलेजानी श्री रघुवाथका चरणमाप्रारब्धै बलवान् बुझेर सब योजो पर्छन् परिआउच्या सब कुरादाज्युको गहिराल आज तिमिले भानुभक्त-रामायण ती रानिका शोक् पति।जल्दी बुझाजँ भनी ॥क्या यो न जान्त्या सरी ।खाली जसीन्मा परी॥२७४॥।ऐले त दाज्यू भयो।छोडेर काहाँ गयो॥फिछैन् र. गङ्चामहाँ।क्वै छैन आफ्नू यहाँ॥२७५॥।झूठो जगत् हो भनी।खुप् ध्यान् लगाउ पनि ॥राज्यादि गेर्दे रह्।नीका ननीका सहू।।२७६॥क्रीया विधानूले गरी। चाँडै अगाडी सरी॥ कहते है कि तुम सब दुःख में ही डूबे हुए हो, समस्त रानियाँ शोक में ड्बीहुई विलाप कर रही हुँ और तुम भी उनके साथ केवल रो रहे हो औरअपत्ते कततँव्य का कुछ भी ख्याल नहीं करते। उठो और मनमेशाँतिधारण करके विलाप करना छोड्डो तथा भाई का क्रिया-कम यथोचित ख्पसे सम्पन्न करो । २७४ लक्ष्मण जी विभीषणसे कहते हैँ कि पिछलेजन्म मैं रावण तुम्हारा कौन था कौन जानता है परइसजन्म मैँतो वहतुम्हारा बडा भाई हुआ । अब पुनः वह तुम्है छोइकर कहाँ चला गयाकुछ पता नहीँ। जिस प्रकार बालू गंगा जी मैं जन्म लेती हैऔर एकजगह से दूसरी जगह बहती रहती हे उसी प्रकार मानव जीवन' और“आत्मा भी ऐसीहै। किसी के जीवन का कोई ठीक नहीं अर्थात जीवनअमर नहीं है। २७५ यह संसार झूठा है, अतः मन मैं अज्ञान बस इससंसार को कोई महत्व न दो और समस्त झूठी बातो से अपने ध्यान कोहटाकर श्रीरघुनाथ जी. के चरणों मै लगालो। संसार मे समय हीबलवान है ऐसा समझ कर रहो । समय के प्रभाव से ही मनुष्य किसीसमय यंहाँ राज्य करता है और कभी दुःखभी पाताहै। समय केप्रभाव से जो कुछ भी होता है वह सव सहन करना ही पड्ता है । २७६इसलिए बड्रे भाई का क्रिया-कमै उचित ढंगसे कर डालो। देखोरावण की सब रानियाँ रो रही हँ, आगे बढ्कर इन्है समझाओ । श्रीराम-चन्द्र जी की आज्चानुसार लक्ष्मण ने पूण प्रयास के साथ ढुःखी परिवार को रुन्छन् रानिहरू बुझाउ अहिले नेपाली-हिच्दी यस्तै, ठाकुरको हुकम् छ भनि बेस्विस्तार् लक्ष्मणको सुन्या र झटपट्बिन्ती गर्ने भनी जहाँ प्रभु थियाहात् जोरीकतन रासका हइडजुरमा २५३ रीत्ले बुझाया जसै।अठ्या विभीषण तसँ।२७७।ताहाँ तुरुन्तै गया।क्या बिन्ति गर्दा भया॥ हेनाथ् मजि भया कबूल् गरि लियाँ आज्ञा शिरोपर् धरी ।बिन्ती गर्छु तथापि सत्य भगवान् ! एक् भारि शंका परी २७०॥। यो क्क्र होप्रभु ! परस्ति पनी त हर्न्या। यस्को क्रिया कसरि योग्य भनेर गर्व्या ॥ बिन्ती गच्या यति विभीषणले र ताहाँ। खूशी भई हुकुम भो उहि बीचमाहाँ ॥२७९॥बाचृन्ज्यालु रिस हुन्छ शब्रुसितको ऐले मरी यो गयो।यस्को रिस् अब गर्नु छैन अब ता मेरोत रिस् ढुर् भयो ॥रुन्छन् रानिहरू बुझाउ गर लौ क्रीया विधानुले गरी।, पैले यै नगरी हुँदैन तिमिले यै हो क्रियाको घरि॥२८०।॥।हुकूम् येति सुन्या जसै प्रभुजिका योग्यै हुकृम् भो भनी।रातीलाइ बुझाउनाकन गया चाँडै विभीषण् पनि ॥ समझाया। लक्ष्मण जी के साँत्वना भरे वचनों को सुनकर विभीषणझटपट उठ बैठा । २७७ श्रीरामचन्द्र जी के पास कुछ विन्ती करनेके' लिए वह् गया और उनकी शरण में विनती करने लगा कि हे नाथ !आपकी आज्ञा शिरोधारि है लेकिन मेरे मन मै एक शंका आई, है आपउसका समाधान कर दैं। २७८५ विभीषणनेकहाकि हे प्रभु! यहतोऐसा पापी जीव था कि पराई स्की का इसने हरण किया। ऐसेपापीकामै क्रिया संस्कार किस प्रकार करै आप मुझे बतायेँ । विभीषण के यहबचन सुनकर प्रसञ्च, होकर श्रीरामचन्ध ने कहा-- २७९ हे विभीषण !क्रोध तो जीवित और चल मनुष्य से किया जाता है अब तो वह मर चुकाहैँ। उसके साथ क्रोध करने से क्या लाभ, उससे किसी प्रकार का क्रोधकरना उचित नहीँ । अतः मेरा क्रोध समाप्त हो चुका है । सवंप्रथम रोतीहुई रानियों को समझाओ और क्रिया संस्कार पुणँ विधान से करो। अबतो यही समय है, यह तुरन्त होना चाहिए । इसको न करना उचित नहोगा २०० प्रभुजी की आज्ञा को सुनकर विभीषण तुरन्त रानियों को समझ्ानेके लिए गया। रानियों को समझा बुझा कर घर भेज दिया और पूणविधान के साथ रावण का क्रिया-कमे सम्पन्न किया और फिर स्वयं राम.के २५४ भाबुअक्त-रामायण रानलाइ बुझाइ सब् गरिसक्या क्रीया विधानूले गरी।राची सब् घरमा पठायर गया जाहाँ थिया रामूहरि॥२० १॥खूशी खुपू रघुनाथू पनी हुनुभयो सम्पूर्ण खुशी भया।बीदा भैकन मातली पनि तहाँ फेर् इद्धथ्यै गै गया॥लक्ष्मणलाइ हुकम् दिया प्रभूजिले पैले दियाँ तापनि।गादीमा लगि फेर् विभीषण उपर् ऐले तिमीले पनि ॥२०५२॥देक लौ अभिषेक् भनी प्रभुजिको हृकूम् भएथ्यो जसै।लक्ष्मणले पनि गादिमाथि लगि फेर् दीया अभीषेक् तसै॥गादीमाथि बसाइ साथ लिइ फेर् राख्चद्धजीथ्यै गया।लक्ष्मण्ले रघुनाथका इजुरमा सब् बिन्ति गर्दा भया॥२०३॥तेस् बीच्मा रघुवाथ् प्रसच्च हुनुभो पुग्यो प्रतिज्ञा भनी।सुग्रीव्लाइ पनी सह्वाउनु भयो तिम्रो कुपा हो भनी॥ऐले हे हनुमान् ! विभीषणजिको मतले सिताथ्यै गई।सब् सस्चार बताउ जाउ अहिले सुनुन् बह्त् खुश् भई॥२०५४॥।जो भन्छिन् ति कुरा बताउन यहाँ फेर् जल्दि आउ भनी।हृकूम् हुन गयो विभीषणजिका मतूले हनूमान् पनि॥ पास गया । २८१ सब काम से निवृत्त होकर विभीषण जव श्रीराम के पासगया तो वे उसे देखकर अत्यन्त प्रसञ्च हुए और एक खुशी का वातावरणछागया। मातली ने भी प्रसञ्चता पूर्वक वहाँसे विदा होकर इन्द्रकेचिवास-स्थाव को प्रस्थान किया । तत्पश्चात रामचन्द्रजी ने लक्ष्मणजीको आज्ञा दी । २०२ हृथेली में सामग्री रखकर प्रभुजी नेकहाकिलोविभ्नीषण अब तुमको भी अभिषेक करतेहँ। लक्ष्मणने भी हृथेली मेंसब सामग्री रखकर विभीषण का अभिषेक किया। पुनः हृथेली मैंसामान रखकर साथ ही साथ वे रामचन्द्रजीके पास गये और उनकेसस्मुख लक्ष्मण ने विनती की । २०३ श्रीरघुनाथ जी इस अवसर परहादिक प्रसन्न हुए और बोले कि अब प्रतिज्ञा पुरी हुई। सुग्रीवसेभीयही कहा कि यह सब तुम्हारी ही क्कपा है, तत्पश्चात हनुमान को आज्ञादीकि हे हनुमान ! विभीषण की सलाह लेकर सीता के पास जाओऔर यह सब गणुभ् समाचार सुनाओ जिसे सुनकर वह बहुत प्रसत्च“होगी २०४ सीता जी जो कुछ भी पुछे वह सब विस्तारपू्वंक कहना-और शीघ्र ही वापस आना। ऐसी आज्ञा पाकर-विभीषण से परामशं"ल्लेकर हनुमान सीता की ओर गये, जब सीता के पास हनुमान पहुँचे तो नेपाली-हिन्दी सीताथ्यै हनुमान् पुग्या रुखसनी २५५सीता बस्याकी थिइन् । पाञमा हनुमान् पच्या जननिले चुप् भै नजर् खुप् दिइन्।॥ ८ ५॥ चीक्वीन् ई हनुमान हुन् भनि र खुप्विस्तार् बिन्ति- गण्या सबै जनमिथ्यैँझन् खुशी जननी भइन् खुशि हुँदैक्या दीन्या तिमिलाइ चीज हनुमान्तिम्रो यै प्रिय वाक्य तुल्य त अनेक्लाग्दैनन् अरु चीजदेखि त ठुलोझट् बिन्ती अरु चीजदेखित ठुलोखूशी खुप् हुनुहुन्छ ता खुशि म छू यो बित्ती सुनि खूशि भैकन तहाँरामूको दशैँन गर्छु बिन्ति गर गैसीताका इ वचन् सुनेर हनुमान्दशैतूको मतलब्ू थियो जननिको खूशी भईथिन् जसै।श्वीरामजीका तंसै॥क्यै' बोल्न लागिन् तहाँ ।खूशी गरायौ यहाँ॥२०५६॥रत्नादिको हार् पनि।यो चीज् दिन्या हो भनी॥श्रीराम् जगतृका पति।चाहिन्न दौलथ् रती।।२५७।॥।येती अह्वाइन् पनि।भेट् गने खोजूछिन् भनी ॥राम्का हजूर्मा गया ।सो बिन्ति गर्दा भया॥२८८।॥। बह् चुपचाप बैठी थी । हनुमान जातै ही उनके चरणों मैं झुक गये।सीता जी ने भी आँखो-आँखो मैं ही आशीर्वाद दिया । २०५ सीताजीनेहनुमान जी को पह्चाना और उन्हैँ देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई । हनुमानने विस्तारपूर्वेंक सब हाल कहा। सीता जी यह सब समाचार सुनकरबहुत ही प्रफुल्लित हुई और कहने लगी कि तुमने ऐसी शुभ सूचना दीहैजिसके प्रत्युपकार मैं तुम्हँ क्या दूँ। २०६ हनुमान ने सीता जी के वचनसुनकर यह् प्रार्थना की कि हे माता ! तुम्हारे प्रिय वचन ही अनेक रत्नोसे जटित हार से भी बढ् कर हैँ। आफके प्रेम भरे वाक्य ही इतने अमूल्यहै कि उनके सामने हर वस्तु तुच्छ है। हुनुमान ने इतनी विनती करकेकहा कि श्रीराम तो इस संसार के मालिक हैं, उनकी क्क्पा मुझ्े प्राप्तहै, अब इससे बढ्कर आप मुझे और क्या देना चाहती हैँ। आप हमसेप्रसञ्च है और मैं आपकी क्रपा पाकर गौरवान्वित हुआ हुँ,'अतः अब मुझेकुछ नहीं चाहिए । २०७ हनुमान की ऐसी प्रेम भरी बात सुनकर सीताजीअत्यन्त प्रेम विभोर हो गई और उन्होने, राम के दशैँ पाने की इच्छाप्रगट की और कहा कि मैं श्रीराम के पास चलना चाहतीहुँ। सीताजीके इन वचरनो को सुन कर हनुमान जी तुरन्त राम के पास गये। औरसीता जी की अभिलाषा को राम के सामने प्रगट किया । रद सीता“कीइस इच्छा को सुनकर श्रीराम ने हनुमान और विभीषण दोनोंको २५६ यो बिन्ती हुनुमानले हजुरमामर्जी भो प्रभुको विभीषणजिकोजाञ ल्याउ सिताजिलाइ तिमिलेआउन् भेट्न सिता अनेक् तरहकाहूकूमू्ले हनुमानलाइ सँगमाजल्दी स्वात गराउनाकन तहाँपैले स्तान गराइ गुद्ध कपडादीया सुन्दर जुन् थिया खुणि हुँदैडोली माथि सिता चढाइ खुशि भैदशैन् गर्नै भनेर बानरहरूचौकी गर्नै भनेर डोलि नजिकैसब् बानर्हरुलाइ तेस् बखतमाकोलाहल् अधिकै भयो प्रभुजिलेहृकूम् भो रघुनाथको किन तहाँआमा जानि ति हेदँछ्न् सब जनाडोलीमा किन चढ्दछिन् अब सितासुनिन् ख्वामितको हुक्म् र जननीपाङ पर्छु भनेर खुप् खुशि हुँदै भानुभक्त-रामायण ताहाँ गप्याथ्या जसै।साथ् लागि आया तसै ॥सब् देह तिमँल् गरी ।भूषण् शरीरमा धरी॥ २०९"लीई विभीषण् गया।खुप् यत्न गर्दा भया॥पैह्वाइ भुषण् पति।पैह्वू न् सिताजी भनी॥॥२९०॥।हीँड्या विभीषण् जसै।आयेर घेप्या तसै॥जो ता रह्याका थिया ।तिनूले हटाईदिया॥२९१॥।सुन्या नजर् भो पनि।वावर् हटाया भनी॥हेरून् ति वानर्हरू।पेदल्ति आउनू बरु॥२९२॥जल्दी जमीनूमा झरिन् ।साम्ते अगाडी सरिन् ॥ आज्ञादी कि नहा धोकर (निमँल होक्रर) वे दोनों जाकर सीताजीकोले आवेँ तथा सीता जी से कहेँ कि वे अपने समस्त आभ्रूषण शरीरभै धारण करके सजी-संवरी हुई आय । २5९ विभीषण हनुमान के साथसीताजी को लेने गये। सीताजी स्तानादि करकै शुद्ध वस्तो सेसुसज्जित हुई और उन्होने सारे आभूषण पहनकर अपना श्टंगार किया ।रामचद्ध जी के भेजे हुए आभूषण पहनकर सीता जी अप्यन्त प्रसन्नहुई । २९० जैसेही सीताजो को विभीषण ने डोली में बैठाया समस्तबानर उनके अंतिम दशँन के लिए दौड पड्रे और उन्हैँ चारो ओर से घेरलिया। जो लोग डोलीकी रखवाली कर रहेथेउन सबबानरों कोउस समय वहाँ से हुटा दिया गया । २९१ इतने बीच मेँ वहाँ कोलाहलहोनेलगा। सबने देखा किप्रभुजी आज्ञादे रहे हैँ और कह रहेहैँकि उन बानरौं को वहाँ से क्यों हटाया गया सीता सभी की माताहैँ,सभी उनका दशँन पाने के लिए आ रहे हुँ, अतः डोली मैं चढ् कर आनेकी क्या आवश्यकता है अब सीता पैदल ही आयेगी । २९२ सीताजी नेपाली-हिन्दी २२७ कामको सिद्ध गराउनाकन सिता माया लियाकी थिइन् ।काम् हो रावण मानेको कुल समेत् सब् सिद्ध पारीदिइन्।॥ २९ ३॥। अग्तीमा अघि राखियाकिकन फेर् लीन्या तहाँ सूर् गरी ।दोष् दीया रघुनाथले किन यहाँ " आयौ नजीकै भनी ॥अर्कोका घरमा बस्याकि भनियो दोषै दिनूभो जसै।लक्ष्मणूलाइ हुकम् दिइन् जननिले विश्वासखातिर तसै॥२९४।हे लक्ष्मण् ! तिमि अग्नि बाल अहिले ताहीँ प्रवेश् गढेछु।साँचै छु तम बाचुँला झुटि भया ऐल्हे तहीँ सदँछु॥हकृम् लक्ष्मणले तहाँ जननिको सून्या र रामूको पनि।सत् पाईकत अग्नि खुप् गरि ठुलो बालीदिया बेस् भनी॥२९५।॥सीताजी पति खुप् प्रदक्षिण गरिन् राम्को र भक्ती गरी।अग्तीको नजिकै खडा पति भइन् केही अगाडी सरी ॥दौता व्राह्यण संझि रामू्चरण को ध्यान् भिब्रि मनूमा धरिन् ।सब्का साथिभनेर अग्निसित हात् जोरी पुकारा गरिन्।।२९६।।जस्ता रीतृसित रामका चरणमा ध्यानमा रद्याकी म छु।तस्तै रीतृसित अग्नि शीतल हञन् तापै नलागोस् कछु॥ ने प्रभु के आज्ञा भरे स्वर को सुना और तुरन्त ही जमीन मे उतर पढीं ।अत्यन्त हीं प्रसन्न होकर प्रभू के चरणों मैं प्रणाम किया और सबके सामनेही आगे बढ गयौं । कायं सिद्ध होने के लिए सीता जी ने मायारूप धारणकिया था अब वह सब कार्य सिद्ध हो चुके । रावण कुल सहित समाप्त होचुका था। २९३ सीताजीतो पहलेही अग्नि मैं प्रवेश कर चुकीथीक्योंकि रघुनाथ जी ने उनके अपर दोष लगाया था कि इतने दिन परायेघर मैं रहकर आयी हुई स्त्वी शुद्ध नहीं हो सकती। उस समय सीताजीने अपनी गुद्धता का विश्वास दिलाने के लिए लक्ष्मण से कहा-- २९४हे लक्ष्मण ! तुम अभी अग्नि की चिता जलाकर तैयार करो मैं उसमेँप्रवेश कङँगी । अगर मैं शुद्ध हँ तो बच जाउँगी अन्यथा मर जाउँगी ।लक्ष्मण ने राम और सीता की आज्ञा सुनी, चिता तैयार की और उसमेंआग लगादी। एक बडी सी चिता तैयार हो गई। २९५ सीताजीने अपने हृदय मैं राम की अक्ति और प्रेम को संजोकर अग्नि की परिक्रमाकी। समस्त देवता, व्राह्माण और रामचन्द्र जी को मन ही मन प्रणामकिया। सबको साक्षी करके दोनों हाथ जोड के अग्नि को संबोधितकरके सीता जी ने कहा-- २९६ हे अग्निमाता ! तुम साक्षी हो। मेरे रेशय बोलिन् येति र अग्निमा पसिगइन्सब्को तापू सनमा भयो विरहकासीता अग्तिविषे जहाँ त पसिथिन्ब्रह्वा रुद्र समेत् सबै दहि गयाजम्मा भै रघुनाथको स्तुति गन्याब्रह्माले पनि खुप् गच्या स्तुति तहाँअग्तीर्ले पनि बिन्ति खुप् सित गच्याभूषण् वस्त अनेक् धप्याकि जननीसीताजीकत आजसम्म त यहाँ काम्को सिद्ध भया लिनू अब: हवस्, अग्तीले पनि बिन्ति बात् गरि तहाँख्ूशी मन् रघुनाथको हुन गयोसीताजीकतन काखमा लिइ तहाँभक्तीले .स्तुति इन्द्रले पनि गन्याफेर् बिन्ती शिवले खुशी भइ गज्यासीतानाथ् ! म त आउन्याछुपछि फेर् भानुभक्त-रामायण तांहाँ सिताजी जसै।बात् गर्ने लाग्या तसै॥२९७॥झ्न्द्रादि लोकृपालूहरू।जो देवता छ्न् अछ्॥सब् देवगण्ले पनि।मालिक् यिनै हुन् भनी॥९८॥रामूका चरण्मा परी ।सीता अगाडी धरी॥राखी दियाको थियाँ।सीताहजूर्मा दियाँ॥२९९॥सीता जसै ता दिया।सीताजिलाई लिया॥ठाकुर् बस्याथ्या जसै।खूशी भया सब् तसै।॥३००॥।रामूका हजूर्मा तहाँ।वाहीँ ययोध्यामहाँ॥ ध्यान भै केवल राम ही राम रहे है और हर समय रहेँगे, यदि ऐसा हैतोतुम शीतल हो जाओ और मुझे बिल्कुल भी तुम्हारा ताप न लगे। इतनाकहककर सीता जी अर्ति मैं प्रवेश कर ग्यीं। यह देखकर वहाँ सारेउपस्थित जन अत्यन्त दुःखी हुए और सभी शोकयुक्त बातै करने लगे । २९७सीताजीने अग्नि मैं जहाँ पर प्रवेश किया था कहाँ पर ईंद्वादि तथासमस्त लोकपाल प्रविष्ट थे। त्रह्माजी भी रुद्र सहित अन्य देवताओंके साथ आ पहुँचे। समस्त देवता रघुनाथ जीकी वन्दना करने लगे ।ब्रह्माजी नेभी रामकी घोर स्तुति: की और कहने लगे कि श्रीराम:मनुष्य नहीं साक्षात परमेश्वर है और तीनां लोक के मालिक हैँ। २९८श्रीराम के चरणों भै गिरकर अग्नि ने भी स्तुति की और समस्त वस्त्ाभूषणोंसे सुसज्जित सीता जी को उनके सम्मुख रख दिया और कहा कि यह बही सीता जी है जिनको आपने मुझमेँ प्रवेश कर दिया था। २९९ अग्निने विनती की कि अव सीता आफकी सेवा मैँ हाजिर हैँ। इतना' कहृकरसीताको ज्यो का त्यों राम के हार्यो मै लौटा दिया। रघुनाथजीनेः प्रफुल्लित मन से सीता को ग्रहण किया और एक राजा के समान सीताको अपने पास बैठाकर सुशोभित हुए। ऐसा सुहावना अवसर देखकर'सभी के मन प्रसन्नता से झूम उठे । ३०० शिवजी ने पुनः प्रसन्न होकर नेपाली-हिन्दी २५९ ऐले ई दशरथ् पिता हजुरका मिल्ला कि दशँन् भनी ।आया दशेंन आज बक्सनुहवस् ख्वामित् प्रभूले पति॥२०१॥यो बिन्ती शिवको सुनेर दशरथ्- जीका इजूरुमा गई।पाञमा शिर राखिबक्सनुभयो अत्यन्त खूशी भई॥आलिङ्गन् दशरथूजिले पनि गच्या तागथ्यौ मलाई भनी।बीदा भै दशरथू खुशी भइ गया फेर् स्वग लोक्मा पनि॥३०२॥ वानर्को जति फौज् सप्यो रणहुँदा ती सब् बचाञ भनी।अमृत् वृष्टि गराउनाकन हुकूम् भो इन््धलाई पनि ॥हृकूम् पाइ ति इन्द्रले पति तहाँ अमृतृ् गिराया जसै।वानर्का सब फौज् खडा पत्ति भया राम्का कृपाले तसै॥३०३॥बिन्ती ताहि गच्या विभीषणजिले रासूका चरण््मा परी।मंगलू स्तान् गरिबक्सियोस् हजुरले यो स्वानको हो घरि॥मंगल् स्तान् गरि वस्त् भ्रूषण धरी राज् आज याहरी हवस् ।सेवक् हँ करुणा निधान् ! हजुरको प्रीती म माथी रहोस्।॥३०४॥। बिन्ती सूनि हुकृम् भयो हुन त हो जान्या त हो स्नान् गरी ।क्याडँ आज घरे छ भाइ त भरत मै झैँ जटाजूट् धरी ॥ श्रीराम के समक्ष विनती की । सीता नाथ ! मैंतो बाद मैं पुनः अयोध्याआउँगा अभी तो आपके दशरथ पिता जी के दशँच पाने की इच्छा से आयाथा अतः स्वामित् ! आज प्रभु आप भी दर्शन देने की क्रपा करेँ। ३०१शिवजी की यह विनती सुनकर दशरथ जी के पास जाकर पैरो मै सिररख दिया । अत्यन्त प्रसञ्च होकर दशरथ जी ने भी आलिंगन करते हुएकहा कि मेरा भी आपने उद्धार किया । इस प्रकार प्रसन्न होकर दशरथ जीने विदा ली और पुनः स्वगैलोक को चले गये। ३०२ रणभूमि में जितनेभी वानर सेना मारै गये थे उन सब को बचाने के लिए अमृत-वृष्टि करानेहेतु इन्द्र कोभी आज्ञा दी। आशा पाकर इद्धने भी वेसे ही अमृतवृष्टि की। रामकीक्कपासे वानर सेना पुनः खड्डी हो गयी। ३०३:विभ्ीषण नेभी श्रीराम के चरणों मैं पड्कर विनती की कि यह स्वानकरने का समय है अतः आप क्या मंगलास्नान करने का कष्ट करेँ।मंगलास्तान के पश्चात् वस्ल्ाभूषणादि धारणकर आज यहीं विराजनेकीक्कपा करेँ। हे करुणानिधान ! मैं सेवक हुँ, श्रीमन की क्र्पादृष्टिमुझ पर रहे ! ३०४ विनती सुनकर कहने लगे-- है तो ठीक हो।परन्तु क्या कडै घर मे भाई भरत मेरे ही समान जटाजुट होकर बैठा २६०त्यो भाई फर राखि आज म यहाँसुग्रीव् वीर्हर छन् इ देउ तिमिले हूकूम् येति हुँदा विभीषणजिलेजस्ले जुन् चिज खोज्छ सो चिज दिई भन्नुभक्त-रामायण कुन् रीतले स्वान्_ गर्छँ।यिनूलाइ खिल्लत् वरु ॥३०५।॥।रत्नादि वृष्टी गग्या।सब् फौजको ताप् हप्या ॥ सब फोजूलाइ बिदा पनी दिनुभयो रामूले क्रपा खुपू गरी।फौज् वानर्हरुको पनी तरिगयो आनन्दमा खुपू परी ।॥३०६॥।काम् सब् सिद्ध भयो यहाँ किन बसूँ जान्छु अयोध्या भनी।सीता' लक्ष्मण साथमा लिइ चढ्या श्रीरामू विमानूमा पनि ॥सुग्रीव् अङ्झदजी विभीषण समेत् रामूका हज्र्मा थिया।तिन्लाई पनि जाउ राज्गर भनी बीदा प्रभुले दिया ।॥ ३०७॥ती सबूले तहि बित्ति खुप् सितगन्या जान्छौं अयोध्यै भनी।सब्को आग्रह देखि खूशि हुनुभो ताहाँ रमानाथू पनि॥ पुष्पक्मा चढ आज झट्ट अबलौसुग्रीव् श्रीहनुमान अङ्गद चढ्याआफ्ना मन्त्रि लिई विभीषण पनीसेना सुग्रिवका पनी हुकुमले भन्त्या हुकूम् भो जसै।पुष्पक् विमानमा तसै ।।३००॥। तेसै विमानूमा बस्या।सम्पूण ताहीं बस्या॥है इसलिये भाई को अलग रखकर आज मैं यहाँ किस रीति से स्वानकरै । सुग्रीव वीर आदि यहाँ है, इन्है तुम आश्रय दो। ३०५ ऐसीआज्ञा होने पर विश्ञीषण जी ने रतलादि की वृष्टि की। जोजिसप्रकार की वस्तु आदि चाहते थे वही वस्तु देकर सव सेनाओं का तापहरण किया। अति क्रपाकर राम ने सव सेनाओको विदाभी देदी।वावर सेना भी अत्यन्त आनन्दित हो मुक्त हो गयी। ३०६ सब कार्यसिद्ध हो चुका है-- अब यहाँ क्यों रह, अयोध्या ही चला जाताईँ।ऐसा सोचकर सीता और लक्ष्मण को साथ लेकर श्रीराम विमान में चढे ।सुग्रीव, अंगद जी तथा विभीषण सब रामही केपासथे। उन्हभीजाकर राज करने को कहते हुए प्रभु ने विदा दी। ३०७ उनसबने भी अयोध्या ही जाने के लिये विनती की। सभी के इस आग्रहको देखकर श्रीरामनाथ अप्यन्त प्रसन्न हुए। तव सबको पुष्प विमानमें चढ्ने की जैसे ही आज्ञा दी; सुग्रीव, श्री हनुमान और अंगद पुष्पबिमान मैँ चढ् गये । ३००५ अपने मत्नी को साथ भैँ लेकर विभीषण भीउसी विमान मैँ बैठ गये। सुग्रीव की सम्पूणे सेना भी आच्चानुसार वटी
, नेपाली-हिन्दी सीतानाथहरू सबै बसि रहीसेर शोभाकन वातरादि विरले २१ शोभा अधिक् गढँथ्या।देखेर छक् पढेथ्या ॥ ३०९ ॥ सेना समेत् सब विमान उपर् चढाई।.हकूम् दिया प्रभुजिले जब जानलाई ॥आकाश मार्ग गरि जान विमान धघायो। शोभा अपूवे रघुनाथदौड्यो पुष्प विमान् जसै हुकुमलेपृथ्वीको पत्ति याद् सबै हुन गयोजुन् जुन् काम जहाँ जहाँ अघिभयोसीतालाइ नजर् गराउनु भयोयो लङ्घापुरि हो अगम् छ बललेत्यो भूमी रणभूमि हो तहि मच्याताहीँ रावण कुम्भकणे त मच्यालक्ष्मण्ले तहिइन्द्रजितृकत जित्या चढ्या र पायो ॥३१०॥ ; आकाश बीच्मा पसी।तेसै विमानूमा बसी ॥याहाँ गन्याँ यो भनी। खुश् भै प्रभुले पनि ॥३११॥। को जान सक्छन् अरू।ठूला ठुला वीर्हरू॥भारी लडाई गरी।सामूने अगाडी सरी ॥३१२॥। सागरमा पत्ति हेर सेतु बलियो बाँध्याँ र सागर् तर्याँ।रामेश्वर् भनी नाम राखि शिवको स्थापन् किनार्मा गर्याँ ॥ बैठ गयी । सीतानाथ आदि सब वहाँ बैठे रहने से अधिक शोभायमानहो रहा था और उस शोभासे वीर वावरों का मन और हर्षितहोता था। ३०९ सेना सहित सबको विमान मैँ चढाकर जब प्रभुनेचलनेके लिये आज्ञा दी, विमान आकाश मागे से जाने लगा।श्रीरधुनाथ जी के विराजमान होने से विमान की शोभा और भी बढगयी । ३१० आज्ञा पाकर पुष्प विमान आकाश के मध्य से उड्ने लगातब श्रीरामचन्द्र जी को पृथ्वी की समस्त घटनाओं का स्मरण होनेलगा । जहाँ-जहाँ जो-जो काय हुआ था इस-इस स्थान पर कियागया था) कहते हुए प्रसन्न होकर प्रभु सीताको दिखाने लगे। ३११यह लंकापुरी है, अत्यन्त अगम-बलपुर्वक यहाँ कौन प्रवेश कर सकताहैँ। वह भुमि रणभूमि है, जहाँ अनेक बड्डे-बङ्के वीर योद्धा मारे गये ।वहीं पर भीषण युद्ध करके रावण और कुम्भकरण भी मारे गये। वहींलक्ष्मण ने अग्रसर होकर इन्द्रीत को भी परास्त किया था। ३१२सागर पार करने के लिए एक दृढ पुल का निर्माण किया जिसके अपरसे सारी सेना पार उतरी थी । किनारे पर शिव जी की स्थापना करकेरामेश्वर नाम रखा। उसी जगह पर चार मंत्रियों सहित विभीषण २६२ चार् सन्त्रीसँग ली विभीषण तहाँकिष्किन्धा यहि हो यसै नगरिमा वार्ता येति गर्या सिरासित र फेर्सुग्रीव्लाइ हुकूम् भयो प्रभुजिकोतारा राविहरू समेत् चढिसक्यासीतालाइ नजर् गराउनुभयो सीता ! हेर अगाडि पञ्चवटि वेस्त्यो आश पनि हो अगस्ति क्रषिकातेसै पल्तिरको सुतीक्ष्ण क्रषिकात्यो हो पर्वत चित्नकूट भरतलेजो आशस् यमुनाजिको छ तिरमागंगा हुन् इ अगाडिकी नजरलेजो देख्छ्यौ अझ झन् परै सरयु हुन्हेसीते ! गर लौ प्रणाम तिमिलेसीताजीकन येहि रित्सित सबैभारद्वाजूकन गै प्रणाम पनि गच्या आकर प्रभु की शरण में पड्ा था । भानुभक्त-रामायण आई शरणमा पन्या।सुग्रीव राजा भया ॥ ३१३।॥।तारा झिकाया पन्ि।तारा झिकाञक भनी॥ताहाँ विमानूमा जसै। वाली गिज्याको तसै ॥३ १४॥राक्षस् तहाँ धेर् मर्या।जस्ले क्रृपा खुपू_ गर्या ॥धेरै त्र्पी छन् जहाँ।भेट्नै गयाथ्या जहाँ ३ १५॥ ताहाँ भरद्वाज छ्न्।देख्तै खुशी हुन्छ मन् ॥ती हुन् अयोध्या पुरी। अक्ति मनैमा धरी ॥ ३१६ ॥खोलेरी विस्तार् गरी।जल्द्री जमिनूमा झरी ॥ यह देखो, किष्किन्धा पर्वेत है जहाँ परःबसी हुई नगरी का राज्य सुग्रीव को दिया गया। ३१३ सीताजीकेसाथ इतनी बात करके तारा को बुलाने के लिए सुग्रीव को आज्ञा हुई।उनकी आश्चानुसार तारा को बुलाया गया। तारा भी रानियो सहितजैसे ही विमान मैं चढ्ने जा रही थी उसी समय सीता जी को वह स्थानदृष्टिगत हुआ जहाँ बालि धराशायी हुआ था। ३१४ सीते! देखो !!आगे पंचबटी को देखो। वह स्थान जहां अत्यन्त बलिष्ठ राक्षसगणमारे गये थे । वह आश्रम अगस्त्य क्रषि का है जिन्होने वडी सहायताकीथी। उसी के आगे सुतीक्ष्ण का आश्रम है जिसे चित्नकूट पर्वेतकहतेःहँ जहाँ पर भरत जी हम लोगो से भेट करने आयेथे । ३१५यमुना चदी के किनारे जो आश्रम है वह भरद्वाज मुनि काहै। आगेदेखने से दुसरी गंगा नदी है जिसके दशँन मात्न से मन आर्नदित होताहै। उसकेभी आगे सरग्रू नदी है जिसके तट से लगी हुई अयोध्यानगरी है भक्तिपूर्वक शीश झुकाकर इस नगरी को प्रणाम करो । ३१६'श्रीरामचन्द्र सीता तथा लक्ष्मण सहित भरद्वाज मुनि के आश्रम मैंउनसे 'भेंट करने गये। वहां वे सब अयोध्या नगरी तथा अपने माता नेपाली-हिन्दी २६३ हात् जोरीकन सोध्नुभो अनि यहाँ सब् जन् कुशल् .छन् भनी ।वृद्धै हुन् महतारिको छ गति क्या ज्यूँदै ति छन् की भनी ।३१७॥क्याबात् भाइ ठुला भरत् पनि भया सबूका उपर् काम् गरी।चौधै वर्ष रह्या व्रती भइ ति झन् चिन्ता म-माथी गरी॥भारद्वाज् क्राषिले पनी सब कुशल थीया बताईंदिया ।हे नाथ् ! छन् कुशलै सबै भरतका मात्तै विपत्ती थिया।। ३१५ ॥ हजुर पर हुनाले रोज्ू फलै मात्न खान्छन् ।हजुर सरि खराञ गादिमा राखि मान्छन् ।।शिर भरि छ जटाजुट् वल्कलै छन् धप्याका ।फकत हजुरमा छन् प्राण अर्पण् गच्याका ॥३१९॥सब् जान्दछ्ू हजुरले पनि काम् गण्याको ।राक्षस् विनाश गरि भार् भूमिको हप्याको ॥ पिता व भाइयों का समाचार जाननेके लिये उत्सुक होतेहुँ। सीताजीको मागे मैँ आये हुए महत्वपुणं स्थानों के विषय मैं रामचन्द्र जी,विस्तारपूर्वक ज्ञान कराते हैँ। इतने मैं ही आश्रम मैं पहुंच गये ।बे तुरन्त ही पृथ्वी पर उतर गये और मुनि के पास जाकर शीत्नतासे झुककर प्रणाम किया। तत्पश्चात् हाथ जोइकर सबकी कुशलतापुछ्ते हैँ। ३१७ वे सोचते हैँ-माताये वृद्धा हो गयी होगी परःजीविततो होंगी ही। . उन्होने प्रश्न किया तथा भरत के हाल पुछे। इस परभरद्वाजजी कहते हुँ कि भरत मानवों मैं सर्वोपरि है। वे राज्य-कायंसंचालन करते हुए भी एक व्रती के रूप में रह् रहे हुँ और चितन्मनन मै ही चौदह-वर्ष प्रे कर रहे हुँ अर्थात् वे राज्य सुखो के बीचरहकर भी उनके भोग से उदासीन हैँ। शेष सबकी कुशलता के बीच्रकेवल भरत के अपर ही विपत्तियाँ छायी हुई हैँ। ३१० श्रीमान् सेदूर रहकर भरत उपवास मैं रहरहे हैँ। वे केवल फलाहार परहीजीवन निर्वाह कर रहे हँ। राजगद्दी पर आसीन आपकी पाढुकाओंमैं वे आपके ही रूपका दशैन पाकर, आपही के ध्यान मैँ खोये रहते हैँ,।सिर पर जटा-जूट धारणकर लिया है और आपके ही चरणों मै अपनेप्राण अर्पित किग्रे हुएहुँ। भरत आफके ही प्रेम मै मग्न होकरआपके ही नाम से राज्य संचालन कर रहेहुँ। ३१९ श्री भरद्वाजकहते हँ कि चौदह वर्ष वन मैं भ्रमण करके जो परोपकारी कार्य आफ्नेकिये है वह भी मैँ भलीभाँति जानता हूँ। इस.स्थान के दुष्ट राक्षसोंको मारकर आपने पृथ्वी का भार हल्का कर दिया। यहां के क्रद्षि मुत्ति २६४ भानुभक्त-रामायण हो सब् प्रसाद् हजुरको सब तत्व जान्याँ ।जो ब्रह्मा होउ त हजूर्कन आज मान्याँ ॥३२०॥। - लीला गरी हजुरले अवतार् घच्याको ।ब्रह्भादि देवगणको पनि तापू हप्याको ॥जो ई चरित्वकन खुश् भइ गान गर्छन् ।संसार् समुव्र सहजै सित पार तछँन् ॥३२१॥ ब्रह्वाजिका वचनले यहि ख्प धघारी।भार् हर्नुभो सकल रावणलाइ मारी ॥सब् लोकको हित हुन्या अरु काम् गरीनन् ।चौधै भुवन् हजुरका यसले भरीनन् ॥३२२॥ मेरो आज पवित्व घर् पनि हवस् एक् रात् यहाँ राज् गरी ।भोली जानु असल् हुन्याछ पुरिमा बिन्ती छ पाञ परी॥भारद्वाज् क्रषिले यती हजुरमा बिन्ती गच्या राज् भयो।सन्मानू सैन्य समेतको गरिलिया सम्पूर्णको तापू गयो ॥३२३॥। सभी उनके आतंक सेदवबे हुए थे। हमारे यज्ञ-पूजा आदि मे विघ्नडालनेवाले राक्षसां को समाप्त करके आफ्ने हम सभी के ञपर महानक्र्पा की है। उन प्रसाद स्वख्प तत्वों को आज जान गया हुँजोब्नह्वाहै वही आज आपको मान गये हैँ। ३२० आपकी इस मानवलीलाको जान लिया। पृथ्वी पर अवतार लेकर आपे ढुष्टों को समाप्तकिया तथा ब्रह्यादि देवगणौं के तापों का हरण किया। आपके इसचरित्नसे प्रसन्न होकर आज सभी आपकी इस महत्वपूर्ण लीला काभक्ति तथा प्रेम से गुणगान करते है। आपके ऐसे पुरुषार्थ भरे चरित्नका गुणगान करनेवाले सहज ही इस संसार सागर से पार होजाते हँ। ३२१ ब्रह्मा जी के वचनों के अनुसार आफ्ने यह् मानवरूप धारण करके रावण को मारा और इस प्रकार सारे भू-मण्डल काभार हरण किया । यह समस्त पृथ्वी शान्ति का साम्राज्य बन गयी। इसप्रकोर आपने इन कार्यो सेसमस्त लोकका हित किया। उनकीयहीमनोकामना है किइसी प्रकार लोकहित के और भी काय आप करेँजिंससे आपके यशन्गान से चौदहोाँं भुवन परिपूर्ण हाँ । ३२२इतना सब कुछ कहकर त्रहृषि ने प्रभु के चरणों मैं झुककर विचतीकिया कि आज की रात आप यहीं मेरे आश्रम में ही व्यतीत करे औरकल ही नगर को पधारेँ जिससे मेरा आश्वम भी पवित्न हो जाये यही न्ेपाली-हिन्दी २६५ हक्म् भो हनुमानलाइ हनुमान् ! लौ - शङ्गवेरुमा गई।मेरा खुपू प्रिय छन् सखा गुह तहाँ तिन्थ्यै समाचार्ू कही ॥नन्दीग्राम् गइ भाइलाइ गरि -भेट् श्रीराम आया भनी।मेरो जक्ष्मणको सिताजिहरुको सम्चार् बताञ पति।॥।३२४।।जैले काम जती गग्याँ भरतथ्यै सम्पूण विस्तार गरी।बाहाँको समचार् लिईकन फिन्या सन्ताप् सबैको हरी ॥हृकूम् यो हनुमानले जब सुन्या मातिस् सरीका बनी।जल्दी गै गुहलाइ सब् कहिदिया आया सितारामू भनी॥।३२५।॥।फेर् जल्दी सरयू तरीकन गया देख्या अयोध्या पनि।नन्दीग्राम् जब देखियो तहिगया जान्या उहीँ हो भनी ॥वैलाई रहँदा जउन्ू तरहले फूल सुक्छ फुस्रो भई।तेस्तै रैयतिको दशा नजर भो साह्०व करूणा भई ॥३२६।॥।देख्या तहाँ भरतलाइ जटा धच्याका ।श्रीरामका चरण-चिन्तन खुपू गच्याका ॥ अत्यंत शुभ होगा । प्रभू ने क्रषि की विनती स्वीकार किया और उसरात्लि वे सैन्य समेत बहीं रुक गये। भरद्वाज जी ने सब अतिथियोकासम्पूणं छूप से सम्मान सत्कार किया जिससे उनके मन को अलौकिकशान्ति मिली । ३२३ प्रभु ने हनुमान जी को आज्ञा दी कि तुरन्त श्यंगवमचले जाओ और वहाँ मेरे परम मित्र गुहुसे सिलो। उनसे कहनाकिवे नन्दी ग्राम जाकर भाई से मिल ले और मेरे आने का समाचार भी कह्दै । मेरे साथ लक्ष्मण एवं सीता के समाचार भी अवगत करा दे। ३२४यहाँ वन मैँ रहृते हुए मैँने जो कुछ भी कार्य कर डालेवेसब भरतकोविस्तार-पूवंक समझा दैं। इस प्रकार वहाँ के सब समाचार लेकरतथा उनको हमारे कुशल समाचार देकर समस्त जनों के मन को शीतलकरके तुम तुरन्त यहाँ लौट आओ । हनुमान ने जब यह आदेश सुना तोवे तुरन्त मनुष्य रूप को प्राप्त हो गये और गुह के पास पहुंचे तथा रामलक्ष्मण सीता, सहित सबके वहां पहुँचने का समाचार दिया । ३२५पुनः शीश्रता, से जाकर सरग्रू पार किया और अयोध्या नगरीका भीअवलोकन किया। नन्दी ग्राम जव देखातो मन मे सोचा कि यहींजाना है अतः वे वहाँ गये। उन्होने देखा समस्त जनता की ऐसी दशा हो गयी है जिस प्रकार मुझाया हुआ फूल सुखकर पीला प् जाता है। जनता की यह दशा देख उनका मन करुणा से भर उठा।॥ ३२६ उन्होने देखा भरत सिर पर जटा रमाये श्रीराम के चरणों में स्वयं को अघित २६६ भानुभक्त-रामायण रामूका खराउकन मालिक जानि मानी। हक्म् दिदा फ्नित सेवक आफू जानी ॥३२७॥। सब् गेस्वा पहिरि सन्ति पनी बस्याका । रामूको भजन् तिर त कम्मर खुप् कस्याका ॥ देख्या भरत्कन र खुश् भइ हात जोडी । बिन्ती गचन्या भरतका सब ताप तोडी ॥३२०॥जस्को चिन्तन गर्नुहुन्छ महाराज् सो नाथ् सिताराम् पनि ।आई पुग्नुभयो मलाइ अघि जा भेट् भाइलाई भनी॥हुकम् भो रघुनाथको रम यहाँ आयाँ हृकृमूले गरी।सीता लक्ष्सणले सहित् कुशल छन् त्ैलोक्यका नाथ् हरि ॥३२९।॥।येती वीर्हरु साथ छन् भन्ति कुशल् विस्तार् सुनाया जसै।खूशी भैकन अख्कुमाल् पनि गप्या ताहाँ भरतूले तसै॥राम्को सुग्रिवको कहाँ हुन गयो भेट् सब् बताञ भनी।सोध्या ताहि भरतृजिले र हुनुमान्- ले सब् बताया पनि॥३३०॥सुग्रीब् सीत मित्यारि गर्नु पनि भो साहाय सुग्रीव् भया।लंकामा रहिछन् सिता र रघुनाथ्ू ज्यूका सँगै ती गया॥ किये हुए चिन्तन में ड्बे हुए हैँ। राम की पादुकाओं को ही स्वामीमानकर रखा है उन्हीं की पूजा उत्तम समझकर कररहेहुँ। राज्यशासन की आज्ञा पाकर भी वह स्वयं को सेवक ही जानते हैँ। ३२७भरत जी गेरुए वस्त्र धारणकर एक यती के समान प्रभु के ध्यान मेंमग्न हैँ। चितन भजन मैँ कमर कसकर बैठे हुए भरत को प्रसन्नतापूर्वेक हाथ जोडकर प्रणाम किया तथा उनके ध्यान को भँगकरविनती किया । ३२८ हे महाराज ! जिसके ध्यान मैं आप खोयेहुए हँ वे नाथ सीता-राम भीआ गये हैँ। आगे जाकर भाई से भेटकरने का आदेश पाकर ही मैं यहां आयाहूँ। उन्होने यह समाचारआपके पास भेजा है सीता, लक्ष्मण सहित प्रभु कुशलपूर्वक हँ। उनकेसंग अनेको अन्य वीर भी हैँ। ३२९ इतने वीर आदि साथ में कहतेहुए कुशल समाचार सविस्तार सुनाया जिसे सुनते ही भरत जी नेप्रसन्न होकर उन्है आलिगन बद्ध कर लिया। उन्होने पूछा कि रामऔर सुग्रीव की भेंट कहाँ और किस प्रकार हुई सब विस्तारपूवंक कहो ।तो हनुमान ने भी विस्तार-सहित सब कह सुनाया । ३३० हनुमाननेभरत को बताया कि सीता को रावण ने हरण किया और अत्यन्त नेपाली-हिन्दी सीता रावणले हरेछ र बढहुत्सीताजीकन खोजि खोजि रघुनाथूलंमामा गइ भारि युद्ध गरियोलंकामा अधिराज् विभीषण गरी सब् विस्तार् हनुमानदेखि रघुनाथू, आईलाइ हुकूम् दिया नगरिको हे शब्र्ध्न ! गराउ सब् नगरिकोसब् देवालयमा पुजा अब गरून्सुत् वैतालिक बन्दि जनूहरु समेत्सब् जाउन् रघुनाथका हजुरमाभारी फौज लियेर सन्तिहरुलेब्राह्वाणूलाइ अगाडि लायर हिड्न्हकूम् येति दिया तहाँ भरतलेहात्मा भेटि लियेर लश्कर चल्यो २५७ दुःखी ' सरीका भई।फेर् क्रष्यमूक्मा गई॥ २३३ १।।सब् रावणादी गिच्या॥श्रीराम् अयोध्या फिन्या-॥ज्युका सुन्याथ्या जसै।संस्कार-खातिर् तसै।।३३२।॥।संस्कार् अगाडी सरी।नाना विधानूले गरी ॥तिस्कून् ति कस्वीहरू ।जो जो यहाँ छन् अरू ॥३३३।॥। सब् राजपत्तनी लिया।सब्लाइ अर्दी दिया॥हुकम् बमोजिम् गरी।खुप् हँ भो तेस् घरि ॥३३४।। दुःखित होकर प्रभु सीताको खोज रहे थे और उसी समय सुग्रीव भीउनके साथ सीता की खोज सें क्रष्यमुक गये। इस प्रकार सुग्रीव औररघुनाथ की मित्रता घनिष्ट होती गयी । ३३१ हनुमान ने बतायाकि लंका जाकर भीषण युद्ध करके रावण को मौत के घाट उतारदिया। तत्पश्चात रावण के भाई विभीषण को वहां का राज्य सौँपकरश्वीरामचन््ध जी अयोध्या को लौटे हैँ। इस प्रकार हनुमान द्वारा सविस्तारहालचाल ज्ञात होते ही भरत जी उठे और रामचन्द्र जी के स्वागताथेप्रबन्ध मै लग गये । उन्हेँ बङ्के सत्कार के साथ नगर मैं लाने की आज्ञासारे नगर मैं देदी। ३३२ हे शत््ध्न। आगे बढो और नगरमेराम-आगमन की शुभ सूचना दो तथा भलीभांति वगर को सजाने काप्रबन्ध करो। कह दो सभी देवालयों मैं विधिवत् पूजा-हवन प्रारम्भ होजाये। सभी नौकर, चाकर तथा बन्दीजन जो उपस्थित हँ वह इसीसमय शीघ्र जाकर श्रीरघुनाथ के चरणों मैँ पड् जाये। ३३ईश्रीराम-आगमत की शुभ सूचना सारी अयोध्या नगरी मैँ फैल गयी ।असंख्य सेनानियों को लेकर समस्त मसंत्वीगग सपत्तीक चल पड्े।ब्राह्वाणों को आगे रखकर सबै लोगो को चल पड्ने की आज्ञा हुयी।भरत की आज्चञाचुसार सब लोग हाथो मैं पुजा-सामग्री तथा भेंट-सामग्रीसहित अत्यन्त प्रसच्चतापवंक चल पड्े। ३३४ श्रीरासचन्द्र जी के २६८ भानुभक्त-रामायण श्रीरामूचन्द्रजिका खराउ शिरमा राखी तयारी भया॥भाई साथ लिई भरत् प्रभुजिथ्यै हीडेर पेदल् गया॥आयो श्रीरघुनाथको पत्ति विमान्ू चन्द्रै सरीको बनी।देखाया हनुमानले प्रभुजिको तेही विमानू हो भनी ॥३३५।॥।देख्या श्रीरधुनाथको जब विमान् की्तैन् सबैले गगम्या।घोडामा रथमा जती विर थिया ती सब् जमीनमा झभ्या ॥पृथ्तरीमा। नझरीकनै प्रभुजिको दशैन् मिलेथ्यो जसै।टाढैबाट गन्या प्रणाम् भरतले खुप् हर्षे मान्या तस ॥३३६॥आईलाइ विमानमा लिनुभयो ताहीँ जमीनूमा झरी।फेरी जल्दि पच्या भरत् चरणमा साष्टाङ्ग - सेवा गरी ॥काखमा पनि राखिबक्सनुभयो रामूले भरत् खुश् भया।सीताजीकन दण्डवत् गर भनी साम्ने अगाडी गया ॥३३७॥।ख्वामित् ! हँ म भरत् पच्याँ चरणमा यस्तो पुकारा गरी।सीताका पनि पाउमा परिगया आनन्द सागर् परी ॥ लक्ष्मण् लाइपनी प्रणाम् तहि गच्याआलिङ्गन् गरि सुग्रिवादि विरको कामले बडा छन् भनी।दिल् खुश् गराया पर्नि॥३३०%॥ खड्डाँ सिर पर रखकर अपने भाई को साथ लेकर भरत जी पैदल ही चलपढे और दौडते हुए जाकर प्रभु के पास पहुँचे । श्रीरघुनाथ का विमानभी चन्द्रमा के विमान के समान आ गया। हनुमान ने उसी विमानकीओर संकेत किया, कहा कि यही प्रभु जी का विमान है। ३३५श्रीरघुनाथ के विमान के दशेन करते ही सबने एक साथ कीतेन,आरम्भकिया। घोडों तथा रथों पर सवार समस्त वीर उतरपड्रे। पृथ्वीपर उतरने से पूव ही प्रभु के दशैन मिल गये। भरत ने दूर से देखकरही प्रणामकर हर्णोल्लास प्रगट किया । ३३६ पृथ्वी पर उतरकरभाई को आदर सहित ले जाकर विमान मै बिठाया और भरत जीनेतत्काल ही श्रीराम के चरणों मै पड्कर साष्टांग दण्डवत् किया। रामवै प्रेम-विभोर हो उन्है गोद मै उठा लिया। ऐसा प्रेम-आलिगनपाकर भरत हर्षोन्माद मैं ड्रृब गये। पुनः वे सीता जी को दण्डवत् करनेके उद्देश्य सेआगे बढे । ३३७ स्वामिन ! आपके चरणों मैं गिरा हुआमैं भरत हूँ, ऐसा कहते हुए भरत ने सीता जी के पाँव पकड लिये औरआनन्द-सागर मैं डूव गये। वहीं उन्होँने लक्ष्मण को भी प्रणाम कियाक्योंकि कतँव्यपरायण होने के कारण वै वरिष्ठ हैँ। तत्पश्चात् सभी नेपाली-हिन्दी सुग्रीवादि जती त वातर थियासोध्या प्रश्न कुशल् सबै भरतकोमर्जी सुग्रिवलाइ तेस् बखतमायाहींबाट दया भयो प्रभुजिको चारै भाइ थियौं: अगाडि अहिलेभाईका झइँ यो सहाय नभयायस्ता प्रेमृसित बातृ गच्या भरतलेश्रीराम्चन्द्रजिका पप्या चरणमा लक्ष्मणूजीकन दण्डवत् गरि सितासेवक् छुँ करुणानिधान् ! हजुरकाश्रीराम्चन्द्रजिका खराउ शिरमाबेला भो पनि पाउमा भरतलेहात् जोरी वितती गच्या पनि तहाँयो गादी लिइबक्सियोस् हजुरले २६९ ती माविसै, झैं भई।आफ्नू कुशलू सब् कही ॥यस्तो भरतूको . भयो ।सब् शब्नुको ज्यान् गयो॥।३३९॥।पाँचौं हुनूभो . यहाँ।राक्षस् जितिन्थ्या कहाँ॥सुग्रीवजीथ्यें गई।॥शत्नुघ्न खूशी भई ॥३४०॥ ज्यूका चरण्मा पन्या।यो ताहि बिल्ती गन्या ॥राखी गयाका थिया।॥ ताहीं लगाई दिया ॥३४१।॥।,नासो लियाको थियाँ।ऐले हजूरुमा दियाँ॥ को प्रेम विभोर हो आलिगन करके सबको आनन्दित किया ।तथा अच्य वीर उनके आलिगन से अत्यन्त हृषित हुए । ३३०८ सबकी कुशलता पुछी।मनुष्य केकराया । सुग्रीवभरतने सुग्रीव आदि जितने भी वानर थे सभी .नेसमान होकर अपनी-अपनी कुशलता से उन्है परिचितसबकी वीरता की कहानी सुनकर भरत जी उन सबके प्रति अत्यन्त क्रृतज्चञ हुए और कहने लगेकि देप्रभुजी ! आप लोगोकीहीदया से हमारे समस्त शलुओ का नाश हुआ है। ३३९ वे कहने लगेपह्ले हुम केवल चार भाई ही थे अब पांच आप हुए। भाई के समानयदि आप सहायर्क न होते तो राक्षसों पर विजय किस प्रकार मिलती,।,तत्काल हौ सुग्रीव के निकट जाकर उन्होने इस, प्रकार प्रेमपर्वेकवार्तालाप किया । श्रीरासचन्द्र जी के पास जाकर शब्नुघ्न भी उसी समयउनके चरणों मैं पड्कर अत्यन्त प्रसन्न, हुए । ३४० लक्ष्मण जी को भरतने दण्डवत् की और सीता जी के चरणों मैँ गिरकर कहने लगे, हे करुणा-तिधान मैं आपका सेवक छूँ। इस प्रकार विनती, करके वे राम की ओरअग्रसर हुए और जो राम की पाढुकाये अपने सिर पर रखकर लागेथेउन्हेँ उचित अवसर देखकर उनके चरणों मैं पहना दिया। ३४१ उनकरेचरणों में पाढुकाये धारण करवाकर वे विनती करने लगे-हे प्रभ् ।आपकी यह राजगद्दी मैने अमानत के रूप में सुरक्षित रखी है आज यह: २७० सब् कोश्मा पति अन्नको र धनकोराख्याको छु दयातिधान् ! हजुरकोयो' बिन्ती खशिले तहाँ भरतलेदेख्या भक्ति भरतुजिको खुशि भईनन्दीग्राम् पुगि उत्विबक्सनु भयोपुष्पकूलाइ बिदा पनी दिनुभयोताहाँ श्रीरघुनाथ् वशिष्ठ गुरुकायाहाँ राज्गरिबक्सियोस् भत्ति असलूआसतूमा गुरुलाइ राखि नजिकैपाया दर्शन रामको र सबकोकैकेयी र भरत् मिलेर रघुनाथ्हात् जोरीकन राज्य अपँण गस्याजसूले एक कटाक्षले सहज योजो ऐश्वयँ छ इन्द्रको उ पत्ति एक्यस्ता शुद्ध अनन्त पूर्ण सुख रूप्क्या राज् गर्नु थियो तथापि लिनुभो सब कुछ आपको सौंँप रहाहृ अब राज्य सम्पदा पुनः स्वीकार करने की क्वपा करेँ। भानुभक्त-रामायण दसू खण्ड बढ्ता गरी।सेवाविषे मत् धरी ॥३४२।॥। सास्ते गप्याथ्या जसै।सम्पूर्ण रोया तसै॥ठाकुर् जमीनूमा पनि। कूबेरथ्यै जा भनी ॥३४३।॥।पाञ नमस्कार् गरी।आसन् अगाडी धरी ॥आसन् विषे राज् भयो।सम्पूण सन्तापू गयो ।॥॥३४४।। ज्यूाका चरणूमा परी।बिन्ती बहूतै गरी॥ब्रह्माण्ड सब् हदेछन्।क्षणमा तयार् गद छन्।। ३४५।॥।ब्रह्ा स्वरूपूले पनि।खूशी हउन् ई भनी॥आपही इसे संभालेँ। यह सारी समस्त भंडार तथा कोषागार मैँ अन्न तथा धन को दस गुना वृद्धि करके, मैँ केवलश्रीमन् का ध्यान धर के सम्हालता रहा छुँ । ३४२ भरत की ऐसी भक्तिपुणँ विनती सुनकर वहाँ के समस्त उपस्थित जन रो पड्गे। नन्दी ग्रामपहुँचकर भगवन् भी पृथ्वी पर उतर पड्रे। पुष्पक को कुवेर के पासजाने की आज्ञा देकर विदा दे दी । ३४३ श्रीरघुनाथ जी गुरु वशिष्ठ के पासपहुँचे और उनके चरणों मैं गिरकर प्रणाम किया। गुरू की ओर एकउत्तम आसन बढाकर उनसे विराजने का अनुरोध किया। स्वयंभीउनकै आसन के ही निकट आसन ग्रहृण किया। समस्त उपस्थित जनउनके पावन दशैनों को पाकर पापोंसे मुक्त हो गये । ३४४ ककेयीऔर भरत दोनों ही रघुनाथ जीके चरणों मैँ नत हो, हाथ जोड्करराज्य-पाठ सौंँपते हुए विनीत भाव मैं डूव गये। ऐसे महाशक्ति-शाली प्रधु जिनके संकेत मात्न से सारा ब्रम्हाण्ड हिल उठ्ता है तथाइन्द्र के ऐश्वयं की भी रचना क्षण भ्र मैँकर देते हैँ। ३४५ ऐसे शुद्धअनन्त सुखसागर प्रभु जिनमेँ ब्रम्ह भेद छुपा पड्ा है जिसका पता कोई ' तेपाली-हिन्दी पैल्है स्नान् भरतादिले जब गचप्यास्नान् सीतापतिको पछी तहि भयोमाला चन्दन वस्त्र हार पहिरी २७१ क्षौरले जटा साफ् :गरी ।तेस्तै प्रकारले गरी ॥३४६॥आसन् विषे राज् भयो। रास्को स्वान् र सिताजिको तहिसँगै हुँदा सबै ताप् गयो॥सीताराम् रथमा सवार् हुनुभयो सुग्रीव् विभीषण्हरू ।“ हात्तीमा रथमा सवार् हुन गया घोडैमहाँ क्वै अरू ।।३४७॥।राम्का सारथि ता भरत् हुन गया सेवा म गर्छु भनी।सेतो छत्व लिया बहुत् खुशि हुँदै शबृध्नजीले पनि ॥षङ्खा लक्ष्मणले लिया प्रभुजिको सुग्रीवने ता चेँवर्।अर्को चामर एक् विभीषणजिले खूशी भया सब् अवर्॥ ३४८॥मानिस्ले त बखान् कहाँतक गर्छ सब् देवताले पनि।रम्को कीतँन खुप् गण्या र सुनियो मीठो सधूरो ध्वनि ॥ भेरी शङ्ख मृदङ्ग आदि नगराश्वीराम्को पत्ति कुच् भयो रथ चढी खुपू बज्न लाग्या पनि।जाञँ अयोध्या भनी ।।३४९॥ नहीं लगा सका, उन्हैँ क्र्या राज्य करना था उन्होने तो सबके संतोषकेलिए भरत द्वारा सौँपे हुए राज्य भार को स्वीकार किया। सर्वप्रथमभरत ने स्नान किया और अपनी जटाओं का कर्तन किया । उसी प्रकारसीतापति रामचन्द्र जी नेभी स्तानादि करके छुटकारा पाया । ३४६रामचन्द्र जी सीता सहित स्नानादि से निवृत्त होकर वस्तादि धारण किये-।उन्होनि चन्दन से अपना अंग सुगन्धित किया तथा मालाओं से सुसज्जितहृुए। तत्पश्चात प्रभु सीता सहित आसन पर आख्ढ हुए जिससे वहाँके उपस्थित जनों के हृदय का सारा दुःख भूल गया और वहाँ एक सुखपूर्णवातावरण बन गया। सीताराम रथ मैं सवार हुए। सुग्रीवविभीषणादि हाथी व रथ पर सवार हुए। अन्य लोग घोडों पर सवारहो गये । ३४७ भरत ने कहा मैं आपकी सेवा कखंगा और उनके सारथीबकर उनके रथ पर बैठ गये । गशतल्नुघ्न ने अत्यन्त प्रसन्न भाव से छत्नहाथ मैं धारण किया। लक्ष्मण ने प्रभ् पर पंखा झलने का काम लियाऔर सुग्रीव ने चंवर डूलाने का कतँव्य पालन: किया।एक औरँचंवर लेकर विभीषण भी तत्पर हो गये। ऐसे आनन्दमयवातावरण मैं अन्य सभी लोग आनन्द-- विभोर हो गये । ३४८ ऐसे समयमै मनुष्य द्वारा किये गये कीर्तन भजन का वर्णन कहाँ तक किया जागेयहां तक कि देवताओं ने भी प्रसन्न होकर कीतेन-भजन अत्यन्त मधुर ध्वत्तिमै गाया। घंटा, शंख, मूदंग तथा नगाड्डा आदि भी बज उठे । श्रीराम चे २७२ श्रीरामूको पुरिमा प्रवेश् जब भयोनिस्क्र्या बालक वृद्ध दशैन गरौंदेख्या श्रीरघुनाथलाइ रथमाश्यास् सुन्दर् छ शरीर् किरीट शिरमालाल् छन् नेर विशाल खुप् हृदयवेस्शोभा चन्दन पुष्पको पनि छ वेस्सुन्या स्त्ीहरुले पति शहरमासब्को चञ्चल चित्त भो र बहुतैछोड्या काम् घरको चढ्या गृह-उपर् भावुभक्त-रामायण सबू पौरवासी, पनि।हेरौं तमाशा भनी ॥थीया पिताम्बर धरी । भूषण् शरीर्मा भरी ॥॥३५०।।बेस् मोतिका हार छन् ॥देख्तै भयो खूशि मन् ॥आया सिताराम् भनी।हेरौं सिताराम् भनी॥३५१॥।सब् स्त्री अटाली गई। लावा पुष्प गिराउँदै प्रभुजिको दर्शन् गन्या खूश भै॥ रामूको मोहनमुतिमा जब नजर् सब् स्त्वीहृरुका पच्या।खूशी भैकन अञ्घुमाल मनले सब् स्तीहरुले गन्या॥३५२।।ईषत् हास्य गरी प्रजाकन नजर् दींदै रमानाथ्ू पनि। दर्वार् पौँचनुभो जहाँ त दशरथ् वस्थ्या उहीँ जाँ भनी ॥ रथ मैं चढ्कर अयोध्या जाने की आज्ञा दी । ३४९ श्रीरामने अयोध्याचगरी मैं जैसे ही प्रवेश किया समस्त नगरवासी उनके दशँनाथ दौडपढें । वालक, वृद्ध सभी उस उत्सव पूर्ण मेले को देखने के लिए निकलपड्गे। श्रीरामचन्द्र जी पीताम्बर धारण किए हुए रथ पर विराजमानथे। श्यामलगात में अत्यन्त सुन्दर आभ्ूपण चमक रहे थे तथा उनकेशीश पर मुकुट शोभायमान हो रहाथा। ३५० सारी अयोध्या नगरीमैं राम के आगमन की सूचना फैल गयी । स्तलियों ने भी इस शुभ सूचनाको पाया जिससे उनके मन प्रभुके दशंनों के लिये आतुर होउठे।श्वीरामचन्द्र की शोभा अतुलनीय थी । ' उनके विशाल एवं गुलाबीनेत्र अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। उनके वक्षस्थल पर उत्तम मोतियोंकी माला शोभायमान हो रहीथी। उनके चारों ओर चन्दन तथापुष्पों की वहार थी जिसे देखते ही मन प्रसन्नता से प्रफुल्लित होउठता था। ऐसे मनोरम रूप को देखने के लिये समस्त स्त्ी-दलव्याकुल हो उठा। ३५१ सभी स्तलियों ने तुरन्त घर के धन्धों को छोडदिया और अंची-अंची अट्टालिकाओ पर चढ् गर्यौ। प्रेमानन्द से उमंगितहोकर लावा तथा पुष्पों को वे लोग पावन रूप के ञपर बरसाने लगी ।हृदय मैं प्रेम से ओत-प्रोत होकर वे प्रभुके दशैन करने लगी । जिसनेउस भव्य रूप के दंशंन किये, मन ही मन उनके आलिंगन का अनुभवकरने लगी । ३५२ इसी प्रकार प्रजाजनों पर दृष्टिपात करते हुए वेपाली-हिन्दी कौसल्याहरुलाइ योग्य रितलेसुग्रीव्को पनि वास् खटाउनु भयो सुग्रीव्जीकन राख भाइ तिमीलेसबूलाई तिमिले खटाउ बढियाहकृम् येति हुँदा तहाँ भरतलेसब्को वास खटन् भयो सब तहाँ आफैँ श्रीरघुनाथ् हुक्म् अब गरुन्सुग्रीव्लाइ अह्वाउनू पनि भयोहे सुग्रीव ! खटाउनू अब पच्योचारौंतफै गई समुद्र पुगि जल्श्रीरामूचन््रजिलाइ राज्य अभिषेक्मर्जी भो र भरतूजिको उहि बखत्जलु लीनाकन जास्बवान् र ह्नुमान्पौँच्या जल्दि समुद्रमा सहज जलु २७३ ताहाँ नमस्कार् गरी।साह्ले पियारो गरी ॥३५३।॥।पैल्हे म बस्थ्याँ जहाँ।घर् बस्तलाई यहाँ॥सोही बमाजिम् गग्या।आनन्दसागर् पच्या ।।३५४।। यो मन् भरत्ले गरी।खुश् भै अगाडी सरी॥वीर् वीर् विचार् खुप् गरी ।ल्याउनू कलश्मा भरी॥३५५।॥।गर्या बखत् भो भनी।ल्याई दिया जल् पनि ॥अंगद् सुषेण् चार् गया ।लीयेर दाखिल् भया॥३५६॥। श्रीरामचन्द्र जीने दरबार में प्रवेश किया और उसी जगह पहुँचे जहांराजा दशरथ विराजते थे। उन्होँतनि माता कौशल्या से मिलकर यथा-योग्य रीति से उन्हेँ प्रणाम किया तथा सुग्रीव के रहने की व्यवस्था करनेका आदेश दिया । ३५३ उन्होने कहा, हे भाई ! जहाँ पर मैं रहता थावही स्थान सुग्रीव के लिये उचित होगा । यह प्रबन्ध करने के लियतुरन्त सबको भेजो। आश्ञा पाते ही तुरन्त ही भरतजी नेरामकीइच्छानुसार सारी व्यवस्था कर दी। सब लोग उचित निवास स्थानपाकर विश्वाम करने लगे और ऐसे सुखद मिलन की बेला मैं सभी लोगआनन्द मैं डूव गये। ३५४ भरत तेसारे आदेशों का पालन कियाऔर पुनः उनके आदेश की प्रतीक्षा मै खड्ेहो गये। उन्होने अग्रसरहोकर सुग्रीव से अनुरोध किया कि हे सुग्रीव ! अब हमेँ जल की व्यवस्थाकरनी चाहिये और इसके लिये चारो दिशाओ मैं वीरों को भेजना होगाजिससे वे समुद्रों तक पहुँचकर कलश मैं जल भरकर ले आयें । ३५१ जललेने के लिये जाम्ववन्त, हनुमान, अंगद तथा सुषेण नामक वीर गये ।वे शीघ्रता से समुद्र तट पर पहुँचे और जल भरकर ले आये। भरतजी ने वीरों द्वारा लाये गये जल को लिया और श्रीरामचन्ध जी के राज्या-भिषेक की तैयारी मैँ लग गये। ३५१६ भरत जी जल लेकर गुरु २७४ त्यो जल् साथ लिई बशिष्ठ गुरुकायो हो चार समुद्रको जल भनी फेर बिन्ती करजोरि खुप् सित गच्याश्रीरामूचद्जिलाई राज्य अभिषेक् यस्तो बिन्ति सुनी वशिष्ठ गुरुलेश्रीरामू्चद्धजिलाइ राखनु भयोगौतम् वाल्मिकि वामदेव इ समेन्ती सबूले सँग भै वशिष्ठ गुरुले कन्या ब्राह्वाणले पनी तुलसिद॒ल्मन्त्नै पुर्वेक खुशि भैकन छ्यासेतो छत्न लिया तहाँ प्रभुजिकोसुग्रीवूले र तहाँ विभीषणजिलेमाला काञ्चन वायुले पति दियावाना रत्न खचित् गरायर दियागाउँछन् ताहि देवतागणहरूवर्ष्यो खुपू सित पुष्पवृष्टि नगरा भानुभक्तनरामायण साम्ने भरतृजी गया।यो बिन्ति गर्दा भया ॥यै जलू इजुर्ले छ्री।दिनू हवस् यस् घरि।॥३५७।॥। वेस् बिन्ति गछौं भनी।सिहासनैमा पत्ति ॥जावालि ताहीं थिया।जल्दी अभीषेक् दिया॥३५०।॥। हालेर कुश्ले असल्।रासूका उपर् शुद्ध जल् ॥गन्नुघ्नजीले गई ।हाँक्याचमर् खुश् भई।॥।३५९॥। हार् इन्द्रजीले पति।॥पैख्न् सिताराम् भनीसब् अप्सरा नाच्तछन् । बज्दा भयो खूशी मन्।॥३६०॥। बशिष्ठ जीके समक्ष गये और विनीत भाव से बताया कि यह चारसमुद्रो का जलहै। उन्होने उनसे नम्न निवेदन किया कि आप इसजल को छिइककर शीश्रातिशीघ्र श्रीरामचन्द्र जी का अभिषेक करेँऔर इस शुभ कायं को सम्पन्न करने की क्रृपा करेँ। ३५७ भरत जीकीविनती सुनकर गुरु जी ने कहा ठीक है और उन्होने उसी समय श्रीरामको सिंहासन पर बिठाया । गौतम, बाल्मीकि, बामदेव एवं जावालिसब बहीं उपस्थित थे। उन सब ने मिलकर गुरु जी के साथइसशुभ कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न किया । ३५०५ त्रम्हचारी ब्राह्वाणोंने भी प्रसञ्च होकर मन्त्ोच्चारण करते हुए कश से तुलसी-दल तथा जलइत्यादि लेकर श्रीरामचन्द्र जी के ञपर छिड्का। शबृध्न ने उसीसमय श्वेत छत् लेकर प्रभू के ञपर लगाया। आनन्द तथा प्रेम मैं डुब-कर सुग्रीव और विभीषण ने भी चंवर ड्लाया। ३५९ वायु ने कंचनहारप्रभु को पहनाया तथा इन्द्र ने प्रसन्न होकर रत्तजटित हार सीतारामको पह्नने के लिये भेट किया । देवगण गीत गा उठे तथा अप्सरायेँनाचने लगी, आकाश से पुष्प वर्षा होते लगी तथा नगाडों की ध्वनि गूंजउठी । समस्त वातावरण एक अद्भुत रस मैँ डूब गया । ३६० नेपाली-हिन्दी २७५ गम्भीर् श्यामशरीर् किसीट्् छ शिरमा माला पिताम्बर् धरी।कोटी कामसमान सुन्दर स्वरूपू वामूतर्फ सीता धरी ॥सिहासन् बसि सब् प्रजातिर नजर् दीन् भएथ्यो जसै।दशैव् गने भनेर पावेति समेत् आया सदाशिव् तसै॥३६१॥। डिमू डिम् शब्द भयो तहाँ डमरुको नन्दी र भ्रृङ्ची पनि।ताल् वेतालूहरु नाच्न लागि तगया आया सदाशिव् भनी॥शम्भुका पछि देवगण् सब तहाँ आएर हाजिर् भया।श्रीरामको स्तुति खुप् गरेर खुशि मै सब् जल्दि फर्की गया ॥३६२।॥। बाजा खुप् शब्द गछन् स्तुति गरि क्रषिगण् देवगण् पाउ पर्छन् ।वषेन्छन् पुष्प वृष्टि प्रभु-उपर अनेक् प्राणिले सौख्य गर्छन् ॥सिंहासन्मा विराजूमान् सकल गुणनिधानू राम् हूनूभो जसै ता।सीता लक्ष्मण् सँगै छन् प्रभुकन हुनगो पूण शोभा तसै ता ॥३६३।। राजा श्रीरघुनाथ् हुँदा पृथिविमा सस्यादि खूबै बढ्यो।थीयानन् अति गन्ध जौन फुलमा तिनमा सुगन्धी चढ्यो ॥ राज्याभिषेक के समय श्यामलगात श्रीरामचन्द्र जी के बायीं ओरसुमुखि सीता उनकी महारानी बनकर विराज रही हैँ।प्रभु के तन मैं पीताम्बर तथा वक्षस्थल पर सुन्दर मालासुशोभित हो रहीहै। उनके मस्तक पर राज्य मुकुट चमक रहाहैँ। राज्य सिंहासन पर सीता सहित सुशोभित प्रभु ने समस्त प्रजा परएक दृष्टि भर देखने की क्र्पा की। उसी समय उनके दशँनों की' अभिलाषा से श्री शंकर पाती के साथ उपस्थित हो गये । ३६१उनके पहुंचते ही उनके डमछु के डिम-डिम स्वर की ध्वनि गूँज उठी।नन्दी और भूगी तथा ताल वेताल उनकी उपस्थिति का आभास पाकरनृत्य कर उठे । ततृपश्चात अन्य देवगण भी वहाँ पहुँच गये। सभीनेमिलकर बडे हषं के साथ चाचते गाते हुए श्रीराम के राज्याभिषेक केअवसर पर धूमधाम से उत्सव सम्पन्न किया। तत्पश्चात् सन्तुष्टमन से अपने-अपने निवास स्थान को लौट गये। ३६२ सकलगुण निधानश्रीरामचन्द्र जी सीता तथा लक्ष्मण के साथ जैसे ही सिंहासन पर विराजे,सम्पू्णे दुश्य एक अद्भुत शोभाको प्राप्त हो जाता है। बाजे गाजोंकातीब्र स्वर गूँज उठा। समस्त क्रहृषिगण स्तुतिकर उनके चरणों मैंपड् जाते हैँ। अनेकों प्राणी सुख का अनुभव करते हैँ। प्रभु के अपरपुष्प-वर्षा होने लगती है । ३६३ श्रीरधुनाथ के आधीन राज्य होते ही २७६ धेनदान् वृषदान् गण्या प्रभुजिलेवस्व्ाभूषण रत्न दान् पनि गन्या भानुभक्त-रांमायण तीस् कोटि सुन् दान् गरी ।दारिद्रय सब्को हरी ॥ ३६४ दानूले ब्राह्मण खुश् गराइ रघुनाथू सुग्रीवलाई पति ।माला सूर्य समानको दिनुभयो दीन् उचित् हो भनी ॥सर्याद् खुप् गरी बाजु बन्ध दिनुभो अङ्गद्ृजिलाई पत्ति ।ताहीं एक अमूल्य हार् दिनुभयो सीताजिलाई पत्ति ॥३६५।॥।सीताले हनुमानलाइ दिन सुर् बाँधेर हात्मा लिइन् ।कस्तो हुन्छ हुकूम् भनीकन नजर् ख्वामितृतरफृखु पृदिइन् ॥जस्लाई दिन मन् छ देउभनियो हूकृम् भएथ्यो जसै।प्यारा श्रीहनुमान् थिया तहि दिइन् त्यो हार् सिताले तसै।॥३६६॥।झन् दर्जा हनुमानको तहि बढ्यो फेरी प्रभूले पनि । क्या माग्छौ वरदान माग तिमिले दिन्छम त्यो वर् भनी॥ हृक्म् बक्सनुभो तहाँ र हनुमान् खुश् भै अगाडी सप्या।जो माग्न मनमा थियो हजुरमा ह्वात् जोरि बिन्ती गत्या॥३६७।। सारे राज्य मेैँ -सुख चैन की वर्षा होने लगी। समस्त पृथ्वी“पर ऐश्वयं वैभव को वृद्धिहुई। प्रभुने तीस करोइ धेनु, वृक्ष तथास्वणं दान करके तथा वस्त आभूषण तथा सभी को ऐसा दान दियाकि समस्त दरिद्रता का नाश हो गया। जिन पुष्पों मै दुर्गन्धि थी उनमेँप्रभु की क्रपा से सुगन्धि आ गयी । ३६४ दान दक्षिणा से ब्राम्हरणों कोप्रसन्न करके प्रभु ने सुग्रीव की ओर ध्यान किया और उन्हे सूयै के समानमाल्यापंण किया। मन ही मन उन्होने अंगद का भी स्मरण किया औरउन्है एक बाजूबन्द देने कीक्रपाकी। तप्पश्चात महारानी सीता कीयाद आई और उन्होनि उन्है एक अमूल्य हार प्रदान करते की अनुकम्पाकी। ३६५ सीता जीने मन ही मन वह हार हनुमान कोदेनेकानिश्चय किया किन्तु आज्ञा की प्रतीक्षा मै उन्होने प्रभु की ओर देखा ।प्रभु ने उन्है स्वतंव्वता प्रदान की और कहा जिसेदेना चाहो देदो।स्वामी की आज्ञा पाते ही उन्होने प्रिय हनुमान को जो वही पर उपस्थित थे,बुलाया और वह हार उनके हार्यो मै दे दिया। ३६६ इस प्रकारहनुमान की स्थिति में वृद्धि हुई और प्रभु ने उन्है वरदान सांगने की,आज्ञा दी । उन्होने कहा मैं वरदान देता हँ तुम जो मांगोगे वही मिलेगा ।प्रभु की इस आज्ञा को पाकर हनुमान प्रसन्न होकर अग्रसर हुए और कुछमाँगने की इच्छा से वे हाथ जोइकर प्रभु के सामने खड्क हो गये। ३६७ वेपाली-हिन्दी २७७ख्वामित् ! नाम हजूरको जब तलक् लीनन् जगतुमा बडा।ताहींसम्म शरीर् रहोस् हजुरको नाम् सुन्नलाई खडा.॥।ख्वामित् ! नाम हजूरको स्मरणमा आनन्द्॒ जो पाउँछू।,त्यो आनन्द कतै मिलेन महाराज् तेही नछ्टोस् कछु ।॥३६८॥यो बिन्ती सु्नि लौ भनी हुकुम भै फेरी: क्रपा भो पनि।बित्ला कह्प र यो बित्यापछि भन्या मुक्तै हुन्याछौ भनीहकूम् यो रघुनाथको हुन गयो फेर् जानकीले पत्रि।जो जो हुन् सुख भोग् सबै वश रहुन् तिम्रा हनूमान् भनी॥३६९॥।आशीर्वाद्ू यति बक्सनू जब भयो बीदा हनूमानू भया।आनन्दाश्रु गिराइ तपू गरेँ भनी हीमालयैमा गया ॥फेर् ठाकुर् गुहका अगाडि गइ यो हूकूम् क्रपाले गच्या।जाञ लौ घरमै बसीरहु फकत् मन् सात्न मैमा धच्या॥३७०॥।'यो प्रारब्ध ठुलो छ भोग नगरी टदर्दैन कस्तै गरी ।हन्यैछौ तिति मुक्त देह पछिता संसार् सहजूमा तरी ॥ उन्होनि प्रभु से इस प्रकार निवेदन किया। हे स्वामी ! जब तक इस« संसार मै आपके नाम का जाप होता रहे तब तक श्रीमान का ज्ञाम सुननेहेतु यह शरीर रहे। आफके नाम मात्न के: स्परणसे हीजो आनन्दप्राप्त होगा वह और कहीं भी नहीँ। अतः यही आनन्द मुझसे न छुट्नेपाये । ३६० हनुमान की भक्तिपर्ण विनती सुनकर प्रभु ने तथास्तु कहकर पुनः आज्ञा करने की क्रपा की, यह शरीर समाप्त होने के पश्चाततुम मुक्ति को प्राप्त हो जाओगे। रघुनाथ की ऐसी आज्ञा सुनकरजानकी जी ने भी उन्है यह वरदान दिया कि समस्त सुख भोग हनुमान जीके वशीभ्रूत होकर रहेँंगे अर्थात किसी सांसारिक सुख की इच्छा अपनेवश मैं करके उन्हँ भक्ति मागे सेहटा नहीं सकती । सीता माता सेऐसाआशीर्वाद पाकर हनुमान हर्ष से गद्गद हो गये । ३६९ भगवान के ऐसेआशीर्वाद एवं वरदान से भरे पूरे हनुमान वहाँ से विदा हुए। आनन्दके अश्रुपात करते हुए वे तपस्या करने के लिये हिमालय पर्वत ,की ओरचले गये। प्रभू ने पुनः गुल्म के सम्मुख जाकर उन्हे यह आज्ञा दी किघर मैं बैठकर केवल मन से ही मेरा ध्यान करते रहो वही प्रेम सच्चाहोगा । ३७० यै प्रारब्ध महान हँ । जितना कुछ भोगना भाग्य भें.आचुका है उसे शान्तिपूर्वंक भोगना' ही उचित है वह् कदापि टल नहींसकता है। हृदय से. मेरा ध्यान करने मात्न से ही इस शरीर से मुक्ति २७८ हृकम् यो गरि मुख्य भक्त गुहकाआलिगन् गरि भ्रूषणादि दिनुभोतत्वै ज्ञान् पचि बक्सनू तहि भयोबीदा भै गुहृजी गया घरमहाँयस्तै, रीतृसित सब् बिदा तह हुँदैलक्ष्मण् सेवक छन् सदा हजुरमा मानुभक्त-रामायण सामूृते अगाडी सरी।राज्यै समेत् थपू गरी॥३७ १॥।आचन्द सागर परी।सत् रामू-बरणूमा धरी ॥सुग्रीव् विभीषण् गया।राम् राज्य गर्दा भया॥३७२।॥। आत्मा रूपू सब कमका अधिपती निरमल् अकर्ता पनि।कर्ता भैकन लोकलाइ उपदेश् गर्न्या उचितृ् हो भनी॥गर्नालायक अश्मेधहर जो ठूला ठुला यज्ञ हुन् । ती सब् यज्ञ पती गण्या प्रभुजिलेराजा राम् भइवक्सनू जब भयोजो पर्थ्या अघि तापू अनेक् तरहका वाँकी रहन्थ्यो कउन्॥३७३।।प्राणी प्रजा खुश् भया ।ती सब् प्रजाका गया॥ पाने के पश्चात तुम संसार सागर से पार हो जाओगे। ऐसी आज्ञादेने के वाद मुख्य भक्त गुल्ख के सम्मुख जाकर आगे बढे और उन्है अपनीबाह्र मै भरकर आभूपणों का दान दिया । ३७१ उसी समय उन्होनिउन्है तत्वज्ञान से भी परिचित कराया। अतः सम्पूर्ण आनन्द मैं डूवकरगुह्म श्रीराम के चरणों मैं अपने मनको अर्पण करचलेगये। इसीप्रकार से सुग्रीव विभीपण सभी वहाँ से विदा होगये। लक्ष्मण जी रामकी सेवा मे सदाके लिये ही उनके चरणों मै ही रहे और राम-राज्य का अलौकिक आनन्द लेते हुए रामकी सेवा मैं लीन रहे । ३७२श्रीरामचन्द्ध जी प्रत्येक्र काय के कर्ता हँ। बे आत्मास्वकूप हर कार्यमैं रहते हँ कुछ बड्-बडे काय उन्होनि स्वयं करिये जिसे मानव ने समझा किवे काय स्वयं प्रभु ने अपने हायों सम्पन्न किया किन्तु कुछ कार्य वे मानवके अन्दर प्रेरणा वनकर करते हैँ। उन्होनि राज्यक्ाज सम्हालने परबड्न्वडे अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये । समस्त संसार को अपने पावन उपदेशोंसे भर दिया। सारी प्रजा.को मुख शान्ति तथा सन्तोष प्रदान किया ।अब उनके लिये क्या करना शेप था । ३७३ श्रीराम जब राजा बने तोसमस्त प्रजा मै प्रसध्ता ही प्रसन्नता छा गयी। रामराज्य से पूर्व होनेवाले सारे कष्टों का वाश हो गया। किंसी विधवा का शोक विलापनहीं रह गया। देश भे रोग बीमारी का नाम तक नहीं रह्ा। किसीव्याधा का भयंकर प्रकोप भी नहीं रहा। चोरी या डकैती आदि घिनौनेकायं की प्रवृत्ति भी देशसे मिट गयी। सबकें हृदय छल, कपट तथाद्रेष से मुक्ति पाकर निर्मल होगये। नगर मै किसी को अपनी वस्तुये नेपाली-हिन्दी २७९ गर्दैनन् विधवा विलाप् मुलुकमा लाग्दैन : रोगूव्याधू पनि ।सब् डाक् दबिया परेन कहि ताप् यो चीज् हरायो भनी ३७४बृढो बाँचि सरेन बालक कहीं यस्तो मुलुकमा भयो।छोरा झैं गरि पालिबक्सनु हुँदा सब् तापू प्रजाको गयो ॥गर्छैन् राघवको भजन् जनहरू वर्षन्छ मेघ्ू कालमा ।वर्णाश्रम् सब धम छन् दिन बित्या सबूका सुखै चालमा ॥३७१।। अयुत वर्ष त राज् प्रभुको भयो। सकल तापू दुनियाँहरुको गयो॥ शिवजिले यति पार्वेतिथ्यै कह्या। सकल पापू छुटिजान्छ सुनी रह्या॥३७६।। : श्रीरामका यति कथानक जो कहन्छन् । सब् थोकले ति परिपूर्ण भई रहन्छन् ॥ धन् पुत्न राज्यहरु कस्ति हुँदैन केही । पाप् हर्नेलाइ पनि मुख्य छ धम येही ॥३७७॥ -जन्मन्छन् तर मदेछन् पनि सबै जस्का त छोराहरू।तेस्ता स्त्वीहरुले भने यति सुन्या बाँच्छन् पछीका अरू ॥ खोने या चोरी हो जाने की आशंका ही नहीं रही । ३७४ अकाल मृद्युसेसब छुटकारा पा गये। वृद्धो के जीवित रहते हुए बालको की मृत्यु कहीँनहीं देखी जाने लगी। प्रजा जनों का पालन राजा अपने पुत्न के समानकर रहेथे। अतः सबके हृदय दुःख तथा तापसे मुक्तथे। समस्तराज्य मैं राघव के गीत-भजन गूँजते थे। समय पर वर्षा होतीतथा अकाल से मुक्ति मिली । वनाशरमो मै , धमे-कमँ होते अतः सबकाजीवन सुख संतोषमय हो गया । ३७५ अनेको प्रकार से लोग राजाके गुणगान करते । सबके मन सन्तुष्ट थे, सब सुखी थे किसी को किसीप्रकार का दु:ख नही था। ऐसे राज्य की प्रशंसा सुनकर शिव ने पा्केतीसे कहा कि सुनते हँ ऐसे राम-राज्य के अन्दर तिवास करने से ही सकलपापों का नाश होता है । ३७६ इस संसार में धत्त-पुब्न आदिसे मोक्षनहीं मिलता यह सब तो क्षण भंगुर है, बडे-बड राज-पाठ भी अंतिम दशाको प्राप्त होगये। अपते पापौँ को नाश करने का एक धसँ मार्गयही है कि प्रभु के गुणगान किये जायेँ। श्रीराम की कथा जो कहताहै वह मनुष्य सभ्ची सुखों से परिपूर्ण रहता है। ३७७ श्रीरामकेभजन से मनुष्य के जीवनकी कोई भी कमी पूरी हो सकती है। कभीकिसी के पुत्नादि जन्म लेकर तुरन्त ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हँ कितनी २८० भानुभक्त-रामायण बन्ध्या स्त्ी पनि पाउँछे सुत असल् गर्छन् क्रपा राम् धनी।आधिब्याधि अनेक दुःख भय तापू पर्दैन केल्यै पनि ॥३७०।॥। श्रीरामको यति कथा जतिले त सुन्छन् । सब् देवता तिसँग खुप्सित खूशि हुन्छन् ॥ जो बिघ्न हुन् ति पनि नष्ट भएर जान्छन् । सम्पुर्ण जन् पनि तिनैकन आइ मान्छन् ।॥३७९॥आधि व्याधि त छुट्तछन् अरु उपर् धनधान्य सन्तान् पनि।बढ्छन् इष्ट कुटुम्ब मित्रहरुका मान्त्या ति हुन्छन् भनी ॥यस्ताको त बखान् कहाँतक गर्छे यो सन् प्रभुमा धरी।गर्छन् राम भजत् त मुक्ति पत्ति भै जान्छन् ति संसार तरी॥३००॥शम्भुले सब वेद मन्धन गच्या श्रीरामको नाम् सरी।अर्को तत्त्व मिलेन केहि र लिया साह्लै पियारो गरी।सोही तत्त्व त पार्वेतीकन दिया अध्यात्म रूपूले गरी।जस्ले प्रेम् गरि सुन्छ यो सहज त्यो उन्नन्छ संसार् तरी ।1३5५१॥ ॥ इति युद्धकाण्ड समाप्त ॥ ही स्तियाँ संतान पाने के सुख से ही वंचित रह जाती हैएक बन्ध्या काजीवन ही व्यतीत करती हैँ। प्रभु के स्मरण करते रहने से यह सभी व्याधायें,ढुध्व्व तथा भय नहीँ रह जाते । ३७५ श्रीराम की इस पावन कथाको जो लोग सुनते या कहते हैँ उनसे समस्त देवगण सदैव प्रसन्न रहतेहुँ और सदा सहायक रहते है। मानव जीवन में आने वाली समस्तविघ्न बाधायें दूर रहती हँ, समाज मै उनका आदर बढ्ता है और सभीउनसे प्रेम-पूर्ण ब्यवहार रखते है । ३७९ प्रभु की क्रपा से आधिन-व्याधिसभी नष्ट हो जाते हैँ। धन-धान्य एवम् सन्तान से मनुष्य परिपूर्णरहता है और दिन पर दिन उसके जीवन मेंइन सुखों कीवृद्धि होतीरहृती है । इष्ट-मित्न तथा कुटुम्ब के सदस्य श्रद्धा-आदर तथा प्रेम देतेहँ। प्रभु की प्रशंसा कहांतक की जाये। उनके भजन मनसेजोकरता है वह् संसार की समस्त बाधाओं से मुक्ति पाकर तर"जाता है ।३०५० शम्भुने भी श्रीराम नाम के समान सव वेदों का मन्थचकिया अर्थात् अध्ययन किया। उन्हँ भी कोई दूसरे तत्व की प्राप्ति नहींहुई । अतः उसी तत्व का ज्ञान प्राप्तकर उन्ह्राने प्रेमपू्वेक पावेती जीको आध्यात्म रूपसे प्रदान किया । जो प्रेम-पूर्वंक रामकथा को सुनता औरकहृता है वह सहज ही संसार से पार होकर किनारे आ जाता है। ३०१॥ इति युद्धकांड समाप्त ॥
उत्तरकाण्ड
शम्भूका मुखदेखि राज्य अभिषेक्सोधिन् पावेतिले सदाशिवजिथ्यैँपृथ्वीमा कति वर्षे राज् हुन गयोकस्ता रीतूसित राज्य छोडि रघुनाथ्शम्भो ! श्रीरघुनाथका जति त छन्आज्ञा आज हवस् म सुन्छु भगवान्! यो बिन्ती जब शम्भुका चरणमासब् लीला. प्रभुका कह्या शिवजिलेरावण् मारि उतारि भारि भरुमिकोजानी एक् दित ता गया क्रषि अनेक्दुर्वासा भृगु अञ्जिरा इ पत्ति छन् रामूको सुनीथिन् जसै।लीला पछीका तसै॥लीला तहाँ कुन् भया।वैकुण्ठ धामूमा गया॥ १॥लीला क्रपाले गरी।बिन्ती 'छ पाङ परी॥श्रीपावेतीले गरिन् ।खुप् हर्षेमा ती परिन् ॥ २ ॥राम् राज्य गछैन् भनी ।भेटौं सिताराम् भनी ॥कश्यपू र वाम्देव् भया। सप्ताषि अत्ली गया॥ ३ ॥द्वारमा पुग्याथ्या जसै।पौँच्या हजूर्ुमा तसै॥ जब शम्भु केमृँह सेश्रीराम के राज्याभिषेक के बारे मैं सुना,पावती ने सदाशिवजी से उसके वाद की लीला के विषय में प्रश्नकिया। पृथ्वी पर कितने वर्षे तक राज्य किया गया और किस-किसप्रकार की लीला हुई और किस प्रकार श्रीरघुनाथ राज्य को छोड्करबैकुण्ठधाम को पधारे। १ शम्भो ! श्रीरघुनाथ की जो कछ भी लीलाएँहँ क्रपाकर आज बताने का कष्ट करे, मैं सुनना चाहती हूँ। भगवत् !आपके शरण में मेरी यही विनती है । जब इतनी विनती पार्वती जी ने शम्भ्नके चरणों मै रखी, शिवजी ने भी प्रभु की समस्त लीलाओं के बारै मेंबताया और ये जानकर वह अत्यन्त हषित हुई। २ रावणको वध करतथा भू-भार को उतार कर राज्य करनेवाले श्रीराम को जानकर एकदिन अनेक त्रृषि मुनि सीताराम से भेंट करने के लिए गये । दुर्वासा,भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, विश्वामित्र, असित एवं कांडब सहितसप्तत्रटषि अत्ति आदि.भी गये। ३ समस्त शिष्यों सहित जब अगस्ति जीद्वार पर पहुँचे थे, आने की सूचना देने पर तुरन्त बुलाने की आज्ञा हुईऔर सब प्रभुके पास पहुँच गये। प्रभुजी ने समस्त क्रुषियों का विश्वामित्न असित् र कण्व सहितैसब् शिष्यै सहितै अगस्तिजि गयाहाजिर् जल्दि पठाइ मजि भइ सब्
२०२ भानुभक्त-रामायण पूजा सब् क्रषिको गच्या प्रभुजिले सब्लाइ आसनू दिया।खूशी सब् क्रषिगण् भया हजुरमा जो जो गयाका थिया॥ ४ ॥ पैले प्रश्न गच्या तहाँ कुशलको रामूले र थादर् गरी।सोध्या सब् क्रषिले पनी कुशलको विस्तार् बडो प्रेम् गरी ॥बिन्ती सब् क्रषिले गच्या हजुरमा ख्वामितू ! ठुलो काम् भयो।पृथ्वीको अति भार इन्द्रजित हो भार् तेहि जाँदा गयो ॥ ५ ॥ वीर् हुन् रावण कुम्भकर्ण त पती यो इन्द्रजितृ् झच् जवर् ।वीर् हो त्यो पनि मारिबक्सनुभयो को जित्न सक्थ्यो अवर् ॥लङ्कामा यिनि दुष्टको मरण भो साँचा विभीपण् थिया।पाया राज्य कनक् झई र खुशिले चाकर् सदाका भया ।। ६ ॥ जो दक्षिणा अभ्यको अघि हो दियाको । सो पूर्ण गर्तेकत दुष्ट हरी लियाको॥ देख्याँ क्रृतार्थ हुनुभो रघुनाथ ऐल्हे। मर्थ्या इ राक्षसहरू असरुदेखि कंल्हे॥ ७॥यो बिन्ती क्रषिको सुन्या प्रभुजिले आश्चयं मान्या पनि।क्याले रावणदेखि झन् अति ठुलो भो इन्द्रजित् वीर् भनी ॥ पूजन करके सबको आसन अपित किया। समस्त क्र्ूपिगग जो भीप्रभु के पास गये अत्यन्त खुश हुए। ४ थीराम ने सर्वप्रथम सवसेकुशलता के बारे मेैँ पूछा और आदरन्सत्कार किया!सब क्रद्ृषियों ने भी अति प्रेमपूर्वक कुशलता सविस्तार वतायी।सब त्रष्षियां ने विनती की, स्वामिन् । अत्यन्त बड्डा कायसम्पन्न हुआ । पृथ्वी का अति-भार इन्द्रजीत भी है औरउसी के चले जाने से भार का हरण हुआहै। ५ वीर तो रावण तथाकुम्भकर्ण भी हैँ परन्तु इनसे भी महावली वीर इन्द्रजीत है, उसे भी मारनेकीकपाकी। इस प्रकार अन्य वीर भी कसे टिकते। लंका मैं इनढुष्टों का अन्त हुआ । केवल सच्चे विभीपण थे और कनकरूपी राज्यपाकर तथा प्रसन्न होकर सदैव के लिए सेवक वन गये । ६ अभयदान केखूप मैदी हुई दक्षिणा को पूर्ण करने के लिए दुष्टों का हरण किया हुआदेखा । श्रीरघुनाथ ! हम क्कताथ हैँ। ये राक्षसगण औरों के द्वाराकिस प्रकार मारे जाते । ७ क्रषियों की ऐसी विचती सुनकर प्रभुजी नेआश्चयं किया । इन्द्रजीत रावण सेभी अति महान वीर कैसे हुआ, नेपाली-हिन्दी सोध्या सब् क्रषिका अगाडि र तहाँयस्तो हो तब वीर् भन्याँ भनि सबैब्रह्माका सुत हुन् पुलस्त्य तपकाराजर्षी तृणबिन्दुका नगिचमातपू गर्थ्या तहि देवपुब्चिहरु सवनाच्थ्या हास्यकला अनेक् तरहकातप्को विघ्न हुन्या पुलस्त्य क्रषिलेजुन् स्त्ी देख्छु म गभिणी उहि हवस्भाग्या सब् तृणबिन्दु पुत्रि त सुनीदेख्या ताहि पुलस्त्यले र ति उसै २०३ साम्ते अगस्ती थिया।विस्तार् बताईदिया ॥ ८ ॥। खातिर् सुमेछू् गया।आश्रम् ति गर्दा भया॥आएर खुपू गान् गरी। गढ नजर्मा परी॥ ९॥ बूुझ्या बडा घीर् थिया।भन्त्या सरापू पो दिया ॥सास्ते नजीकृमा गइन् ।झट् गभिणी पो भइन् ॥ १०॥। कामिन् खुप् डरले पितासित गइन् जान्या पिताले पनि।छोरी गभिणि भैछ आज क्रषिका साँचा वचनूले भनी ॥जानी छोरि पुलस्त्यजीकन दिया जल्दी नजीक्मा गई। ती कन्या ति पुलस्त्यले पनि लिया तिन्का पुत्र ति विश्ववा हुन गयाभारद्वाज् क्रषिले तिनैकन दिया अत्यन्त खूशी भई।॥। ११ ।।खुप् ब्रह्वा जान्त्या मुनि ।छोरी वडा गुण सुनी ॥कहते हुए सब क्रषियों के सम्मुख जहाँ अगस्ति भी थे, प्रश्न किया ।तब उसकी वीरताके विषय मैं सविस्तार वता दिया। ० पुलस्त्यब्रम्हाका पुन्न तपस्या करने के लिए सुमेरु पत को गया। ' राजितृणबिन्द्र के निकट आसन की स्थापनाकी और वहीँ तपस्या करनेलगे। वहाँ पर सब देव-पुत्तियाँ आदि आकर खूब गान करतीं, नृत्यकरतीं तथा भनेक प्रकार की हास्यकला करते हुए नजरौं के सामनेपड्ती । ९ पुलस्त्य क्रषि तपस्या मैं विघ्न होने की संभावना कोजानगये। वेबड्रे वीरथे। उन्होति यह् शाप दिया कि जिसस्त्नीको मैँ देखँगा वह गभिणी हो जाये। सबन्तृण बिन्दु भागगये और यह देव-पुती यह सुनकर निकट गयी । पुलस्त्य के उसैदेखते ही तत्काल वह गरभिणी हो गर्यौ। १० अत्यन्त भयभ्चीत होकरकाँपते हुए पिता के पास गयी, पिताने भी जान लिया कि क्रषिकेसत्य वचन से पुत्ती आज गभिणी हुई है। यह जानकर शीघ्रता से(निकट जाकर पुलस्त्य जी को पुत्ती भपित कर दिया। पुलस्त्य जीनेभी उस कन्या को प्रसन्न होकर ग्रहण कर लिया। ११ उतके विस्रवानामक पुन्न हुए जो ब्रह्वा-गुणो से परिपूर्ण थे। भरद्वाज क्रषि ने उनके २०४ तिन्का पुत्र कुबेर् भया गुणनिधानूब्रह्मालाइ रिझाउँदा ति धनका मालिक् दौलथका गरायर गरुन्ब्रह्माले रताहि फेरि पुष्पक विमान्तेसैमाथि चढी पितासित गईसब् पायाँ तर वास् त पाइन कता सून्या बिन्ति कुबेरको र खुशि भैलङ्का खालि थियो र तेहि दिनुभोलङ्कामा अघि राज्य राक्षसहरूतिन्कै खातिर विश्वकमे खुशिभैआज्कल राक्षस विष्णुले जितिलिदालुक्ना-खातिर गै गया र शह्रैआज्ञा येति दिया कुबेर्कन तहाँलंकामा ति कुबेर गईकन बस्या एक् दिन् कैकसि छोरि लीकन ठुलो भानुभक्त-रामायण तिन्ले तपस्या गरी।मालिक् भया तेस् घरि॥ १२॥ यस्मा सयल् खुपू भनी।तिन्लाइ दीया पनि॥तप्को सबै फल् कह्या।जाउँ स भन्दा भया १३ ॥ ती विश्ववाले पनि।लौ राज्य गर् जा भनी ॥गर्थ्या बडा वीर् थिया।लङ्का बताई दिया ॥ १४॥ भागेर पातालमा ।खाली छ यस् कालमा ॥ती विश्ववाले जसै।.राज् गने लाग्या तसै।॥॥ १५ ॥ राक्षस् सुमाली पनि।हेड तमाशा ' भती॥ ड्ल्थ्यो यस् पृथिवीविषे सब घुमी महान गुण को सृतकर अपनी पुतली देदी। उनसे पुत्न कुबेर का जन्महुआ । पूर्ण विधाच-सुसंपन्च कुबेर के तपस्या कर ब्रह्मा को प्रसन्न करनेपर बे उस समय धन के मालिक हो गये । १२ दौलत के स्वामी वनकरउसमें सुखी रह सके यह सोच ब्रह्मा ने उन्हैँ पुनः पुष्पक विमान भी दिया।उसी मे चढ्कर पिता के साथ तप करने हेतु गये। जो कुछ उसे फलप्राप्त हुआ, विस्तारपूर्वंक बताया परन्तु मुझे रहने का कोई स्थान नहींमिला और मै किस ओर जाऔँ, सोचने लगा । १३ कुबेर की इस विनतीको सुनकर विस्ववा ने भी प्रसन्न होकर लंका जो उससमय खाली थी उसी को राज करने के लिए दे दी। इससे पूवलँका मैं अत्यन्त वीर राक्षसगण राज्य करते थे। उन्हीं के लिएविश्वकर्मा ते प्रसन्न होकर लंका का सृजन किया । १४ आजकल राक्षस,विष्णु द्वारा पराजित होने के कारण भागकर छिपने के लिए पातालकोचले गये। अतः इस समय पूरा शहर खालीहै। जैसे ही बिज्लवा नेकुबेर को यह आज्ञा दी वैसे ही कुबेर लंका जाकर राज करने लगे । ११एक दिन राक्षस सुमाली भी अपनी पुत्री कैकसी को लेकर पृथ्वी-तल नेपाली-हिन्दौ पातालूबाट सयल् गर्छ भनि यहाँपुष्पक्माथि ' चढेर खुपूसित सयल् लाग्यो दृष्टि सुमालिको र मनलेयस्तो वीर कुलमा कसो गरि हुनन्लाग्यो केकसिलाइ भन्न अहिलेकोही वर् पनि आउँ दैन गरुँ क्यातस्मात् आज त विश्ववा क्रषिजिथ्यैँहात् जोरी क्रतुदान माग तिमिलेयस्तै पुत्र हुनन् अवश्य इ उनै-छोरीलाइ त विश्ववा सित तहाँजल्दी कैकसि विश्ववा सित गईपृथ्वी तफै नजर् दिई चरणलेचेष्टा कैकसिको नजर् गरि-तहाँकन्या कस्कि तँ होस् बता किन यहाँसोध्या कैकसिलाइ लाज् हुन गयोध्यानैलै सब जानिबक्सनुहवस् श्प्ष आएर डुल्दा ठहाँ।गर्थ्या कुबेरजी जहाँ॥ १६।॥।मान्यो बडा हुन् भनी।यस्तो चितायो पनि ॥पुत्नी ! यती काल् गयो।यौवन् त तिम्रो भयो।॥ १७ ॥जाड र सास्ने गई।॥दासी चरणूकी भई ॥का पृत्र हुन् वीर् भनी।तेस्ले पठायो पत्ति ॥ १८॥साम्ते खडा भै रहिन् ।लेख्ती जमीन्मा भइन् ॥ती विश्ववाले पनि।आइस् अगाडी भनी।॥ १९ ॥लाजूका सकस्मा परिन् ।यस्तो त बिन्ती गरिन् ॥ मै तमाशा देखने हेतु पर्यटन कर रहाथा। सैर करने के लिए जब यहाँआकर घूम रहा था, वहीं कुबेर जी भी पुष्पक विमान पर चढकर खबसैर करतेथे। १६ सुमालीकी दृष्टि उनपर भी पडी और मनमैसोचने लगा कि वह एक महान हस्ती है। ऐसे ही अपने कल में किसप्रकार होगा सोचने लगा और कँकसी से कहा--“पुन्नी ! अभी काफी समयव्यतीत हो चुका है कोई वर ही नहीं आता है। क्या कडैँ तुम्हारा यौवनऐसे ही बीता जा रहा है। १७ अत: आज तुम विस्रवा क्रषिके पासजाकर करबद्ध होकर उनके चरणों की दासी के खूप में त्रह्तुदान की माँगकरो; तब ऐसा ही पुत्र अवश्य प्राप्त होगा जिस प्रकार उनके वीर पत्र हुँ।इस प्रकार अपनी पुत्ठी को विस्रवा के पास भेजा। १५ कैंकसी भीतुरन्त ही विस्रवा के पास गयी और सामने जाकर खड्ी रह्री। पृथ्वीकीओर चजरकर अपने पाँव से जमीन पर लिखने लगी। कैकसी कीचेष्टा को देखकर विस्रवा हि चे भी प्रश्न किया कि तुम कौन हो ? किसकीकन्या हो? और यहाँ यो मायी हो? १९ कैकसी लज्जित हुई।लज्जा कै वशीभ्रूत केकसी ने विनतीकी कि आप स्वयं अपनी दृष्टि सेज्ञात करने की क्कपा करे कि मैं क्या हुँ। यह विनती सुनकर तत्काल २०५६ सून्या बिन्ति र झट् विचार् पनि गच्याछोरा पाउन आइछस् भनि तहाँबेला दारण पारि आज क्रतुदान्दोटा पुग्न हुनन् भयंकर स्वरूप्यस्ता बात् गरि दानू दिया र क्रतुकोकुन् रीत्ूले अब पाउँ पुव्न बढियाबिन्ती कैकसिले गरिन् उहि बखत्तेस्ता पुत्र बुझाउँला म कसरीसून्या बिन्ति तहाँ दया पनि उठ्योतेस्रो पृत्न हुन्याछ रामूचरणकोपृत्ती कैकसिलाइ येति क्रषिलेखूशी कैकसि भैगइन् क्रषि रह्याजन्म्यो रावण पूर्ण गभे जब भोउल्का आदि भया अनेक् तरहका रावण्का पछि कुम्भकरण अति वीर्जन्मी शूपंणखा पछी गुण निधान् भानुभक्त-रामायण मालुम् भयो सब् जसै।बोल्या क्रषीले तसै ॥ २० ॥मागिस् म दिन्छ पनि।बेला सरीका भती॥ती बात् जसै ता सुनिन् ।यस्तो बहूतै गुन्िन् ॥ २१ ॥ख्वामित् पती भै प्ति।यो झन् कठिन् भो भनी ॥ती विश्ववाको अनि।दास् बुद्धिमान् खुप् शनी।॥२२॥दीया कृपा खुपू गरी॥ध्यान्मा बहुत् मन् धरी ॥शिर् दश् भुजा बीस् धरी ।कामिन् भुमीखुप् गरी।॥॥२३॥। जन्स्यो उसैका मनि।जन्म्या विभीषण् पनि॥ विचार किया और सभी बातो का ज्ञान कर लिया।यहाँ पुग्-प्राप्तिके लिए आयी हो। २०तूने क्रतु-दान की माँग की है जिसे मैँ देता छूँ।इस प्रकार गहरी बात करके व्रट्तु-दान किया । वाले बलिष्ठ पुत्र होंगे । और कहा कितुमकठिन अवसर देखकर आजतेरे दो भयंकर स्वरूप कीकसी ने जब ऐसी बात सुनी तो कहने लगी कि ऐसे गुणी और उत्तम पु अब मैं किस प्रकार प्राप्त कङँगी । २१ उसी समय कंकसी ने ऐसा प्रश्व किया स्वामिन् ! पति होने पर भी वेसे पुत्र मै किस प्रकार प्रस्तुतकङँगी, यह मन साक्षी नहीं देता है। ऐसी विनती सुनकर विस्वा केसन मैं भी दया उत्पञ्च हुई और कहा कि रामचरण के दास एवंअत्यंत बुद्धिमान तेरा तीसरा पुत्र भी होगा। २२ त्र्रषि ने पत्नीकैकसी को यह सब क्रपा प्रदान की। कैकसी प्रसन्न होकर चलीगयी और क्रषि अत्यन्त ध्यान-मग्न होकर बैठे रहे। जब गर्भ पूर्णहुआ, दस सिर और बीस भुजाएँ धारण कर रावण ने जन्म लिया|)अनेक प्रकार का उलकापात हुआ और भुमि भी अत्यन्त कम्पितहुई । २३ रावण के पश्चात् अतिवीर कुम्भकर्ण का जन्म हुआ।॥ उसकेबाद शूर्पणखा ने जन्म लिया तत्पश्चात् गुणनिधान विभीषण भी उत्पन्त नेपाली-हिन्दी २६७ शान्तामा बढिया विभीषण भया बस्थ्या ति शास्तै सुनी ।दुष्टात्मा अति. कुम्भकर्ण हुन गो डूलेर खान्थ्यो मुनि २४॥ बैङ्की शूर्पणखा भई जगतमा दुष्टात्म भै डुत्दथी।नक्कट्ठी भइ गै पछी, हजुरका तेज्ले कहाँ वाँच्तथी ॥रावण्को त बखान् कहाँ तक गरौं सब् लोकको रोग् सरी।लाग्यो रावण बढ्न रोज् भय दिदै तीन् लोक् वशैमा गरी ।॥२५।॥। सर्वान्तर्यामि साक्षी हृदय हृदयमा आत्मरूपूले रह्याका।निर्मल् सर्वज्ञ पूर्ण प्रभु पनि नरको रूप ऐले भयाका ॥सोध्नभो आज लीला गरिकन त सबै रावणादीहरूको ।विस्तार् बिन्ती म गर्छु अर पनि भगवान् ! तेजूहप्यो जो अरूको॥२६॥। ब्रह्वा स्वछ्पू प्रभु भनेर इजूरलाई । जानेर ड्ल्छु म अनुग्रह केहि पाई ॥ यस्तो अगस्ति क्रषिले जब बिन्ति लाया। साँचा कुरा प्रभुजिले क्रषिथ्यै बताया ।॥ २७ ॥ माया छ यो सब जगत् भनि नित्य जानी ।आनन्द यस् विषयमा रतिभर् नमानी ॥ हुआ । विभीषण सर्वोत्तम एवं शान्तात्मा हुए और सदैव वे शास्त्ोंकाश्रवण करते रहते थें । २४ बहन गुू्पणखा जगत में दुष्टात्मा के खूप मेंघुमती फिरती थी । नाक कट जाने के पश्चात् प्रभू के तेज-प्रकाश मेंकहाँ जीवित रह सकती थी। रावणके बारे मैं कहाँ तक कह्नँ।सबेलोक के रोग के समान रावण के भय का विस्तार रोज होने लगा ।इस प्रकार तीनौं लोक उसके वशीभ्नुत होने लगे। २५ सरवेअन्तर्यामीसाक्षी जिसके, हृदय मैं आत्मरूप धारण कर रहते हैं ऐसे सवंज्ञ निर्मल एवंपूर्णे प्रभु भी अभी नर का खूप धारण किये हुए हैँ। ऐसी लीलाएँ करतेहुए आज प्रश्न करने की क्कपा की अतः रावण आदि तथा अन्य लोगोकी शाक्ति का हरण करने के बारे मैं मै सविस्तार विनती करता हुँ । २६आपको नम्रस्वरूप प्रभु जानकर आपके अनुग्रह को प्राप्तकर मै इधर-उघर घूमता हुँ। जब अगस्ति क्रषिने इस प्रकारकी विनती कीतोप्रभु जी ने त्रट्षि को . सत्य बात कह सुनायी । २७ सदैव इस जगतकोमायारूपी जानकर तथा इस विषय मै किचित मात्न भी आनन्दित न होकरभेरे ही भजन कस्तै रहने से सव पाप का हरण होता है तथा सरलता से २५० भानुभक्त-रामायण मेरो भजन् गरिरहोस् सव पाप हर्न्या।येही उपाय छ सहजूसित पार तर्न्या ॥ २० ॥ . एक्दिन् पृष्पकमा चढाकन कुबेर्देखित् केकसिले र पुत्नसित गैंदेख्यौ पृत्न ! कुबेरलाइ तिमिलेगर्छन् पुष्पकमा सयल् खुशि हुँदैजस्तो यत्न गरेर हुन्छ तिमिलेसब्को मालिक भै सयल् गर अनेक्रावण््ले इ वचन् सुनी जनतिकैहे मातर् ! म बडै भएर रहुँलायस्तो बात् तहि कैँकसीसित गरीगोकर्णेश्वरमा गई दृढ भईरावण्का सँग कुम्भकण विभीषण्ईश्वर्लाइ गरौं प्रसञ्च भनि खुपूतप् गर्दा हुँदि कुस्भकणे विरकोटेकी एक चरण् विभीषणजिको आया पिताध्यै जसै।क्यै, भन्न लागितृ् तसै॥सब् द्रव्यका छन् धनी।तेजस्वि देख्तै पनि ॥ २९ ॥ सो यत्न ऐले गरी।यस्तै यिनले सरि॥सास्ने प्रतिज्ञा गग्यो। क्या आज चिन्ता पच्यो॥३०।।तपू गर्ने रावण् गयो।तपू गर्ने लाग्दो भयो॥भाई दुवै ती यया।तिन्ले पती मन् दिया ॥३ १॥ताहाँ अयुत् वर्ष गो।पाँचै हजार् मात्न भो॥ संसार तरने का यही एक उपाय है। २८ एक दिन वह पुष्पक विमानमैं चढ्कर जैसे ही अपने पिताके पास आया कँकसी ने उसे देखा औरपृत्न के निकट जाकर कछ कहने लगी । देखा पुत्न ! कुबेर को तुमनेसब द्रव्यौं का मालिक बना दिया है, प्रसन्न होकर पुष्पक मैं पर्यटन करताहै। देखने मैं भी तेजस्वी प्रतीत होता है । २९ जिस प्रकार सेभीहोतुम ऐसा यत्न करो कि सबके मालिक होकर इसी की तरह अनेकानेकपर्यटव करो। रावणने माँ के ऐसे वचनो को सुनकर प्रतिज्ञा की, हेमाता, मैं बड्डा ही होकर रह्गा; आप व्यर्थ ही चितित क्यो होती हैँ । ३०कैकसी के साथ इस प्रकार की बात कहकर रावण तप करने चला गया ।गोकर्णेश्वर मैं जाकर दृढ्ता पूर्वक तप करने लगा। रावण के संगकुम्भकणँ तथा विभीषण दोनों भाई भी गये। ईश्वर को प्रसन्न करनेक्कै उद्देश्य से उन लोगोंने भी अत्यंत मन लगाफर ध्यान किया । ३१- तपस्या करते हुए वीर कुम्भकर्ण को वहाँ अनेक वर्ष बीते। विभीषणजी को एक ही चरणों पर टेककर तपस्या करते हुए केवल पाँच हजार वर्षबीते । रावण के वारे मैं कहाँ तक वर्णन किया जाय ? उसने तो अत्यंतएकाग्र होकर प्रतिदिन प्रभु जी का ध्यान मन मै धरकर तपस्या नीप्राली-हिन्दीः 000 (रावणको त?-बखान् कहाँतक गरौं: ठूलो '" तपस्या:- गच्यरोख(खुपू ८ एकाप्र;भएरपरोज् :प्रभुजिकाप ध्यान्मा बहुत् मन् धन्यो।।३२५।“ दश् हज्जार्एजन्न दिव्य:वर्षे बितिगोः - एक् शिर्:-तसै-होम् गरी ।यस्तै रीत्सितःतौ त शिर् पनि हुस्यो -भक्ती न: प्रभूमाः धरी ॥नौ शिर् होम गसिशिरःदशै पत्ति तहाँ उदीनै!:-तयार् ;झ्ो जसै।ब्रह्मा आइ हटाइ ख्वर् दिनः तयार", हुनूभयो”' पोःतसै ।॥ ३३ ॥हेक्राच्रण् :कुरु-साग दिस्छुःअहिले;- इच्छा) - बमोजिम्- “भनीबह्याबाट दम्रा भयो रु खुशि भै माग्यो: तहाँ- कर् पनि/॥हेत्नाथू ! वैरतअमर् म पाउ नमङ्ै--क्वै ? वीरदेखीः कसैतार्मानिस्को-त:-डरेक्म मान्दिन रतील, मेरा ,सदा- छन् ब्रसै॥। ३४, ॥।ब्रह्माले पनिनलौ भनेर: वरदानुः- मागे:;: बमोजिमू दिया।काट्र्याकासनति शिरतयारमारिदिया), जस्तै -.- अगाडी !:-- थियानब्रह्याजी तृहि,;फेर् विभीषणजिकाः-- सास्ने 7. नजीक्मा--- गया. ]इत्छा क्याउत्सन्मा) छाग उहि वरु... दिन्छ स-भन्दा- भया ॥३.५॥।मागेःव्वसुन्खुशि/भै विभीषणजिले ' हे नाथूँजी निरन्तर् 'मति॥धर्म: तर्फःरिहोस्छ:अधमेतिर ता? केल्यै"-:: नलागोस् :. रती॥। 'क्री ।, ३२३: जब-दस ( हजार) दिव्य -वर्ष , व्यतीत, हुए तब एक सिर अपँण“किया ।-- ईसीमप्रकार प्रभु मै भक्ति दर्शाकर शेष नौ सिरो को भी हवनक्रिर दियात्र ननौ सिरो को 1 हवन करने, केः पश्चात् - जब दसवाँ,सिरभी दने के: लिए तैयार हुन्ना-तब .ब्रह्मा, नेःवहाँ आकर उसे' हटाया औरब्ररदार्न दिनः के (लिए (तैयार हुए ॥। ३३ - है:.रावण !: तू वर माँग ले, मैंतेरीः'इच्छाँट के. मुताबिक [अभी प्रदान करता हूँ। ब्रह्मा की इस दया;दृष्टि साप्रसन्त' होकैर उसने; भी, घर माँगा ।: ; हे नाथ] मुझे आप ऐसाव्ररदोन दे“किं मै[अमर हो जाञँ);:और ,किसी- भी वीर के द्वारा न मभनुष्यों को तो मुझे किचित मालभी, भयःनहीं:है क्योंकि वेसब मेरेह्वीबेस मैँ:हैँ। ३४ -ब्नल्माजी ने भी,तथास्तु, कहकर उसकी,माँग के अनुसारवरदान! दिया .जो सिर कट :चुका था उसे ;भी; पुनः पहलले के समानठीक कर दिर्या अर्थात् बना: दिया ।: ' ब्रह्मा जी फिर वहीँ पर विभीषणजी,के तिंकट गये और कहनेः लगै कि. मन मे जोः झ्च्छा, हो माँगलोमैं? तुम्हैँ वंही “बरदान ढुँगा । ३५ -:विभीपण जी ने भी प्रसन्न होकर वरमाँगान-हेननाथ !. : "मेरा; ध्याच निरन्तर धमैक्ी ओर रहे तथा मेरीब्रुद्धि,कदाचित्'भी। अधमे की; ओर आक्र्ष्ट नहो। न्नह्याजी नेभी २९० भानुभक्त-रामायण ब्रह्माले अधिकै दया गरि दिया होला तँलाई भनी।सागेनन् व्रपती तहाँ गरिदिया कह्पान्त आयु पनि ॥ ३६ ॥फेर् कुस्भकणे 'विरका अगि जल्दि आई।आज्ञा भयो अब त दिन्छुम वर् तँलाई ॥।क्या माग्दछस् भन्ति दया हुन गो जसै ता।' तन् जिह्वाविषे गयर वाणि बसिन् तसै ता॥ ३७॥ वाणीले जब मोह खुपू सित भयो घतूको बिधतृको प्नि।थाहा केहि भएन तेस्कन तहाँ यस्तो म मागुँ भनी।॥साग्यो मूढ भएर येहि वरदानृू निद्रा छ मैह्दना . परोस् ।एक् दिन् मात्न मलाइ खान पिनका खातीर निद्रा टरोस् ॥ ३० ॥ यस्तो वाक्य सुनेर तेहि वरदान् दीया प्रभुले जसै।सून्या त्यो वरदान देवगणले खूशी भया सब् तस ॥जिह्वादेखि सरस्वती जब गइन् खेद् तेस् बखतमा पप्यो।इच्छा ईश्वरकै रहेछ बलवान् भन्या बिचार् यो गच्यो॥३९॥बाबू कैकसिको सुमालि खुशिभो पायो र यो सब् खबर्।आयो जल्दि तहाँ प्रहस्तहरु धेर् सब्झूमा थिया वीर् जबर् ॥अत्यधिक दया करते हुए उनका' कल्याण किया और अन्य कोई वरंनमाँगने पर भी उसे वरदान दिया । ३६ पुनः वीर कुम्भकणे को) आगेशीन्नताप्र्वंक आकर आज्ञा-देने की क्पा की कि अब तो मैं तुझेबरदान दूँगा। अतः क्या माँगते हो ऐसा कहने की 'क्पा हुई तोउसीसमय जिल्ला के बीच मै जाकर वाणी ने वास किया । ३७ वाणी ने जबमन-बेमन अनेक प्रकार से अपने मोहके वशीभूत किया, उसे कुछभीज्ञान नहीं रहा कि मैं अमुक वर माँगुू। वरन् मूर्ख होकर ऐसा वरदानमाँगा जिससे उसे छः महीने तक निद्रा आ जाये और केवल भोजनआदि के लिए मेरी एक दिन निद्रा टूटे । ३५ ऐसे वाक्यो, को सुनकरप्रभुनेभी उसे वही वरदान दिया। देवगण भी उस वरदान के बारेमैं सुनकर अत्यन्त प्रसञ्च हुए। जिह्वा से जब सरस्वती निकलकरचली गयी उस समय उसे अत्यधिक खेद हुआ और सोचा कि ईश्वरकी इच्छा ही बलवान है । ३९ कैकसी के दरबारिया को इसकाआभास हुआ और यह सब समाचार लेकर अनेक जब्बर बीर साथ मैंकर भेदिये लोग वहाँ आये। रावण के सम्मुख जाकर प्रसन्तता-पूर्वककह्ने लगे, हे पु ! तुमने एक महान काम किया है। पहलले तो विष्णु
नेपाली-हिन्दी रावण्का अघि गै भन्यो खुशि हुँदैव्रिष्णको अघि डर् थियो अब गयो लङ्कामा अघि राज्य राक्षसहरू, २९१ हे पुन्न ! खुप् काम् गप्यौ ।सन्तापू तिमीले हन्यौ ॥ ४० ॥गर्थ्या बडा खुश् थिया। वष्णूले गइ छिन्नभिन्न गरि सब् राक्षस् धपाईदिया ॥'क्यारौं जोर् नपुगेर भागिकत सब् पाताल् गयाका थियौं।ःतिम्रो आज सहाय पाइकन पो आई बताईदियौं ॥ ४१ ॥।,आज्काल् राज्य कुबेरको छ तिमिले मागी बलात्कार गरी।जुन् पाठ्ले गरि हुन्छ लेउ अहिले स्थान् छैन लका सरी ॥;राजाको त हुँदैन बन्धु सितको बन्धुत्व धर्मे पनि ।:यो सन्देह नमान कत्ति कसरी लङ्का म लीञँ भनी॥ ४२ ॥|यस्तो बिन्ति सुमालिको सुचि भन्यो लंका कसोरी ह्छँ।दाज्यू हुन् पितृ तुल्य छन् तहि बसुन् अन्तै बसूँता बरु॥यस्तो रावणको वचन् सुनि तहाँ साम्ते प्रहृस्तै सप्यो। रावण्को मन फेर् फिराउन बहुत्हे नाथ् ! कश्यप पुत्रहुन् इ जति छन् सिप् लाइ बिन्ती गच्यो॥४३॥1यौता र राक्षसूहरू।, लड्थ्या ती पनिता भन्या त अरुको बिन्ती कहाँतक् गर्छे। का डरथा परन्तु अब तुमने सम्पूणं संताप को हरण कर लिया है । ४०आदिकाल मैं लंका मैं राक्षस आदि राज्य करते थे और बडे खुश-रहते थे परन्तु विष्णु ने जाकर सबको छिच्न-भिच्च कर दिया और सवराक्षसों को भगा दिया। क्या किया जाय, णक्तिविहीन और लाचारीके कारण भागकर हम सब पाताल को चले गये थे, परन्तु आजतुम्हारा सहयोग पाकर यहाँ आकर ये सब वता दिया । ४१ आजकलकुबेर का राज्य है अतः तुम बलके प्रयोग से हो अथवा जिस उपायसेभीहो लेलो क्योकि इस समय लंकाके समान और कहीं स्थाननहीँहै। राजा के बन्धुओ के साथ किसी प्रकार का बन्धुत्व नहींहोब्वा है यद्यपि धम के अनुसार उसे निभाना ही पड्गे। इसकी मन मैं,किचित मात्न भी शंका उत्पन्न न करो कि मैं लंका को किस प्रकार ले.लूँ। ४२ सुमाली की ऐसी विनती को सुनकर रावण कहने लगा कि लंका कैसे हुरण कङ वहाँ भ्राता जी रहते हँ जो पितृ तुल्य है अतः वेबहीं रहेँ मै कहीँ अन्यत्ल ही रह लूँगा। रावण के इस वचन को सुनप्रहस्त ने सामने अग्रसर होकर रावण के मन मैं परिवतँन लाने के उद्देश्य सेअत्यन्त चातुर्य्य पुर्वक विन्ती की । ४३ हे नाथ ! देवता एवं राक्षस आदिजितनेभी हैँये सब कश्यप-पुल्न हैँ। वे भीतो परस्पर लड्तेथे तव अन्य लोगो, २९२ भानुभक्त-रामायँण तस्मात् आज कुबेर छरन् त पनि सो", लङ्का 'बिन्या ' हो भनीहात् जोरी विनती गस्यो र सुन्तित्यो:- बिन्ती त मीन्यो पनि- ॥1%४॥।बेसै बिन्ति गरिस् भनी उहि बखत्”-दौडी 'ब्विकृटमा-- 'गयो।छोड्यो दूत प्रहस्तलाइ रकुबेर्- लाई, ।निकाल्दो 2; भयी।बाबुको मतलब् “बुझीकन”,कुबेर् - छोडेर” कैलास् 77 गयातप गर्दा शिव खुश् गराइ शिवध्ये।” बिन्ती ।ति 'गर्दा थया-। ईनइच्छा माफिकको बनाउन कुशल्' 'जो' विश्वकर्मा टतिन्ले बेस् अलकापुरी पनि कुबेर्- लाई ?दिक्पाल् भै ति कुबेर रह्या शिवजिले तिच्मा:' दया “खुप् गर्ग्यो।शम्भूको करुणा हुँदा त अँ झन् |रावण् राक्षस सब् लिएर खुशिंभै लङ्कातपूको जोर् बलवान् जित्यो सबं जगत्विद्युज्जिह्व ठुलो निशाचर थियो तेसूलाइ,ती मन्दोदरिलाइ ' आइ मयले ““ के बोरे मै कहाँ तक विंनती 'कर्छँ। “यदि 'वहाँ कुबेर भी! हो तथापिउस लंका को तो लेना ही. हौगा ।“ “इस प्रकार हा्थ,जोइकेर विनतीकी'ओर उसे सुनकर रावण'ने मान भी लियो॥ ४४ यह केहते हुए कि तुमनेठीक ही कहा है उसी क्षण दौड्कर त्विक्टे को चला गर्या ॥ ' दुँते प्रहस्तै आर्दिको छोडकर, कुबेर को वहाँ से निष्कासित किया?! कुबेर, पिता के आशयको 'समंझकर ' उस स्थान की :छोडकंर' कैलाश चेला गया शिवःजीको तप दारा प्रसन्न कर बे उससे विनेती करने लंगै 1४५1" कुंशले 'विश्व-कर्माजो-था उसने ' झ्ब्छा।'के : अनुरूप “कुबेर “के लिए 'अलकापुरी कीँसृजन 'केर दिंया। . कुबेर: दिंग्पोल, होकेरः वहाँ रहा शिव जी चोउनःपर संहान 'क्ेपा को ।: (शम्भु की कर्रंणा से: विः और भी ओनन्देसागरमैं डूंब गये। ४६' रीवण ' सब राक्षसों “को “लेकर” प्रसिच्चतीपूवंक लकाशहर मैं रहने लगा । “तप के बल'से बंलेवाती।को जीता,'सम्पूर्ण-जमैं संताप” छा गया॥ “ विद्वेज्जिह्व एक भरयकेरक/निशार्चरुथाग 52 अपची . बहन 'मंदोदरी को उसे“ (रावण को) दिया और”उन्होनिःक्षीस्वीकारा 1४७ उंसे मंदोदरी" को; देकर अत सन्तहोकर एकअमोधघ ' शक्ति भी प्रदान की ॥' “वीर कुम्भकर्ण “के विवाह! के ग पश्चात्
नेपोली-हिन्दी लाँग्यौ/ छू र शब्दै भो अतिः ठुलोमेघ्, झेँशब्द गण्यो भनेर तहि,चाम् " 27 ।यस्कोःब्बल् यतिसम्मंको छंभनि यो »“लागेने/तेस्को,त साँध् 1 1४:13निद्रालि पनिः:कुम्भैकर्णेकन “खुप् व्षडचो? «सकस्माो 'फन्यो ॥”हेनाथ्- ! सुतँछु'म ठाउँपाउँ भनियो " हाँत्" जोरि ःबिन्ती दगन्यौ ती?तेस्बीच्मा तहि' सुत्ललाइ बढिया /गुफा 79 तयारी” ठगस्ग्रोःः ताही? गैकन।"कुम्भिकणे ;व्रिरको ।-खुपू मस्त, चिद्राः पच्योत।फ्रणीइ्ख्वीदबी सर्बदिव देत्यहरुको? जी श्री“ थियो-म्सबूहाहरीप्र लाग्योःरात्रणताश् गराईन”“अनेक् : गरी पीपायातन्थाह कुबेरले र किचःयोभन्ना-खखातिर दूत् पठाउनुभयो प्रह्वाद-कूल मे. चले गये।. -वहाँ,'एक “महा बलवान सैल्सगंधव राजा थे ॥- उनकी एक कन्या थी । विभीषर्ण को” बडा समझकर उस कन्याकोदे दिया। ४८ , रावण को एक बहुत बलवान पुत्नफ्रौप्ति हुँ जोः 'जँन्मे होते ही रोने' लगा गे? " अत्यन्तविंकला' और -मेर्घ कै समान गर्जन करने: लगी म“करनेचीले ।इसे बैलिक का नाम मे्चनादे रखाकठिन था? कि”इसंकी” शक्ति की सीमा कहाँको बिद्रांव्ते वशीभूँत ।किरयी जिससे “वह” अत्यन्त संकटहेतार्थ ! ४अब मैं “सोत १ देनेजोड्कर ऐसी ”विर्नेती की के 'छुक सुन्दरका का “निर्माण कर दियो गया । 7 वहाँ जकिर विर कुम्भकर्ण अत्यन्तस्तई सित्रौ मै मग्न हो गयो 179070इन्र आदि ।देवो एक दैत्यो, कीमहानता थी 'सबै' हरण 'करके रावण "उँन सर्बंको नष्ट करने कैलिएँ "अनेके प्रेकार' के उपेत्रैव 'केरने,लगोग कुबेर 'की जब यहहुँ तबेअपने एक: “चतुरु दुत बोलोक'को भिजा ताकि कह(रावणको)? जाक्र' कहे कि' ऐसी क्यो करके हो,। 'उपद्रवः बिककरे179्र१ दूत ने जाँ क्वै आरः शीख्रितापूर्वक 'जीकर ।उसनेःकैँः प्राजित”;कर-पुँष्पेक/ विर्सन को” भी हरण किया न कुबेरै २९४दूत् गै बिन्ति गण्यो त झन् विखुशिभै भानुभक्त-रामायण ञठ्यो ठुलो रिस् गरी। जल्दी गै ति कुबेरको जिति लग्यो पुष्पक् विमान ह्री॥कबेरलाइ जिती यमै पनि जित्यो जीत्यो वर्ण पनि।पौँच्या स्वर्गविषे पनी खुशि हुँदै फेर् इन्द्र जित्छु भनी ॥ ५२ ॥एक् ठक्कर् लडि इन्द्रिले त सहजै पक्डेर पाता क्स्या।हुमेत् रावणको गयो खुशि भई सम्पुणँ देवूता बस्या॥को थाहा भइ मेघनाद रिसले आयो अगाडी सरी।जीत्यो इन्द्रजिलाइ तेस् बखतमा भारी लडाईं गरी ॥ ५३ ॥रावण्लाइ फुकाइ इन्द्रकन ली फर्केर लंका गयो।जीत्यो इन्द्र र इन्द्रजित् भन्ति ठुलो नाम् ताहिँदेखी भयो॥ब्रह्मालाइ खबर् भयो र खुनका खातीर दौडी गया।धेरै वर् दिइ मेघनाद्कन खुशी गर्दै फुकाउँदा भया ॥ ५४ ॥क्रह्मा इन्द्रजिलाइ फोइकन फेर् जानू भयो धाममा ।लाग्यो रावण फेर् जगत् जितुँभनी सँग्रामका काममा ॥ कैलास् पर्वत यो ठुलो छ गह्यँको होला कहाँ तक् भनी।कैलास् हातमहाँ लिएर सहजै एक्दिच् त तौल्यो पति॥५५॥ जीतकर यमराज एवं वरुण को भी जीता। इस प्रकार प्रसन्न होतहुए स्वगं मै भी पहुँच गया और इन्द्र को भी जीत लेने की ठानी । ५२एक्र ही बार लङकर इन्द्र ने सरलता से पकडकर उसे बाँध लिया।रावण की मर्यादा नष्ट होते देख सम्पूणं देवगण प्रसन्न हुए । यहसम[ल्म होने पर मेघनाद क्रोधित होकर सामने आया। उस समयघमासान युद्ध के पश्चात् इन्द्र जी को पराजित किया । ५३ रावणको पाशमुक्त करके इन्द्र को भी साथ लेकर लंका लौटगया। इन्द्रकोजीतने के कारण उसी समय से वह इन्द्रीत के नाम सै प्रसिद्धद्रआ। ब्रह्मा को जब यह मालूम हुआ तो अपने रक्त के लिए दौडकरगये और मेघनाद, को अनेक वरदान देकर प्रसन्न करते हुए अपनीओर आकर्षित किया । १४ ब्नह्या इन्द्र जी को मुक्त कर पुनः स्वगंघामकी ओर गये। रावण पुनः जगत विजय करने के लिए संग्राम कीतैयारी मैँ जुट गया । कैलाश पर्वत अत्यन्त विशाल है। यह जानने केलिए कि वह कितना भारी है, एक दिन कैलाश प्वेत को सरलता सेअपने हाथ मै लेकर तोल भी लिया। १५ नतंदीश्वर को क्रोध उत्पञ्चहुन्रा और क्रोधित होकर शाप भी दिया कि मनुष्य एवं वानर तेरै नेपाली-हिन्दी नन्दीश्वरकन रिस् उठ्यो र रिसलेमानिस् वानर शब भैकन सहज्ताहाँ -देखि त कातवीर्य सित गोपुग्थ्यो तिनूसित जोर् कहाँ सहजमामेरो वाति भनी पुलस्त्य क्रषिलेबन्धतूदेखि फुकाइ बक्सनु हुँदाफेरी रावण बालि जित्छु भनि गोबालीले पनि प्रि तेस्कन तहाँकाखीमा मिचि चार् समुद्र घुमि फेर्मैत्वी गर्छु भनी मित्यारि गरि खुप्ई बाहेक्-अरु वीर् सबै वश गन्योयस्ता वीर्हरु मारिबक्सनु भयोनारायण् हुनुहुन्छ विष्णु भगवान्जो देखिन्छ कहिन्छ शास्त्हरुलेख्वामित्का अघि नाभिमा कमल भोवाणीले सँग अग्नि ता हजुरका २९५दीया सराप प्ि।माख्न् तँलाई भनीसंग्राम खातिर् जसै।पाता कस्या पो तसै ।। ५६आएर बिन्ती फरी। लाज् भै फिच्यो तेस् घरि॥साथ्मा अनेक् वीर् गया7खुपू काखि चेप्ता भया॥ ५७।॥।छोड्डी दियाथ्या जसै।लाज् मानि फर्क्यो तसै ॥तीन् लोक्विषे छ्न् जति ।बिन्ती गछ यो कति ॥ ५०-॥सब् यो चराचर् पनि।तारायणै हो . भवी॥ब्रह्वाजि ताहीँ भया।मुख् देखि निल्की गया॥५९।। शब होकर तुझे सहज ही मार डालें। उसके पश्चात् वहाँ से काति-वीयं के साथ संग्राम हेतु प्रस्थान किया। बेचारे का कातिवीयं सेक्याजोर चल सकता था, उसे सहज ही बाँध दिया गया। ५६ जबपुलस्त्य क्रषि अपचा पोता कहकर वहाँ आये और विनती करने केबाद उसै उस बन्धन से मुक्त कराया तब उस समय उसे अत्यन्तलज्जा हुई । रावण पुनः बालि पर विजय पाने के उद्देश्य से अनेकवीरों को अपने साथ लेकर गया। और बालि ने उसे वहाँ पकड्कर“अपने बगल के नीचे कसकर दबा दिया । ५७ इस प्रकार अपनेबगलके नीचे दबाते हुए वे चार समुद्र की परिक्रमा लगाकर वहाँआये और “पुनः उसे तब मुक्त किया तब उसने मित्तता का सम्बन्धकायम करने की प्राथेना की और बालि से तदनुसार मित्तता करनेके पश्चात लज्जित होकर लौट गया। इसके अतिरिक्त अन्य सभीवीरों सिको. भी अपने वश मैं किया जो कि तीनों लोक मैं रहते हुँ। आपनेऐसे वीरों को मारने की क्कपा की है इससे अधिक क्या विनती कर्डै। ५८भगवान् विष्ण नारायण और ये चराचर आदि जो भी दृष्टिगत होतेहै शास्तज्ञ लोग उन्है भी नारायण कहते हैँ। पहले श्रीमन् जी केचाभि से कमल उतन्तन हुआ और उसी से ब्रह्मा जी प्रकट हुए। 082001 भानुभक्त“रामायण (बड्रिदिखि लोकपालू हुनः ग्याँस ई, ।(अखादेखि भया दिशाहरु भन्या ? कान (देखि-।सब्रुको प्राण तयार् भयोः हजुरका: राणृदेर्खिःन्ञासादेखि त: वै अश्विन्रिकुमाड।: वेद जंङ्घी जानु'उछँजघन् यति शरीर्' “देखीकोखौंदेखिँ ति: चारीँ समुद्राहुन गो": वँशन्'तिस्क्या :स्तन् ढुँइदेखि इन्द्र रुवरुण् दूवै 7 ]रेतैदेखि त तबीलिखिल्यहरुः सब्," निस्क्या तपस्वीःअति गाडि मुक्ती आईन विशवात्मी हुनुहुन्छ नाथ् !खूशी. भैकन _ देव चाणीः के प्रभाव से आपके मुख सै अग्नि निक्रेलकर चल 'बीहो सके लोकपाल- प्रकट" हुएँ और आँखो से चद्ध सूयःतथार”दिशाओंकी ज्ञान हुँआए तथा, , काँ से: छाब्दो का: उच्चारण :हुआ: उइन सबकगच्राणो कारसंचार“ हुआ- जिसमें 'श्रीमन् का: प्राण -मुख्य हुआ ।”व्वाक,सैवैद्य अश्विनी कुमार जो-वेदीङ्ग मैं रप्रवीण-्थे, :हुए,। ६०::जाँघच्सैखु ;जघचवतकी/£ और शरीर? से: भूसलोक हुआ: बंगल सि चारसमुद्र का निर्माण हुआ,.कहाँ' तक वर्णन “किया-जाय? (-स्तननसे चदोनो'दिशाऔं के पति इन और वरुण: उत्पन्त-हुऔ ।: - बालून्से बालेखिल्य आदि निकले जीः अत्यन्त तपस्तरी थे ।.६१; धमे-अधमे के विवेक :कोः रक्षक अंझराज लिंग द्वारा: ।प्रकटः हुआ. मृत्यु “मलःसो.उत्पन्न हु और रुद्र श्रीमन् के क्रोधसि हुआ त -हृङ्डियों, से: जितनेः प्रेवेतआदि हैं बने" और केश-से मेर्घ,उत्पन्न हुआ जो;औषधि:-है: वह: शरीर:के-छिद्र से हुआ और नाखूनौं सेसर्ब स्वर बने। ६२)". हँ नाथ] आप हैं. पुरुष-छूपी:विश्व-ओत्मा हीयि” तो“ केवल शक्ति मात्लै'है ।-उसके वल पर् प्रसन्न होकरःदेत्रताओटाको 'आर्प सदा अमृत-पीन कराते हत हँ। 'जो कुछ भी इस,'संसार मे 'येःचराचरै हि सर्बः-श्रीमतु की-ही तो सृष्टि हैँ।? आप-ही; के“ आधार?- पर जीविलं नेपाली-हिन्दी २९७ जस्तै दूधविषे, रहन्छ, भरिपुर् घीकझ उही रीत् गरी।“सब चीज्मा हजुरै पसी रहनुभो सर्वान्तरात्ता हरि ॥. हुन्छन् सुय्यंहरर प्रकाश हजुरकै तेज्ले हजुर् सब् धनी।ख्वामित् लाइतनाथ् ! प्रकाश् गरिदिन्या छैनन् अखूक्वैपति ।। ६४ ॥।ज्ञाती जतूहरु देख्तछन् सकल खूपू : अज्चानि अन्धा सरी।देख्तैनन् “प्रभुलाइ मूढ - हुनगै घुम्छन् विपत्मा परी॥योगी ..भैकेन वेदशीर्षहरुले खोज्छन् त देख्छन् पति।यस्ता रीत् सित यो चराचर विषे श्रीराम् रह्याछ्न् भनी ॥६५॥। बक्वाद् गच्याँ प्रभ् ! हजूर्सित रिस् नमानी । रक्षा हवस् प्रभु ! अनुग्रहपाव्र जानी ॥ चिन्मा अष्वितिय नित्य हजूरलाई। 'भज्छू निरन्तर टहलू गरी हर्ष पाई॥ ६६ ॥“बाली सुग्रिव इन्द्र सुय्ये-सुत हुन् भन्त्या सुन्याको त छुँ।कस्ता रीत्सित जन्म भो इ दुइको विस्तार् समेत् खोज्दछु ॥विस्तार् सुन्न म पाउँ सब् भनि हुकृम् : रास्को भएथ्यो जसै।विस्तार् खूशि 'भई अगस्ति क्रषिले बिन्ती गन्या सब् तसै ।६७।॥।ब्रह्मा चार् सय कोशको गरि सभा सुमेरु माथी थिया।ईश्वर्लाइ: रिझाउनाकन तहाँ खुपू योगमा मत् दिया ॥ को भी देखा जाता है। ६३ सब चौजों में. श्रीमन् ही विराजित हैँ,सर्वान्तरात्मा हरि हँ। सूयँ तथा प्रकाश श्रीमन् ही के तेज से उत्पञ्चहँ अतः आप ही इन सबके स्वामी हैँ। अतः श्रीमन् को प्रकाशप्रदान, करनेवाला और कोई नहीं है। ६४ ज्ञानीजन सबकोहरि-छप मैं देखते है परन्तु अज्ञानी जन अंधे के समान प्रभुको नहीं देखते हैँ।. मुखे वनकर विपत्तियो मैं -घिरे घूमते रहते हैँ।योगी होकर वबेद्र शीर्ष आदि लोग ;ढूँढते है देखते कुछ चहीहैँ। इसरीति से: चराचर में श्रीराम बसते हैँ। ६५ - ऐसी बकवास मैँने क्रोधरहित होकर श्रीमन् के साथ की है, अनुग्रह-का पात्व जानकर-श्रीमन् मेरी रक्षा कर ।., चित्त मैं चित श्रीमन् को रखकर मैँ निरन्तरजता रहुँ तथा सेवा करके मुझे हर्ष प्राप्त हो । ६६ -वालि-सुग्रीव के इन्द्रऔर सूये के पुत्न होने के बारे में मने सुना तो है। किम्त प्रकार इन लोगोका जन्म हुआ सविस्तार जानना चाहता हूँ । श्रीराम ने जब सविस्तारवर्णन सुनने की आञ्चा दी ,तब अगस्ति : त्रहृषि ने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण २९५योग्मा चित्त बढ्यो र भक्तिरसलेआँसुको ताहि वीर वानर बन्योब्रह्माका मनमा दया पर्नि उठ्योमेरा नित्य नजीकमा रहु यहाँब्रह्माका इ वचन् सुनेर खुशि भैफल् फूलू खायर तेहि पर्वत विषेलाग्यो पानि पियास कृप नजिकैआफ्ना छाइँविषे नजर् परिगयोआर्कै वीर् सरि मानि तेहि कुपमाआर्को कोहि नदेखि फेरि झटपट्निस्क्यो बाहिर कृपदेखि त असल्लाग्यो खेद् मनमा कसो गरि भयाँदेख्या इन्द्रजिले र तेहि बिचमापक्म्या इन्द्रजिले र वीयं त गिरीताहाँ वीर्य त एक् कुमार् हुन गयोबालैदेखि भयो भनीकन रह्यो भानुभक्त-रामायण आँसु खसाया जसै।आइ्चयं मान्या तसै ॥ ६८ ॥बोल्या वचनूले पतन्ति।कल्याण होला भनी॥बाहीँ नजीक्मा रह्यो। त्यो नित्य डुल्दो भयो ॥६९॥देख्यो र पौँच्यो तहाँ।त्यो कप हेर्दा महाँ॥कृदी पसैथ्यो जसै।उफ्रेर निस्क्यो तसै ।॥ ७० ॥स्ब्ीको स्वरूप पो बनी।स्त्रीको स्वरूपूको भनी ॥तिन्मा बहुत् मन् भयो।सब् बाल देशूमा गयो ॥७१॥।बालुमा गिच्याको पर्तिनाम् वालि वीर् भो भनी ॥ विस्तार वर्णन किया । ६७ ब्रह्मा चार सौ कोस दूर पर्वेत मै तपस्या कररहेथे। ईश्वर को प्रसन्न करनेके उद्देश्य से योग मैं अत्यन्त ध्यानदिया। योग मेँ रुचि बढी और भक्ति रससे जैसे ही अश्रु प्रवाहकिया उन अधभुओं से एक वीर वानर की सृष्टि हुई जिसे देखकरबे अत्यन्त आश्चर्य चर्कित हुए। ६८ बत्नह्या के हृदय मै दया भी उत्पन्नहुई और आफ्ने कहा कि नित्य मेरै निकट रहो जहाँ तुम्हाराकल्याण होगा । त्रह्या के इन वचनों को सुनकर प्रसन्नता के साथवहीं निकट रहने लगा। फल-फूल खाकर उसी पर्वत मैँ वह घूमने लगा। ६९ जब ससे प्यास लगी निकट ह्वी उसने कुँआ देखा औरपहुँच गया। उस कुँए मैं जब झाँका तो उसै अपना प्रतिबिम्ब दिखाईदिया । उस प्रतिविम्ब को दूसरा वीर सोचकर वह उस कुँए मे जैसे ही कृद पड्डा वैसे ही किसी. को वहाँ न देखकर शीघ्रता से बाह्र निकलआया । ७० कुँए से बाह्र निकल तो आया परन्तु सचमुच वह स्त्वीका रूपधारण किए हुएथा। मन में अत्यन्त खेद हुआ कि मैँ किस प्रकारस्की के खूप मै परिवर्तित हो गया हँ। इन्द्र जी ने उसे देखा और उस परउसी क्षण मन्त्र-मुग्ध हो गये। इन्द्रजी ने उसे पकड लिया और वीयंपात होकर सव बाल देश (केशों में) मै चला गया । ७१ ' उसी वीर्यसै नेपाली-हिन्दी , २९९- माला काञ्चति पुत्न जानि बढियाबाबुको करुणा बुझेर खुशि भैतेस् बीच्मा तहि सूर्य आयर नजर्सुर्य्येको पनि वीगय्यंपात् हुन गयोतेही बीज् पनि बेस् कुमार् जब बन्योग्रीवादेखि भयो भनेर तिनकोसुग्यैले पति पुत्नलाइ बलवान्वीर् मध्ये बलवान् थिया र हनुमान्,सुग्रीवका सँगमा रह्खा ति हनुमानूवाली सुग्रिव दूइ पु सहजैवाली सुग्रिव दुइ पुत्न सँगमाप्रातःकालविषे त फेरि अघि झैंस्क्वी रूपू भैकन वालि सुग्रिव दुवैब्रह्मालाइ गर्छ प्रणाम् भनि दुवैब्रह्वालाइ खबर् भयोर खुशि मन्किष्किन्धापुरि दीन मनूसुव भयो एक् इद्धजीले दिया।त्यो बालि वीर्ले लिया॥७२।॥।लाया , उसै स्त्ीमहाँट।ग्रीवाविषे पो हहाँ॥ग्रीवाविषे एक् जसै।सुग्रीव नाम् भो तसै ॥७३।॥,साहाय दिन्छु भनी।'ज्यूलाइ दीया पनि॥श्रीसूग्यै धामूमा गया।ती वानरीका भया ॥७४)।ली सुत्न खातिर् गइन्।ती स्की पुरुषै भइन् ॥जन्म्या इ पुरुष भया।छोरा सँगै ली गया ॥७५।॥।तिन्को गराया पनि।आश्रित् अनाथ् हो भनी ॥ एक कुमार उत्पन्न हुआ जो केशों मै गिराथा। बाल सै उत्पन्न होनेके कारण ही उसका नाम वीर बालि पड्रा। माला कांचिनि का पुत्रजानकर इन््रजी ने उसे एक माला अपँण की। पिता की करुणासमझकर वीर बालिने उसे प्रसन्नतापू्वंक स्वीकार कर लिया। ७२उसी बीच सूयं ने वहाँ आकर उस स्ल्वी पर दृष्टिपात किया। सूयंकाभी उसके ग्रीव (गरदन) पर वीयंँपात हुआ । उस वीयंसे भी जो ग्रीवा पर गिराथा एक उत्तम कुमार उत्पन्न हुआ। ग्रीवा सै उत्पन्न होनेके कारण उनका नाम भी सुग्रीव पड्डा । ७३ सुये ने भी यह कहकर कि इस: पुत्न को एक बलवान सहायक दूँगा, हनुमान जीको जो वीरौं मैं अत्यन्तबलवान था, दे दिया। बह हनुमान श्री सूयंधाम मैं जाकर सुग्रीव केंसाथ रहने लगे। बालि भौर सुग्रीव दो पुतल्न इस प्रकार उस वानरीको प्राप्त हुए। ७४ वह बालि और सुग्रीव दोनों पुत्रों को साथ मे लेकरसोनेके लिए चली गयी । परन्तु प्रातः होते ही वह स्त्ी पूर्ववत्पुरुष हो गयी। स्त्री रूप पाकर बालि और सुम्रीव दोनौं उत्पन्न हुए और इसके पश्चात् वह पुनः पुरुष हो गया। इस तरह दोनों पुत्रो को साथ लेकर ब्रह्मा को प्रणाम करने के लिए चला गया। ७५ ३०० थीए एक् तहि देवद्त बलवान्ब्रह्माको हुन गो लगेर गरिदैकिष्कित्धा पुरिमा लगी तिलक दैसातृ 'ढ्वीपूमा जति वानरादिहरू छन्ईश् नारायण भार हने भुमिकोतीनेलाइ सहाय दीनकन ताकिष्कित्धापुरिमा लगी तिलक देतेस् त्रक्षाधिपलाइ लगीकन त झट्त्यो क्रक्षाधिपका ति पुत्र दुइ हुन्सब् विस्तार गरीसक्याँ हजुरमाकिष्कित्धा तहिदेखि बानरकि भैसर्वेश्वर् हुनुहुन्छ चा हजुरमानित्यानत्द चिदात्म चाथ् ! हजुरले भानुभक्त-रामायंण हाजिर र मर्जी पन्ि।यसूलाइ राजा भनी ॥७६॥खुपू राज सोख्मा परोस् ।.तिचूमा हुकूम् यो गरोस् ॥रामूचन्द्न हनन् जसे।तत्पर् हवस् यो तसै ॥७७॥भन्न्या हुक्म् भो भनी।राजा बनाया प्ि॥वाली र सुग्रीव् भनी।मालुम् थियो तापनि॥७०।॥।सुग्रीवृहु छन् तहाँ।क्या धेर् बताउँ यहाँ॥लीला स्वरूप यो धरी। ब्रह्माजीकत खुशू गराउनुभयो सम्पूणँ भूभ्रार् हरी ॥७९॥ बाली र सुग्रिव दुवैकन धमे जानी।कीर्तन् गरोस् त गुण जन्म सबै बखानी । ब्रह्मा को यह समाचार सुनकर मन मैँ खुशी हुई। आश्रित एवं अचाथजानकर किष्किन्धापुरी देने की इच्छाकी। एक बलवान देवदूत जोतिर्कट ही बैठा हुआ था उसै ब्रह्मा ने आज्ञा दी कि इसे ले जाकर राजाबा दो। ७६ किक्किन्धापुरी मैँ ले जाकर तिलक कर दो ताकि यहराज्य कार्य मै ब्यस्त हो जाये। सात ढ्वीपौं मै जितने भी वानर आदिहँ उन. पर यही-शासन करे। श्री नारायण भू-भार हरण करने हेतुजब रामचन्द्र जी होकर आयेंगे उन्हीं को उस समय सहायता देनेकेलिए तत्पर रहेँ । ७७ किकष्किन्धापुरी म ले जाकर तिलक कर देनेकीआश्ञा होने पर उस रिक्षाधिप को ले जाकर तुरन्त राजा बना दिया।उंसी रिक्षाधिप के वे दो पुत्र बालि और सुग्रीव हैँ। 'इस प्रकार जोकुँछ मुझ्ले मालूम था श्रीमन् की सेवा मैं सविस्तार वणँन कर चुका छुँ । ७५उसी समय से किष्किन्धा वानर का हो गया और वहीं सुग्रीव आदि हँ ।प्रभु सर्वेशचर हैँ अतः इस विषय पर मैँ अधिक क्र्या बताओँ।चित्यानन्द तथा आत्मानाथ प्रभु ने अपना लीला-स्वरूप धारण किया।ब्रह्माजी को भी खुश करने की क्रूपा की तथा सम्पूणँ भू-भार काहुरेण किया । ७९ बालि और सुग्रीव दोनौं धम को जानकर जन्म-गुण नेपाली-हिन्दी ३०१ सम्बन्ध केहि रघुनाथ् सित पर्नै जाई।. पापू छुट्छ धम पनि बढ्दछ तेसलाई॥८०॥ वर्णत् या यति कमले हजुरकोवर्णन् गर्छ जगत् यहाँ कि रघुनाथ्आर्को आज कथा कहन्छु रघुनाथ् !रावणले हरि लीगयो त यहिह्रोरावणको र सनकरुमार क्रषिकोसोध्यो रावणले परी चरणमाब्रह्मान् ! को बलवान् छ देवहरुमाजित्छत् सब् रिपुलाइ देवगणलेकस्को पुजत गर्दैछन् द्विजहरूकस्को ध्यान्कन गरेछन् सहजमायस्को निश्चय कत्ति पाइने अनेक्ठ्लो कुन् छ बताइबक्सनु हृवस् हुँदैनथ्यो तापनि 1:सब् तापू हरौंला भी ॥सीताजिलाई पनि।॥तेस्को इरादा भनी ॥८१॥एक् दिन् भयो भेट कहीं ।क्यै बात् क्रषीथ्ये तही ॥ :आधार कस्को गरी।सास्ने अगाडी सरी ॥५२।॥।जो योगि हुन् ती पनि।संसार् तरौंला भनी ॥कस्तै विचार्दा पनि।येही छ ठूलो भनी ॥५३॥ यस्ता डबलुको जसै। सून्या प्रश्न सनत्कुमार क्रषिलेमाफिक् बताया तसै॥ जान्या रावणको र आशय उसै सबकी व्याख्या करते हुए कीर्तन करे जिससे श्री रघुनाथ के संग कुछसंबंध स्थापित हो जाता और बह् पाप से मुक्त हो जाता। 5० उसमे.धमे-वृद्धि होती। प्रभु का वणेन इतने ही कम से नहीं होताथातथापि यहाँ जगत वर्णन करता है कि रघुनाथ पाप और ताप का हरण:करेँगे । 'आज मै एक अन्य कथा कहता हुँ रघुनाथ !? रावण सीताजी को हरण कर ले गया और यही उसका इरादा भी था। ८१रावण और सनत्कुमार क्रषि की एक दिन कहीँ भेट हो गयी।रावण ने चरणों मै पड्कर त्रद्ृषिसे कुछ बात पुछी। व्राह्मण ! देवों:मैं से बलवान कौन है? और किसके आधार से देवगण सामने अग्रसरहोकर समस्त शलुओ को जीतेगे ? 5२ योगी होने के लिए द्विजलोग किसका पूजन करते हँ, सहज संसार तरने की इच्छासे किसकाध्याच करते हैँ। अनेक प्रकार से विचार करने पर भी मैं यहनिश्चय नहीँ कर सका कि कौन बड्डा है, अतः यह बतानेकी क्कपा करेकि यही श्रेष्ठ है। ०३ जब सनछुमार क्रषिने इस प्रकार के महत्व- :पूर्ण प्रश्श को सुना तब रावण के आशय को जानकर उसी प्रकार“ बताया--सुनो रावण) एक हरि के समान महान अन्य कोई नहीं ३१९"सून्यौ रावण ! एक् हरी सरि ठुलोदयौताका तब दातवादिहरुका जस्ले नाभिकमल् विषे त भगवान्ती-द्वारा जगतै बनाउनु भयोइन्द्रादीहर जित्तछन् रिपु सवैध्यानूले योगिहरू तिनैकत भजीराबण्ले इ वचन् सुन्यो र क्रषिकाविष्णले जति, मादँछन् रणमहाँदोस्रो प्रश्न सुन्या तहाँ ति क्रषिलेउत्तर् फेरि दिया क्रपा गरि तह्दाँयौताले जाति मादँछन् ति त अनेक्कालान्तर् पछि जन्म हुन्छ तिनकोजस्लाई हरि मादेछन् उत तसैमुक्तै भैकन बस्छ जन्म तसकोयस्ता सत्य वचन् सुनी मन बुझ्यो भानुभक्त-रामायण मिल्दैन आर्को कबै।आधार् इनै हुन् सबै ॥५४॥।ब्रह्माजि पैदा गरी। ठ्ला तिनै हुन् हरि॥आाधार् यिनै हुन् हरि।जान्छन् सहज् पार् तरी ॥५५॥।बिन्ती गन्यो फेर् तहाँ।ती वस्त जान्छन् कहाँ॥यस्ता प्रकारको जसै।तेसूलाइ तिव्ले तसै ॥५६॥।स्वर्गादिको भोगू गरी।पृथ्वी तलैमा झरी॥जान्छन् तुरुन्तै अति।हँ दैन कैले पनि॥८७॥रावण् भयो खुश् अनि।मुक्तै म हुन्छ् भनी॥ संग्राम् श्रीहरिथ्यै गरी तहि मरी है; देवों तथा दानव आदि के आधार सव वह्टी हैँ। ५४ जिसकीकृपा से भगवान के नाभि से उत्पन्न कमलने ब्रह्मा जी को पैदाकिया उन्ही के द्वारा जगत के सृजन का हेतु वही महान हरि है।इन्द्रादि भी अपने शलुओ पर उन्हीं हरि के ही आधार पर विजय प्राप्तकरते हुँ और योगी लोग उन्हीँ का ध्यान एवं भजन करके सहजहीपार तर जाते हैँ। 5५ रावण ने इन वचनों को सुना और पुनः त्रद्षिसे;विनती की । विष्णु द्वारा रण मैँ जितने भी मारे जातेहैँ वेरहनेकेलिए कहाँ जाते हैँ। इस प्रकारका दुसरा प्रश्न सुनकर क््षि ने उन्हेँपुनः क्ृपापुवंक उत्तर दिया । ५६ देवताओ द्वारा जितने भी मारे जातेहँ वे अनेक स्वर्गादि को भोग करते हुए कालान्तर मैं पृथ्वी तल परजन्म लेतै हैँ। हरि जिसे मारते हैँ वह् तो,तुरन्त मुक्त हो जाता हैऔर उसका कभी भी जन्म नहीं होता । ५७ ऐसे सत्य वचनों कोसुन्नेकर रावण के मन मै सन्तोष हुआ और साथ हौ प्रसन्तता भी।यह सोचकर कि श्रीहरि के साथ संग्राम कर उनके द्वारा मारे जानेपर मुक्त, हो जाउँंगा, ऐसा निश्वय मन मैँ कर दृढ संकल्प लिया जोत्रहृषिने भी जान लिया ओर प्रसन्न होकर सनत्कुमार त्रहृषि ने उसे वेपाली-हिन्दी यस्तो सुर् मनमा जसै दृढ गन्योखूशीभै ति सतनकुमार त्ररषिलेहे रावण् ! सुनवत्स! जो छ मनमातिम्रो लौ परिपूर्ण हुन्छ मनमारूप् जस्तो हरिको छ भन्छु अहिलेस्थावर् जङ्गम सूय चन्द्र पुथिवीई रूप् हुन् हरिका अनेक् तरहकापीताम्बर् घनश्यास् 'त सूक्ष्म रुप होयो रूप् देखन मन्सुबा छ त हुनन्छोरा हुन् दशरथ्ूजिका भनि जगत्सीता लक्ष्मण साथमा लिइ पिताजानन् दण्डक वन्महाँ भजिलियायो विस्तार सनत्कुमार क्रषिकाचीन्ह्यो ख्वामितलाइ तेस् बखतमाश्रीरामूचद्धसितै विरोध् गरि तिनैसंसार् सागर पार् तरेर सहजैयस्तो आशयले सिताकन हप्योलक्ष्मी हुन् इ सिता भनीकन चिन्ह्यो ३०३ जान्या क्रषीले पनि।आशीष दीया पत्ति ॥ ८८स्वाभीष्ट सिद्धी सबै॥शंका नामान्या कबै॥यस्ता हरी छन् भनी।शेष् दैत्य दानव् पनि ॥५९।।यो खूपू विराट् रूप हो।देख्छु क्रपैलै छ यो॥इक्ष्वाकु कुल्मा हरि।भन्नन् तिरामूनाम्गेरी।।९०।॥।जीका हुकूमूले गरी।चीन्ह्या तिनै हुन् हरि ॥मुख्देखि जस्सै सुन्यो।तेस्लेर यस्तो गुन्यो ॥९१।॥।का हातदेखी मरी।जान्छू जहाँ छन् हरि॥रावण् त हो बुद्धिमान् ।मान्थ्यो कहाँ हो अजाव्॥॥९२।॥। आशीष भी दिया। दद है रावण ! सुनो वत्स, तुम्हारे मन मँजोभीआकांक्षा है वह सब परिप्नृण होगी, कभी मन मेशंका न करो। हरिका रूप कैसा है ? मैं अभी तुम्है बताता हँ कि हरि ऐसे हँ-ग्रह, सूयं, चन्द्र,पृथ्वी, देव, दानव आदि भी । 5९ ये रूप जो हरि का है अनेक प्रकारके ये रूप विराट रूप हैँ। पिताम्बर, घनश्याम आदि सुक्ष्म ख्प, ये सबउन्हीं की क्रपा से दिखायी देते हैँ। यह रूप देखने की इच्छा यदिहो तो इक्षवाकू कुल मै हरि का जन्म होगा। राम-नाम धारीको दशरथ जी का पुत्र जानकर जगत कहेगा । ९० सीता-लक्ष्मण कोसाथ में लेकर पिता जी की आज्ञा के फलस्वरूप राम दण्डकवन मैँ जायँगे,।उनको ही हरि जानेकर' पह्चानो । ऐसा विस्तार सनत्कुमार त्रषि के मूँहसे सुनते ही उस समय उसने स्वामी को पहचान् और ऐसा मन“ मैंसोचा। ९१ श्रीरामचेन्द्र जी का विरोध करके उन्हीं के हाथों मरकरसंसार-सागर से पार तर कर सहज ही: हरि जहाँ है वहीं जाँगा। इसी' कारण सीता,.का हरण किया। रावण तो बुद्धिमान व्यक्ति है, सीता ३०४ भानुभक्त-रामायण जो यो कथाकन खुशी भइ पाठ गर्छन् ।सुन्छन् कहीं कहि सुनायर पाप हन् ।।खुपू आयु वढ्छ तिनको अति सौख्य हुन्छन् ।धन् लाभ हुन्छ बहुतै जब नित्य सुन्छन् ।।९३॥ एक् दिन् नारदजी डुली सकल लोक् आया नजीकृ्मा जसै।'देख्यो रावणले र पाउ परिएक् बिन्ती गस्यो यो तसै॥।हे सवंज्ञ मुने ! लडाकि बलिया वीर्छन् कहाँ सोकही।पाञलाग्नु हवस् गप्यो विनति यो खुप् लड्च इच्छा भई ॥९४॥रावण्का इ वचन् सुनेर मुनले मनूले विचार् खुप् गरी । छन् को भनुँ छैन वीर अरुता याहाँ . तिमीले सरी ॥“तिम्रो मनूसुब पूर्ण गने सकच्या वीर् श्वेतद्ठीपूमा गया ।:मिल्छन् जाउ तहीँ नजाउ कहि लौ खुप् लड्न मगसूब् भया॥९५॥। जोः विष्णुको पूजन नित्य गर्छन् ।जो विष्णुका बाहुलिदेखि ' मछेन् ॥तेस्ता महात्मा तहि बस्व जान्छन्ँ।व्वैलोक्यका वीर् तति तुच्छ ..मान्छन् ।।९६॥ को लक्ष्मी जानकर पहचान लिया । . वह अन्जान -कहाँ हो सकता था । ९२जो इस कथा को प्रसन्नतापुवंक पाठ करता है तथा कहीं सुनता है और कहींइसे सुनाता है उसके पापों को हरते है, उसकी आयु में वृद्धि होती है तथाअत्यन्त सुख पाता है। धनका भी नित्य उसे लाभ होता है। ९३ एकदिन नारद जी सकल लोकों का भ्रमण कर जैसे ही उनके चिकट आयेरावण उन्हेँ देखते ही तुरन्त उनके पाँवों पर गिर पड्डा और विन्ती करनेलगा । हे सर्वग्य मुने ! लड्डाक् बलिष्ठ वीर कहाँ हँ, बताने की क्रपा करे,भेरा प्रणाम स्वीकार कर) मुझ लड्ने की अत्यन्त इच्छा हो रही है। ९४रावण के इस वचन को सुनकर मुनिने मन मैँ गम्भीरता से- विचारकर कहा कि किसको वताउँ, तुम्हारे समान तो यहाँ और कोई वीरन्नहीँ है। तुम्हारी मंशा पुणे कर सकनेवाला वीर - श्वेतद्ठीप मेचला गयाहै। अतः वहीं जाओ, मिल जायेगा। और कहीं, नजाओ, यदि सचसुच ही तुम्है लड्ने की इच्छा हो । ९५.' जो विष्णुका पूजन नित्य करते हुँ विप्ण् की बाहों द्वारा मरते, हँ, महात्मा वहीं रहने के लिए जातेहँ। ब्विलोककेवीरोंको तो:वेबहुत ही तुच्छ मानते हँ। ९६ नारद के इस वचन को -सुनकर शीत्रता नेपाली-हिन्दी नारद्का इ वचन् सुनीकन त झट्श्वेतद्ठीपू पनि पुग्दछ भन्ति चल्योझवेतद्दीप नजीक् पुगेपछि विमानुओर्ल्यो पुष्पकदेखि हिक्मत थियोश्वेतद्ठदीप पुगी प्रवेश् गरेँ भनीधाया सुन्दर नारि घेरि चहुँओर्अर्कीले प्नि देखि पक्रिकन सबअर्कीले अझ अर्किले धरिलिदा उसृक््यो स्त्वीहरुदेखि बल्ल र यहाँमर्छु मै पनि विष्णुदेखि र यहाँजल्दी मने निमित्त खुप् छल गरीलंकामा लगि मातुवत् जननिकोरामू नामले परमेश्वरै हुनुभयोक्या बिन्ती गरेँ धेर् हजुर् त सबकामेरो येहि चरित्न गायर रहोस् ३०५ पुष्पक् विमानुमा चढीरावण् त तेसै घडी॥पुष्पक् नचल्च्या भयो।पैदल् दगुर्दै गयो॥९७॥ मनृसुबू गरेथ्यो जसै।'आए्चयैं माच्यो तसै॥'वृत्तान्त सीद्धी भई। चेत्यो वहाँ पो गई ।॥९०॥: आएचयँ मन्यो पर्नि।आएर बस्छू भनी॥सीताजिलाई हन्यो। सेवा पनी खुप् गच्यो ॥९९॥।मालुम् छ सबूका पतति।साक्षी जगतूका पनि ॥यो लोक संसार् भनी। गर्नुहुन्छ यहाँ अनेक् तरहका संसारि लीला पनि ॥१००॥से पुष्पक विमान मैँ सवार होकर श्वेतद्ठीप ही पहुँचूँगा, ऐसा सोचकररावण उसी क्षण चल पड्डा। श्वेतद्ठदीप के निकट पहुँचने के पश्चात्पुष्पक विमान चलना बन्द हो गया। अतः पुष्पक से उतरा--साहसीथा अतः पैदल ही दौडता हुआ गया । ९७ श्वेतद्ठीप पहुँचकर उसमेँप्रवेश करने की इच्छा करते ही सुन्दर नारियौं ने आकर उसे चारोओर से घेर लिया, यह देख उसे आश्चयं हुआ । दूसरी भी उसे पकडकर सव वृत्तान्त पुछ्ने लगीं। इस प्रकार सभीके एकके बाद एकद्वारा पकड लेने पर उसे वहाँ जाने पर पश्चाताप हुआ । ९० बडी-कठिनता से उन स्त्वियों से छुटकारा मिला और उसे बहुत ही आश्चयंभीहुआ। मैँभी विष्ण् द्वारा ही मङँगा अतः यहीं आकर रहताहँ ऐसा सोचकर तुरन्त ही मरनेके लिए अत्यन्त छल द्वारो सीता जीका हरण किया। लंका मैं ले जाकर मातृ व जननी की सेवा भी लगनसेकी । ९९ रामन-नाम के द्वारा परमेश्वर का जन्म हुआ, यह सबको ज्ञातही है अधिक क्या विनती कर; श्रीमन् सबके साक्षी और जगतपति छैँ।वेही मेरे चरित्न का गान करंते हुए यह् लोक-संसार मै रहँ। वेयहाँअनेक प्रकार की सांसारिक लीला भी करते हुँ। १०० इसी रीतिसै ३०६ येही रीत् सित रासको स्तुति गरीसंसारी सरि भै अनेक विषय-भोग्फर्क्यो पुष्प विमान् कुबेर् सित्त गईफर्क्या वाथ् ! स कुबेरका हुकुमलेपैल्हे रावणले जितीकन लियोऐल्हे श्रीरघुनाथले जितिलिदाखुपू यो योग्यभय अझैं पनि तँजाआउचू तईँले यहाँ जब ,त राम्हक्म् येति कुबेरले पनि गच्यामंजूर सोहि हुकूस् गरीकन फिम्याँपुष्पक्को विनती सुनेर रघुनाथऐले जा तै म सम्झुँला त उ बखत्पुष्पकूलाइ बिदा दिया र रघुनाथ्जस्का राज्यमहाँ बुढा पछि रही भागुभक्त-रामायण खुश् भै अगस्ती गया।श्रीराम गर्दा भया॥रामूृकै हजूरुमा गयो।यो बिन्ति गर्दो भयो॥१०१॥। सेवा उसैको गरिस्।उन्का अधीन्मा परिस् ॥सेवा प्रभूकै गरी । वैकुण्ठ जान्छन् हरि ॥१०२॥ख्वामित् पुग्याथ्याँ जसै।खुश् भै हजूर्मा. तसै ॥जीको हुकम्, भो प्ति।चाँडो तँ आएस् भनी ॥१०३॥ले राज्य को भोग् गच्या ।बालक् न कैल्यै मप्या॥ यस्तो राज् प्रभुले गच्या सकलको आनन्दसै काल् गयो।श्रीरामूका तहि राज्यमा पनि ठुलो आए्चय एक् दिन् भयो॥१०४॥। अगस्ति प्रसन्न होकर राम की स्तुति करते हुए चले गये। श्रीरामसांसारिक मनुष्यौं के समान अनेक प्रकार ,के विपय-भोग आदि करनेलगे । कुवेरके पास जो पुष्पकविमान था लौटकर पुनः राम ही केपास चला गया और कहुने लगा कि, हे नाथ ! सै कुवेर की आच्चा सेआपक्े पास लौट आया हूँ। १०१ पह्ले रावण के जीतने केकारण उसे दिया गया और उसीकी सेवाकी। अभ्री श्री रघुनाथजीत लेने पर उनके अधीन हो गया। अब अति योग्य होकरअभी तू जाकर प्रभुकी सेवा कर। तू यहाँ तब आना जबराम रूपी हरि बैकुण्ठ को चले जायेँ। १०२ मैंजैसे ही पहुँचा कुबेरकीइतनी 'आज्ञा हुई। स्वामी ! ..मैं उसकी आज्ञा को शिरोधायं करप्रसच्चता से श्रीमन् के पास लौट आया । पुष्पक की ऐसी विनती सुनकरश्री रघुनाथ की भी आज्ञा हुई-अभी तो तु चला जा, मैं जिस समय:तुझे, स्मरण कङँगा तु उसी समय तुरन्त आना। १०३ इस -प्रकारपुष्पक को विदाकर रघुनाथ राज ओगतने लगे । जिसके राज्य मैंवृद्धाओ को पीछि रखकर वालको की कभी मृत्यु नहीं हुई। प्रभु.द्वारा ऐसे राज्य का सञ्चालन किया गया जिस्म सकल जनों का समयआनन्दमय व्यतीत हुआ। श्रीराम के भी उसी राज्य मैं एक दिन,. «८ नैपाली-हिन्दी ब्राह्मणको लडिका मरेछ र पितादेख्या श्री रघुनाथले तब विचार्क्यालेयो विधिभो भनीकन विचार्तपू गर्थ्यौं तहि शूद्र जङ्गलविषे तपू गर्दा जब शूद्र मारिदिनु भो; ब्राह्वाण् खूशि भया, गयो परमधाम्यस्तै रीत् सित पालना गरि लिदाकोटी लिङ्ग पनि स्थलै स्थलविषषेसंसारको सुख भोग् गराउनु भयोयेही गायर लोक् तरुन् भनि गच्यासौता मात्न थिइन् प्रिया प्रभुजिकीशिक्षा खातिर गादिमा बसि अने क्दश्हज्जार् जब वर्षे राज्गरि बित्या ३०७खँदा रह्याछन् कहीं।राख्या श्रभूले तहीँ॥गर्दा भयो याद् जसै।उस्लाइ माज्या तसै॥१०५॥अटठेयो ढबडीका अनि! त्यो शूद्र चाहीँ पनि॥ दुःखी भएनन्, कहीं।थाप्या प्रभूले तहीँ ॥ १०६।।सीताजिलाई पनि ।स्थापन् कथाको, पनि ॥राजषिको चालू धरी।राज्का अतेक् काम् गरी ॥७॥। कालू ता यसँ बीच् यहाँ। सीताले रघुनाथका चरणमाख्वामित् ! नित्य हजूरका चरणमापछेन् आयर पाउमा म सित खुप् बिन्ती गरिन् एक् तहाँ ॥दासी म हुँ तापनि।ब्रह्यादि द्ौता पनि ।॥। १००॥। अध्यस्त आश्चयंजनक घटना घटी । १०४ एक व्राह्वाण के लड्के की मृत्युहुई थी और श्री रघुनाथ ने. उसके पिताको रोते विलाप करते देखभपने मन मैं विचार किया और सोचने लगे कि यह् सब कुछ क्यों। और कँसेहुआ। तब उन्हेँ याद आयाकि एक जंगल में एक शुद्र,तप करता था और श्रीराम ने उसेमाराथा। १०५ तप कररते हुएँउस शुद्र के श्रीराम द्वारा मारे जानेके कारण, अब वह मृत लड्काजी उठा, यह देख वह ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न हुआ और इस प्रकारवह शुद्र बन्धु परमधाम.-को चलागया। ऐसे ही रीति से लोगोकापालन करने के कारण कही कोई भी दुखी-नहीँ हुआ। प्रभु नेस्थान-स्थान मैं कोटि लिगो की स्थापना भी की । १०६ सीता जीको भी संसार के सुख भोग करानेकी क्रपा की। इसीकथाकीस्था-प॒चा करके और इसीका गान करते हुए लोक को संसार तर जानेकी बात कही गयी है । माता सीता प्रभु जी की प्रिया. हुई ।राजश्री का बेश धारण कर शिक्षा हेतु गद्दी पर बैठ अनेक प्रकार केकार्य किये। १०७ जब राज्य करते हुए दस हजार वर्ष व्यतीत हुए-इसी बीच में सीता ने श्री रघुनाथ के चरणों मै एक विनती की,हेस्वामी! प्रभु की नित चरण की दासी' होते हुए भी ब्रह्मा आदि ३०५ गर्छन् बिन्ति हजूर् अघी गइदियापाञ लाग्नु हुन्या छ युक्ति यहि होभन्छन् बिन्ति गच्याँ हजूर् सित सबैजस्तो गर्ने उचीत हो उहि हवस्सीताले बिनती गरिन् र रघुनाथूबेस् भन्छन् सब गर्नु पदेछ यसोलोक्को एक् अपवाद् लगायर तिमी भानुभक्त-रामायण आफैँ प्रभू राम् पनि।वेकुण्ठ जान्या भनी॥ब्रह्यादिको मतृ पनि।ख्वामित् ! जनायाँ भनी।॥॥९॥ज्यूको हुकुम् भो तहाँ।बैकुण्ठ जाँदा महाँ॥लाई बडो वनच्महाँ। लान्छु त्यागू पनि ग्छुँजानु तिमिले वाल्मीकि आश्रम् जहाँ॥ १ १०॥। ऐले गर्भे छ जन्मनन् ढुइ कुमारलोक्को यो अपवाद मेटछ् अबतायाहीँ आयर लोकका बिचमहाँफाट्निन् धर्ति र ताहिबाट तिमिलेयस्रीत्लेतिमि जाउली जब अघीआजँला किन बस्तछ् कहिसक्याँजानाको यहि सूर निश्चय गरीहाम्रो यश् अपयेश के छ दुनियाँ वीर् वीर् तिमीले पति।पस्छ् म नीया भती॥न्याय पसौली जसै।वैकुण्ठ जानू तसै ॥१११॥क्यै काल् बसीमै पन्ति।यै सुर् छ मेरो भनी॥श्रीमान् सभामा गया।मा येहिसोद्धा भया ॥११२॥। देवगण भी आकर मेरे पाँच पड्ते हैँ। १०० प्रभु राम स्वयं ही यदिआगे चले जाते तो पाँव पड्कर प्रभु से विनती करते और इसी उपाय द्वाराबैकुण्ठ को जाते। सब ब्रह्यादि की ओरसे मैंने प्रभु से विनतीकीहै अतः स्वामी जो आप उचित समझ उसे बताने की क्रपा करेँ। १०९सीता ने ऐसी विनती की और श्री रघुनाथ जीकी भी. आज्ञा हुईकि सही कहते है--अब वही करना होगा-बैकुण्ठ जाने के पहले लोगोपर एक अपवाद थोपकर तुम्हैँ बियाबान वत्च मै ले जाकर परित्यागकर्खै और तुम बाल्मीकि के आश्रम मैं चली जाओ । ११० सीता इससमय गभिणी हँ और दो वीर कुमारों को जन्म देंगी, लोक के इसअपवाद को मिटाने के लिए अब न्याय हेतु प्रवेश करता छँ। यहींआकर जब तुम लोक के बीच न्याय पाने के लिए प्रवेश करोगी, वैसेही धरती फट जायेगी और वहीं से तुम बैकृण्ठ चली जाना । १११इस रीति से तुम जाओगी और मैं कुछ समय तक रहकर आअँगा। मैंयहाँ क्यों रहना चाहता हुँ यह मैं बता चुका हँ और यही मेरा विचारहै। जानेका निश्चय कर श्रीराम सभा मै चले गये। दुनिया मे यश-अपयश क्या है यही सब प्रश्न करने लगे। ११२ सबने विनतीकी कि . नेपाली-हिन्दी सबले बिन्ति पती गज्या हजुरमाएकाले पछि क्याभन्योकि महाराज्रावण्ले वनमा हरी लगिगयोयस्ती हुन्, इ सिता उनैकन घरै यस्ती स्त्री पत्ति चोखिहो भनि यहाँचोखी कुन् रहली यहाँ अब उपर्भन्छन् अपूयश येहि मात्नभनि योलक्ष्मण् जी कनडाकिल्याउन हुकूम् ३०९ बोल्छन् यशैयश् भनी।॥एक् सुन्छु अपूयश् भनी ॥क्यै दिन् त राख्यो पनि॥ल्याए छ चोखी भनी ॥१ १३।॥।राजै त राख्छन् भन्या ।सम्पूणँ वेश्यै बन्या॥बिन्ती गरेथ्यो जसै।दीया प्रभूले तसै ॥११४।॥। हूक््मूल् रघुनाथका इजुरमासुन्नेलाइ कठिन हुन्या अति कठोर्हे भाई ! इ सिताजिलाइ अहिलेचोखी जान्िलिदा त दुयंश बहुत्सीतालाइ चढाइ जल्दि रथमाहो ताहीँ नजिकै गएर वतमाउत्तर् केहि गन्यौ भन्या त तिमिलेभाई ! भोलि बिहान लानु वनमा लक्ष्मण् पुग्याथ्या जसै।हृकूम् भयो यो तसै॥त्याग् गने मैले पच्यो।लोकले मलाई गण्यो।॥११५।॥।वाल्मीकि आश्वरम् जहाँ।छाडेर आउ यहाँ॥माग्यौ स ऐले मप्याँ।हकृम् पै हो गच्याँ ॥ ११६॥ प्रभु मै यश ही यश व्याप्त है। परन्तु एक ने बाद मै कहा कि महाराज !मुझे तो एक अपयश सुनायी देताहै। रावणने बन मै हरण करकेजिसेले जाकर कछ दिन रखा था वैसी स्त्वी जो सीता है, उसको पवित्नमानकर वापस ले आये। ११३ ऐसीस्त्ीको भी पवित्न कहकर राजदरबार में रख लिया जाता है तो फिर अब आगे सम्पूण वेश्या बननेपर कौन पवित्न रहेगी । अतः ऐसे अपयश मात्न को सुनकर यह विनतीकरते ही प्रभु ने लक्ष्मण को बुला लाने की आज्ञा दी। ११४ श्री रघु-नाथ की आज्ञा के अनुसार लक्ष्मण जैसे (ही उनके सम्मुख पहुँचे थेवैसे ही सुनने मै अति कठोर एवं कठिन आदेश देनेकी क्रुपा की1हे भाई ! मुझे इसी समय सीता जी को त्याग करना है क्योंकि पवित्नजानकर अपत्ता लेने पर लोगो ने मुझ पर अपयश लगाया। १११ सीताको अविलम्ब रथ मैं चढाकर बाल्मीकि-आश्रम के निकट बन में छोड-कर चले आओ। यदि तुमने मुझसे प्रतिवाद किया तो तुम जानोकि मैं अभी मरा म अत: भाई ! कल सुबह होते ही बनमेलेजाना, यही मेरी तुम्है आज्ञा है। ११६ लक्ष्मण ने जब यह आदेश,सुनातो वे एक महान संकट मै पड्गये। प्रातःकाल उठे और एक उत्तम इब्०लक्ष्मण्ले जब यो हुक्म्कन सुच्याप्रातःकालमहाँ उठेर बढिया सीतालाइ' चढाइ जल्दि वनमालागिन् गर्ने विलापू सिताजि वनमारत्थितूवाल्मिकिशिष्यलेसुनिकलह्यासुन्या वाल्सिकिले र पूजन गच्या" ह्यांया आश्रममा र लोकजननीस्त्री जनूलाइ लगाइ खुपूसित गच्या भानुभक्त-रामायण ठूलो सकसूमा परी।एक् रथू तयारी गरी॥छोडेर आया पनि।छाड्या मलाई भनी ॥ ११७।॥।वाल्सीकिजीथ्यँ गई ।सीताजिको याद् भई ॥सीता इनै हुन् भची।सेवासिताको अनि ॥११०॥। ती विप्रपत्लिहरुले पति लक्ष्मि जानी ।पूजा सिताकत गच्या अति भाग्य माती ॥सीतापती पनि विरक्त भएर सुख् भोग्।छोडी मुनी सरि भया मनले लिई योग् ॥११९॥ अथ रामगीता लीला मेरि भनी सुनीकन तरूत् ई लोक संसार् भनी।लोकैका हितका निमित्त भगवान् मातिस् स्वरूपूका वनी ॥लीला गर्नुभयो र बृद्धहरुले जो गढंथ्या सो गरी।सृत्कामै गरि दिन् बिताउनु भयो बाधा सबैको हरी ॥१२०॥ रथ तैयार किया। सीताजीको उसी मैं चढ्षाकर बन मेले गयेऔरछोडुकर चले आये। सीताजी बन मे अपने को छोडी गयी जानकरविलाप करने लगी ! ११७ बाल्मीकि मरहाष के शिष्य ने उनके रुदनको सुनकर तुरन्त वाल्मीकि जी के पास जाकर सूचना दी। यह सुनकर सीता जीको याद,.करके पूजन किया और जाकर उन्हुँ आश्चम मेंले आये। लोकजननी सीता यहीँ हुँ ऐसा जानकर उनकी सेवा मेंस्त्ियों को लगा दिया। ११६ उन विप्र-पत्नियो ने भी लक्ष्मी जानकरतथा सौभाग्य मानकर सीताजी की पूजाकी। सीतापति श्रीरामभीविरक्त होकर सुख-भोगों को त्यागकर मुन्तिके समान हो गये और मनमै योग ले लिया। ११९ इस लोक मैं संसार इन लीलाओ कोसुनकर कहता है कि लोकहित के निमित्त भगवान ने मनुष्य का स्वरूपधारण कर लीलायेँ की और वृढ्ढो द्वारा किए गये कर्मो के समानसत्कायं करते हुए' दिन व्यतीत किये; यही सबक्े हरि थे। १२०नक्ष्मण जी प्रभुके पास ही थे। उन्होने,प्रश्त किया कि सबसे महान नेपाली-हिन्दी साथ्मा लक्ष्मणजी थिया प्रभुजिथ्येंसोध्या लक्ष्मणले र संब् कहनुभोब्रह्वास्वै विष हो:भनी नुगजिकोबूझ्यो चित्त र फेरि लक्ष्मणजिलेहे नाथ् ! ज्ञान स्वरूप देहहरुकाभुभार् हर्नुभयो अनेक् तरहकालीला हो इ त आत्मरूपि भगवान्यो लीला त दया निमित्त हुनगो यस्ता मालिक जानि पाउ तलमासंसार् रूपि गभीर् समुद्र सहजैसोही युक्ति बताइ बक्सनु हवस्पुग््याछ् पछि धाममा सहजमा लक्ष्मण्का इ वचन् सुनेर रघुनाथूआपना भक्त ति भाइ लक्ष्मणजिकोतत््व-ज्ञान पनी तहीं दिनुभयोभन्छन् लोक्हरुलाई तन सजिलो ३११ कुन् हो ठुलो विष् भनी।विस्तार् प्रभूले पनि ॥विस्तार सुनाथ्या जसै।क्यै सोध्न लाग्या तसै।॥॥२१॥आत्मा अधीन् भै पनियस् आक्वृतीका बनी॥।भक्तै फगत् जान्दछन् ।यस्तो पती मान्दछन् १२:२॥ ख्वासित् ! पच्याको स“छु। कुन् पाठले तदँछु॥जुन् पाठले यो तरी ।आनन्दको भोग् गरी ॥ १२.३॥।मुखै , हँसीलो गरी।सम्पूण सन्ताप् हरी ॥जुन्लाइ, वेद्ले पनि। साँघू छ येही भनी ॥ १२४. विष कौन है । प्रभु ने तब विस्तारपुवंक बताने की क्रपा की कि त्रह्मस्व-ही महान विषहै। इस प्रकार नृग जी के बारे मैं विस्तारपुवँक सुनाऔर मन मैं सन्तोष करने के पश्चात पुनः लक्ष्मण जी कुछ और (पूछनेलगे। १२१ है नाथ ! ज्ञानरूपी देह आदि आत्माऔं के अधीन,होने पर भी ऐसी आक्कति धारण कर अनेक प्रकार के भु-भार हरण्करने की क्रपा की। केवल भक्त लोग ही जानते हँ कि यही तो आत्मिकभगवान की लीलाहै। ये भी मात्ता जाताहै किये लीला दयाकेनिमित्त की गयी। १२२ ऐसे मालिक जानकर हे स्वामी | मैं आपकेचरणतल मैं पड्डा छँ। संसार रूपी गम्भीर समुद्र किस पाठ के द्वारासहज ही तर सकते हैं वही युक्ति सिखाने की क्रपा करे ताकि उसी पाठके द्वारा आनन्द भोगकर सहज ही उस स्थान पर पहुँच सकूँ । १२३-लक्ष्मण के इन वचरतौं को सुनकर रघुनाथ प्रसन्न मुद्रा मै अपने भक्तव भाई लक्ष्मण जी के सम्पूणँ तापका, निवारण कर तत्वज्ञान आदिही बताने की क्रपाकी। जिनके बारे. मे वेदो मै भी कहा गया है. किःयही मनुष्यों के लिए एक सरल साधना है। १२४ इस वर्णाश्रिमकी कियायेजो कुछ भी हूँ उन्है पहुले करके दशेन्द्रियों एव मन,को- ला ३१२ भानुभक्त-रामायण ई वर्णाश्रमका क्रिया जति त छन् तिनूलाइ पेल्हरे गरी।दश् इन्द्रीय र मन् जितेर गुरुका सामूते अगाडी परी॥आक्षज्ञाव मिलोस् भनेर गुरुको सेवा तिरन्तर् गन्या।आतमञ्ञान् पनि मिल्छ येहि रितले संसार कतीले तच्या॥१२५॥। फल् इच्छा गरि कमै ग्छयदिता फेर् देह यस्तै लिई।त्यो फल् भोग्ू पनि गछ गछअरु फेर् कर्म बहुत् मन् दिई॥तेस्को फेर् पनि बन्छ देह करले येसै जगतूमा परी।यस्तै रीतृसित घुम्छ त्यो भुवनमा अत्यन्त चक्रैसरी ॥१२६॥ अज्ञानै छ घुमाउन्या सकलको शबू सरीको यहाँ।ज्ञानैले गरि नष्ट हुस्छ पनि सो लीनू यही मतूमहाँ॥अज्ञानूको र इ क्मेको छ कति फेर तस्मात् कियाले गरी।अज्ञान् नष्ट हुँ दैन छैन अरु थोक् ञपाययै ज्ञान् सरी ॥१२७॥अज्ञान् नष्ट हवस् न रागू न त छुटोस् अज्ञानका कर्मले ।क्मे गछ त घुम्छ यै जगतमा त्यै कर्मका धर्मले ॥तस्मात् ज्ञान विचार गर्नु जनले ज्ञानले कती पार् भया ।ज्ञात् छाडीकन कमले जनहरू संसारपार् को गया ॥१२०॥ जीतकर गुरुके सम्मुख आगे जाकर चिरन्तर गुरु की सेवा करते हुएआक्ज्ञान की प्राप्ति की कामना करने से आत्मज्ञान भी मिल जाताहै और इसी रीति से भनेक लोगो ने संसार तर लिया । १२५ यदिफलकी इच्छा करके कर्म को करते हँ तो ऐसी देह को धारण करके भीउस फल का भोग करते है और अत्यन्त मन लगाकर अन्य कर्मोको भीकरते हँ जिसके प्रभाव से इसी जगत में उनै पुनः देह प्राप्त होतीहैँ। इसी रीतिसे चक्र के समान वह जग में घूमता रहृता है । १२६अज्ञान ही शत्रु के समान है जो सबके मन को घुमाता रहृता है। अतःमन मैं यह समझ लेना कि ज्ञान से ही अज्ञान का नाश होता हैऔर इन कर्मो का कितना महत्व है-मात्व क्रिया को करने से अज्ञान नष्टनहीं होता है, अतः ज्ञान के समान अन्य कोई उपाय नहीं है । १२७अज्ञान-कर्मो से न तो अज्ञानता ही नष्ट होतीहै और न ही रोगसेछुट्कारा मिलता है। कमै ही सब कुछ करता है, कमै के ही धमसेः प्राणी इस जगत में घूमता रहता है। अतः लोग यह बिचार कर लेंकि ज्ञान के द्वारा कितने लोगः तर गये। ज्ञान को छोड्कर कर्मकेही द्वारा संसार मै कौन लोग तर गये। १२० वेदभी कहताहै कि नेपाली-हिन्दी डेप्३बिद्यालाइ सहाय कर्म छ ठुलो भन्छन् इ. वेद्ले पनि।तस्मात/ कमै अवश्य गर्नु जनले साहाय होला भनी॥कब्रैिंसो पत्ति भन्दछन् त ति भनून् साह्ाय कोही रती।विद्यालाइ त चाँ हिदैन नुझ यो विस्तार बताजँकति।॥।१२९॥हुन्छन् कमे त देह गेहहरुमा परा अभीमान्ू भई।विद्याहुन्छ त जो छ तेहि अभिमान् देहादिमा को गई ॥विद्याको र इ कसको त छविरोधू साहाय हुन्थ्यो कहाँ। विद्यै एक् छ समथे मुक्ति दिनमाबाजीका श्रुति तैत्तिरीय कहिन्याभन्छन् येहि कुरा सहाय अकोतस्मात् कमसे विरोधि जानि जनलेविद्यै मात्र ठुलो बुझेर यसमाजो यो तत्वमसी छ वाक्य यसकोयस्मा तीन् पद छन् ति तीन पदकातत्को अर्थ परात्म हो ति पदमाइ्नूको ऐक्य बुझाउन्या असि छ पद् बिद्या का सहायक कर्म हीहै। अतवह सहायक बन सके । को किँचित मात्न भी सहायक की आवश्यकता नहीं होती है। यै जान्नु सब्ले यहाँ ॥१३०॥श्रृतीहरूले पनि ।खोज्दैन विद्या भती॥सबू कमै छाडीदीनू।यो मन् लगाई लीनू ।॥१३१॥वाक्याथ जानी लीन् ।तापयंमा ' मन् दिनू ॥त्वं भन्नु जीवात्म हो।रातूदिन् विचार् गर्नु यो॥ १३२॥।: लोग अवश्य ही कमै करे ताकि कोई लोग ऐसा भी कहते हैँ कि विद्या (ज्ञान) न्ड्सी विस्तार को समझो और कहाँ तक बताऔँ। १२९ कम तो देह होताहै और देह मैं अभिमान व्याप्त हो जाताहैँ। और विद्या जो हैउसी अभिमान-युक्त देहादि मै जाकर जब मिल जाती है तो परस्परबिरोध होता है। इस प्रकार विद्या और कम के परस्पर विरोध मैंएक दूसरेके कहाँ सहायक हो सकतेहैँ। विद्या ही एक मुक्तिदेसकने मै समथे है, यही सब लोग जान लें। १३० थ्रुतियों को सुननेवालेलोग भी यही बात कहते हैँ। विद्या (ज्ञान) को छोइकर अन्य किसीकासहारा नहीं ढूँढते हैँ। अतः कम को विरोधी जानकर लोगो को चाहिए,किसबकर्मो को छोड दै और केवल विद्या को ही महान समशकर इसी भेँमन को लीन करेँ। १३१ जो ये तत्वमसी वाक्य हँ इसके वाक्या्थको जान लेना चाहिए। इसमेँ तीन पद विद्यमान हैँ। उन तीनौंपर्दो का तात्पयं मन को अपँण करना है। तत् का अर्थ परात्मा है,उस पद में, “त्वम्” कहना जीवात्मा है। इनको एक ही बोध करनेवाले “अिस” जो पद मेँहैँ उसीका रात दिन ध्यान करना । १३२ ३१४ भानुभक्त-रामायण सायाले त बन्यो शरीरसबयोदेख्नू पञ्च महाभुतैँ छ सबमासंसारको सुख दुःख साधन स्वरूप्सृक्ष्णोपाधि भनी कहिन्छ सबलेदशू इन्द्रीय र मन् अपञ्चिक्ृत भ्रूतूस्थू्लोपाधि भनी कहिन्छ सबकोयेसै स्थूल उपाधि शिव छ सदास्थूलोपाधि गलेर जान्छ सबकोजीव् ता मुक्त छ शुद्ध निमैल फटिक्सो तनिमैल् पत्ति हुन्छ सङ्ग गुणलेईतै ढृइ उपाधिदेखि बुझ जब्तस्सै मुक्त हुन्याछ छैन नहिताराताका सँगमा रह्या स्फटिक 'ठीक्तस्तै आत्म पनी उपाधि सँगभैआत्मामा छ उपाधि केहि न फटिक्, झुट्टै माव्न छ त्यो झलक् यहि विचार् आखीर् छ मर्न्यी पनि।यस्ता प्रकारको बनी ॥देखिन्छ जो देह् यो।यो नाम् यसैको त हो॥१३३॥।यो सोह्ल जम्मा छजो।म्रूल् भोग साधन् छयो॥इन्को वियोग् भोजसै।टिक्तैन एक् क्षण् कसै ।॥१३४।॥।जस्तो उपाधी गरी।उस्तै उपाधी सरि॥होला फरक् जीव् जसै ।आर्को उपायै कसै ॥१३५।॥।देखिन्छ रात सरि।॥हुन्छन् उपाधी सरि॥मा क्यै छ रातो कतै।खुप् राख्नु जत्ताततै ।। १३६॥। माया से ही शरीर का सुजन हुआ है और अन्त में यह् सब मृत्यु को प्राप्तहोता है। देखना, इन सो मै पंचमहाभूत व्याप्त है। इस प्रकारसंसार के सुख दुःख, साधन-स्वरूप इस देह में दृष्टिगोचर होता है।सर्ब इसे 'स्थूलोपाधि कहते हँ और इसका यही तो नाम है। १३३दशइदछिय और मन और पञ्चभुत-ये कुल सोलह है और इन सबको“सुक्ष्मोपाधि” कहते है और इनका साधन ही मूल भोग है। इसस्थू्लोपाधि के अन्दर सदा ही इनका वियोग होता रहता है सबकास्थूलोपाधि गलकर विलीन हो जाता है क्षण भर भी नहीं टिकता है। १३४जीव तो गुद्ध, निमँल एवं फटिक के समान मुक्त उपाधि युक्त है।शत: सद्गुणों के प्रभावसे उसी उपाधि के समान निर्मल भी होता है।इन दोनों उपाधियों के द्वारा समझने पर जीव को हम पृथक् जबअनुभव करँगे तब ही मुक्ति प्राप्त होगी अन्यथा और कोई उपाय नहींहै। १३५ रात्लिके संग मैँ रहने पर स्फटिक भी ठीक उसी रात्रिके समान दिखायी देता है, उसी प्रकार आत्मा भी उपाधि के संग उपाधिके समान हो जाताहै। आात्मा ही उपाधि है जैसे स्फटिक मैं कहीं भीलाल दाग नहीं होता है केवल वह चमक झूठी है यही मन मै समझ लो । १३६जागृत-स्वप्त-सुसुप्ति-्वृत्तियाँ ये ही बुद्धि के तीन अंशहै। भ्रमसेही नेपाली-हिन्दी जाग्रत् स्त्रप्न सुघुप्ति वृत्ति तिन छन्झुट्टै देखिलिइन्छ नित्य सुखरूप्जानी वृत्ति चिरोध् गरेर जनलेआत्मा भित्न उपाधिलाइ त झुटा ३१५ यस् बुद्धिका ई पनि।यस् बत्नह्वा रूपूमा भनी ॥यो आत्म जाती लिनू।जानेर छोडी दिनू ॥ १३७ आत्मा हो सुख रूप दुःख ख्पको संसार् छ उस्मा कहाँ।अज्चानूले गरि मात्न सत्य रुपले झल्कन्छ आत्मामहाँ ॥ज्ञानूले लीन् पत्ति हुन्छ डोरिकन साँप् बुझ्नू छ जस्तो फगत् ।तेस्तै ईश्वरमा अनेक् तरहका देखिन्छ नाना जगत् ।। १३०॥अध्यास् हुन्छ चिदात्ममा इ सबको जो छन् अह्कारका ।इ्च्छादी पति बुद्धि धमे बुझनू छैनन् कुनै सारका ॥आत्मासाक्षि छ यो पृथक् इ सबमा सब्मा घुस्याको पनि ।जस्तै घुस्तछ अग्नि लोहहरुमा तस्तै प्रकारको बनी ।।१३९।।यै आत्माकन चिह्नु पर्छ गुरका वेदका वचनूले गरी। आत्मालाइ चिन्छ्यो भन्या बुझिलिनूतस्मात् आत्म बिचार गर्नु जनले त्यो भुक्त भो तेस् घरि॥;यस् रूपको हुँ भनी। अज्ञचान् नष्ट गराउनाकन अवर् छैनन् उपायै प्नि ॥ १४०॥ इ्स ब्रह्वा-खूप मैं नित्यसुख का खू्प धारण किया जाता है। इनवृत्तियों को रोककर लोग इस आत्मा को पह्चान लें। आत्मा केअन्दर उपाधि को झूठ जानकर इसे छोड् दो। १३७ आत्मा सुखकारूप है--उसमें ढुःख-छपी संसार कहाँ है। अज्ञानता के कारण आत्माभैं सब कुछ सत्य-छुप झलकता है। ज्ञान सर्पको भी समेटकर ले लेताहै, केवल इसे समझ रखो। वैसे ही ईश्वर मैँ यह जगत अनेक प्रकारका दिखायी देता है। १३०५ इन सबको जो अभिमान है उसेआत्माकेअन्दर पहचावने का अभ्यास होता है। इच्छा आदि भी बुद्धि-धर्म भीजानना जिसका कोई सार नहीं है। आत्मा साक्षी है कि इन सबमेँ यहअलग है और समे ब्याप्त भी है। जिस प्रकार अग्नि लोहा भे ब्याप्तहो जाता है। १३९ गुरु के वेद-वचनो के द्वारा इसी आत्मा को पह-चानना चाहिए। आत्मा को पह्चानते से यह् समझ लेना कि वह उसीक्षण मुक्त हो गया। अतः लोगो को यह विचार करना चाहिए किआत्मा का रूप इस प्रकार का है और अज्ञान नष्ट करने के लिए अन्य कोईउपाय भी नहीं । १४० आत्मा को इस प्रकार पह्चाना जाताहै किवहपह्ले एकान्त मै जाकर बैठ जाये, दशईडद्रियों को वश मेकर मन को $१६ आत्मा यस् रितले चिल्विछ पहिलेदश् इन्द्रीय जितेर मन् पत्ति जितीजानोस् जो छ जगत् प्रकाश् सकल योयेही तत्व बुझी त पूर्ण रुपकोओङ्कार् वाचक हो सबै जगतकोज्ञानोत्तर् हुन सक्छ वाचक कहाँआत्मामा जब लीन् भया अउम तीन्आलै माब्च रहन्छ तेस् बखतमा सोही आत्म म हूँ भनी दुढ भयोजीबन् मुक्त भनी कहिन्छ जन त्योसब् इन्द्रीय शमन् गरेर बलवान्अभ्यास् गर्नु समाधिमा त सहजैयेही पूर्ण अनन्त आत्मरुपकोजो प्रारब्ध छसो बुझेर बलियोयेही रीतृसित दिन् विताउँछ भन्यासंसारका सब ढुःख छोडिकन त्यो भानुभक्त-रामायण एकान्तमा गै बसोस्।आत्मै विचारमा परोस् ॥हो आत्म सत्ता भती।होइन्छ आफू पत्ति ॥१४१॥अञ्चान् अवस्थामहाँ ।लीन् हुन्छ आत्मै महाँ॥विश्वादि साक्षी सहित्।विर्मेल् उपाधी रहित् ॥ १४२॥ ज्ञानुका विचार्ले जसै।पर्दैन तापूमा कसै॥कामादिको नाश् गरी।देखिन्छ सामूने हरि ॥१४३॥ध्यान् वित्य गर्दे रहोस् ।ई ढुःख सुख् सब् सहोस् ॥यो देह् छुट्ला जसै।लीवू हुन्छ मैमा तसै ॥ १४४ जीतकर आत्मा के बिचार मैं लीन हो जाये। सकल लोक यह जानलेकिजो जगत में प्रकाश है वही आत्मसत्ता है। इन्ही तत्वों को समझकरके ही तो स्वयं भी पूर्णछूप को प्राप्त होता है । १४१ सबंजगत कोभज्चान अवस्था में कहे जाने वाला शव्द ओंकार है। ज्ञान का उत्तरअर्थात् वाचक आत्मा मे कैसे लीन हो सकता है। जब आत्मा मैँलीनहोजाता है तब अ-झ-म इन तीन विश्व के साक्षी-सहित उस समय केवल'आत्मा' ही उपाधि-रहित निर्मल रहती है । १४२ जैसे ही ज्ञान द्वाराविचार करने से यह बात दृढ्ह्ो जाती है किमैं ही वह् आत्माहँ। तब कहा जाता है कि जीव जीवनमुक्त हो जाता है औरबह् मनुष्य कदापि ताप से पीड्रति नहीं होता है। सब इद्धियोंको एकाग्न एवं सशक्त करके कामादि को नाश करते हुए समाधिमै अभ्यास करनेवाला सहज ही अभ्यास करता हुआ मैं दिखता हँ । १४३हमेशा इसी आत्मरूप का ध्यान करते रहो और जो कुछ भी कठिनओर सरल अर्थात् जो कुछ भी सुख-दुःख तुम्है मिलेगा उसे साहस केसाथ सहन करो। इसी तरह यदि तुम सम्पूर्ण समय व्यतीत करलोगे तो एक दिन संसार के सारे दुःखों कौ छोडकर तुम्हारा शरीर मुक्त । नेपाली-हिन्दी आदीमा न त अन्त्यमा न बिचमापूर्णातन्द हुँदैन जान्नु सबलेतस्मात् यो विधि छोडि गर्नु जनलेत्यो मैमा मिलिजान्छ जल् जलधिमाआत्मा मात्न छ सत्य यो सब जगत्डोरी सपैँ बुझ्या सरी बिबुझमाजान्नु जानिइएन यो भनि भन्यासेवा गर्नुर जान्दछन् नतरतावेद्को सार रहस्य यो सब. कह्याँकोटी जन्म सहर्खका सकल पापूतस्मात् भाइ ! विचार यो सब जगत्मैमा भक्ति सदा लगायर रहमेरो येहि सगुण् स्वरूपूकन खुशीवा निर्गुण् परिपृण आत्मरुपमाती ढूवै मइ तुल्य हुन् ति मइ हुन्गर्छन् सब् भुवनै पवित्न तिनत्ने ३१७यो देहृधारी बनी ।यो सत्य बातू हो भनी ॥आत्मै विचार् खुपू गरी।पौँचेर मील्या सरि ॥४५।॥।झृट्टै छ: झूटो पनि।देखिन्छ साँचो भनी॥मेरा चरणमा परी।टर्दैन कस्तै गरी ॥ १४६॥।जो ग्रो बिचार् गर्दछन् ।तिन्का सहज् टदँछन् ॥झूटो चटक् झैं भनी।आनन्द रूपी बनी ॥१४७।॥।मानी भजन् जो गख्न् ॥लाएर यो मन् धरन् ॥ती मै सरीका बती।कुल्ची दिदामा पनि ॥ १४०८॥। हो जायेगा और मुझमें लीन हो जाओगे । १४४ प्रारम्भ में, न तो अन्तमैँ न बीच में, यह देहुधारी बनकर पूर्ण आनन्द को प्राप्त नहीं होता औरयह् सत्य बात सानकर सब लोग इसे जान लें। इसलिए इस विधिको सवैजन त्यागकर आत्मा मै गम्भीरता से विचार करं। वैसेहीलोग मुझमें विलीन हो जाते है जिंस प्रकार जल जलधि मैं पहुँचकर् । १४५ यह सवेजगत झूठा है, केत्रल आत्मा ही सत्य है। जैसेडोरीको सर्प समझने के समान अज्ञानता मैं सच ही दिखायी देताहै।यदि ज्ञान की बात ज्ञात न कर सके पर मेरे चरणों मै (भक्ति द्वारा) पड्करसेवा करेगा । तभी उसे सवंज्ञान प्राप्त होगा अन्यथा वह किसी प्रकार तरनहीं सकता । १४६ वेदों का सार-रहस्य सब कुछ कह चुका छूँ।जो इसे विचार करता है, उसके कोटि जन्मों के सहख्न सकल पाप सहज हीविनाश हो जाते हँ। इसलिए भाई! इस जगतको झूठे जाद्व केसमान समञकर सदा मेरी भक्ति मै मन लगाकर और अनन्त-रूपीबनकर रहना । १४७ मेरेइन सढ्गुणों से पुणेस्वरूप को प्रसन्नता सेभजन करे अथवा गिगुंण गा्यें। परिपूणै आत्मरूप मैँ लेजाकर इसमनको रखेँ। वे दोनों मेरे ही समान है और वह मैँहीहँ। अतःवे जो मेरे समान बन सम्पूर्ण भुवन को अपने पाँव से कुचल देने पर ३१८ श्रद्धा भक्ति रहोस् गुरू चरणमायसूलाई श्रृुतिसार् बुझीकन पढोस्यस्ता रीत्ृसित यो पढ्या पनि भन्यामै रै रूपू बनिजान्छ जान्छ सहजै भानुभ्चक्त-रामायण मेरा वचनूमा पनि।मुल् तत्व यै हो भनी ॥अज्ञातको नाश् गरी।संसार सागर् तरी ॥१४९॥ इति रामगीता एक् दिन् श्रीयमुनाजिका तिरमहाँभागवूमा च्यवने थिया इ सँगमाआया श्रीरघुवाथका हजुरमाआदर् खुपू रघुनाथबाट रहँदासेवक् ब्राह्वाणको म हुँ अति क्ृपासेवक्लाइ अह्वाइ वक्सनुहवस्सेवक् हुँ सव सिद्ध गर्छु भनियोआपत् बिन्ति गच्या तहाँ च्यवनलेहे नाथ् ! क्वै मधुनाम दैत्य शिवकातिन्लाई शिवले बिशूल् पत्ति अमोघ्रावण्की बहिनी थि कुस्भिनसि एक्जस्म्यो पुत्र त लोक कण्टक सबै बस्त्या सुनीश्वर्हरू ।बस्त्या थिया जो अरू॥आपत्ति छुट्नन् भनी।खुश् भो क्रषीगण् पनि ॥२०॥। गर्नुभयो धन्य हो।कुन् काम् छ च्छाछजो॥ रामूको हुक्म् भो जसै।रास्का हजूर्मा तसै।॥१५१।। प्यारा महात्मा थिया।खूशी हुँदामा दिया॥बीहा गच्याको थियो। चाल् राक्षसैको लियो ॥५२॥। पवित्न हो जाते हुँ। १४० गुरु-चरणों मैँ तथा मेरे वचन में श्रद्धाभक्ति रहै इसे श्रुति-सार समझकर पढें और इसे मूल तत्व समझ ।इस रीति से पढ्नेसे भी अज्ञानता का नाश होकर मेरा ही छुप धारणकर लेता है और संसार-सागर से सहज ही तर जाता है । १४९ एकदिन यमुना जीके तीर पर रहनेवाले मुनीश्वर आदि जो भार्गव तथाच्यवन त्रदृषियोँ के साथ थे, श्री रघुनाथ की सेवा मै आये ताकि उनकोविपत्ति से छुटकारा प्राप्त हो। रघुनाथ के द्वारा अत्यन्त आदर-सत्कारमिलने पर वे त्रहृषिगण प्रसञ्च हुए । १४० त्राह्माणों का मैं सेवक छूँ।आप लोगो ने अति क्र्पाकी है जिसके लिए अति धन्यवाद! सेवककोआदेश देने की क्रपा कर किक्या काम है और क्या इच्छा है। सेवकहुँ सब कुछ सिद्ध कर दुँगा, कहते हुए जब राम की आज्ञा हुई तबच्यवन ने श्रीरामके समक्ष विपत्तियों के बारे मै विनती की । १५१हेनाथ ! मधघु नामक कोई, एक दैत्य शिव का बहुत प्यारा भक्तथा। उसे शिव ने अत्यन्त प्रसञ्च होकर एक अमोघ किजुल प्रदानकियाथा। रावण की बहिन कुम्भवखीके साथ विवाह किया था। नेपाली-हिन्दी तेस्को नाम'लवण् छ राक्षसि छ चालूआपद् सब् क्रषिलाइ गछ रघुनाथ्यो आपत्ति छुटोस् भनी हजुरमातेस्को ताप नमान्नु माछुँ अहिलेयै बीचमा सब भाइलाइ रघुनाथ्माछौं कण्टक तेस् लवण्कन क्रषीहात् जोरी विनती गग्या भरतलेताहरी फेर् वितती गच्या अति उचितूलक्ष्मण्ले पनि काम् गच्या अघि बडादुःखै भोग भरत्जिले पनि गच्याख्वामित्! आज हुकूम् भया त खुशि भैराम् ठाक्ुर् बहुतै खुशी हुनुभयोयस्तो हृकुम भो बहुत् खुशि भईगादी आज म दिन्छु राज् पछि गच्यापैले जल्दि त मारिहाल लवणैवाणूमा सुख्य जउनूथियो उहि झिकी ३१९ तेस्ले तिशूल् त्यै लिई।बाधा अचेकत् दिई ॥आयौं भन्याथ्या जसै।यस्तो हुक्स् भो तसै ।।५३॥।ले सोधनुझो को गई।का प्राणदाता भई ॥ ख्वामित् ! स जान्छु भनीशबृध्नजीले पनि ॥१५४।॥।साथै इजूर्मा गई।योगी सरीका भई॥जान्छु म ऐले तहाँ।यो बिन्ति सुन्दामहाँ ॥ ५ ४।॥।शल्लुध्नलाई तहाँ ।पुरी बनाई हहाँ॥लैजाउ यो वाण् पनि। दिनूभयो वाण््पनि ॥।१५६॥। उससे लोककण्टक नामक पुत्न का जन्म हुआ और उसका सम्पूर्ण व्यवहारराक्षस के समान था । ११२ उसका नाम लवण है, व्यवहार राक्षस काहे ।वह उसी तिशूल को लेकर सब क्रहणषियों को सता रहा है। है रघुनाथ !अनेक बाधा उत्पन्न कर रहा है। अतः इन आापत्तियों से छुटकाराप्राप्त करने की अभिलाषा से आपके पास आयेहैँ। ऐसी विन्तीसुनते ही आज्ञा हुई कि आप उससे भयभीत न हों, अभी मैं उसकाबध करता हँ। ११३ इसी बीच रघुनाथ ने सब भाइयों से प्रश्न कियाकि कौन जायेगा और उस कण्टक लवण को मारकर त्रद्रषियाँ काप्राणदाता बन्ेगा। भरत ने हाथ जोइकर विनती की, स्वामी ! मैंजाता हुँ। उसी समय गतनुध्न ने भी अति उचित वित्तती की । १५४पहले श्रीमन् के साथ जाकर लक्ष्मण ते भरी अनेक महान काय किये।इसी प्रकार भरतने भी योगी के समान बनकर दुःख भोग किया।स्वामी] आज्ञा देने की क्नपा करेँ। मैं अति प्रसन्नतापूर्वंक अभीवहाँ जाता हँ। इस विनती को सुनकर राम ठाकुर अत्यन्त प्रसन्नहुए। ११४ अप्यन्त प्रसन्त होकर शल्नुघ्न को यह आज्ञा दी, आजमै तुम्है गद्दी देता हुँ, बाद भै वहाँ नगर बताकर राज करना । सबेप्रथम "इस वाण को लेकर जाओ और लवणका वध शीश्र ही कर डालो। ३२० अर्ती क्या दिनुभो कि भाइ ! शिवकोपूजा चित्य गरेर जान्छ वनमातेस्ले त्यो शिवको विशूल् लिन भनीफिर्दामा तहिं लड्नु हान्नु यहि शर्पायो त्यो शिवको ब्विशूल् लिन भन्यासब्को नष्ट गराउन्याछ यहि सुर्यो माग्या पछि तेस् मधूवनमहाँजस्मा बस्त मिलोस् भनी सकलले भात्नुभक्त-रामायण त्रीशूल् छ तेस्का घरै।आहार खातिर्' परै ॥जानै, नपावस् घरै।सर्ला र गिर्ला परै ॥१५७॥।तेसै ब्विशूल्ले गरी। राख्न् विचार् खुपू गरी॥एक् बेस् वनाञ गहर्।खुपू बस्न मानूत रहर् ॥५०॥। तेस्को नाम् मथुरा हुन्याछ नगरी त्यै राजधानी गरी।राज् गर्नू तिमिले अनेक् तरहका सब्का विपत्ती हरी ॥एक्लै गं अघि मार राक्षस पछी आअँंछ सेता पति। तीस् चालीस हजार राज् गर तहाँ रामूले दिया राजूभनी ॥५९॥।आशीर्वाद् दिइ साथ जाड तक्रषिका भन्त्या हुकृम् भो जसै।हृक्म् माफिक काम् गच्या सँग गई गत्नुष्नजीले तसै ॥राक्षस् मार्नुभयो तुख्न्त र तहाँ पूरी सथरा बनी।हकूम् माफिक राज् गर्या तहि बसी शबुध्नजीले पनि ।॥१६०॥। बार्णों मैं जो मुख्य था वही निंकालकर देने की क्रपाकी। ११६ भाई।तुम्हैँ क्या शिक्षा दूँ- उसके घर में शिव का किशूल है, नित्य पुजाकरके आहार के लिए वह बन मैं जाता है। अतः वह उस शिवकेब्विशयुल को लेने घर न जाने पावे--लौटते समय वह्ीं उसके साथ लड्नाऔर इसी बाण से प्रहार करना तभी वह धराशायी हो जायेगा । १५७यदि उसे शिवके उस तिशुल को लेने का अवसर मिल गया तबउसी विशुल से सबको नष्ट करेगा । इस बात का खूब विचारतथा ध्यान रखना । इसे मारने के पश्चात् उसी वन मैँ एक उत्तम शहरका सृजन करो जिसमेँ लोग रहने के लिए उत्सुक होकर रहने लगें । १५०५उसका नाम मथुरा नगरी होगा, उसे ही राजधानी बनाकर अनेक प्रकारके लोगो की विपत्तियों का हरणकर तुम राज करना। आकेले आगेजाकर राक्षस को मार डालो पीछे-पीछे तीस चालीस हजार सेनायेभी आ जायँगी। और बहीं राम का दिया राज्य करना । ११९आशीर्वाद देकर त्रद्षि के साथ जाने के लिए जैसे ही आज्ञा हुई वैसेही आज्ञानुसार गत्नुघ्न जी ने क्रषि के साथ जाकर कार्य किंया।तुरन्त राक्षस का वध किया और वहीं मथुरा नगरी की स्थापना हुई ।आज्ञानुसार शबुध्न जी ने भी वहीं रहकर राज्य किया । १६० सीताजी नेपाली-हिन्दी, ३२१ सीताका पनि ढुइ पुग्न सुकुमार् जमूल्याह पैदा भया।वाल्सीकी क्रषिले ति पुत्र दुइको नामू-कर्मे गर्दा भया॥जेठाको कुश वाम् धरया लव भनी जुन् चाहि कान्छा थिया ।तिन्को नाम धरचा क्रमैसित अनेक् शास्तै पढाई दिया ॥१६१।॥। वेलैमा व्रतबन्ध कमै पनि भो बेदार्थ जावूत् भनी।लाग्या वेदू पनि पढ्न शास्बहरको तात्पयं जान्त्या पनि॥उत्तम् विर्मल सूयं-वंश बिचमा पैदा भयाका थिया ।यो अभ्यास थिएन भन्नु त उसै फोस्रो कुरा पो थिया॥१६२।।_ 'वाल्सी्किले सकल रास-चरित्लाई।गान् गर्ने काव्य रितले कविता बचाई ॥गानू गढेथ्या खुशि भएर पढाइदीया।त्यो गाउँदा लिभुवनै वश पारिलीया ॥१६३१। जम्ल्याहा दुइ भाइ सुन्दर कुमार् हातृमा सितारा लिई।पुरा सुर् सित गाउँथ्या दुइ जना ताल् सुर् मिलाई दिई ॥खुश् हुन्थ्या क्रषिगण् सबैति वनका सूनेर तेस् गानले ।प्यारो खुपू सित गदेथ्या ति दुइको ठूला भनी मानले ॥१६४।॥। यै रीतले रामचरित्न गाई ।सम्पूणंको मन् पनि खुश् गराई ॥ केभी दो जुड्वे सुकुमार पुत्न पैदा हुए। बाल्मीकि च्रद्षि ने उन दोनोंपुब्रों का नामकरण किया। ज्येष्ठ का नाम कुश' रखा और जो ,कनिष्ठ था उसका नाम लव रखा। क्रम-से उनके नाम रखे गये औरउन्हे अनेक शास्तां की शिक्षा दी गयी । १६१ बेदाथे आदि जाननेकेलिए समय से ही उनका व्रतवन्ध कर्म भी किया गया। वबेदों का मननकरने लगे और शास्ल्लों के तात्पयैं वे जान गये। उत्तम एवं तिमँलसूर्यंवंश कूल के बीच पैदा हुएथे। वैसे कहने का अभ्यास नहीं था,यद्चिपि ये बात ब्यथं ही थीं। १६२ बाल्मीकि ने सकल रामचरित्न कागान करने हेतु काव्यरीति से कविता बनायी । प्रसन्न होकर उसका गानकरते थे। अतः पढ्कर उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। उसैगाकर ब्विभुवन को अपने वश मैं कर लिया । १६३ दोनौं जुड्वे सुकुमारभाई हाथों मै सितार लेकर पूरे स्वर से एवं सुरों को मिलाकर गातेघूमतेथे। बन के वे क्रषिगण उस गान को सुनकर प्रसन्न होतेथे औरउत दोनों को महान समझकर प्यार से आदर करते थे। १६४ इसी रीति, ३२२वाल्मीकिक आश्रममा भानुभक्त-रामायण रहन्थ्या । गर्थ्यी सधैं वाल्मिकि जो त भन्थ्या ॥१६५।॥। यै बीच्मा सब अश्वमेधृहस गरासीताजी वनमा थिइन् र सुनकीब्रह्वर्षी रबडा बडा पृथिविकाब्राह्वाण् क्षत्चिय वैश्य सब् तहि पुग्यावाल्मीकी त्रदषिका सँगैति कुशलव्पाया फुसंत सोध्नको र कुशलेहे सर्वज्ञ गुरो |! कउन् तरहलेकुन् पाठ्ले सब बन्धनै पनि सहज्बाँधिन्छन् यहि रीतले यति गप्यायस्को तत्व बताइ बक्सनु हवस्यस्तो प्रश्न सुन्या जसै ति कुशकोयस्को तत्त्व बुझाइ बक्सनुभयो रामूले अनेक् दान् दिया ।सीता बनाईलिया ॥राजाहछ ती पनि।हेरौं तमासा भनी ॥१६६॥हिड्थ्याति जान्थ्या जहाँ।सोध्या कुरा क्यै तहाँ॥बस्धन् विषे पढेँछन्।तोडेर पार् तदँछ्न् ॥१६७॥संसार, तछँन् भनी।जानूँ म मुढो पति॥ती वाल्मिकीले पनि।बाँधिन्छ यस्ले भनी।॥१६०।॥। मंत्री अहङ्कार लिदा। यस् जीब्ले बिहकै बिचार नगरीजीवमा मिलाईदिदा ॥ मन्त्ीले जति आफुमा गुण थिया से रामचरित्न का गान करते हुए सम्पूणं जन के मनो को भी प्रसन्नकरतेथे। बाल्मीकिके ही आश्रम में रहते थे। बाल्मीकि जी जोकहते थे, सदैव वही करते थे। १६५ इसी बीच मै राम ने अश्वमेध. यज्ञ करके अनेक दान दिये। सीताजी वन मे थी अतः सोनेकी सीताबनायी । बड्े-बडे ब्रह्माधि एवं पृथ्वी के बड्-वड राजाओ और अन्यब्राह्मण, क्षक्चिय, वैश्य सब वहाँ तमाशा देखने पहुँचे । १६६ कुश औरलव बाल्मीकि त्रद्ृषि के संग, जहाँ वे. जाते थे वहीँ चल पड्तेथे। प्रश्नकरने का अवसर मिला और कुश ने कृछ बात पूछी-है सर्वज्ञ गुरु!किस प्रकार से लोग बन्धन मैं पड् जाते हैँ। कौन सा पाठ करने से सभीबन्धनौं को सहज ही तोइकर जीव पार तर जाता है। १६७ जिस रीतिको करने से बन्धन मै फँस जाते है और जिसको करने से संसार सेतर जाते हँ इसके विषय मैं जो तत्व हैं, बताने की क्रपा करे ताकिभेरे ऐसे मुखे भी इसे जान सकें। बाल्मीकि ने'भी कुके ऐसे प्रश्नको सुनकर वन्धन मैँ बँध जानेके बारे मैं जो तत्व थे, सविस्तार सम-झाने की क्कपा की। १६५ इस जीव द्वारा किसी बात पर विचारकिये बित्ता, अहंकार मंत्ली की मंत्णा से उसै जो,भी गुण, " नेपाली-हिन्दी ३२३ मन्त्तीका वशमा परेर यहिजीव् मै हँ अहङ्कार् भनी ।लाग्यो भन्च भन्या गिन्यो विषयमा बाँधिन्छ यो जीव् पनि ॥ १६९॥।जो छन् सत्त्व रजस् तमस्त्िगुण यी रूप हुन् अहंकारका॥यी तीनै मनले विचार् गरिलिदा छैनन् कुनै सारका॥इच्छा सत्त्व विषे धच्या पनि भन्या ऐश्वयं भोग्छनू पनि।संसारकै व्यवहार बढ्छ रजले स्ती पुत्र मेरा भनी ॥१७०॥जो ता छन् तमगूणमा खुशि हुन्या तेस्ता त कीरा भई।फिछँन् नित्य विपत्तिमा सुख सयेल् मिल्दैन काहीँ गई॥जो यो तीन् गुणलाइ तुच्छ बुझिखुप् आत्मै विचार् गढेछन् ।सब् बन्धनृहरुलाइ तोडि सहजै संसार् तिनै तदेछन् ।॥ १७१।। “तस्मात् अझ्ङ्कार्कन तुच्छ मानी। आत्मा म हुँ पूण भनेर जानी॥ आत्मै विचार्मा तिमि चित्त देड। साँचो .भन्याँ यो तिमि जानिलेक ॥१७२॥। वाल्मीकिदेखी यति तत्त्व पाई।ज्ञान् भैगयो ती कुशवीरलाई ॥ थे उसी जीव में मिला देता है और मन्त्ठी के ही वश मैं आकर अपते कोअहंकारी बनाता है । विषय आदि मे उसी अहंकार के कहने से ही लग जानेसे यह जीव भी बन्धन मैं बँध जाता है । १६९९ सत्व, रज एवं तमयैव्िगुण इसी अहंकार के रूप हैँ। इन तीनों केबारै मै मन मै विचारकरने से इनमे कोई तथ्य दिखायी चहीं देता। सत्व, विषय की ओरइ्च्छा करने पर ही ऐश्वयं का भोग करता है। रजोगुण से संसार केव्यवहार मैं वृद्धि होती है और स्ती पुत्र को अपना बताता है । १७०जो तम गुण में प्रसन्न होता है वैसे लोग तो कीड्रे होतेहैँ। तित्यविपत्तियों से घिरे रहते हुँ, कहीँ भी सुख-शान्ति नहीं मिलतीहै। जोइच तीन तुच्छ गुणों को समझकर अपनी आत्मा भे गम्भीरतापूवंकविचार करता है वह सब बन्धनों को तोड्रकर सहज ही संसार से, तरजाता है। १७१ इसलिए अहंकार को तुच्छ समझकर आत्मा को स्वतःपूर्ण जानकर आत्मिक विचार मैं तुम अपने चित्त को लगाओ--ै मैँनेसत्य वर्णच किया है, अत; तुम इसे जान लेना । १७२ बाल्मीकि द्वाराइन तत्वों को पाकर उस वीर कुश को ज्ञानका बोध हो गया।नित्य वे मुक्त ही थे, तथापि संसार मैँ वे काय करते रहे। १७३ एक ३२४ भनुभक्त-रामायण मुक्तै थिया नित्य तथापि याहाँ। गर्देरद्मा काय त लोकमाहाँ ॥१७३।॥।एक् दिन् बाल्मिकिले त अघि दिनुभो हे पुब्च हो ! गाउँछौ।तिम्रो गान् सुत्ति खूशि हुन्छ दुनियाँ अत्यन्त यशू पाउँछौ ॥श्वीरामूका पनि गान सुन्नकन मन् आयो र गाड भनी। लाया गाउन यो भन्या दुइ जनागान्ले खुश् भइ केहि बक्सिस भयोचीज्छन् सब् तृण झैं गरेर तिमिलेअर्ती वाल्सिकिदेखि पाइ कुशलव्लाग्या गाउन दुइ भाइ क्रषिकासुन्या तेहि अपूवं गान् र रघुनाथूमेरो मन् पनि गानले हरिलियासास्ने डा्कि म सुन्छु फेरियहि गान्राजा पण्डित वृद्ध जन्हरु बहुत्गान् सुन्छ अब डाक याहिति कुमार्हृकूम् भो र हुकूमले दुइ कुमार्देख्या मूति कुमारका र सबलेकस्का हुन् इ कुमार् कसो गरि भया सीलेर गाया पनि ॥ १७४१।।बक्सिस् भयाको जति ।केही नलीया रती ॥अत्यन्त खूशी भई ।सास्ने अगाडी गई ।॥१७५।॥।ज्युका पनी मन् गयो।को हुन् इ भन्त्या भयो ॥भन्त्या इरादा धरी ।राखी सभा खुपू गरी ॥ १७६आउनू सभामा भनी ।आया सभामा पत्ति ॥आए्चय सान्या पनि ।रामै सरीका भनी ॥१७७॥ दिन बाल्मीकि ने शिक्षा देनेकीक्रपाकी। हे पुत्ठो! तुम लोग गातेहो। तुम्हारा गान सुनकर ढुनिया के लोग प्रसन्न होंगे-और तुम अत्यन्तयश प्राप्त करोगे । श्रीराम को भी गान सुनने का मन हुआ और आकरउन्है'गाने के लिए कहा और उन दोनो जनों ने मिलकर गाया । १७४गान सुचकर प्रसन्न होकर क्रुछ उपहार देँगे। उपहार मेंजोभीवस्तु होगी, सबको तृण समझकर कुछ भी न लेना। बाल्मीकिकी इसशिक्षा को पाकर कुश और लव अप्यन्त प्रसन्न हुए और आगे चलते हुएदोनों भाई गान करने लगे । १७५ उस अपुवं गान को सुनकर रघुनाथ कामन भी उस ओर आक्कृष्ट हुआ। ऐसे गान से मेरे मन को हर लेने वालेये बालक कौन है? सामने बुलाकर यही गान मैँ पुनः सुनूँगा ! ऐसामन में निश्चय कर राजाओं, पंडितो तथा अनेक वृद्धजनों को बुलाकरसभा का आयोजन किया । १७६ वे कुमार सभा मैं आजाये औरअब यहीं उनके गान का श्रवण करता हँ। ऐसी आज्ञा को सुनकर दोतींकुमार सभा मै आये। इन कुमारोंकी मूति देखकर सभी आश्चयं मैं नेपाली-हिन्दी रामैका सरि वस्ब्न भूषण भयाचिन्हैलाइ कठिन् हुन्याछ यहि बात्लाग्या गाउन भाइ दुइ जबतागान् सुन्दा बहुतै खुशी हुनुभयोहृकृम् ताहि भरतृजिलाई, दिनुभोदस् हज्जार् रपियाँ लगीकन दियादस् हज्जार् रुपियाँ दिया तपच्ति त्योजाहाँ वाल्सिकिजी थिया उहि गयाजान्या श्रीरघुनाथले 'इ त सिता-त्यै बीचमा प्रभुले हुकम् दिनुभयोहे भाई तिमि: जल्दि जाइ अहिलेसीताजी र ति वाल्मिकीकन लिईसीतालाइ चियाँ म दिन्छु अहिलेआफ्नू दोष अफालि निमेल भई ३२५ रामूच्न कुन् हुन् भनी।सब् बोल्न लाग्या पनि ॥गान्धार सुर्ले गरी ।कैलोक्यका नाथ् हरि।।१७०॥।लौ देउ खिल्लत् भनी ।जल्दी भरत्ले प्नि ।सब् तृण् सरीको गरी ||धन् छोडि तेसै घरि ॥१७९॥।जीका कुमार् हुन् भनी।शब्नुध्नलाई पनि ॥वाल्मीकिजी छन् जहाँ।दौडेर आउ यहाँ ॥१५०॥ सीताजि नीयाँ पसून् ।खुश् भै सिताजी बसून् ॥ हकूम् श्रीरघुनाथको यति हुँदा शबुध्न जल्दी गया ।वाल्मीकी क्रषिको परी चरणमा सब् बिन्ति गर्दा भया ॥१५१॥ पड् गये और कहने लगे कि ये कुमार किसके हैँ जो राम के समान दिखतेहँ। १७७ यदि रामके समान वस्त्र-आभ्रुषणों से सुसज्जित होते तोराम कौन हँ, पहचानना भी कठिन होता। यही चर्चा सब लोग करनेलगे । जब दोनो भाई गान्धवे स्वरो मै गाने लगे । सुमधुर गान सुनकरतैलोक्यनाथ हरि अत्यन्त प्रसन्न हुए । १७५ उसी समय भरत जीकोआज्ञा दी कि उन्हँ यह पुरस्कार दे दो। भरत ने भी शीघ्रता से दस हजारमुद्रा ले, जाकर दी । दस हजार मुद्रा देने पर भी उसे तृण बराबरसमझकर उस धन को वहीं छोडकर उसी समय वे कुमार, जहाँ वाल्मीकिमुनि थे, चले गये । १७९ श्रीरघुनाथ ने तो जान लिया किये कुमार सीताजीकेहुँ। उसी वीच प्रभुने शबुध्न को आज्ञादी--हे भ्रात! तुमशीश्र वाल्मीकि जी के यहाँ जाओ और वाल्मीकि जी एवं सीता को साथमै लेकर शीघ्र यहाँ आओ । १5० मैं सीता को न्याय प्रदान कखँगा ।. अब परीक्षा देने के लिए सीता जी अपने दोषों का परित्यागकर निर्मल एवं“प्रसन्न होकर रहेँ । श्रीरधुनाथ की ऐसी आज्ञा पाकर शब्ृृघ्न तुरन्त चले गयेऔर बाल्मीकि क्रषि के चरणों मैँ पडकर विनती करने लगे। १5१ बिनतीसुवकर राम का जो आशय था, मुत्ति ने वह जान लिया और तुरन्त उत्तर ३२६सुन्या बिन्ति र जुनृत आशयथियोपस्लिन्ू भोलिनियाँ सिताभनि तहाँउत्तर् वाल्मिकिदेखि पाइकन ताश्रीराम्चद्धजिका पुगी हजुरमासुच्वूभो जब उत्तरा ति क्रषिकोपस्छिन्भोलिसितानियाँभनि हुकम्हूकृम् येति सुग्या र लोक पत्ति सब्ब्राह्वाण् क्षत्विय वैश्य शुद्र जति छन्आया वाल्मिकिताहि तेहि बिचमासीताजी पत्रि यञ्ञमा पुगिगइन्सीताजीकन देखि लोकहरु सब्लाग्या बोल्न तहाँ तसै बखतमाश्वीरामूजीसित बिन्ति गर्देछु भनीसीताजी अति शुद्ध छन् भन्ति बहुतछोरै हुन् कुश लव् पनी हजुरकाक्यै शंका मनमा रह्या हजुरमाबोल्याँ केहि झुटो भन्या हजुरमा'निष्फल् आज गरून् प्रभू जतिथिया भागुभक्त-रामायण राम्को उ जाती लिया। उत्तर् तुरन्तै दिया ॥शब्न्घ्त फर्की गया ।त्यो बिन्ति गर्दा भया॥१८२॥ताहीं प्रभूले पनि ।भो लोक जानूतू भनी॥हेरौं तमासा भनी।आया महर्षी पनि ॥१5३।।सीताजिलाई लिई ।शीराममा मनू दिई । बेस् भो बहुत् बेस् भनी ।तीबाल्मिकीजी पन्ति॥ १८४रामूका अगाडी सप्या ।बिन्ती हजूर्मा गच्या ॥बिन्ती कहाँतक् गर्छे ।गर्छु शपथू मै बरु ॥ १८५बोल्यो झुटो वात् भनी ।मेरा तपस्या पनि ॥ दिया कि कल सीता परीक्षा दँंगी। वाल्मीकि से उत्तर पाकर गत्नूघ्नलौट गये और श्रीरामचन्द्र जी की सेवा मै उपस्थित होकर वह विनतीकरने लगे । १5२ जब प्रभुने भीत्र्रषि के उत्तरों को सुननेकी क्रृपा“की तभी सीता द्वारा कल परीक्षा दिये जाने की सूचना से लोगोंकोअवगत कराने की आज्ञा हुई । ऐसी आज्ञा को सुनकर सवेलोकजन भीकौतुक देखने के लिए, ब्राह्मण, क्षत्विय, वैश्य, गुद्र जो भी थे तथा महषि-“गण, सभी चले आये। १०३ कुछ क्षणों के पश्चात् सीता जी को लेकरमद्ृषि बाल्मीकि भी वहाँआगये। सीताजी भी श्रीराम मै ध्यान धर-“ कर यज्ञ के निकट पहुँच गर्यौं । सीता जी को देख सवंजन परस्पर कहनेलगे कि यह बहुत ही उत्तम हुआ । १८५४ उसी समय वाल्मीकि भीश्रीराम से विनती करनेके लिए उनके आगे आये। विनती करते हुएकहने लगे कि सीता जी अति शुद्ध हैँ। कुश-लव भी आपही के पुत्तहुँ। इस बिषय पर कहाँ तक वबिनती कङँ। श्रीमन् अपने मन मेँकिचित् मात्न भी शंका न रखे, इसके लिए मैं शपथ देता छुँ । १०५ यदि तेपाली-हिन्दी सून्या वाल्मिकिको शपथ् र रघुनाथ्मेरो संशय छैन कत्ति मनमालँकामा पत्ति एक् नियाँ अघि दिंदाऐले पो अपवाद गन्या रजनले“अर्काले अपवाद् गच्या भनि उसैतेस्तै भो त पनी रिसानि नहृवस्मेरै पु त हुन् दुवै इ कुश लव्सीताजी पनि शुद्ध छन् सब बुझ्याँ,हृकूम् यो रघुनाथको हुन गयोसीताजी त तयार् भइन् तस बखत्ब्रह्मादीहरु लोकपालुहरु सबैब्रह्यादीहरुका अगाडि ति सिताजस्तो भक्ति छ रामका चरणमासाँची छू त मलाइ जान अहिले यस्तो वाणि सिताजिको पृथिविन्लेबेस् सिंहासन एक् तयार गरि सिता ३२७ ज्यूको हुकम् यो भयो ।साँचो शपथ् हुन्छ यो ॥५६॥।जीतिन् र सीता लियाँ।सो मेट्न छाडीदियाँ ।साँचै सिता त्याग् गज्या ।यस्मा क्षमापन्गप्या ।॥५७।॥। जम्ल्याह पैदा भया ।सन्देह मेरा गया ॥हुकम् भयो तापति। पस्छू म तीयाँ भनी ॥ १५५॥आया सीता छन् जहाँ ।क्यै बोल्न लागिन् तहाँ॥मेरी उ जातीलिउन्।बाटो भुमीले दिउन् ॥ १५९॥। सुनी सकीथिन् जसै ।जीलाइ राखिन् तसै ॥ मैँने श्रीमन् से कुछ भी असत्य कहा है ती मेरे असत्यसे जो भी मेरीतपस्या है उसे आज थाप तिष्फल कर दें। बाल्मीकि की शपथ को सुन-कर रघुनाथ की यह आज्ञा हुईकि मेरे मन मेँ कुछ भी संशय नहीं है, यहशपथ सब सत्य है। १५६ पहले लंका मैँ भी एक बार परीक्षा लेने परसीता सफल उतरीं और सीताको साथले आया। परन्तु उसके बादलोक द्वारा अपवाद किये जाने के कारण उसे मिटाने हेतु परित्याग किया ।आर अन्य लोगो के द्वारा अपवाद किये से ही मैँते सीता का त्याग किया ।ऐसा होने पर आप क्रुपया क्रोधित न हाँ और इसके लिए मुम्षे क्षमाकर । १5७ कुश-लव ये दोनों मेरे ही तो पुत्र हँ जो जुइवे उत्पन्त हुए ।सीता जी भी शुद्ध हैँ। मै सब समझ गया और मेरा सन्देह भीदुरहोगया । ऐसा रघुनाथ द्वारा कहे जाने पर सीता जी परीक्षा के लिए इस समयभी तत्पर हो गयौं । १८५ सीता जहाँ थी वहाँ ब्रह्वादि एवं लोकपालसब आ गये। क्नह्यादि के सम्मुख सीता कुछ कहने लगी कि मेरीजैसी भक्ति राम के चरण में है उसे जान ले और मैं सच्ची हँ तो मुझेजानने के लिए भ्रूमि मुझे अभी मागे दे । १५९ सीता जी की ऐसी वाणीजब पृथ्वी ने सुनी तो एक सुन्दर सिंहासन प्रकट कर सीताजीको उसी में ३२० त्यै सिंहासनमा बसी जननिलेसीताजीकत जानलाइ बढियायस् रीत्ले जननी सीता जब गइन्इन्द्रादिहरुले त खु खुपृशि हुँदैसीताको तहि शोक् गप्याप्रभुजिले भानुभक्त-रामायण औदास्य सनूमा लिइन् ।बाटो भुमीले दिइन् ॥१९०॥खुपू मोहमा लोक् पग्या ।वेस् पुष्पवृष्टी गच्या॥संसारि जस्ता भई।सामूने अगाडी गई ।॥१९१।। ब्रह्यादीहरुले बुझाउनुभयोबूझीबक्सनु भो र शोक् पर गरीसब् सम्पूर्ण गरेर नान् दिनुभयोजो ता यज्ञसहाँ थिया जतहरूबीदा बक्सनुभो र देशि जति हुन्सीताजी सितको वियोग् जब भयोयज्ञस्थानुकन छोडि पुन्न सँगलीकौसल्या जननी पनी खुशि भइन्लक्षण् अन्त्य तिहारि ज्ञानकि कथाकौसल्या रामलाई विभुवन पतिकाकुन् पाठ्ले बन्ध छुट्ला भनिकन बाँकी रह्याका थिया।ब्राह्ाण् तहाँ सब् थिया॥धनूले ति पूर्ण भया।बीदा हुँदै सब् गया ॥१९२॥।श्रीराम् विरक्तै भया।जल्दी अयोध्या गया॥श्रीराम आया भनी।चर्चा गरिन् बेस् भनी ।।९३॥।नाथ्ू रमानाथ जानी।मनमा खुप् ठुलो पीर मानी ॥' उसी सिंहासन पर बैठकर जननी सीता ने अपने मन मैँतदनन्तर भ्रूमिने सीताजी को जानेके लिए एक सुगम मागे खोल दिया। १९० इसी रीतिसे जब सीताचली गयी, सब लोग अत्यन्त मोह मैँ पड गये । इन्द्रादि ने अत्यन्त प्रसञ्चहोते हुए उत्तम पुष्पवृष्टिकी। बहींप्रभु जी ने साँसारिक मनुष्य कीभाँति सीता के लिए शोक किया और त्रह्यादि ने आगे आकर प्रभुकोसमझाया । १९१ सबको समझाकर, शोक को दूर करके जो भी कार्यशेष थे, सब पूर्ण किये और जो ब्राह्वाण वहाँ थे उन्है दान आदि दिये।यज्ञ मै जो लोग थे उन्हैँ धन से पुणँ कर दिया। बच्धु-बान्धव जो भीथे सबको विदादेने की क्रपाकी। इस प्रकार सब विदा होकर चलेगये । १९२, सीता जी से जब वियोग हुआ, श्रीराम पर विरक्ति छागयी।॥ यज्ञ स्थान को छोड्कर पुत्ौं को साथ में लेकर तुरन्त अयोध्याचले गये। जननि कोशल्या श्रीराम के आ जाने पर प्रसन्न हुई।'लक्ष्मण की ओर ध्यान से देखकर ज्ञानकी चर्चा की। १९३ कौशल्याराम को क्विभुवन पति के नाथ रमानाथ अत्यन्त जानकर क्लेषयुक्त मवसे यहु जान्ने के लिए कि किस विधि से बंधन से छुटकारा प्राप्त- रख लिया।उदासीनता का अनुभव किया । नेपाली-हिन्दी आइन् पाङ परी फेर् विनति पति ३२२९ गरिन् रामजीका चरणमा । कुन्पाठलेबधछुट्छन् यतिमकनू क्र आज आयाँ शरणमा ॥ ९४ यस्तो बिन्ती सुनी खुपखुशि पर्तिसबभन्दा येहि ठूलो भनि कहनुभयोभक्तीयोगू्मा पती जो व्रिगुणगङ्गाजीक्ा प्रवाहै सरि गरि यसमै माथी चित्त धर्न्या जनहरु सहजैचार् छन् मुक्ती ति चारैकन पत्तिसै माथी चित्त धर्न्या भनिकनतेस्क्रो वर्णन् म गर्छु अब सब बुझ्चिल्यौड्च्छा काहि नराखनू विषयमासत् कास् गर्नु विचार राख्नु मनमामेरो दशंन गर्नु खुप् स्तुति पुजापाउमा परि दण्डवत् गरिलिनूसब् प्राणीहरुमा म छ्यति विचार्साँच्रो बोल्नु, बडा मिल्या चरणमा होगा, राम के पास आकर उनुके पाँव हुनुभो बन्ध छुट्न्या उपाई ।भक्तियोग् माइलाई ॥रहितकी भक्ति छन् सोहि गर्नू ।सनूलाइ मैमाथि धर्नू ॥ १९ ५॥।अक्तिमान् होइजान्छन् ।तिनले तृण् सरीका त मान्छन् ॥बुझिल्यौ साधना गर्नेमाहाँ ।सब् खुलस्ता -छ याहाँ ॥९६॥।सब् धर्म थामूनू पनि ।हिसा घटीया भनी ॥गर्नू स्मरण् खुपू गरी ।जान्छन् यसैले तरी ।।१९७॥राख्न् असङ्गी भई ।.पर्तू तुरुन्तै गई ॥ मैं पड्कर विन्ती करने लगी। किस पाठ के द्वारा बन्धन मुक्त होता है, बस यही आज मुझे बतादेँ।इसीलिए शरण मैं आयी ठूँ। १९४ राम ऐसी बिनती सुन अत्यन्तप्रसञ्च हुए और बंधन से छुटकारा पानेका उपाय्र जो सबसे महान् है,उसे भक्तियुक्त माता को बताने की क्रपाकी । भक्तियोग मैं भी जो बिंगुण-रहित भक्ति है उसे ही करना । भ्नन को, गंगा के प्रवाह के समान बना-कर मुझपर ही लगाना । १९५ मुझ पर मन लगानेवाले जन सहजहीभक्तिसे युक्ष्त हो जाते हैँ। मुक्ति चार प्रकारकी है। फिर भी उनचारौं को तृण के समान मान्नकर मुझ् पर चित्त लगाने के लिए साधनाको समझते हुए त्यागक्र उसके सम्वन्ध मैं मैं यहाँ वर्णन करताहुँ। जोबिल्कुल स्पष्ट है उसे समझ लो । १९६ अन्य किसी विषयकी ओरइच्छा को प्रेरित न होनेदेना। सब धर्मोका पालन करना, मन मैंहिंसाको बहुत ही क्षृद्र समझकर सदैव सत्कायं करना। मेरै दशैनकरना तथा ध्यान से स्मरण करके पूजा एवं स्तुति भी करना। पाँचमैं नतमस्तक होकर दण्डवत करना जिसके फलस्वरूप संसार से तरण होजायगा । १९७ मैं सब प्राणियों मैं व्याप्त हुँ, यही विचार चिस्सँकोच ३२० गर्नू दुःखि-उपर् दया सम भयासेवा गर्नु यमादिको प्नि असल्वेदान्तैकत सुन्नु गर्नु खुशि भैसज्जनूको सतसङ्ग गर्नु-दिन दिन्मेरो देह भन्याउन्या अति ठुलोयो मन् शुद्ध गराइ बुझ्नु जति छन्जस्तै गन्ध रहन्छ फूलहरुमावायुका वशमा परीकन उडीतेस्तो योग विषे दियो मन भन्यागन्धै झैं गरि मन् उडायर सहज्सर्वात्मा म छु जो त येति नबुझीतीदेखी खुश हुन्च कत्ति ति गरुवूपूजा गर्नु ततेहि होउ नगच्या भानुभक्त-रामायण तिन्मा त सैत्ती पत्ति ।बाटा यिन्तै हुन् भनी ।॥१९५।॥।कीर्तन् पनी नामको ।सोझो भई कामको ॥छोड्व् अहङ्कार् पन्ि।सब् धसे मेरा पति ॥१९९।॥।फूल्मा रह्याको पनि ॥आउँछ नाकूसा पत्ति ॥त्यै योग वायू बनी।ल्याउँछ मैमा अनि ॥२००॥पुजा फकत् गर्देछन् ।व्यर्थै शरीर् हदेछ्न् ॥तिन्ले पुजा कुन् गच्या। संसारमा ती पच्या ॥२०१॥ लाई नमस्कार् गरून् ।अन्त:करणूमा धखून् ॥ मृत्युको भय हुन्छ तिनूकत सदा सर्वात्मा म छु येति जानि सब् जीव्जीवात्मा परमात्म एक् बुझि सदा अपने मन मैँ रखना । सच बोलना, वडों से मिलने पर तुरन्त चरण परपड् जाना; दुखियों पर दया करना और शतनु होने पर भी उनसे मित्रतारखना, यम आदि की सेवा करना भी एक उत्तम माग समझना । १९८वेद आदि का श्रवण करना, प्रसन्न होकर सदैव उस नाम का कीतेन करना,सञ्जनों की संगत करना तथा प्रतिदिन कतच्य के प्रति निष्ठावान् रहना ।मेरा देह अतिमहान् है, कहकर अहंकार न करना। इस मन को शुद्धकरके सब धर्मो को जो भी हाँ अपना ही समझना । १९९ जिस प्रकारफूल तथा फलों की सुगंध वायु के वशीभ्ूत होकर उड्ते हुए नाक मैं आजाती है, उसी प्रकार जिस योग विषय की ओर ध्यान दिया जाताहैवही योग वायु भी महक के समान ही मन को उड्डाकर सहज ही मुझमेंले आती है। २०० सर्वात्मा तो मैँ हँ और जो इसे बिना समे पूजानहीं करते हँ उससे मैं किचित् भी प्रसन्त नहीं होता हँ। ऐसे लोग अपनेशरीर को व्यर्थ ही गँवाते हैँ। वहीतो पूजाहै औरउसे भीन कियातो उसने कौन सी पूजा की। ऐसे लोग जब संसार भै आतेहैँतो सदैव मृत्यु से भयभीत रहते हैँ। २०१ सर्वात्मा मैँ हुँ, यही जानकरसब जीवों को नमस्कार करना। जीवात्मा तथा परमात्मा को एक वैपाली-हिन्दी मातर् ! मागे त तनेलाइ सजिलो. संसारका कति पार् गया सहजमायाहाँलाइ त झन् सहज् छम तूसंझी मात्र दिनू हवस् यति गप्याकौसल्या रघुनाथको यति हुक्म्कैकेयी पत्ति देह् छोडि दशरथ्ू ३३१ यैह्ो छ यस्तै गरी।संसार सागर् तरी ॥२०२॥पुत्चै र पुल्नै भनी।छुट्नन् इ बन्धन् पनि ॥सुनितृ् र मुक्तै भइन् ।जीका हजूर्मा गइन् ॥२०३।॥। तस्तै _सुसित्रा दशरथ्कि रानी ।संसारका सौख् पनि तुच्छ जानी ॥ - प्रारब्धका बन्धनलाइ तोडी । ' पौँचिन् पतीथ्यै यहि देह छोडी ॥२०४।॥। पापात्मा अति दुष्ट शब्नु सबकाई सब््लाइ मराउनू अब पपच्योयस् सुर्ले रघुनाथका हजुरमापाथ्या बिन्ति भरत् गई हुकुमले ' पूरी एक् तहि पुष्करावति बनीअर्की तक्षशिला पुरी बनि तहाँ तीन् कोटि गन्धवे छ्न् ।बढ्नन् नमाच्या त झन् ॥एक् दिन् युधाजित् गया ।गन्धर्व मार्दा भया ॥२०५।॥। पुष्कर् त राजा भया।राज् तक्ष गर्दा भया ॥ ही समझकर सदैव अपने अन्तःकरण मे ध्यान रखना । हे माता ! यही सब माग हैँ जिसके द्वारा संसार से सरलतापूवंक तर सकते है।संसार के कितने ही लोग इस प्रकार सहज ही संसारतागर से पार होगये । २०२ माता] आपके लिए तो और भी सरल है,--सुझे अपनापुत्च और पुती जानकर केवल स्मरण मात्न यदि करती है तो इन बन्धनोंसे मुक्ति सिल जायेगी। रघुनाथ के इन वचनों को कौशल्या ने सुनलिया और मुक्ति प्राप्त की । कैकेयी भी देह त्यागकर दशरथ जी केपास चली गर्यौं । २०३ उसी प्रकार दशरथ की रानी सुसित्ला संसार केसबंसुख-भोगों को जानकर प्रारब्ध के उन समस्त बन्धनो को तोइकर शरीरयहीं त्यागकर पति के पहुँच पास गयौं । २०४ अप्यन्त दुष्ट शब्नु पापात्मागन्धर्व की संख्या तीन कोटि है इन सबको अब मार डालना होगा,अन्यथा इनकी संख्या मै और वृद्धि होगी । इस विचारसे एक दिनपुधाजित रघुनाथ के समक्ष गये और विनतीकी। इस पर आज्ञा-नुसार भरत ने जाकर गन्धर्वो का संहार कर डाला । २०५ बहींएक पृष्करावति पुरी की स्थापना भी हुई, और उस पुरी का राजापुष्कल हुआ । दूृसरी तक्षशिला पुरी बनी जहाँ तक्ष राज करने लगे। ३३२ छोरा पुष्कर तक्षलाइ तिमिलेफर्की श्रीरघुनाथका हजुरमालक्ष्मणू्लाइ पनी हुकम् तहि भयोछारालाइ लगेर पश्चिम मुलुक्-पश्चिममा अति ढुष्ट भिल्लहरु छन्दुई पूरि बनाउनू पनि तहाँराजा अंगद चित्वकेतु इ दुवै-छोरालाइ रजाइँ दीकन तिभीहृकूम् श्रीरघुनाथको यति हुँदाजो जो हुन् अति दुष्ट भिल्लहरु सब्पुरी दुइ बनाइ लक्ष्मणजिलेछोरालाइ र जल्दि लक्ष्मण गयाएकदिन् काल् त्रटषि झै भएर रघुनाथ्आया श्रीरघुनाथूजिका पुरिमहाँ पौँच्या द्वार तलक् जसै प्रभुजिकाद्वारमा एक् क्रषि छन् खडा भनि गई भावुभक्त-रामायण राज् गर्नु याहीँ भनी 1पौंच्या भरतृजी पनि ॥२०.६।भाई ! तिमीले पनि ॥मा राज्य दे भनी ॥तिनूलाइ संहार् गरी .।रत्नादि दौलत् भरी ॥२०७।लाई बनाया हहाँ ।आया तुरन्तै यहाँ ॥लक्ष्मण् तुरुन्तै गया।तिनूलाइ मार्दा भया ॥२०८।॥।ताहीँ रजाई दिया ॥जाहाँ रघूनाथू थिय्रा॥ज्यूलाइ भेट्छु भनी ।चिन्दैन कोही पनि ।।२०९॥। चौकी त लक्ष्मण् थिया ।हाजिर् पुच्याई दिया ॥ पुत्न पुष्कल तथा तक्ष को वहीं राज्य करने की अनुमति देकर भरतलौटकर पुनः रघुनाथ के पास पहुँच गये। २०६ उसी समय (भगवान्राम ने) लक्ष्मण जी को भी आज्ञा दी--भाई ! तुम भी अपने पुत्रकोले जाकर पश्चिम देशका राज्यदेदो। पश्चिम मैँ अति दुष्ट मल्लआदि है, उनका संहारकर रत्न आदिसे भरपूर करदो नगरियों कीस्थापना करो । २०७ अंगद एवं चित्वकेतु इन दोनोंको वहाँका राजाबनाओ; और पुत्न को राज्य देकर तुम तुरन्त यहाँ लौट आओ । श्रीरघु-नाथ की इतनी आज्ञा होने पर लक्ष्मण तुरन्त चले गये और जितने भीअति दुष्ट मल्ल आदि थे उन सबोंका वध किया। २०८ दो नगरियोंकी स्थापना कर लक्ष्मण जी ने अपते पुत्न को राज्य सौंँपकर तुरन्त जहाँरघुचाथ थे, चले आये । एक दिन काल तरद्षि का रूप धारणकर रघुनाथसे भेट करने के लिए आया। उसने यह् सोचा कि श्रीरघुनाथजी कीनगरी मैं उसे कोई पहचान नहीँ पायेगा । २०९ जब द्वार तक पहुँचा,उस समय प्रभुजीके रक्षक के रूप मै लक्ष्मण वहाँथे। द्वार पर एकत्रह्ृषि के आने की सूचना तुरन्त जाकर रघुनाथ को देदी। ये समाचारसुनकर प्रभु जी ने उन्हेँ तुरन्त ले आने की आज्ञा दी । लक्ष्मण भी शीघ्रता नेपाली-हिन्दी ३३३ हाजिर् सून्ति हुकम् भयो प्रभुजिको ल्याक तुरुन्तै भनी।लक्ष्मणूले पनि जल्दि गै हजुरमा ल्याया इनै हुन् भनी॥२१०॥पौंँच्या श्रीरघुनाथका हजुरमा कालू विप्ररुपूले जसै।त्वं वर्धस्व' भनेर आशिष दिया: श्रीरामलांई तसै ॥सत्कार् श्रीरघुताथले पनि गप्या पैल्यै कुशल् क्षेम् गरी।तिनूको आशय बुझ्नलाइ हरिले सीध्या अगाडी सरी ॥२ १ १।॥।कुन् काम गर्नू छ र जल्दि आई.भेट् गर्नुभो आज यहाँ मलाई ॥हृकूम् प्रभुको जब येति पाया ।ती कालु पुरुष्ले पति बिन्ति लाया॥२१२॥।हे नाथ् ! चरण्मा अहिले 'म पर्छु।एकान्त बक्स्या हुँदि बिन्ति गर्छु ॥मेरा कुरा कोहि नसुच्च पाउन् ।सुन्नन् त मारीदिनु दुर जाउन् ॥२१३॥।ती कालुपुरुष्को यति बिन्ति सूनी ।बेसेइ भन्छन् भनि भिन्न गूती ॥हृकूम् भयो लक्ष्मणलाइ ताहाँ ।कोही नआउन् अब भित्न याह्राँ॥२१४॥। से जाकर (क्रषिरूपी) कालको प्रभुके सम्मुखले आये। २१० जैसेविप्र छुप काल श्रीरघुनाथ की सेवा में पहुँचे वेसे ही श्रीराम को “त्वंम्वंधस्व” कहकर आशीर्वाद दिया । श्रीरघुनाथ ने भी प्रथम उनका स्वागतसत्कार किया और उनके आने का आशय समझने के लिए सवंप्रथम कुंशल-क्षेम पूठा। २११ कौन सा काय शीघ्न करना है, जिस हेतु यहाँ आकरआज आपने मुझसे भेट करते की क्कृपाकी। जब प्रभु की इतनी आज्ञा पायीतो उस काल पुरुष ने विनती की । २१२ हे नाथ ! मैं चरण मैं उपस्थितहुँ, यदि आप एकान्त का अवसर देने की क्रपा करे तो कुछ विनती करखँ।मेरी वार्ता अन्य कोई न सुनने पाये। यदि कोई सुन लेगा तो उसेकाजीवन हरण कर लुगा । अतः दूर ही रहना चाहिए । २१३ उस 'काल-. पुरुष की यह विनती सुनकर तथा अन्तरात्मा मै यह जानकर कि ये ठीक'हीकहते हँ, लक्ष्मण को आदेश देने की कृपा की कि अब यहाँ अन्दर किसीकाप्रवेश न होने पाये । २१४ यदि कोई अन्दर'आता है तो वहये जानलेकि उसे मरना है। वह अत्यन्त संकट मैं फँस जायेगा। एकान्त यहाँ ३३४ भानुभक्त-रामायंण क्वै आउनन्ू भित्न त मर्न जानन् ।अत्यन्त गोता बिहकै ति खानन् ॥एकान्ततक् कोहि यहाँ नआउन् ।यो उदि सबूले तिमिदेखि पाउन् ॥२१५॥सून्यो हुकूम् येति र काल बोल्यो ।आफ्ना सबै आशय ताहि खोल्यो ॥हे नाथ् ! म हुँ काल् सवलाइ हर्न्या ।मालुम् छ यो सब् किन बिन्ति गर्न्या ॥२१६॥।ब्रह्माजिको बिन्ति लिएर आयाँ ।खुपू भाग्यले दशँंन आज पायाँ ॥ब्रह्माजिको बिन्ति म आज गर्छु।होला हुकम् जो उहि शीर घर्छु॥२१७॥सृष्टीदेखि अगाडि पूर्ण रुपले आत्या स्वरूप एक् थियो।नारायण् जलशायि खूपत पाछी यै सृष्टि खातिर् लियो॥ख्वामित्का तहि नाभिका कमलमा एकूलै स पैदा भयाँ ।सृष्टी गर्ने हुकूम् हुँदा हुकुमले लोक् सूष्टि गर्दै गयाँ ॥२१५॥जस्ले दुःख दिया प्रजाकन तिनै- लाई म माखँ भनी ।युग् युगमा अवतार् समेत् लिनुभयो यस्तै अगाडी पत्ति ॥ कोई भीन आये। ऐसी आज्ञा की जानकारी सव लोग तुमसे प्राप्तकरेँ। २१५ यह आज्ञा सुनने के पश्चात् काल ने अपना सम्पूर्ण आशयसविस्तार वर्णन किया । है नाथ ! मैं सत्रका हरण कस्तेवालाहुँ। येसबको मालूम है। अतः क्या विनय कछ । २१६ मैं ब्रह्मा जी का संदेशलेकर आया हुँ ओर अत्यन्त सौभाग्य से आज आपके दशंन प्राप्त कररहा हुँ। आज मैं आपके सम्मुख ब्रह्मा जी की विनति प्रस्तुत करताहुँ; जो आज्ञा होगी उसे ही शिरोधार्य करखँगा । २१७ (व्रह्माजी काकथन है--) आप सृष्टि के पूव आत्मस्वरूप एक ही पूणंरुूपथे। जलभै विराजमान नारायण का रूप तो इसी सृष्टि के निमित्त बाद मै आपनेधारण किया है, स्वामी के नाभिसे निकले हुए कमल से मैं अकेला हीउत्पन्त हुआ । उपराँत सृष्टि रचने की आज्ञा हुई, और तदनुसार मैंलोक-सृष्टि करता गया । २१०५ प्रजाओ को जिन्होने सताया उन्है मारनेके निमित्त युग-युग मैँ अवतार भी लेने की क्रपा की। इसी प्रकार पहले भीअवतरित होते रहे । अभी भी यह अवतार पृथ्वी के भार हरने के लिएही
नेपालो-हिन्दी ऐले यो अवतार् पती पृथिविकैभ्रुको भार् पनि टारिबक्सनुभयोएघारै म हजार वर्ष रहुँलासोही वर्ष गणीतले गतिलिदाबस्तैको अद मन् छ पो त भगवान्!याहाँ आउन मन् भया बखत भोब्रह्वाको विनती सुनेर रघुनाथ्सामूने बात्चित गर्नुभो पनि बहुत्दुर्वासा यहि बीचमा तहि गयालक्ष्मण् द्वारमहाँ थिया र त्ररषिलेलक्ष्मण्लाइ तहाँ भन्या त क्राषिलेलक्ष्मणलाइ कठिन् भयो कठिनलेभित्रै जान हुँदैन जाउँ कसरीजुन् काम् खातिर आज आउनु भयो ३३५ भार् हुनै. खातिर् धरी ।सब् दुष्ट संहार् गरी।।२१९॥जाँदा हुकम् जो भयो।एघार इज्जार् गयो ॥झ्च्छा हजूरूको हवस् ।लौ जल्दि पाल्नूहवस ॥२०॥हाँसी तिनै कालका ।सबू जानकै चालका ॥रामूलाइ भेट्छु भनी ।तिन्लाइ भेट्या पनि ॥२२१॥हाजिर् गराञङ भनी।बिन्ती लगाया पनि ॥विस्तार् कहाँतक् गर्छ ।सो पूर्ण गर्छु बरु ॥२२२॥। बिन्ती गप्याथ्या जसै ।रीसाइ बोल्या तसै ॥ लक्ष्मण्ले यति ती मुनीकन तहाँदुर्वासा क्रषि हुन् बडा त पनि खुप् आपने लिया है। भू-भार को भी सब ढुष्टों का संहार के करने बाद हरणकरने की क्रपा की। २१९ आते समय यह आज्ञा देने कीक्कपा कीथीकि मैँ ग्यारह् हजार वर्ष रहुँगा । गणित के अनुसार उक्त वर्षोकीगणना करने पर ग्यारह् हजार का युग पुरा हो गया। अतः भगवन् !यहाँ रहनेकी और इच्छातो नहीँहै? बतानेकी क्र्पाकरे। यदियहाँ से चलने की इच्छा हो तो समय हो गया है तुरन्त चलने की क्रपाकरे । २२० ब्रह्मा की इन बातो को सुनकर रघुनाथ जी हँसते हुए उसकाल के समक्ष इस प्रकार बोले, जिससे उनके वास्तव में जाने का संकेतहुआ। इसी बीच दुर्वासा क्रषि राम से भेंट करने के लिए वहाँ आये।द्वार पर लक्ष्मण जी थे, अतः त्रषि की उन्हींके साथ भेट हुई । २२१त्रह्ृषि ने लक्ष्मण जी से श्रीरामके समीपले चलने के लिएकहा।लक्ष्मण जी को कठिनाई अनुभव हुई । अतः असमंजस के साथ उन्होनेइस प्रकार विनती की कि महाराज ] अन्दर जाने के लिए निषेध है॥अतः किस प्रकार जाया जाये और इस सम्बन्ध मैं मै कहाँ तक विस्तारक्र । जिस कायं के लिए आपने यहाँ आनेक्ी आज क्नपाकी है उसेमैं ही पूर्णेकर्ता हेतु प्रस्तुत हुँ। २२२ लक्ष्मण ने मुनिसे जैसे ही इतनी ३३६ लैजाञ अझ रामका चरणमालैजान्ौ त मलाइ भित्र त कुलै-सुच्या येति बचन् र लक्ष्मणजिलेकुल्कोनाश्नहवस् कुशल् सब रहन्ऐले; भित्न त जान निश्चय पप्योलक्ष्मण् भित्न गया जहाँ प्रभुथियाद्वारमा हाजिर छन् क्रषी भनि तहाँती कालूलाइ बिदा गरेर रघुनाथूदुर्वासासित भेट् भयो जब तहाँसोध्नू भो क्रषिलाइ आउनु भयोइच्छा भोजतमा थियो ति क्रषिकोभ्रोजन् बक्सनुभो र भोजन गरीयै बीचमा तह संझि बक्सनुभयोलक्ष्मणूलाइ कसोरि मारे अहिलेसन्ताप् श्रीरघुनाथमा जव पच्योमारीबक्सनुहोस् मलाइ भगवान् ! भानुभक्त-रामायण बाहीं शरण् पदेछु ।को भस्म झन् गदेछु ॥२२३॥मन्मा विचार् यो गग्या।क्या हुन्छ मै एक् मप्या॥यस्तो विचार् खुप्ू गरी।तैलोक्यका नाथूहारि ॥२४॥ बिन्ती गच्याथ्या जसै-।बाहीर आया तसै ॥रामले नमस्कार् गरी । कस्तो इरादा धरी ॥२२५।॥।सो बिन्ति गर्दा भया ।त्बुषी खुशी भै गया ॥रामले प्रतिज्ञा पनि ।यै हो विपत्ती भनी ।॥२२६।॥।लक्ष्मण् चरण्मा पच्या ।यो ताहि बिन्ती गच्या॥ विनती की थी, वैसे ही दुर्वासा त्रट्रषि अत्यन्त क्रोधित होकर कहने लगेकि अभी ही मुझे राम के चरणों मै ले जाओ, वहीँ शरण पड्गा। यदिमुझे अन्दर नहीं ले जाओगे तो मैं सम्पूर्ण वंश को (शाप से) भस्म करदुँगा। २२३ इन बचनों को सुनकर लक्ष्मण जीने मन में विचारकिया--मेरे जैसे एकके मरने से क्या हो जायेगा, सब कुशल से रहेँ,वंशका नाश न हो। ऐसा विचारकर उसी समय अन्दर जाने कानिश्चय किया और लक्ष्मण जहाँ प्रभु त्वैलोक्यनाथ हरि थे, अन्दर चलेगये । २२४ द्वार में त्रषि की उपस्थिति की सूचना देते हुए विनती करतेही, उस काल को विदा देकर श्रीरघुनाथ बाह्र निकल आये। जब दुर्वासाजी से भेंट हुई तो राम ने नमस्कार करते हुए त्रट्रषि से प्रश्न करने की क्कपाक्री कि आप किस विचार को लेकर यहाँ पधारे हँ । २२४ उस क्रषिकाविचार भोजन की ओर था अतः विनती की कि भोजन देने की क्रपा करेँ।तदनुसार क्ररषि भोजन कर प्रसन्न होकर चले गये। इसी समय रामकोप्रतिज्ञा का स्मरण हुआ और सोचने लगे कि लक्ष्मण को कसे मालूम हो ? यह एक महान् विपत्ति आ गयी है । २२६ जव रघुनाथ को यह संतापहुआ तो लक्ष्मण ने तुरन्त चरण मैं पड्कर यह विनती की कि भगवन् !
चेपाली-हिन्दी ठूलो भन्नु छ धमे हो उहि रहोस्यस्को निश्चय गर्नेलाइ हुनगोसबूले बिन्ति गच्या बुझी हजुरमामारीहाल्नु त योग्यछन अधिराज्ज्यान् हनूँ र वियोग गर्नु इ बरा-लक्ष्मणूलाइ पनी बिदा दिनुभयोलक्ष्मणूजी सरग्रु गया तस बखत्प्राणायाम् तिरमा गरीकन गयायस् रीत्ले नरलोक छोडिकन तीभेट्ना-खातिर शेषका हजुरमालक्ष्मण्जी सितको वियोग् जब भयोसाह्लै दिक्क भएर मन्तिहर्थ्यैजान्छ् लक्ष्मण छ्न् जताम त उताराजा ैकन जो प्रजाहरु इ छन्जस्सै येति हुकम् सुन्या भरतलेयस्ता बिन्ति गप्या तहाँ भरतले ३३७ बिन्ती गच्या यो जसै ।ठूलौ सभा एक् तसै॥२२७॥।त्याग् मात्न गर्नू हवस् ।ज्यान् आज इन्को रहोस् ।॥।बर् हुन् भन्याथ्या जसै ।श्रीरामजीले तसै ॥२२०॥रामूका चरण्मा परी ।जाहाँ रहन्थ्या हरि ॥लक्ष्मण् जसै ता गया ।ब्रह्मादि जम्मा भया ॥२२९॥दुःखी सरीका बनी ।यस्तो हुकम् भो पनि ॥यो राज् भरत्ले गरून् ।यिन्को सबै ताप् हरून् ॥२३०॥मुछित् सरीका भई ।रासूका हजूर्मा गई ॥ मुझे मार डालनेकी क्रपा करेँ। धम ही मह्दान् है, अतः प्रतिज्ञा कापालन करने की क्र्पा करेँ। जैसे ही यह विचती की गयी, तब इसेनिश्चित करने के लिए एक विराट सभा का आयोजन हुआ । २२७सबने विचार-विमशै करने के पश्चात् विनती की कि श्रीमन् ! केवलनिर्वासित करने की क्कपा करेँ। हँ अधिराज! इन्द्र मार डालनाउचित नहीं, है, अत: आज इनके प्राण रहने दे । प्राणोंका हरण करनातथा पृथक करना दोनों ही समान कहे जाते हैँ। ऐसे कथन को सुनकरश्रीराम जी ने लक्ष्मण जी को विदा किया। २२० उस समय रामकेचरण मैं नतमस्तक होकर लक्ष्मण जी सरयू की ओर चल्ेगये। नदीकेतट पर प्राणायाम् करके जहाँ हरि थे, उसी धामको चले गये। इसप्रकार नरलोक को छोडकर जैसे ही लक्ष्मण परमधाम पहुँचे, ब्रह्मादि शेषकी सेवा मैं भेंट करने के लिए एकत्न हो गये। २२९ जब लक्ष्मण जी"के साथ वियोग हुआ तब भगवान् राम ने अति दुखी होकर, अत्यन्तव्यंथित होकर, मन्त्रियों को ऐसी आज्ञा दी कि मैं तो जहाँ लक्ष्मण गयेहुँ, वहीं जाता हुँ। यह राज्य अब भरत करेँ। बे ही राजा होकरइन सव प्रजाजनौं के तापों को दुर करेँ। २३० जब भरत ने इस २३८ बस्थ्याँ ख्वामितलाइ छोडि म कहाँछोरै छ्न् अधिराज् प्रभू ! हजुरका जेठा पुत्र हजूरका इ कुश वीर्उत्तरमा बसि राज् गरी इ लवलेदुई भाइ चलाउँछन् इ जतिछन्दूत् जाउन् मथुरा विषे किन उसै सुनूत् लक्षणको पनी ति समचार्साथै जान हजूरका चरणमायस्तो बिन्ति हजूरमा भरतलेपाया थाह र ताप् भयो मनमहाँबिन्ती एक बशिष्ठले तहि गच्याठन्छन् सब् दुनियाँ यहाँ हजुरकोसुन्नुभो तहि यो वशिष्ठ क्रषिलेठाकुरको पनि खुप् दया हुन गयो भानुभक्त-रामायण तीन् लोक बक्स्या पनि।राजूका इन हुन् धनी ॥२३१॥ राज् कोसलैमा गरुन् ।सम्पुणंको तापू हरुन् ॥सब् राज्यको काम् यहाँ।शब्नुध्न बस्छन् तहाँ ॥२३२॥। पौँच्या परम् धाम् भनी ।दौडेर आउनू पति ॥गर्दा प्रजाले पनि ।जानन् कि छोडी भनी ॥२३३॥। लाचछ्न् कि छोड्छन् भनी ।पाउन् प्रसाद् ई पनि॥बिन्ती गच्याको जसै ।ती सब् प्रजामा तसै ॥२३४॥ आज्ञा को सुना तब मूछिति के समान उन्होने राम की सेवा मै उपस्थितहोकर ऐसी विनती की कि यदि मुझे तीनों लोक भी देने की क्वपा करेतब भी मैं श्रीमन् को छोडकर कहाँ रहृता? अधिराज प्रभु श्रीमन् केपुत्र हँ वे ही इस राज्य के स्वामी हैँ। २३१ श्रीमन् के ज्येष्ठ पु वीरकुश कोशला मैं राज्य करेँ। उत्तर मैं रहकर कुमार लव सस्पूणलोक के तापको हरेँ। यै दोनों भाई राज्यके सम्पूर्ण कायंजोभीहाँ, संचालन करेँगे। मथुरा मैं जहाँ शब्रुध्न रहते हँ, दुत को भेजाजाये । २३२ लक्ष्मण के परमधामको चले जानेका समाचार भी सुनले और आफके प्रस्थान होने की सूचनासे भी अवगत हो जायें, ताकिबे तुरन्त दौइकर आपके चरणोंमै आसकें। भरत द्वारा श्रीरामकीसेवा मैं ऐसी विन्ती करने पर प्रजाओ को भी उनके छोडकर जानेकीबात का पता चल गया और वे सब मन में अत्यन्त पीडित हुए । २३३उसी समय वशिष्ठ जी नेविनती कीकि वे सबको अपने साथ लेतेजायँगे अथवा सबको छोडदंगे । श्रीमन् का प्रसाद प्राप्त करने के लिएयहाँ सारा लोक रुदन करेगा। वशिष्ठ जी के द्वाराकी गयी इसविनती को सुनने पर उन सब प्रजाओं के' ञपर ठाकुर (रामको) कोबहुत दया आयी । २३४ बताओ, क्या इच्छाहै? सब पूर्ण करंगा।ऐसी आज्ञा होने पर सबने साथ जाते के लिए प्रभु से विनती की) और नेपाली-हिन्दी इच्छा क्या छ बताउ पूण गरँलासबूले बिन्ति गग्या प्रभू सित तहाँइच्छा पुणे हवस् भनी हुकुम भोउत्तर् कोसलमा दुवै ति कुश लवकेही दूत् मथुरा तरफ् प्रभुजिलेदूत् पौँच्या रघुनाथका हुकुमलेदृत् देखी समचार् सुन्या प्रभुजिकोछोरालाइ रजाइँ दी प्रभुजिथ्येजेठा पुत्न सुबाहुलाइ मथुरायुपूलाई विदिशा दिया र ति गयाजल्दी गैंकन पाउमा परि तहाँसाथै जान भनेर आज रखुनाथ्लौ मध्याल्व हुँदा तयार् भइरह्याआया राक्षस क्रक्ष बानरहरूजान्छौं आज सँगै प्रभो ! हजुरकासुग्रीव्जी पनि बिन्ति गर्ने रघुनाथ्-अङ्गदू्लाइ रजाइँ दीकन यहाँआयाको छु दयानिधान् ! हजुरमा प्रभु ने सबकी इच्छा पूर्ण होने का आशीर्वाद दिया । प्रसन्न हुए। ३३९ भन्त्या हुकम् भो पनि।सब् साथ जान्छौं भनी ॥सब् ती प्रजा खुश् भया ।राज् गने खातिर गया॥२३५।॥जल्दी पठाईदिया ।शत्रुघ्न जाहाँ थिया ॥शत्नुध्तन जीले जसै ।ती जान आँट्याँ तसै ॥२३६॥।नै राजधानी दिया ।जाहाँ रघूनाथू थिया ॥यो बिन्ति लाया पनि ।आयाँ हजूर्मा भनी ।॥॥२३७।।यस्तो हुक्म् भो तहाँ।सब् एति सुन्दा महाँ॥यै बिन्ति सबूले गण्या ।जीका अगाडी सच्या ॥३८॥जाँलाँ म साथै भनी ।यो बिन्ति लाया पनि ॥ वे सब प्रजाजन भी उत्तर कोशल मैं वे दोनों कुश और लव राज्य करनेके निमित्त चले गये । २३५ कुछ दूतोंको प्रभुजी ने मथुरा की ओर तुरतभेज दिया। रघुनाथ जी को आज्ञा से द्वृत शत्नुध्न के समक्ष पहुँचे । जैसेही शत्नृष्न जी ने दूत के द्वारा प्रभु जी का समाचार सुना, उन्होने भी अपनेपुब्न को राज्य साँपकर प्रभुजी के साथ जानेकी तैयारी की। २३६ज्येष्ठ पुत्र सुबाहु को मथुरा की राजधानी सौँपदी। औरयूप कोविदिशा सौँपने के पश्चात् वे शीघ्र रघुनाथ के पास चले गये। तुरन्तजाकर पाँवो मै पड्कर यह विनती की कि- हे रघुनाथ ! मैं आज आपकेसाथ जाने के लिए सेवा मैं उपस्थित हुआ हुँ। २३७ सध्याह् होने परतैयार रहने की आज्ञा दी गयी । यह सुनते हौ सब राक्षस, रिक्ष तथा वानरआदि आ पहुँचे और सबने सेवा मैँ यही विनती कीकि प्रभु! हमभीसब साथ ही चलेंगे। सुग्रीव जी भी रघुनाथ जी के सम्मुख विनती करनेहेतु अग्रसर हुए । २३० उन्होने अनुरोध किया कि अंगद को राज देकर मैं टो ३४० सुग्रीव्को अरुको ति क्रक्षहरुकोप्यारा भक्त जहाँ विभीषण थियाताहाँ गैकन यो हुकूम् पत्रिभयोप्रारब्धै बलवान' छ जान सबकोजाहाँसम्म रहन्छभुमि तहि तक्शिक्षा गर्नु सबै प्रजाकन बहुत्यस्को उत्तर छैन चुप् रहु भनीतेसै ठाउँ महाँ तुरन्त हनुमान्हकम् भो हनुमानलाइ हनुमात् !,मेरो जुन् छ हुकम् उ गर्ने सब दिन्बुद्धीमान् तहि जास्बवानू पनिथियातिनूलाई पत्ति यो हुकूम् हुन गयोद्वापर्मा कछु युद्ध गर्नु तिमिथ्येस्वर्गेमा तिमि जाउला पछि भन्या भानुभक्त-रामायण बिन्ती सुन्याथ्या जसै ।ताहाँ गया राम् तसै ॥२३९॥बस्नू तिमीले यहीं ।खछुट्तैन सो ता कहीँ॥राज् गर्नु याह्ीँ बसी ।अन्यायिलाई कसी ।॥२४०।।हृक््म् भएथ्यो जसै ।जीलाइ देख्या तसै ॥चीरञ्जिवी भै रह्या ।अत्यन्त तत्पर् भया ॥२४१॥।जालाँ म साथै भनी ।बस्नू तिमीले पनि ॥पर््याठ सोही गरी ।ऐले त यस्तै परी ॥२४२।॥। यस्ता रीत् सित जो अह्वाउनु थियो सो सब् अह्वाई वरी।सब् प्राणीहरु साथमा हिँड भनी हकूम् भयो तेस् घरी ॥भी साथ जाउँगा। अतः दयानिधान, मैं श्रीमन् की सेवा मैँ आयाहँ। इस प्रकार सुग्रीव तथा अन्य रिक्ष आदिको का कथन सुनने के बादराम, उनके परम भक्त विश्वीषण जहाँ थे, वहाँ चले गये। २३९ बहाँ जाकरआज्ञा देने की क्रपाकी कि तुम यही रहना । समय अत्यन्त बलवान है,अतः कहीँ भी सबको छुटकारा नहीँ मिलता। इसेजानो। जब तकधरती रहेगी तब तक यहीं रहकर रास करना । सब प्रजाजनोको शिक्षादेना और अन्यायियों को अनुशासित करना । २४० इसकां कोई उत्तरतहीं है ! अतः जैसे ही चुप रहने के लिए आज्ञा देने की क्रपाकी, उसीस्थान पर तुरन्त हनुमान जी को उपस्थित पाया। हनुमानको आज्ञादीकि हे हनुमान ! चिरंजीवी होकर रहो और मैं जो कङ्गै उसका पालनकरने के लिए सदैव तत्पर रहना । २४१ बुद्धिमान जामवंत भी साथहीजानेके उद्देश्य से वहाँ आ गये थे परन्तु उन्हँ भी वहीं रहने की आज्ञाहुई, कहा कि ट्वापरयुग मैं तुम्हारे साथ युद्ध करता होगा और उसके समापनहोने पर तुम .स्वगं को जाओगे, अतः अभ्री इसी प्रकार रहो । २४२इस रीतिसे जो कुछ भी बताना था, सव कहने के पश्चात् सब प्राणियोंको साथ मै चलने की आज्ञा दी। श्रीरघुनाथ की आज्ञा सुनकर नेपाली-हिन्दी ३४१ हकूम् श्रीरघुनाथको जब सुन्या आनन्द मानी तब ।आफाफ्ना परिवार् लिएर सँगमा जम्मा भए ती सब ॥२४३।॥।आफ्ना पुरोहित् ति वशिष्ठलाई ।हूकृम् भयो मङ्गल गर्नेलाई ॥मङ्गल् अनेकन् क्रषिले गराया ।राम् स्वगै जानाकन तिस्कि आया ॥२४४।।सीताजिले रूप अघिको छिपाइन् ।लक्ष्मी भई वामूतिर बस्न आइन् ॥।दक्षिण तरफ् भूमि बसिन् हरीका ।सब् ताहि आया भुवनै भरीका ॥२४५॥।शस्ल्वास्तर सब् ती पत्ति रूपधर्दै।हिड्दा तहाँ मंगल शब्द गर्दै ॥गायति चार् वेद् पत्ति ताहि आया ।ख्पू धारि मंगल् यश शब्द गाया॥॥२४६।॥।जो ता अयोध्या पुरवासि थीया ।तिन्ले सँगै सब् परिवार लीया ॥बालो बुढो कोहि रहेन ताहाँ। .- सब्को गयो मन् उहि रासमाहाँ ॥२४७।॥।सुग्रीवूहखु वानर मुख्य आया ।सब् पाप छुट्यो भन्ति हर्ष पाया॥ सब आनन्दित हुए और अपने-अपने परिवारों को साथ लेकर वे सबएकत्रित हुए । २४३ अपत्ते पुरोहित वशिष्ठ को मंगल करने के लिएआज्ञादी। त्रद्रषिने भी अनेक प्रकार से मंगल किया। भगवान् रामने स्वगे जाने के लिए प्रस्थान किया। २४४ सीताजीने पहलेके खूपका त्याग किया और लक्ष्मी बनकर बाँयीं ओर बैठने के लिए आ गयी ।हरि के दक्षिण की ओर धरती विराजमान् हुई। भुवन भर के सबप्राणी वहीं आ गये । २४५ गशस्त्वास्त भी सब छूप धारण करते हुए मंगल-शब्दों का उच्चारण करते हुए चले । गायल्ली तथा चार वेद सभीआये और रूप धारणकर मंगलन्यश् का गान करने लगे। २४६ जोअयोध्यापुरी के निवासी थे, उन्होने सब परिवारों को साथ ले लिया।बाल-्वृद्ध कोई भी वहाँ शेष नहीं रहा। सभी के मन भगवान् राम मैंसमा गये । २४७ सुग्रीव तथा वानर आदि मुख्य खूपसे आये और यह
३४२ भागुभक्त-रामायण जो लोक् थियो रासूसित जान गैगो । गुलूजार् अयोध्या पनि शुन्य भैगो ॥२४०॥छोडी शहर् क्यै गइ भूमिमाहाँ । देख्या प्रभूले सरगम र ताहाँ ॥आफ्नो विराट् रूपूकन संझिलीया । आफै त सब्का पनि नाथ थीया ॥२४९॥। ब्राह्मा क्रषी देव र सिद्ध आया।आकाश् विमानूले भरि छुट्टि छाया ॥श्रीराम् उपर् खुप्सित पुष्पवृष्टि ।सब् गर्ने लाग्या उाह् लाइ दृष्टि ॥२५०॥।गाउँछन् कहि नाच्तछन् प्रभुजिकै यश् मात कीतेन् गरी।यै बीचमा रघुनाथ् पस्या सरयुमा सबूका अगाडी सरी ॥ब्रह्माको पनि ताहि औसर पच्यो हात् जोरि बिन्ती गरया ।सब्को ताप् अब गैगयो सकल लोक् आनन्द सागर् पच्या ॥२५१॥।ख्वामित्ले अब विष्णुको उप लिने बेला भएथ्यो भनी ।पाप्या बिन्ति र होइ बक्सनु भयो श्रीराम् चतु्भुज् पत्ति ॥जो शब्नध्न भरत् थिया दुइ जना ती शंख चक्रे बनी।ख्वामितृका तहि बाहुमा बसिगया बस्त्या यहीँ हो भनी।॥२५२॥। 000000000000000000000लललललललललणिणणिणिणििििििििजानकर कि सब पापों से छुटकारा मिला, अत्यन्त हषित हुए। राम केसाथ जो जानेवाले थे, सब साथ चले गये । रमणीक अयोध्या में निस्तब्धताछा गयी। २४८ शहर छोड्कर कुछ द्वूर चले जानेकै बाद प्रभुनेसस्यू के दशैंन किये और वहाँ अपने विराट् खूप का स्मरण किया, जोस्वयं ही सबके नाथ थे । २४९ ब्रह्मा, त्रद्षि, देव तथा सिद्ध लोगभीआगे । आकाश विमानो से घिरगया। श्रीराम के झपर महान् पुष्पवृष्टिकी गयी। सब लोग उन्हीँ की ओर दृष्टि लगाये थे । २५० सबलोग प्रभु के यश का कीतँन और नृत्य करते हुँ। इसी बीच श्रीरधुनाथन्ने सबके समक्ष आगे बढ्कर सरगू मैं प्रवेश किया । ब्रह्माको भीवहीअवसर प्राप्त हुआ और हाथ जोइकर विनती की। सबका ताप अबहरण हो गया है तथा सकललोक आनन्दसागर मैं मग्न है। २५११ श्रीमन्द्वारा अब विष्णु का खूप धारण करने का समय हो गयाहै। ऐसीविनती करने पर चतुर्भुज श्रीराम ने हँसने की क्रपाकी। शतृष्न औरभरत दोनौं शंख और चक्र बन गये और स्वामी की बाँ मै विराजमान नेपाली-हिन्दी ब्रह्माण्डै सब देवगण् खुशि भयाब्रह्यालाइ हुक्म् गथ्या प्रभुजिलेहे ब्रह्वान् जति जन् थिया शहरमाआया सब् परिवार् लिएर सँगमायिनूलाई गुभ लोक देउ तिमिलेआफ्ना सब् परिवारले सँग रहीब्रह्माले प्रभुको हुक्म् यति सुनीसब्लाई सुखभोग गर्नेकत एक्ती लोक्ले पनि खुश् भएर सरयु-जुन् सान्ताविक लोक हो उहि पुगीसुग्रीव् सूग्यंविषे गई सिलिगयाभुभार् यै रितले हरेर रघुनाथ्येती समात्न कह्या सदाशिवजिलेजसूले यस्ूकन पाठ गर्छे मनलेतिन्का जन्म सहस्रका जति त छन्सब् षट्शास्त बताउँछन् पढिलिया ३४३ यो ख्प देख्या जसै ।सब् प्राणि खातिर् तसै॥सब् साथ छान्छौं भनी।लाग्या पछाडी पनि ॥२५३।॥।सत् लोकमा बास् गख्न्।आनन्दमा ई प्न् ॥हृकुम् शिरोपर् लिया ।लोक खटाई दिया ॥२५४।सा स्तान सब्ले गरया । आनन्दमा ती पप्या॥अंशै हुनाले गरी ।वैकुण्ठ पौँच्या हरि ॥२५५।॥।ती पार्वतीथ्यै पनि ।अत्यन्त खूशी बनी ॥ पाप् भस्म हुन्छन् भनी ।तछैन् दुनीयाँ प्नि ॥२५६॥। हो गये, क्योंकि उनका वही स्थान था । २१२ त्नह्या के सब देवगण उस रूप को देखकर प्रसन्न हुए ।आज्ञादी। लोक दे देना जिसमेंये सब जन रहेँ।कर आनन्द मै मग्न रहेँ । प्रभु जी ने सब प्राणियौं के लिए ब्रह्माकोहेब्रह्मा ! शहर मै जो लोग थे सब साथ चलने के लिए सबपरिवारों को साथ लेकर पीछरे-पीछे चले आये हैँ। २५३ झ्न्हैँ तुम शुभअपने सब परिवारौं के संग रह प्रभुकी इस आज्ञाको सुनकर ब्रह्मा ने इसे शिरोधाये किया । सबको सुख भोग करने हेतु एक लोक ही की सृष्टिकर दी। २५४ उस लोक मेँ भी सबने प्रसन्न होकर सरयू मै स्नान किया ।जो सांतातिक (वंश उत्पन्च करनेवाले) जन थे, वहाँ पहुँचकर आनन्द मेमग्न हो गये। सुग्रीव सूयं का अंश होने के कारण उसीमेँ जाकर विलीनहो गये। इस रीति से भ्रूरभार को हरण करके श्रीरघुनाथ बैकुण्ठपुरीपहुँचे । २९५ सदाशिव ने पार्वती जी से कहा कि जो मन से इस राम-चरित्न को अत्यन्त महान् समझकर इसका पाठ करता है उनके सहस्नजन्मों के पाप जो कुछ भी हाँ, सब भस्म हो जाते हैँ। सब षटशास्त्ोका कथन है कि इसके पाठ से संसार से तरण हो जाता है । २५६ श्राम्भुद्वारा पा्वती को अत्यन्त प्रसञ्च होकर प्रेसपुवंक कही गयी ये सब बातेँ ३४४ भानुभक्त-रामायण शम्भूले पार्वतीथ्यै खुशि भइ बहुतै प्रेम पुर्वेक् कह्याको ।संसार पार् तनेलाइ सबकन सजिलो साँघु झैँ भै रह्याको ॥जानी यस््लाइ जोता जतहरु बहुतै प्रेमले पाठ गर्छन् ।संसारका सौख्य सब् भोग् गरिकन दुनियाँ सब् सहज् पार तछँन् ॥ ॥ श्री उत्तरकाण्ड समाप्त ॥ सबके लिए संसारपार तरने के लिए एक सरल माग रूपहैँ। इसेजानकर जो लोग अत्यन्त प्रेम से पाठ करते हुँ, संसार के सब सुखोँ को भ्ोगकर संसार से तर जाते हैँ। २५७ ॥ भानुभक्त विरचित नेपाली रामायण समाप्त ॥